"माई री मैं कासे कहूं पीर .... !"
विधवा जीवन का सबसे दु:खद पहलू है कि उसे सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकारों से आज़ भी समाज ने दूर रखा है. उनको उनके सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकार देने की बात कोई भी नहीं करता. जो सबसे दु:खद पहलू है. शादी विवाह की रस्मों में विधवाओं को मंडप से बाहर रखने का कार्य न केवल गलत है वरन मानवाधिकारों का हनन भी है. आपने अक्सर देखा होगा ... घरों में होने वाले मांगलिक कार्यों में विधवा स्त्री के प्रति उपेक्षा का भाव . नारी के खिलाफ़ सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस करना ही होगा . किसी धर्म ग्रंथ में पति विहीन नारी को मांगलिक कार्यों में प्रमुख भूमिका से हटाने अथवा दूर रखने के अनुदेश नहीं हैं. जहां तक हिंदू धर्म का सवाल है उसमें ऐसा कोई अनुदेश नहीं पाया जाता न तो विधवा का विवाह शास्त्रों के अनुदेशों के विरुद्ध है.. न ही उसको अधिकारों से वंचित रखना किसी शास्त्र में निर्देशित किया गया है. क्या विधवा विवाह शास्त्र विरुद्ध है? इस विषय पर गायत्री उपासकों की वेबसाइट http://literature.awgp.org/hindibook/yug-nirman/SocietyDevelopment/KyaVidhvaVivahShastraViruddhHai.1 पर स्पष्ट लिखा है क