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बुधवार, नवंबर 14, 2012

मेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे ..!!

                                           
                                 किश्तें कुतरतीं हैं हमारी जेबें लेकिन कभी भी हम ये सोच नहीं पाते कि काश कि हमारे पांव के बराबर हमारी चादर हो जाये जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल जिसका ये शेर सबकी अपनी कहानी है.... 
और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे ..!!
साभार : रानीवाड़ा न्यूज़
     पर क्या लुभावने इश्तहारों पर आश्रित बेतहाशा दिखा्वों के पीछे भागती दौड़ती हमारी ज़िंदगियां खुदा से इतनी सी दरकार कर पातीं हैं........ न शायद इससे उलट. जब भी खु़दा हमारी चादर हमारे पैरों के बराबर करता है फ़ौरन हमारा क़द बढ़ जाता है. यानी कि बस हम ये सिद्ध करने के गुंताड़े में लगे रहते हैं कि हम किसी से कमतर नहीं .
    बया बा-मशक्कत जब अपना घौंसला पूरा कर लेती है तो सुक़ून से निहारती है.. मुझे याद है उनकी हलचल घर के पीछे जब वो खुश होकर चहचहाती थी.  तेज़ हवाएं  भी उसके घौंसले को ज़ुदा न कर पाते थे आधार से... ! 
वो सुक़ून तलाशता हूं घर बनाने वालों में........ दिखाई नहीं देता. अपने चेहरों पर अपने मक़ान को घर बनाने वाला भाव आना चाहिये जो बया के चेहरे पर नज़र आता है हां वो भाव  जो दिखता नहीं हमारे चेहरों पर जो भी कुछ है सब आर्टिफ़ीशियल .. जैसे बलात कोई मुस्कुराहट हमारे लबों पे चस्पा किये जाता हो.. या मुस्कुराहटें हमारी मज़बूरियां हों. 
    तिनका तिनका तलाशती बया खूबसूरत घर बनाती तब से मुझे (आपको भी) लुभाती होगी  किया कभी आपने. पर एक नातेदार के घर पर बुलाया हमको गृह-प्रवेश जो था.. चेहरे पर उनके  बया वाले भाव की तलाश अचानक तब थमी जब गृह स्वामी ने कहा -"बीस बरस चलेंगी किश्तें.."
यानी बीस बरस तक वो आभासी मालिक-ए-मक़ान होगा.. किश्तों के साथ हौले हौले स्वामित्व का  एहसास पैकर (मूर्त होगा) होगा. तब तक एक तनाव होगा उसके मानस पर जो देगा बीमारियां.. शुगर.. हार्ट.. हां कभी कभार  हंसेगा ज़रूर भवन स्वामी परंतु  कृत्रिम तौर पर.
           कर्ज़ के मक़ान, कर्ज़ का सामान, कर्ज़ की ज़िंदगी   जो किश्तों में मुस्कुराती है..आज़ाद भारत के हम भारतीय अमेरिकियों की मानिंद खोखले धनवान होने की क़गार पर हैं..!
क्रेडिट के विस्तार ने अमेरिका को ज़मीन दिखा दी लेकिन हमारे देश में आने वाले दस वर्षों में क्रेडिट का यह  भयावह खेल पाताल दिखाएगा. काश हम इस लापरवाह अर्थ व्यवस्था और अपनी बेलगाम लालच पर लग़ाम न कस सके तो तय है कि कल बहुत भयावह होगा....................
ताज़ा ताज़ा 18.11.2012
 यशभारत में यह आलेख


     
              

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