ओशो की सामाजिकता 01
जबलपुर वाले ओशो की सामाजिकता पर सवाल खड़ा हुआ . मेरी नज़र में प्रथम दृष्टया ही प्रश्न गैरज़रूरी सा है ऐसा मुझे इस लिए लगा क्योंकि लोग अधिकतर ऐसे सवाल तब करतें हैं जब उनके द्वारा किसी का समग्र मूल्यांकन किया जा रहा हो तब सामान्यतया लोग ये जानना चाहतें हैं की फलां व्यक्ति ने कितने कुँए खुदवाए , कितनी राशि दान में दी , कितनों को आवास दिया कितने मंदिर बनवाए . मुझे लगता है कि सवाल कर्ता ने उनको व्यापारी अफसर नेता जनता समझ के ये सवाल कर रहे हैं . जो जनता के बीच जाकर और किसी आम आदमी की / किसी ख़ास की ज़रूरत पूरी करे ? ओशो ऐसे धनाड्य तो न थे बाद में यानी अमेरिका जाकर वे धनाड्य हुए वो जबलपुर के सन्दर्भ में ओरेगान प्रासंगिक नहीं है. पूना भी नहीं है प्रासंगिक पर ओशो सामाजिक थे समकालीन उनको टार्च बेचने वाले की उपाधि दे गए यानी वे सामाजिक थे इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा... ? सामाजिक वो ही होता है जिससे सत्ता को भय हो जावे .. टार्च बेचने वाले की उपाधि सरकारी किताबों के ज़रिये खोपड़ियों में ठूंस दी गई थी . स्पष्ट है कि समकालीन व्यवस्था कितनी भयभीत थी.