ऐसा
माना जाता है की साहित्य समाज का दर्पण होता है फिर चाहे वो भारतीय समाज हो या अपनाये
हुए देश का समाज हो. प्रवासी भारतीयो की सोच भारत में हो रही गतिविधियों से भी संचालित
होती है, और यह संचालित सोच प्रवासी लेखन में बखूबी दिखाई भी देती हैं, फिर चाहे वो
कोई भी विधा हो. प्रवासी कथा साहित्य जिसका रंग-रूप भारत के पाठकों के लिए एक नयेपन
का बोध देता है, कारण है, प्रवासी कथा साहित्य में अपने अपनाए हुए देश के परिवेश,
संघर्ष, विशिष्टताओं, रिश्तों और उपलब्धियों पर जानी -माने प्रवासी कथाकारों ने अपने
लेखन के द्वारा एक भिन्न समाज से परिचय करवाया है। विषय समाज की ठोस समस्याओं से जुड़े
होते हैं और नारी चरित्रों एवं परिवेश के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों और अन्याय का
अनावरण भी किया जाता है। प्रवासी के लिए यह आसान नहीं होता कि वह अपने अपनाए हुए देश
की संस्कृति, सभ्यता और रीति-रिवाज से पूरी तरह जुड़ पाए। उनकी जड़ें अपनी मातृभूमि,
संस्कारों एवं भाषा से जुड़ी होती हैं। और जहां तक स्त्री की बात आती है तो सभी धर्मों
और देशों में नारी का रुतबा हमेशा से दोयम दर्जे का रहा है। जो प्रवासी रचनाकारों
की कथाओं में भी झलकता है.
प्रवासी कथा-साहित्यकारों में ऐसे बहुत से नाम है, जिनकी रचनाओं को पढ़कर
आप बखूबी अनुमान लगा लेंगे कि आज भी विदेशों में रहते हुए भी वे दुनिया को भारतीय चश्में
से देखते हैं, इसीलिए उनका लेखन नयेपन के बावजूद भी पाठक के दिल के करीब होता है और
मन को छू जाता है. अमरीका में विगत 25 वर्षों से रह रही जानी मानी कथाकार सुधा
ओम ढींगरा जी के कहानी संग्रह, ‘कौन सी ज़मीन अपनी’, में यह कहानी
‘क्षितिज से परे’, पाठक को वाकई सोचने पर मजबूर कर देती है कि, औरत ही
हमेशा त्याग की मूरत बनी रहे ,पुरुष चाहे भारत की जमीं पर रहता हो या विदेशी जमीं पर.
कहानी की नायिका, सारंगी जो सिर्फ सत्रह साल की उम्र में अपने पति सुलभ के साथ कैनेडी
एयरपोर्ट पर डरी -सहमी -सी उतरी थी और अमेरिका में पहले ही दिन उसके पीऍच.डी उम्मीदवार
पति ने उसे ‘बेवकूफ़’ कह कर पुकारा था और चार पढ़े -लिखे और अच्छे कैरियर वाले बच्चों
की माँ होने के बावजूद चालीस साल तक उसका पति उसे बेवकूफ़ कह कर पुकारता रहा, सारंगी
त्याग और सहिष्णुता की देवी बनी सारे कर्तव्य चुपचाप निभाती रही। अंत में वह फैसला
करती है कि उसे अपने पति को तलाक देना होगा, उसका पति अभी भी चालीस साल पहले की मानसिकता
में जी रहा है. दसवीं पास सारंगी , जिसने हर रोज़ पराये देश में संघर्ष किया,
सोच और समझ दोनों में बहुत आगे निकल गई है. वह अब और अपने पति से जुड़ी
नहीं रह सकती. उसकी प्राथमिकताएँ बदल गई है. सारी ज़िम्मेदारी का निर्वाह
करने के बाद आज वो आखिरकार हिम्मत जुटा पायी है…कि अपने आसमान की तलाश उसे करनी ही
होगी, जहाँ वो उम्र के पड़ाव को भी पछाड़ सकती है. चूंकि कोई भी कहानी रिश्तों
और समस्याओं की तर्कसम्मत प्रस्तुति होती है इसी कारण कहानी में समस्याओं का हल प्रस्तुत
करने के लिए लेखिका ने विदेशों में रह रहे भारतीयों ख़ास कर महिलाओं के बारे में
एक गलतफहमी को दूर करने का सफल प्रयास किया है । अमरीका कि प्रसिद्ध लेखिका रचना श्रीवास्तव
जी को विदेश जाकर जो माहौल दिखा, उसमे वो कहती है कि, हम स्त्रियों की दशा थोड़ी
कष्टप्रद होती है. भारतीय संस्कार और यहाँ के वातावरण में तालमेल बैठाना कठिन होता
है. बहुत समय लगता है अपने आपको इस माहौल में ढालने के लिए. कभी किसी महिला का दर्द
शब्दों में ढल कर कविता या कहानी का रूप ले लेता हैं. भारतीय समाज और विदेशी समाज की
धारणाएँ अलग होते हुए भी …..यहाँ भी पुरुष सिर्फ अपने लिए ही जीता है…..इसकी मिसाल
उनकी एक कहानी ‘पार्किंग’ है …जिसमे नारी पात्रों के जरिये रचना जी ने विदेशी समाज
और भारतीय समाज की नारी के रिश्तों के प्रति सोच और त्याग को एक जैसा ही दर्शाया है,
और पुरुष की स्वार्थी मानसिकता को भी. नायिका जूलिया का रूखा व्यवहार स्नेह को तब समझ
आता है जब जूलिया उसे अपनी आपबीती सुनाती है कि, किस तरह वो पति के हाथों छली गयी है
और बेटे का एक्सिडेंट ने उसे और भी तोड़ दिया है पर वो फिर भी जीती है बेटे की खातिर…..परिवेश
कोई भी हो आज भी नारी ही चुपचाप सहती है परिवार और बच्चों की खातिर.
