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’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह : दिनांक18/01/२०११
आधिकारिक रपट
(देर के लिये माफ़ी नामा सहित ) उस दिन किसी ने कहा देश विदेश में ख्याति अर्जित करेगी किताब,तो किसी ने माना जिगरा है समीर में ज़मीन से जुड़े रहने का, तो कोई कह रहा था वाह अपनी तरह का अनोखा प्रवाह है. किसी को किताब बनाम उपन्यासिका- ’ट्रेवलाग’ लगी तो किसी को रपट का औपन्यासिक स्वरूप किंतु एक बात सभी ने स्वीकारी है कि: ’समीरलाल एक ज़िगरे वाला यानि करेज़ियस व्यक्ति तो है ही लेखक भी उतना ही ज़िगरा वाला है…!’
जी हां, यही तो हुआ समीरलाल की कृति ’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह के दौरान दिनांक 18/01/2011 के दिन कार्यक्रम के औपचारिक शुभारम्भ में अथितियों स्वागत पुष्पमालाओं से किया गया फ़िर शुरु हुआ क्रमश: अभिव्यक्तियों का सिलसिला सबसे पहले आहूत किये गये समीर जी के पिता श्रीयुत पी०के०लाल जिन्हौंने बता दिया कि-’हां पूत के पांव पालने में नज़र आ गये थे जब बालपन में समीर ने इंजिनियर्स पर एक तंज लिखा था.
श्रीमति साधना लाल को जब आहूत किया तो पता चला कि वे इस बात के लिये तैयार तो न थीं फ़िर भी उनने सभी के प्रति कृतज्ञता अंत:करण से व्यक्त की.
समीर स्वयम कम ही बोले मुझे लग रहा था कि समीरलाल काफ़ी कुछ कहेंगे – किताब पर, उड़नतश्तरी पर, किंतु समीर जी बस सबके प्रति आभारी ही नज़र आये. संचालक के तौर पर मेरी सोच पहली बार गफ़लत में थी. समीर भावुक थे उनने अपनी अभिव्यक्ति में कहा –“किसी रचना कार के लिये उसकी कृति का विमोचन रोमांचित कर देने वाला अवसर होता है जब संपादक श्री ज्ञानरंजन जी डा० हरिशंकर दुबे सहित विद्वतजन उपस्थित हों तब वे क्या कहें और कैसे कहें कितना कहें आभारी व्यक्त करते रहे अपनी अभिव्यक्ति में ” श्रीयुत श्रवण कुमार दीपावरे का कथन कोट करना ज़रूरी है यहां :-”मुझे नहीं मालूम ब्लाग क्या है, समीर लाल किस ऊंचाई पर है. मुझे तो वो पिंटू याद है जो आज़ भी पिंटू ही है पिंटू ही रहेगा.भोला भाला स्रजनशील हमारा पिंटू.यानी सभी जैसे समीर जी के बचपन के मित्र , राकेश कथूरिया लाल परिवार के समधी दम्पत्ति श्रीमति-श्री दीवान सहित सभी उपस्थित जन बेहद आत्मिक रूप से आयोजन से जुड़ गये थे
कवि-लेखक एवम ब्लागर डा० विजय तिवारी ’किसलय’के शब्दों में
भाई समीर लाल ’समीर’ की पुस्तक ’देख लूँ तो चलूँ’ पर बात करने के पूर्व उनके बारे में बताना भी आवश्यक है क्योंकि कृति और कृतिकार, संतान और जनक जैसे होते हैं. जनक का प्रभाव अपनी संतान पर स्पष्ट रुप से देखा जाता है.
अड़तालीस वर्षीय भाई समीर जी पैदा तो हुए थे रतलाम में, परन्तु अध्ययन एवं संस्कार संस्कारधानी में प्राप्त किये. आप म.प्र. विद्युत मंडल के पूर्व कार्य पालन निर्देशक इंजी श्री पी.के.लाल जी के सुपुत्र हैं. चार्टर्ड एकाउन्टेन्सी भारत में एवं मेनेजमेन्ट एकाउन्टेन्सी अमेरीका से की. सन 1999 के बाद आप कनाडा के ओन्टारियो में निवास करने लगे. कनाडा के एक प्रतिष्ठित बैंक में तकनीकी सलाहकार होने के साथ साथ आप टेक्नोलाजी पर नियमित लेखन करते हैं.
