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भारतीय पुलिस : और जन सामान्य

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          पुलिस के प्रति नकारात्मक भाव एक चिंताजनक स्थिति है इस पर ज़रुरत है खुले दिमाग से चिन्तन की  भारी पुलिस पर लगे आरोपों पर एक नज़र डालें (एक ):- संदेह को सत्य समझ के न्यायाधीश बनने का ज्ञान का इंजेक्शन हमारी . "पुलिस " को भर्ती के दौरान ही लगा दिया जाता है न्यायाधीशों तक के अधिकारों अतिक्रमण का सफ़ाई से करने का हुनर केवल में है. ..  सामाजिक आचरण के अनुपालन कराने के लिए,पुलिस को न्यायाधीश के अधिकार तक पहुंचने की चाहत पर अंकुश लगाये..जाने आवश्यक हैं  (दो) :- भारतीय पुलिस सबसे भ्रष्ट पुलिस है. भारतीय पुलिस का आदमी "संरक्षक " नहीं गुण्डा और लुटेरा होता है. उसमें सम्वेदनाएं नहीं होतीं.हीन नहीं.  (तीन):- भारतीय पुलिस में   नैतिकता का अभाव है. (चार):- कानूनों का उल्लंघन करना उसकी मूल आदत  है .                 इस तरह से पुलिस की नैगेटिव छवि का जन मानस में सामान्य रूप से अंकित है लोग उसे अपनी पुलिस नहीं मानते . यह स्थिति  के लिए देश के लिए चिंतनीय है , यहाँ मेरी राय है कि सामाजिक-मुद्दों के लिए बने कानूनों के अनुपालन के लिए पुलिस को न सौंपा जाए बल्कि पुलिस इन माम

एक महकमे को मुलजिम करार देना गलत है .

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  सुमन जी के इस आलेख   से जो लखनऊ ब्लॉगर एसोसिएशन पर सरकार के हत्यारे शीर्षक से  छपा है मैं असहमत हूँ क्योंकि इस आलेख से लगता है समूची भारतीय पुलिस व्यवस्था  को "हत्यारी-व्यवस्था" है. दूसरा पक्ष कहे सुने  बिना पुलिस औरसरकार का मनोबल तोड़ना सर्वथा देश की क़ानून व्यवस्था का मज़ाक बना देना कहाँ तक अनुचित है. क़ानून के राज़ को सब मानें मध्य-प्रदेश  और आंध्र प्रदेश में हो रही नक्सली हिंसा को एक पक्ष सहज प्रतिक्रया मानता है ? क्यों क्या सरकारी नौकर ही सर्वथा गलत होता है. भारत में लागू प्रजातंत्र किसी को रक्त रंजित सियासी हथकंडों की अनुमति नहीं देता न ही भारत इतना असहिष्णु है कि किसी को भी सिरे से खारिज करे . हर विचारधारा का यहाँ सम्मान होता है. किन्तु रक्त-रंजन की इजाज़त कदापि नहीं पुलिस से यदि कुछ गलती हो रही है तो उसे रकने आवाज़ बुलंद ज़रूर कीजिये किन्तु यदि यह आरोप सब पुलिस वालों पर जड़ दिया जाए तो सिर्फ नकारात्मक बुद्धि का संकेत है  किसीको भी आतंकवादीयों के पक्ष में किसी को खड़े रहने की ज़रुरत नहीं है देश में नक्सल बाडी आन्दोलन.धर्म के नाम पर क़त्ल-ए-आम,सियासती दंगे,सर्वहारा के