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किसी को धोखा देते वक़्त अक्सर विजेता होते हैं...धोखेबाज़

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साभार : जागरण जंक्शन            अक्सर धोखा देने षड़यंत्र के जाल बुनने वाले अचानक किसी से धोखा  खाते हैं तब मढ़ा करते हैं दूसरों पर धोखे बाज़ी के इल्ज़ाम . इन्सानी  फ़ितरत अज़ीब है मेरा एक मित्र कहता है :-"प्राकृतिक-न्याय से कोई नहीं बचता"  धोखा देना क्रूरता का पर्याय ही तो है. सियासत कुछ इस तरह हावी है हमारे जीवन क्रम पर कि हम हमेशा दूसरों को हराने की प्रवृत्ति के भाव से भरे पड़े हैं. किसी की जीत को नकारात्मक भाव से देखना या यूं कहूं कि किसी की जीत में अपनी पराजय का एहसास करना आज़ का  जीवन-दर्शन बन चुका है. सभ्य समाज समय के उस मोड़ पर आ चुका है जहां से अध्यात्मिक-चेतनाएं असर हीन हो गईं हैं .गाहे बगाहे सभी किसी न किसी  धोखे का शिकार होते हैं.कौन कितना पावन है कहना मुश्किल है. मुझे तो मालूम है कि मेरी आस्तीनों में धोखे़बाज़ भरे पड़े हैं आप भी इस मुग़ालते में न रहना कि आप के इर्द गिर्द वाले सभी अपने हैं.     ईसा मसीह सबसे अच्छा उदाहरण हैं , सियासत में तो अटे पड़े हैं उदाहरण पर इनका ज़िक्र ज़रूरी नहीं क्यों कि धोखा सियासत का मूलभूत तत्व है.     हां चलते चलते एक बात याद आ रही