आपका एक लघुकथा संग्रह ’मोहे बेटवा न कीजो’ के साथ ही वर्ष 2009 में चर्चित एवं लोकप्रिय काव्य संग्रह ’बिखरे मोती’ भी हिन्दी साहित्य धरोहर में शामिल हो चुके है. इसमें गीत, छंदमुक्त कविताएँ, गज़लें, मुक्तक एवं क्षणिकाएँ समाहित हैं. एक ही पुस्तक में पाँच विधाओं की ये अनूठी पुस्तक भाई समीर के चिन्तन का प्रमाणिक दस्तावेज की तरह है.
मित्र के गृह प्रवेश की पूजा में अपने घर से 110 किलोमीटर दूर कनाडा की ओन्टारियो झील के किनारे बसे गाँव ब्राईटन तक कार ड्राईव करते वक्त हाईवे पर घटित घटनाओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन श्रृंखला ही ’देख लूँ तो चलूँ’ है. यह महज यात्रा वृतांत न होकर समीर जी के अन्दर की उथल पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का भी सबूत है. अवमूल्यित समाज के प्रति चिन्ता भाव हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि इस किताब के माध्यम से मानव मानव से पाठक पाठक से सीधा सम्बन्ध बनाने की कोशिश है क्योंकि कहीं न कहीं कोशिशें कामयाब होती ही है.
लेखक की बाल सुलभ संवेदनायें जागृत होती हैं और हाई वे पर बच्चों द्वारा कॉफी सर्व करने पर भारत और कनाडा में बेतुका फर्क पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं. भारतीय बच्चों का काम करना बाल शोषण और कनेडियन बच्चों का काम करना पर्सनालिटी डेवेलपमेंट कहा जाता है. उनका मानना है कि बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की बात भला कैसे पर्सनालिटी डेवेलपमेंट हो सकती है.
युवा विचारक एवम सृजन धर्मी श्री पंकज स्वामी ’गुलुश’(पब्लिक-रिलेशन-आफ़िसर म०प्र० पूर्व-क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी) की अभिव्यक्ति सुनिए
समीक्षक इंजिनियर ब्लागर :- श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव
एक ऐसा संस्मरण जो कहीं कहीं ट्रेवेलाग है, कहीं डायरी के पृष्ठ, कहीं कविता और कहीं उसमें कहानी के तत्व है। कहीं वह एक शिक्षाप्रद लेख है, दरअसल समीर लाल की नई कृति ‘‘देख लॅू तो चलूं‘‘ उपन्यासिका टाइप का संस्मरण है। समीर लाल हिन्दी ब्लाग जगत के पुराने, सुपरिचित और लोकप्रिय लेखक व हर ब्लाग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले चर्चित टिप्पणीकार है। उनका स्वंय का जीवन भी किसी उपन्यास से कम नहीं है। ‘‘जब वी मेट‘‘ के रतलाम से शुरू उनका सफर सारी दुनियां के ढेरो चक्र लगाता हुआ निरंतर जारी है। उनकी हृष्ट पुष्ट कद काठी के भीतर एक अत्यंत संवेदनशील मन है और दुनियादारी को समझने वाली कुषाग्रता भी उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। अपने मनोभावों को पाठक तक चित्रमय प्रस्तुत कर सकने की क्षमता वाली भाषाई कुशलता भी उनमें है। इस सबका ही परिणाम है कि जब मैं उनकी नई पुस्तक ‘‘देख लूँ तो चलूँ ‘‘ पढने बैठा तो बस पढ़ लूँ तो उठुं वाली शैली में पूरा ही पढ गया।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार, अग्रणी कथाकार और पहल के यशस्वी संपादक श्री ज्ञानरंजन जी (मुख्य अतिथि ) देख लूँ तो चलूँ में इसको लेकर नायक ऊबा हुआ है. हमारे आधुनिक कवि रघुबीर सहाय ने इसे मुहावरा दिया है, ऊबे हुए सुखी का. इस चलते चलते पन में आगे के भेद, जो बड़े सारे भेद हैं, खोजने का प्रयास होना है. धरती का आधा चन्द्रमा तो सुन्दर है, उसकी तरफ प्रवासी नहीं जाता. देख लूँ तो चलूँ का मतलब ही है चलते चलते. इस ट्रेवलॉग रुपी उपन्यासिका में हमें आधुनिक संसार की कदम कदम पर झलक मिलती है. 50 वर्ष पहले महान ब्रिटिश कवि और एनकाउन्टर के संपादक स्टीफन स्पेंडर ने कहा था कि आधुनिकता धाराशाही हो रही है- माडर्न मूवमेंट हैज़ फेल्ड. भारत में ही देखें, बंगाल, केरल, तामिलनाडु, कर्नाटक, उत्तरपूर्व, महाराष्ट्र और गुजरात में क्लैसिकल और आधुनिकता का एक धीर संतुलन है. जीवन में, कविता में, साहित्य में.यही दृष्य यूरोप में है. समीर लाल भी अपनी जड़ों से प्यार करते हैं पर ऐसा करते हुए लगता है कि जड़ें गांठ की तरह कड़ी और धूसरित हो रही हैं. हमारा देश भी वही हो रहा है धीरे धीरे जैसा प्रवासी का प्रवासी स्थलों पर लगता है.
