हम मुद्दे पे आते हैं..... टी वी के एंकर महाशय कह रहे थे कि - "कर्मचारी निकम्मे हैं.. हालांकि उनकी शैली इतनी अच्छी है कि महाराज ने बड़ी चतुराई से निकम्मा और भ्रष्ट कहा.. विदेशियों का हवाला देकर व्यवस्था को दोषपूर्ण बताया."
यहाँ मुझे अचरज हो रहा है देख महान हस्तियों से अटा-पड़ा है क्या 69 सालों में व्यवस्था सुधारने में कोई भी सकम्मा अभ्रष्ट व्यक्ति न प्रसूता ... जो कथित भ्रष्ट और कामचोर अधिकारीयों के लिए सुधारात्मक प्रयास करता ? तो फिर देश का नाम विश्व में रोशन हो रहा है उसकी कलगी किसके माथे पर बांधी जाएगी. एक चैनल की टीआरपी बढ़ती है तो उसके ज़मीनी कार्यकर्ता से लेकर सीइओ तक को श्रेय जाता है. 52 दिन मेरे प्रदेश का अधिकारी कर्मचारी कड़ी धूप में गाँव गाँव घूमा जब आप एसी स्टूडियो से खबर ले दे रहे थे तब किसी को नकारा कर्मचारी कितना सकारा है देखने की इच्छा भी न हुई होगी.
मैं ये नहीं कहता कि मै भी सप्ताह के सातों दिन कम से कम 10 घंटे के मान से सरकारी काम में खुद को व्यस्त रखता हूँ.. तो रेल चलाने वाला ड्रायवर, दफ्तर का चपरासी, हाईकोर्ट का अधिकाँश स्टाफ मुझे काम करता नज़र आता है. एक रात मुझे एक शासकीय आदेश से एक नि:सहाय गरीब व्यक्ति को 50 किलोमीटर दूर एक गाँव से सरकारी अस्पताल लाना पडा तो देखा कि विक्टोरिया का ड्यूटी डाक्टर पूरे उत्साह से काम कर रहा था.
स्कूल का मास्टर हो या आँगनवाडी वाली बहनजी सब काम ही तो कर रहें हैं ...... आपको काम नज़र नहीं आ रहा.. इसका साफ़ मतलब है कि आपने ऐसा चश्मा लगा लिया है जो कर्मठता को न देख कुछ कामचोरों को ही भली भाँती देख सकता है. मैंने ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की स्वास्थ्य कर्मचारियों को निपट अकेली जंगल में घूमते देखा है ..
भारत का जनतंत्र महान क्यों है..? जानतें ही होगे आप ... मुझ जैसे जाने कितने लोग होंगे जो इस जनतंत्र के सम्मान के लिए के लिए पूरी मुस्तैदी से मतदान प्रक्रिया कराते हैं. तब जाकर आप विकास-के पापाओं चाचाओं को देख पाते हैं .
इधर यह स्वाभाविक है कि सारा समूह एक सी दक्षता एवं उच्च चरित्र वाला हो कुछेक नकारात्मक उदाहरण हैं जिनका प्रतिशत उतना नहीं है जितना उनकी चर्चा होती है. हालिया कुम्भ मेले की बात कीजिये तो आप पाएंगे कि प्रदेश के श्रमिक से लेकर मुख्यसचिव तक ने जो अंतरात्मा एवं मनोयोग से काम किया उनके कार्यों को अपमानित करने के बराबर है सभी सरकारी कर्मचारियों को नाकारा निकम्मा कहना.
मित्रो आर्मी और पुलिस महकमों से जुड़े कर्मियों पर मुझे बेहद गर्व होता है .. जो हमेशा आम जीवन के सुख के लिए अपने पारिवारिक स्नेह से दूर रहा करते हैं.
पता नहीं दिल्ली का वर्क कल्चर कैसा है .. अधिक नहीं जानता पर इतना अवश्य मालूम है कि मेरे प्रदेश में अगर तनिक भी खुशहाली है अथवा 69 साल के विकास भैया हँसबोल रहें हैं तो इसमें इस प्रदेश के मानव-संसाधन का विशेष अवदान कहीं न कहीं अवश्य है.
बेशक वेतन न बढ़े ज़रुरत भी नहीं है वेतन बढाने की पर नीति नियंता ये अवश्य जान लें कि शिक्षा, स्वास्थ्य, नि:शुल्क एवं यू एस ए अथवा ब्रिट्रेन की तरह सहज, सस्ती हो . इसे असली विकास माना जाएगा. दैनिक जीवन यापन में आने वाली वस्तुओं के मूल्यों के अचानक बढ़ने की प्रवृत्ति को रोकना भी असली विकास है. सरकारी कर्मचारी वाकई वेतन में बढ़ोत्तरी नहीं चाहेगा क्या आप असली विकास-भैया को लाने में सक्षम हैं.