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सोमवार, नवंबर 09, 2020

जीवन की नहीं मृत्यु की तैयारी कीजिए.. जीवन तो वैसे ही संवर जाएगा..!

जीवन की नहीं मृत्यु की तैयारी कीजिए.. जीवन तो वैसे ही संवर जाएगा?
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य होगा कि आप को यह सुझाव दिया जाए कि जीने की नहीं मृत्यु की तैयारी कीजिए ऐसी स्थिति में आप सुझाव देने वाले को मूर्खता का महान केंद्र तुरंत मान लेंगे। परंतु आप यह भली प्रकार जानते हैं कि-"जीवन जिस दिशा की ओर बढ़ता है उस दिशा में ऐसा बिंदु है जहां आपको आखिरी सांस मिलती  है"
है या नहीं इसका निर्णय आप आसानी से कर लेते  हैं। सनातनी दर्शन मृत्यु के पश्चात के समय को  एक संस्कार के तौर पर मान्यता प्राप्त है और हम उसे एक्ज़ीक्यूटिव करते हैं । लेकिन अगर कोई व्यक्ति मरणासन्न हो तो उसके लिए केवल ईश्वरीय सत्ता से प्रार्थना के अलावा कुछ शेष नहीं रहता।
सभी लोग जानते हैं कि यह शाश्वत सत्य है अटल भी है जितना शाश्वत जीवन है उतनी ही शाश्वत मरना।
इस अटल सत्य को कोई मिटा नहीं सकता है, स्वयं राम कृष्ण और महान ऋषियों, पैगंबरों ने भी इस सत्य को स्वीकार्य किया । आपको याद होगा अरस्तु ने जब जहर का प्याला पिया तो भी निर्वेद और शांत थे। प्रभु यीशु ने भी सलीब को परमपिता परमेश्वर का निर्णय माना और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वर्गारोहण किया ( एकअन्य संप्रदाय का जिक्र मैं यहां नहीं करूंगा वैसे भी काफी यह विवाद हो रहा है।)
 आपने अपने कुटुंब में कुछ ऐसे लोगों के बारे में सुना ही होगा कि उन्होंने अपने प्रस्थान का समय बता दिया था । ऐसे हजारों उदाहरण समाज में भी मौजूद हैं । यहां मुझे अपने दो अनुभव स्मरण हो रहे हैं कि मृत्यु बिल्कुल और मुझे विश्वास था कि यह हमें छू भी ना सकेगी ।
उस वक्त उम्र 10 या 11 वर्ष की रही होगी । स्टेशन मास्टर पिता के साथ हमारा परिवार शहपुरा भिटौनी में रहा करता था ।
घर के बाजू में एक कुआं था जिसकी ऊंची ऊंची दीवार लेकिन मछलियों को देखना बहुत अच्छा लगता था । देखते देखते अचानक वैशाखी और शरीर का ऊपरी भाग कुए की तरफ ग्रेविटी की वजह खिंचने लगा । एक पल को लगा कि यह अंतिम स्थिति है परंतु दूसरे ही पल अज्ञात कारणों से बस जाना आश्चर्यचकित कर देने वाली घटना थी ।
लेकिन वह 10 से 15 सेकंड में सिर्फ ईश्वरी सत्ता का स्मरण होता रहा ।
आज से करीब 15 वर्ष पूर्व एक शराबी अपनी मारुति लेकर सड़क पर सीधे जा रहा था और अचानक क्या हुआ कि वह हमारी गली मुड़ गया माइलोमीटर की शायद अंतिम अवस्था रही होगी मैं सामने चलने वाली गौर दादा जी से चर्चा कर रहा  था कि अचानक  दादाजी के मन में क्या आया कि वे अपने घर के अंदर चले गए। में कार निमिश मात्र को अपनी ओर आता देख मन में अचानक अजीब सा भय जाग गया । घर का दरवाजा खोलने में ही  लगभग कुछ मिनट तो लगते और मुझे सुनिश्चित हो गया था कि अब यह कार मुझे अपने अंतिम पलों तक पहुंचा ही देगी । परंतु पुनः ईश्वरी सत्ता के अस्तित्व स्मरण किया और ईश्वर से प्रार्थना की प्रभु उस ड्राइवर को बचा लीजिए ।
इस बार पहली घटना की तरह मैंने स्वयं के बचाव के लिए कोई निवेदन नहीं किया ।  स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा में लिखते हैं-"जब मैं स्वयं के लिए मांगता हूं तो मुझे हासिल नहीं होता किंतु जब दूसरों के लिए मांगा जाए तो तुरंत ईश्वर दुगने वेग से प्रचुर मात्रा में देते हैं ।"
मृत्यु के सन्निकट आकर भी उसके पंजे से बच जाना ईश्वरी सत्ता का एहसास कराता है । ईश्वर तत्व की पुष्टि होती है । 
इन घटनाओं का जिक्र इसलिए किया है कि आप हम सब ईश्वरी सत्ता पर भरोसा करें और जिस स्वरुप में भी उसे स्वीकारते हैं या पहचानते हैं उस पर अनाधिकृत प्रश्न ना उठाएं। ऐसी घटनाएं हमें पवित्र बनाती हैं । जब ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व को हम स्वीकार लेते हैं तो हमारे मस्तिष्क में..... शरीर के साथ उत्पन्न होने वाले नकारात्मक गुण जैसी ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, अहंकार, लोकेषणा, अवांछित वस्तुओं की प्राप्ति के नियम के प्रतिकूल हासिल करने के विचार समाप्त हो जाते हैं । हम उस अंतिम समय में निर्वेद भाव से महाप्रस्थान कर सकते हैं।
यह महाप्रस्थान जीवन के अंतिम पलों की मानसिक दशा को तय करती है ।
वही संतो जैसा चिंतन महाप्रस्थान के अंतिम कुछ पलों की वेदना को समाप्त कर देता है।
जितनी जल्दी हम उस महाप्रस्थान के पल के लिए स्वयं को तैयार करेंगे उतने ही जल्द हम महान जीवन को अपना पाएंगे ।
इसीलिए जगतगुरु शंकराचार्य ने कहा है भज गोविंदम भज गोविंदम भज गोविंदम मूड मते ।
     यह आलेख किसी की मृत्यु की कामना के लिए नहीं है बल्कि मृत्यु के समय  की तड़प से मुक्ति के लिए है जो हमारे आपके मन मे विश्वास पैदा करती है। चरपट पंजारिका में इसका संपूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण किया है आदि गुरु ने। आदि गुरु ने लिखा भी तो है ना हम ना त्वं ना यमलोक: तदपि किमर्थम क्रियते शोक: .
सुधि पाठक जन आदि गुरु ने जीवन के मूल्यों को अध्यात्म के साथ सिंक्रोनाइज करने की बात की है और उसका मूल सार है कि जीवन को कितना बेहतर बनाया जाए। अगर जीवन अध्यात्मिक के चैतन्य से भरा होगा तो पक्का मानिए जैसी नींद आती है ना वैसे ही महाप्रस्थान की घड़ी आएगी और हमें उसे पवित्र बनाना है यह मुमुक्ष  अर्थात मोक्ष प्राप्ति का प्रथम मार्ग है यह अलग तथ्य है कि मोक्ष कब मिलता है ?
तब तक जारी रहे- भज गोविंदम भज गोविंदम गोविंदम भज मूड मति ।।