समीर लाल ने अपनी यात्रा में एक जगह लिखा है- हमसफरों का रिश्ता! भारत में भी अब रिश्ता हमसफरों के रिश्ते में बदल रहा है. फर्क इतना ही है कि कोई आगे है कोई पीछे. मेरा अनुमान है कि प्रवासी भारतीय विदेश में जिन चीजों को बचाते हैं वो दकियानूस और सतही हैं. वो जो सीखते है वो मात्र मेनरिज़्म है, बलात सीखी हुई दैनिक चीजें. वो संस्कृति प्यार का स्थायी तत्व नहीं है.
निर्मल वर्मा जो स्वयं कभी काफी समय यूरोप में रहे कहते हैं कि प्रवासी कई बार लम्बा जीवन टूरिस्ट की तरह बिताते हैं. वे दो देशों, अपने और प्रवासित की मुख्यधारा के बीच जबरदस्त द्वंद में तो रहते हैं पर निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर पाते. इसलिए अपनी अधेड़ा अवस्था तक आते आते अपने देश प्रेम, परिवार प्रेम और व्यस्क बच्चों के बीच उखड़े हुए लगते हैं.
समीर लाल का उपन्यास पठनीय है, उसमें गंभीर बिंदु हैं और वास्तविक बिंदु हैं. मैं उन्हें अच्छा शैलीकार मानता हूँ. यह शैली भविष्य में बड़ी रचना को जन्म देगी. उन्हें मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामना.
इसी क्रम में अध्यक्षीय उदबोधन में डा० हरिशंकर दुबे ने कहा
ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है, इस बात को प्रमाणित करती है यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’. कहा जाता है जह मन पवन न संचरइ रवि शशि नाह प्रवेश- ऐसी कोई सी जगह है जहाँ पवन का संचरण न हो, जहाँ समीर न हो अब समीर इसके बाद यहाँ से कनाडा तक और कनाडा से भारत तक अबाध रुप से प्रवाहित हो रही है और उस निर्वाध प्रवाह में निश्चित रुप से यह उपन्यासिका ’देख लूँ तो चलूँ’ आपके सामने है.
कार्यक्रम के संचालन की जोखिम भरी ज़वाबदारी मुझे मिली थी खरा था खोटा था मुझे नहीं मालूम पर किसी भी कमी के लिये समीर लाल जी सहित उन सबसे माफ़ी ही नहीं विनत निवेदन भी करता हूं कि कमियां ज़रूर बताएं सुधार लूं स्वयम को !!
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पत्रिका जबलपुर 19.01.2011 |
कार्यक्रम के दूसरे चरण में लज़ीज़ व्यंजनों के साथ चाय काफ़ी के साथ भी किताब,ब्लाग, और समकालीन सहित्यिक विमर्श जारी रहा. भाई आनंदकृष्ण का सबसे मिलना जुलना मुझे आकर्षित करता रहा. तो बवाल आदि का खेमा बदल बदल के सबसे मिलना भी बरबस अंतिम चरण को रोचक बनाता रहा. हल्की-फ़ुल्की समीक्षा आयोजन पर होनी थी सो शुरु ही हो गई.थी और इस बीच मौका मिलते ही विदा ली हमने भी सबसे . जैसा कि अब आपसे विदा लेता हूं अगली पोस्ट तक के लिये.