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सोमवार, अक्तूबर 03, 2011

आदरणीय आडम्बर जी

             वे किस दर्ज़े के  थे मैं नहीं समझ पा रहा हूं. लेकिन उनका दर्ज़ा सबसे ऊंचा है वे ऐसा जतलाते थे सो सब मानते थे भी ऐसा ही.. लोगों से एक निश्चित दूरी सहज ही स्थापित करने वाले वे "जी साहब"  मेरी नज़र में आदरणीय आडम्बर जी  थे . उनके  सामने तो न कहता था पर अक्सर सोचता था अपने दिल की बात कह दूं उनको. 
         थे तो नहीं पर ड्रेस-कोड मक़बूल दद्दा की घांईं (के समान). किसी ने झूठ-मूठ पूछा कि दादा बहुत दिनों से दर्शन नहीं हुए ..? बस बताय देते थे-”अरे, आजकल फ़ुरसत किसको है, अब बताओ आपके घर ही न आ सका गुप्ता जी के नि:धन पर दिल्ली गया था ”लौटा तो जाना कि गुप्ता जी की असमायिक ..किसी को मुम्बई की सेमिनार का झटका तो किसी हो आगरे में पेंटिंग प्रदर्शनी की व्यस्तता का किस्सा गाहे बगाहे सुनाया करते जाते तो थे पर पाटन-शहपुरा से आगे नहीं. 
                  गुप्ता जी का लड़का पूरे शहर की खबर रखता था. उसे मालूम था आडम्बर जी का पूरा दिन कहवाघर में रात दारू खोरी में बीतती है, मन ही मन हंस दिया उसे यह भी तो मालूम था कि बाबूजी की शवयात्रा में  उनका लड़का आया था शमशान में किसी से  कह रहा था "पापा न आ पाए कल देर रात लौटे" उन दिनों हमारे मुहल्ले में रेल-कर्मी, पुलिस वाले, जैसे लोग ही रोज़गारीय मज़बूरी के  देर से आते थे. आडम्बर जी का  देर रात किसी का लौटने की वज़ह सिवाय दारू खोरी में मस्त रहने से इतर कुछ न होती.  
         आडम्बर जी को अपनी पेंटिंग के आगे बाक़ी सब की बनाई पेंटिंग्स "छिपकली के पंजों से बनी लक़ीरों" की सी लगतीं थीं जो बिखरी स्याही पर से सरपट आई हो.यानी कुल मिला कर हज़ूर की के अलावा कोई न तो था न है .. शायद न रहेगा भी यदी इनका पुनर्जन्म न हुआ तो. हमारी भी मूंछें रुएं के रूप में निकलने लगीं थीं कुछ तुकबंदी कर कुरा के बसस्टैंड वाले "नवभारत" प्रेस जाया करते थे. तुकबंदी छपवाने. अपने मोहन शशि जी उसे ठोंक-पीट कर सुधार देते और छाप देते नामवर हो गए थे उन दिनों ही  पर स्वांग रचाना न सीख पाए आज तलक. कवि कथाकार, उपन्यासकार, चित्रकार गोया अब ब्लागर भी   एक असामान्य सा लबादा क्यों ओढ़ा करते हैं इस बात पर एक मनोवैग्यानिक अनुसंधान कराने की मंशा है.
हम से बड़ा कौन ? 
         इस तरह के लोग बस एक खोल में जीते हैं, जैसे कि प्याज़.और आप जानते ही हैं  प्याज़ के  भीतर कहां है प्याज़ इसका अंदाज़ा लगाने जाओ तो सिर्फ़ आंसू ही निकलेंगे.एक कवि जो कवि क्या कविता की फ़ुल टाईम फ़ैक्ट्री हैं की अब तक बीसेक किताबें तो छप गईं. इधर ससुरे अपन को किताब छपाना और फ़िर उसे आम पाठक तक पहुंचाने के नाम पर पसीना निकल आता है वो कैसे इतना कर गुज़रे उनका किताब छपाना कागज़ की बरबादी से इतर कुछ खास नहीं. अरे उनको कौन समझाए भार्तेंदु की ड्रेस पहन लेने से कोई कालजयी कृति नही लिख पाता लिखने वाले के विचारों में एक फ़लसफ़ा होता है. कविता यदी जीवंत न हो तो कितनी भी शास्त्रीय सीमाओं में लिखी जाए धन, कागज,स्याही और वक़्त  की बरबादी से अधिक कुछ नहीं. 
    आपसे बड़ा कौन है इस बात को आप कबीर तुलसी,आदि आदि से जान सकते हैं. हमारे भाई आडम्बर जी रविवर्मा या मक़बूल दद्दा से पूछ लें कि महान कलाकार कैसे बना जाता है. 

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