गांव के गांव बूचड़ खाने से लगने लगे हैं- सियासी-परिंदे गावों पे मंडराने लगे हैं.
साभार : http://yugaahwan.blogspot.in/ रजाई ओढ़ तो ली मैनें मगर वो नींद न पाई , जो पल्लेदारों को बारदानों में आती है.! वो रोटी कलरात जो मैने छोडी थी थाली में मजूरे को वही रोटी सपनों में लुभाती है. *********** फ़रिश्ते आज कल घर मेरे आने लगे हैं मुझे बेवज़ह कुछ रास्ते बतलाने लगे हैं मुझे मालूम है काम अबके फ़रिश्तों का फ़रिश्ते घूस लेकर काम करवाने लगे हैं. *********** तरक़्क़ी की लिस्टें महक़में से हो गईं जारी तभी तो लल्लू-पंजू इतराने लगे हैं....!! खुदा जाने नौटंकी बाज़ इतने क्यों हुए हैं वो जिनको लूटा उसी को भीख दिलवाने चले हैं. *********** जिन गमछों से आंसू पौंछते हमारे बड़े-बूढ़े- वो गमछे अब गरीबों को डरवाने लगे हैं. गांव के गांव बूचड़ खाने से लगने लगे अब सियासी-परिंदे गांवों पे मंडराने लगे हैं.