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सोमवार, अक्तूबर 06, 2008

गुजरात का गरबा अब शेष भारत और विश्व का हो गया



जबलपुर का गरबा फोटो अरविंद यादव जबलपुर
जबलपुर का गरबा फोटो अरविंद यादव जबलपुर

गुजरात के व्यापारियों एवं प्रवासियों  ने सम्पूर्ण भारत ही नहीं बल्कि  विश्व को अपनी संस्कृति से परिचित कराया इतना ही नहीं  उसे  सर्व प्रिय भी बना दिया.

गरबा गुजरात से निकल कर भारत के सुदूर प्रान्तों तथा विश्व के उन देशों तक जा पहुंचा है जहाँ भी गुजराती परिवार जा बसे हैं , एक  महिला मित्र प्रीती गुजरात सूरत से हैं उनको मैंने कभी न तो देखा किंतु मेरे कला रुझान को परख कर पहले आरकुट फिर फेसबुक पर  मित्र बन गयीं हैं ,जो मुझसे अक्सर गुजरात के  सूरत, गांधीनगर, भरूच, आदि के बारे में अच्छी जानकारियाँ देतीं है . मेरे आज विशेष आग्रह पर मुझे सूरत में आज हुए गरबे का फोटो सहजता से भेज दिए .  

 लेखिका  गायत्री शर्मा बतातीं हैं कि  "गरबों की शान पारंपरिक पोशाकों से  चार-गुनी हो जाती है. इनमें महिलाओं के लिए चणिया-चोली और पुरुषों के लिए  केडि़या" गरबा आयोजनों में देखी जा सकती  है।
आवारा बंजारा ब्लॉग  पर प्रकाशित  पोस्ट गरबा का जलवा  में लेखक ने स्पष्ट किया है :-" गुजरात नौवीं शताब्दी में चार भागों में बंटा हुआ था, सौराष्ट्र, कच्छ, आनर्ता (उत्तरी गुजरात) और लाट ( दक्षिणी गुजरात)। इन सभी हिस्सों के अलग अलग लोकनृत्य लोक नृत्यों  गरबा, लास्या, रासलीला, डाँडिया रास, दीपक नृत्य, पणिहारी, टिप्पनी और झकोलिया की मौजूदगी गुजरात के सांस्कृतिक वैभव को मज़बूती प्रदान करती है ।

अब सवाल यह उठता है कि करीब करीब मिलती जुलती शैली के बावजूद  सिर्फ़ गरबा या डांडिया की ही नेशनल या इंटरनेशनल छवि क्यों बनी। शायद इसके पीछे इसका – गरबे के आकर्षक परिधान एवं नवरात्री पूजा-पर्व है।"

एक दूसरा  सच यह भी है कि- व्यवसायिता का तत्व गरबा को प्रसिद्द कर रहा है. फिल्मों में गरबे को , एवं चणिया-चोली केडि़या के आकर्षक उत्सवी परिधान की मार्केटिंग रणनीति ने गरबे  को वैश्विक बना दिया है.  "

दूसरी ओर अंधाधुंध व्यवसायिकता से नाराज  ब्लॉग लेखक संजीत भाई की पोस्ट में गरबे की व्यावसायिकता से दूर रखने की वकालत की गई है. ,इस पर भाई संजय पटेल की  टिप्पणी उल्लेखनीय है कि  "संजीत भाई;गरबा अपनी गरिमा और लोक-संवेदना खो चुका है । मैने तक़रीबन बीस बरस तक मेरे शहर के दो प्रीमियम आयोजनो में बतौर एंकर शिरक़त की . अब दिल खट्टा हो गया है. सारा तामझाम कमर्शियल दायरों में है. पैसे का बोलबाला है इस पूरे खेल में और धंधे साधे जा रहे हैं.''

