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श्रीराम ठाकुर "दादा"

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"दादा ,वहाँ न जाइए,जहाँ मिलै न चाय " ये मेरी जमात के किन्तु मेरे से आयु में बड़े चाय के शौकीन साहित्य सेवक हें दुनियादारी और साहित्य की दुकानदारी से दूर दादा सोहागपुर के वासिंदे होते अगर टेलीफोन विभाग में न होते । जबलपुर रास आया आता भी न तो भी क्या करते रोटी का जुगाड़ सब कुछ रास ले आता है। हम तो दादा के दीवाने इस लिए हें क्योंकि दादा साफ सुथरे ईमानपसंद सुदर्शन भाल वाले साहित्य के वटवृक्ष हें । इन्हौने सबको पढ़ा है लिखा अपने मन का। ठाकुर दादा प्रायोजित सम्मानों के लिए दु:खी हें। आज के दौर के साहित्य के लिए आशावादी तो हें किन्तु दूकानदारी यानी "आओ सम्मान-सम्मान,खेलें " के खेल से बचाते रहते हें अपने आप को ..... इनको शुरू में कविताई का शौक था परसाई जी ने कहां भाई गद्य लिख के देखो लिखे और जब चौके-छक्के, लगाए तो हजूर छा गए अपने "दादा" .....! सौरभ नहीं अपने ठाकुर दादा....!! इनकी अगुआई में पाठक-मंच की गोष्टीयां होती हें कुछ दिनों से बंद क्यों ....? ये न पूछा गया मुझसे। वो यही कहते यही न "कि लोगों के पास टाइम नहीं है...!" ठाकुर दादा को आप चाय पर बुलाइए, 07