भारतीय साहित्यकारों ने भारतीय प्राचीन इतिहास के साथ न्याय नहीं किया : गिरीश बिल्लोरे मुकुल


पूज्यनीय राहुल सांकृत्यायन जी ने वोल्गा से गंगा तक कृति लिखी है । इस कृति का अध्ययन आपने किया होगा यदि नहीं किया तो अवश्य करने की कोशिश करें। इस कृति के अतिरिक्त एक अन्य कृति है परम पूज्य रामधारी सिंह दिनकर जी की जो संस्कृति के चार अध्याय के नाम से प्रकाशित है और यह दोनों कृतियां आयातित विचारक बेहद पसंद करते हैं और इनको पढ़ने के लिए प्रेरित भी करते हैं। इसी क्रम में मेरे हाथों में यह दोनों कृतियां युवावस्था में ही आ चुकी थी तब यह लाइब्रेरी में पढ़ी थी । इतिहास पर आधारित इन दोनों कृतियों के संबंध में स्पष्ट रूप से यह स्वीकारना होगा कि-"साहित्यकार अगर किसी इतिहास पर कोई फिक्सन या  विवरण कहानी के रूप में लिखना चाहते हैं तो उन्हें कथा समय का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।  कृति  वोल्गा से गंगा तक में 6000 हजार ईसा पूर्व से 3500 ईसा पूर्व  की अवधि में भारतीय वेदों की रचना सामाजिक विकास विस्तार सांस्कृतिक परिवर्तन सब कुछ कॉकटेल के रूप में रखने की कोशिश की है। उद्देश्य एकमात्र है मैक्स मूलर द्वारा भारत के संदर्भ में इतिहास की टाइमलाइन सेटिंग को  ईसा 6000 से 3500 साल पूर्व  सेट करना है
।" साहित्यकार को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखने के पूर्व टाइमलाइन के संदर्भ में सतर्क और सजग रहना चाहिए। पूजनीय राहुल सांकृत्यायन जी से असहमति के साथ कृति पर चिंतन का आग्रह है । ]
        राहुल संस्कृतम् वोल्गा से गंगा तक मैं अपनी पहली कहानी निशा शीर्षक से लिखते हैं। और वे अपनी इस कहानी के माध्यम से करना चाहते हैं की ईशा के 6000 साल पहले मानव छोटे-छोटे कबीले में रहता था। वोल्गा नदी के ऊपरी तट पर निशा नामक महिला के प्रभुत्व वाला परिवार रहता था जिसमें 16 सदस्य थे वह एक गुफा में रहते थे। महिला प्रधान कबीले में प्रजनन की प्रक्रिया को डिस्क्राइब भी करते हैं। वोल्गा से गंगा तक की संपूर्ण कहानियां 6000 ईसा पूर्व से शुरू होती है दूसरी कथा दिवा नाम से लिखते हुए उसका कालखंड ईसा के 3500 साल पहले   निर्धारण करते हुए फुटनोट में व्यक्त करते हैं -" आज से सवा दो सौ पीढ़ी पहले आर्य जन की कहानी होने का दावा करते हैं तथा यह कहते हैं कि उस वक्त भारत ईरान और रूस की श्वेत जातियां एक ही जाती थी जिसे हिंदी स्लाव या शत वंश कहा गया है। यह कहानी प्रथम कहानी निशा से एकदम ढाई हजार वर्ष के बाद की कहानी है। और इसे वे आर्य कहते हैं । इस कहानी का शीर्षक दिवा है। जो रोचना परिवार की वंशिका के रूप में समझ में आती है। इस कहानी में दिवा को जन नायिका के रूप में दर्शाया गया है। तथा आर्य जन का विकास प्रमाणित करने की चेष्टा की है। और वे अर्थात राहुल सांकृत्यायन इस कहानी में यह कहते हैं कि अग्नि पूजा आर्य जन अब समिति के माध्यम से प्रबंधन करना सीख गए थे। निशा जन और और उषा जन नामक दो व्यवस्थाओं के संबंध में चर्चा की गई है। दोनों व्यवस्थाएं अपने-अपने शिकार के लिए निर्धारित क्षेत्र के रक्षण व्यवस्थापन और प्रबंधन के जिम्मेदार होते। उषा जन से निशा जन की शक्ति दुगनी थी ऐसा इस कथा में वर्णित किया गया है। कहानी में एक और समूह का जिक्र होता है जिसे कुरु जन के रूप में संबोधित किया गया है। कुल मिलाकर राहुल सांकृत्यायन साहब अपनी कृति वोल्गा से गंगा में पर्शिया रूस और भारत को एक विशाल भूखंड के रूप में प्रदर्शित करते हैं तथा इसमें जनतंत्र की व्यवस्था को वर्णित करते हैं। अपनी एक करनी कहानी अमृताशव में  सेंट्रल एशिया पामीर (उत्तर कुरु), कथा जाति हिंदी एवं ईरानी के रूप में प्रस्तुत करते हुए इसे ईसा के 3000 साल पूर्व का कथानक मानते हैं और यही वे यह घोषित करते हैं कि आर्यजन इसी अवधि में भारत में आए थे। इस कालखंड को भी कृषि एवं तांबे के प्रयोग का युग कहते हैं। ईसा के 2000 वर्ष पूर्व के कथानक पुरुधान नामक कथानक में स्वाद के ऊपरी हिस्से की कहानी लिखते लिखते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं थी भारतीय मूल के लोग आर्यों से युद्ध करते हैं और यही देवासुर संग्राम है। अगर इस कृतिका फुटनोट देखा जाए तो राहुल संस्कृतम् जी कहते हैं कि आज से 108 पीढ़ी आर्य (देव) असुर संघर्ष हुआ था उसी की यह कहानी है आर्यों के पहाड़ी समाज में दासता स्वीकृत नहीं हुई थी। तांबे पीतल के हथियारों और व्यापार का जोर बढ़ चला था।