संजय जी की टिप्पणी एक हद तक सही किंतु मैं थोडा सा अलग  सोच रहा हूँ कि व्यवसायिकता में बुराई क्या अगर गुजराती परिधान लोकप्रिय हो रहें है , और यदि सोचा जाए तो गरबा ही नहीं गिद्दा,भांगडा,बिहू,लावनी,सभी को सम्पूर्ण भारत ने सामूहिक रूप से स्वीकारा है केवल गरबा ही नहीं ये अलग बात है कि गरबा व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के सहारे सबसे आगे हो गया ।
इन दिनों अखबार  समूहों  ने भी  गरबे को गुजरात से बाहर अन्य प्रान्तों तक ले जाने की सफल-कोशिश की हैं । 

इंदौर का गरबा दल , मस्कट में 2008 छा गया था. अब कनाडा, बेल्जियम, यूएसए, सहित विश्व के कई देशों में लोकप्रिय हुआ  तो यह भारत के लिए गर्व की बात है ।

ये अलग बात है कि गरबे के लिए महिला साथी भी किराए उपलब्ध होने जैसे समाचार आने लगे हैं ।
संजय पटेल जी की शिकायत जायज है. वे गुजराती हैं पर गरबे के बदले  स्वरुप से नाराज हैं क्योंकि - "चौराहों पर लगे प्लास्टिक के बेतहाशा फ़्लैक्स, गर्ल फ़्रैण्डस को चणिया-चोली की ख़रीददारी करवाते नौजवान,  देर रात को गरबे के बाद (तक़रीबन एक से दो बजे के बीच) मोटरसायकलों की आवाज़ोंके साथ जुगलबंदी करते चिल्लाते नौजवान, घर में माँ-बाप से गरबे में जाने की ज़िद करती जवान बेटियाँ और के नाम पर लाखों रूपयों की चंदा वसूली, इवेंट मैनेजमेंट के चोचले रोज़ अख़बारों में छपती गरबा कर रही लड़के-लड़कियों की रंगीन तस्वीरें, देर रात गरबे से लौटी नौजवान पीढी न कॉलेज जा रही,न दफ़्तर, उस पर  डीजे की  कानफ़ोडू आवाज़ें जिनमें से  गुजराती लोकगीतों की मधुरता गुम है. मुम्बईया  फ़िल्मी स्टाइल का संगीत,  बेसुरा संगीत संजय पटेल जी की नाराज़गी की मूल वज़ह है.

आयोजनों के नाम पर बेतहाशा भीड़...शरीफ़ आदमी की दुर्दशारिहायशी इलाक़ों के मजमें धूल,ध्वनि और प्रकाश का प्रदूषण बीमारों, शिशुओं,नव-प्रसूताओं को तकलीफ़ देता है. उस पर नेतागिरी के जलवे ।

मानों जनसमर्थन जुटाने  के लिये एक राह  खुल गई हो

नवरात्रों में देवी की आराधना ...वह भक्ति जिसके लिये गरबा पर्व गुजरात से चल कर पूरे देश में अपनी पहचान बना रहा है गायब है ।

देवी माँ उदास हैं कि उसके बच्चों को ये क्या हो गया है....गुम हो रही है गरिमा,मर्यादा,अपनापन,लोक-संगीत।माँ तुम ही कुछ करो तो करो...बाक़ी हम सब तो बेबस हैं !  

 

न्यूयार्क के ब्लॉगर भाई चंद्रेश जी ने इसे अपने ब्लॉग Chandresh's IACAW Blog (The Original Chandresh), गरबा शीर्षक से पोष्ट छापी है जो देखने लायक है कि न्यूयार्क के भारत वंशी गरबा के लिए कितने उत्साही हैं

मंगलवार, सितंबर 23, 2008

आतंक वाद कबीलियाई सोच का परिणाम है

इस पोस्ट के लिखने के पूर्व मैंने यह समझने की कोशिश की है कि वास्तव में किसी धर्म में उसे लागू कराने के लिए कोई कठोर तरीके अपनाने की व्यवस्था तो नहीं है........?किंतु यह सत्य नहीं है अत: यह कह देना कि "अमुक-धर्म का आतंकवाद" ग़लत हो सकता है ! अत: आतंकवाद को परिभाषित कर उसका वर्गीकरण करने के पेश्तर हम उन वाक्यों और शब्दों को परख लें जो आतंकवाद के लिए प्रयोग में लाया जाना है.
इस्लामिक आंतकवाद , को समझने के लिए हाल में पाकिस्तान के इस्लामाबाद विस्फोट ,पर गौर फ़रमाएँ तो स्पष्ट हो जाता है की आतंक वाद न तो इस्लामिक है और न ही इसे इस्लाम से जोड़ना उचित होगा । वास्तव में संकीर्ण कबीलियाई मानसिकता का परिणाम है।