मंगलवार, नवंबर 09, 2010

मृत्यु में सौन्दर्य का बोध

          
काव्यलोक से साभार
मृत्यु ऐसी भयावह नहीं
  आदरणीय पाठकों ने   अंतिम कविता 01 एवम अंतिम कविता 02 देख कर जाने क्या क्या कयास लगा लिये  होंगे मुझे नहीं मालूम पर इतना अवश्य जानता हूं कि - भाव अचानक उभरे कि शब्दों में पिरोकर  लिख देने बाध्य करता है  मेरे मन का कवि  केवल कवि  है. जाने अनजाने दवाव डालता है तो  लिख देता हूं- आप किसी के जीवन पर गौर करें  तो पाएंगे वो जन्म से मृत्यु तक एक अनवरत  असाधारण कविता ही तो है. पूरे नौ रसों से विन्यासित मानव-जीवन में सब कुछ  एक कविता की मानिंद चलता है वास्तव में मेरी उपरोक्त दौनों कविताएं एक स्थिति चित्रण मात्र है जिसे न लिखता तो शायद अवसादों से मुक्त न होता कुल मिलाकर हर सृजन के मूलाधार में एक असामान्य स्थिति सदा होती ही है. प्रथम कविता यदि क्रौंच की कराह से उपजी थी तो पक्के तौर पर माना जावे कि हर असाधारण परिस्थिति के सृजन को जन देती ही है. जो जीवन के रस में मग्न हैं उनके लिये "मृत्यु" एक दु:ख और भय कारक  घटना है. लेकिन वो जो असाधारण हैं जैसे अत्यधिक निर्लिप्त (महायोगी संत उत्सर्गी जैसे भगत सिंह आदि )अथवा अत्यधिक शोकाकुल अथवा निरंतर पराजित उसे मृत्यु में  सौन्दर्य का एहसास होता है. :-
सच बेहद खूबसूरत हो
नाहक भयभीत होते है
तुमसे अभिसार करने
तुम बेशक़ अनिद्य सुंदरी हो
अव्यक्त मधुरता मदालस माधुरी हो
बेजुबां बना देती हो तुम
बेसुधी क्या है- बता देती हो तुम
तुम्हारे अंक पाश में बंध देव सा पूजा जाऊंगा
पलट के फ़िर
कभी न आऊंगा बीहड़ों में इस दुनियां के
ओ मेरी सपनीली तारिका
शाश्वत पावन  अभिसारिका
तुम प्रतीक्षा करो मैं ज़ल्द ही मिलूंगा 
                                             यह अभिव्यक्ति किसी की भी हो सकती जो घोर नैराश्य से घिरा हो या महायोगी संत उत्सर्गी हो. महा मिलन को बस ये दो ही प्रकार लोग सहज स्वीकारतें हैं.सामान्य नहीं. यह वो बिंदु है जहां से "आत्म-हत्या शब्द को अर्थ मिलता है  महायोगी संत उत्सर्गी यह कृत्य नहीं करते वे भी नहीं करते जो घोर नैराश्य भोग रहे हों केवल वे ही ऐसा करतें हैं जो क्षीण और  विकल्पहीन हो जातें हैं. मुझे हुआ है मृत्यु में सौंदर्य का बोध अब भय नहीं खाता पर संघर्ष मेरी आदत है और प्राथमिकता भी  सो जो मित्र मेरी कविताओं से कुछ अर्थ निकाल रहे थे वे इससे समझें मुझे 

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