    अपनी अगली कहानी अंगिरा का कालखंड अट्ठारह सौ ईसा पूर्व हिंदी आज मैं गांधार अर्थात तक्षशिला क्षेत्र का विवरण कथानक में प्रस्तुत किया जाता है। सातवीं कहानी सुदास में वे 15 100 ईसा पूर्व गुरु पंचाल वैदिक आर्य जाति का उल्लेख करते हैं। और इसी कालखंड को वेद रचना का कालखंड निरूपित करते हैं। प्रवासन नामक कथा में पंचाल प्रदेश के 700 ईसा पूर्व का विवरण अंकित करते हुए उपनिषदों की रचना का कालखंड निरूपित करते हैं।
   इस तरह से बड़ी चतुराई के साथ लेखक ने रामायण एवं महाभारत काल वेदों के सही काल निर्धारण वेदों के वर्गीकरण के काल निर्धारण तथा आर्यों के भारत आगमन को प्रमुखता से उल्लेखित करने की कोशिश की है।
     ऐसी कहानियां जो इस उद्देश्य के लिए लिखी गई हो जिससे एक ऐसे नैरेटिव का विकास हो जो सत्यता से परे है इसे सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता अतः इसे प्रमाणित करके ही समाप्त किया जा सकता है। यहां राहुल सांकृत्यायन जी की भी अपनी मजबूरियां है। वे यह कहना चाह रहे थे कि जो मैक्स मूलर ने सीमा निर्धारण कर लिया है उससे हुए आगे नहीं जाएंगे। तथा आर्यों को भारत में प्रवेश दिला कर ही भारत का प्राचीन इतिहास पूर्ण होता है ऐसा उनका मानना है। परंतु इससे भारतीय ऐतिहासिक बिंदु एवं सामाजिक सांस्कृतिक विकास पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ा है वह चिंतन की दिशा को मोड़ कर रख देता है। केंद्रीय कारागार हजारीबाग 23 जून 1942 में प्रथम संस्करण प्राक्कथन में राहुल जी का कथन स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि वे मैक्स मूलर के पद चिन्हों पर चल रहे हैं। साथ ही राहुल जी बंधुल मल्ल अर्थात बुध के काल पर सिंह सेनापति उपन्यास का उल्लेख करते हैं।
  मैं यह नहीं कहता कि आप संस्कृति के चार अध्याय और वोल्गा से गंगा तक के कथानक उनसे या विवरणों से परिचित ना हो। अध्ययन तो करना चाहिए परंतु अध्ययन कैसा करना चाहिए इसे समझने की जरूरत है। यह दोनों कृतियां मुझे शुरू से खटकती हैं। कृतियों की विषय वस्तु पर असहमति का आधार है काल खंड का निर्धारण । और फिर मैक्स मूलर सहित पश्चिमी विद्वानों से तत्कालीन साहित्यकारों की अंधाधुंध सहमति। वास्तव में देखा जाए तो इतिहास की विषय वस्तु को साहित्यकार को केवल तब स्पर्श करना चाहिए जबकि उसके कालखंड का उसे सटीक अथवा समयावधि का कुछ आगे पीछे का ज्ञान हो। अन्यथा कथा के रूप में कुछ भी लिखा जा सकता है उस पर किसी की भी कोई आपत्ति नहीं होती और ना भविष्य में होगी। यहां यह कहना बेहद जरूरी है कि -" ऐसी कृतियों से किसी भी राष्ट्र की ऐतिहासिक टाइमलाइन को पूरी तरह से नष्ट भ्रष्ट किया जा सकता है और यह हुआ भी है।"
भारत के प्राचीन इतिहास में भारतीय जन का निर्माण, सिंधु घाटी की सभ्यता तथा अन्य नदी घाटियों पर विकसित सामाजिक व्यवस्थाओं का विश्लेषण, आर्यों के द्वारा किए गए कार्य, भाषाएं जैसी प्राकृत ब्राह्मी संस्कृत का का निर्माण विकास सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास श्रुति परंपरा के अनुसार महान चरित्रों के अस्तित्व आदि पर विचार करना आवश्यक होता है।

गिरीश बिल्लोरे मुकुल

  

टिप्पणियाँ

यह दोनों पुस्तकें मैंने पढ़ी नहीं है, बस सुना है इसके बारे में। आपके द्वारा की गई प्रतिक्रिया से इसे पढ़ने की रुचि जाग्रत हुई। पढ़कर समझना ज़रूरी है कि लेखक की सोच क्या है।

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