भारत का सिर ऊँचा करूँगा-कहने वाले आमिरखान,आल्लामा इकबाल,रफी अहमद किदवई,और न जाने कितनों को हम भुलाएं न बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे घटना क्रम को बारीकी से देखें तो स्पष्ट हो जाता है की कबीलियाई समाज व्यवस्था की पदचाप सुनाई दे रही थी जिसका पुरागमन अब हो चुका है, विश्व की के मानचित्र पर आतंक की बुनियाद रखने के लिए किसी धर्म को ग़लत ठहरा देना सरासर ग़लत है । हाँ यहाँ ये कहा जा सकता है की इस्लामिक-व्यवस्था में शिक्षा,को तरजीह ,देने,संतुलित चिंतन को स्थापित कराने में सामाजिक एवं धार्मिक नेतृत्व असफल रहा है जिससे अच्छी एवं रचनात्मकता युक्त सोच का अभाव रहा इस्लामिक-देशों की आबादी के । डैनियल पाइप्स.की वेब साईट http://hi.danielpipes.org/ पर काफी हद तक स्पस्ट आलेख लिखे जा रहे हैं जिसका अनुवाद अमिताभ त्रिपाठी कर रहें हैं । अब भारत को ही लें तो भारत में पिछले दशकों में प्रांतीयता,भाषावाद,क्षेत्र-वाद की सोच को बढावा देने की कोशिश की जा रही है इस पर आज लगाम न लगाई गयी तो तय शुदा बात है भारतीय-परिदृश्य में भी ऐसी घटनाएं आम समाचार होंगी।


आतंक को रोकने किसी भी स्थिति में किसी साफ्ट सोच का सहारा लेने की कोई ज़रूरत नहीं,आतंक वाद को रोकने बिना किसी दुराग्रह के कठोरता ज़रूरी है चाहे जितनी बार भी सत्ताएं त्यागनी पड़ें , हिंसा को बल पूर्वक ही रोका जाए।


डेनियल की वेब साईट पर बेहद सूचना परक आलेख देखे जा सकतें है


मुस्लिम दृष्टि में बराक ओबामा25 अगस्त, 2008, FrontPageMagazine.com
इस्लामवादी वामपंथी गठबन्धन का खतरा14 जुलाई, 2008, नेशनल रिव्यू
इस्लामवादी आतंकवाद कहाँ अधिक है यूरोप में या अमेरिका में?3 जुलाई, 2008, जेरुसलम पोस्ट
शत्रु का एक नाम है19 जून, 2008, जेरुसलम पोस्ट
ईरान पर आक्रमण को तैयार रहो11 जून, 2008, यू.एस.ए.टुडे
मध्यपूर्व पर ओबामा बनाम मैक्केन
इधर हमारे अंतरजाल के साथी भी को इस प्रकार का माहौल बनाएं बार-बार ,बैठक कर ,
आतंक की , सही परिभाषा ,को आम आदमीं के सामने रखना ही होगा

गुरुवार, मार्च 27, 2008

विश्व रंगकर्म दिवस संगोष्ठी में"उड़नतश्तरी"


