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हमारे समूह का ओशो : सलिल समाधिया और धन को तरसाती धन तेरस

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धन को तरसता पूंजी-बाज़ार और जबलपुर जैसे कस्बाई शहर  500  के आसपास कारों का बिकना.एक अजीबोगरीब अर्थशास्त्रीय संरचना को देखकर आप भौंचक न हों समयांतर में इस आर्थिक संरचना को आप समझ पाएंगे की कहीं यह महामंदी एक आर्टिफीशियल तो नहीं  ? कल जब मुझे धन को तरसाती तेरस के अवसर पर टेलीफोन कंपनियों  , व्यावसायिक प्रतिष्ठानों , और अमीर मित्रों ने “धन-तेरस ” की शुभकामनाएं दीं तो मुझे लगा आज़कल आमंत्रण के तरीके कितने अपने से हो गए हैं चलो किसी एक प्रतिष्ठान पे चलें सो फर्निचर वाले भाई साहब की दूकान पे पहुंचा जो मुझे जानता था । यानी की उसे मालूम था कि मैं ओहदेदार हूँ सो मुझे देखते ही सपने सजाने लगा मैंने पूछा : भई , पलंग ………. ? मेरे पीछे चिलमची लगा दिए गए पलंग दिखाने पूरी इस हिदायत के साथ कि :-”भई , घर में जाएगा पलंग बिल्लोरे जी कस्टमर नहीं हैं हमाए मित्र “ मालिक के मित्र के रूप में हमको  5000/_  से  50000/_  वाले एक से एक पलंग दिखाए गए सबकी विशेषताएं गिनें गईं और हर बार कहा सा ‘ ब “फ़िर आप सेठ जी के मित्र हैं हम कोई ग़लत चीज़ थोड़े न बताएंगे “ हम ठहरे निपट गंवार सो हमको घर में पड़े पुराने पलंग की याद