जबलपुर के रंगकर्म से जुड़े लोग आज विश्व रंग कर्म दिवस पर जुटे चंचला बाई कालेज के खुले मंच पर । त्रिलोक सिंह-कर्मयोगी कृष्ण सा उनका व्यक्तित्व को भी याद किया , Sameer Lal आज अतिथि थे उडन तश्तरी ....के रूप में आप जानते ही है इनको , भावना का देश है भारत के कवि बुरहानपुर से दादा आचार्य डाक्टर भृगुनंदन जी जो समयचक्र के mahendra mishra [महेन्द्र मिश्र जी] के साथ आए थे । ब्लागिंग पे भी चर्चा हुई कविता पाठ हुआ , सूरज राय सूरज,अरुण पान्डे,डाक्टर मलय शर्मा,डा० श्याम सुन्दर मिश्र, विजय तिवारी "किसलय", राजीव गुप्त, यानी विवेचना रंग-मंडल के लिए-"जबलपुर चौपाल" वाले पंकज स्वामी"गुलुश" के न्योते सभी "दाएं-बाएँ" वाले सब आए थे , आते क्यों न किसी टेंट-हाउस,वालों का कार्य-क्रम थोडे न था।
विवेक पांडे की कविता Vivek Pandey, पे चटका लगाइए सुन लीजिए जी। ये ROHIT JAIN, भी छा गए थे किन्तु मुझे जिस युवक की कविता ने रोमांचित कर दिया था उसे समीर जी अपने ब्लोंग पर पोस्ट कर रहे हैं । मुझे क्या सभी को अंतस तक छू -रहे हैं युवा कवि राजेश वर्मा [जोअपनी राख को गंगा में न बहाने की इच्छा रखतें है,]सहित अरुण यादव , अमर सिंह परिहार,संतोष राजपूत,

सुयोग पाठक SUYOG PATHAK के संगीत निर्देशन मन [जन] गीतों की प्रस्तुति से शुरू समागम में डाक्टर मलय जी का वक्तव्य "कविता को लेकर मुझे इस कारण अच्छा लगा क्योंकि वे आशावादी हों गए हैं कविता को लेकर -उन्होने माना कि युवा पौध के पास शब्द,भाव,विषय सब कुछ है॥!" [ " ....!!" अब जाके पता चला कि कविता के विषय चुके नहीं हैं...?]

पंकज गुलुश ने बलोगिंग पर चर्चा की किन्तु अल्प [मित]भाषी होने की वज़ह से ज़्यादा नहीं बोल सके। डाक्टर विजय तिवारी "किसलय" का उल्लेख पूरे वक्तव्य में नहीं हुआ किन्तु विजय भाई को बुरा भी नहीं लगा क्योंकि वे गंभीर ब्लॉगर जो हैं...स्व-नाम-धन्य फोटो ग्राफर श्री जे० एस० मूर्ति,अरुण पांडे , सभी ने सांस्कृतिक चैतन्य के "महत्त्व" को रेखांकित किया ।ये भी तय हुआ कि जबलपुर में साहित्य की नियमित गतिविधियों को एक स्वरूप दिया जाएगा ।जो तय किया अरुण पांडे जी ने जो मेरे वक्तव्य के दौरान क्षेपक लगाने मंच पर आए थे। जबकि ब्लागिंग को बढावा देने का दायित्व मेरा,समीर जी,किसलय जी , पंकज जी का होगा....!!नई-दुनिया जबलपुर ने अपनी रिपोर्ट टाँगी,-"हम हैं ताना,हम हैं बाना" शीर्षक की खूंटी पर, यही गीत गाया था सुयोग पाठक एवं साथियों ने जो रपट का शीर्षक बना। कुल मिला के कविता,नाटक,सुर-संगीत,और ब्लागिंग सभी विषय को स्पर्श करती संगोष्ठी सदभावों के अलावा गतिविधियों को जीवंत रखने की प्रतिज्ञा के साथ समाप्त हुआ जैसे कि आम तौर पर होता है । फिर सब अपनी-अपनी समस्याओं को सुलझानें के गुन्ताडे़में व्यस्त हों जाते हैं। जैसे मैं अरुण पांडे जी के घर के सामने से निकल जाऊँगा रोज़ , वैसे ही जैसे मलय शर्मा जी मेरे घर के सामने से रोज़िन्ना निकलते हैं....!!या इन्द्र पांडे , रमेश सैनी, वगैरा जैसी व्यस्तता होगी सबकी ।

इस बीच पंकज गुलुश ने बताया है कि-....छै: नए ब्लॉगर आने वाले हैं .....हम तो स्वागत माल लेकर इंतज़ार करेंगे ही।

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