अमरीका में 30 वर्षों से प्रवासी होते हुए भी सुषम बेदी जी भारतीय
समाज की संस्कृति और रीति रिवाजों को भुला नहीं पायी, जहाँ आज भी स्त्री हर रस्मों-रिवाज़
को निभाने में पूरा सहयोग करती है. चूंकि इस कहानी में स्त्री विदेशी मूल की है, तो
उसका एक अलग ही रूप दर्शाया गया है जो भारतीय स्त्री से कहीं भी मेल नहीं खाता, और
उसकी पीड़ा नायक सहता है. सुषम बेदी जी की कहानी ‘अवसान’ में नायक शंकर अपने दोस्त दिवाकर
का अंतिम संस्कार हिंदू रीति से करना चाहता है; परंतु उसकी अमेरिकी पत्नी हेलन चर्च
में ही सारी औपचारिकताएं पूरी करना चाहती है. यहाँ नारी का दूसरा रूप दर्शाया है जो
‘पार्किंग’ कहानी की नायिका के बिलकुल विपरीत है, जबकि दोनों नायिकाएँ अमरीकी मूल की
हैं. हेलन शंकर का साथ न देकर जिद पर अड़ी हैं ,जिसके चलते शंकर , पादरी की क्रिया खत्म
होते ही गीता के श्लोकोच्चारण से अपने मित्र के अंतिम संस्कार की क्रिया को पूर्ण करता
है और फिर वो कैसे बहुत संयत तथा हल्का महसूस करता है।
ब्रिटेन की शैल अग्रवाल जी की कहानी ‘वापसी’ मे परंपरा तथा आधुनिकता
के अन्तर्द्वन्द्व में फंसी नायिका पम्मी अपने घर-परिवार की मान-मर्यादा के लिए अपनी
खुशियों तथा आकांक्षाओं का गला घोंट देती है। नारी को फिर त्याग की मूर्ति दिखाया है.
उसके हिसाब से हित के लिए लिया गया निर्णय सौदा नहीं, त्याग होता है और वह कहती है
कि मैं ही क्या हमारे यहाँ तो हजारों पम्मियाँ सदियों से ही करती आ रही हैं. नारी-हित
की बातें करने वाले इस देश में बस यही होता आया है। पहले राधा-कृष्ण अलग किए जाते हैं
;फिर उनके मंदिर बना दिए जाते हैं…आदत डाल लो तो समुंदर में तैरती मछली भी खुशी-खुशी
काँच के बॉल में तैरने लग जाती है।’ (पृ. 42) परंपरा तथा आधुनिकता के अन्तर्द्वन्द्व
में फँसी पम्मी अंततः हेमंत के साथ जाने को तैयार हो जाती है और खास बात तो यह कि उसकी
दादी भी उसकी वापसी के लिए अपनी सहर्ष सहमति देती है. कहानी के अंत को पढ़कर पुरानी
पीढ़ी की नारी (दादी) को नये परिवेश में ढलते दिखाना कहीं न कहीं बदलते समाज का रूप
है …चाहे धीरे धीरे ही सही.
नारी का एक विश्व प्रसिद्ध रूप कर्मठता का भी है, चाहे देशी धरती या विदेशी.
महिला चाहे तो अपनी मेहनत और लगन से कुछ भी हासिल कर सकती है और यह लंदन की उषा राजे
सक्सेना जी कहानी, ‘बीमा बीस्माट’ एक बिल्कुल नये कथानक से पाठकों को परिचित कराती
है। कहानी एक शिक्षिका द्वारा एक अर्धविक्षिप्त बालक बीमा बीस्माट को एक जिम्मेवार
ब्रिटिश नागरिक बनाने की कडी मेहनत, लगन और समर्पण को प्रस्तुत करती है।
गौतम सचदेव की कहानी ‘आकाश की बेटी’ साधना नाम की स्त्री के त्यागपूर्ण
तथा संघर्षमय जीवन की कथा है। घर-परिवार के सारे रिश्तों को तोड़कर व तमाम सुख-सुविधाओं
को छोड़कर जिस देविंदर के प्यार के लिए साधना झूठ बोलकर इंग्लैंड चली जाती है, वहाँ
जाने पर देविंदर द्वारा छली जाती है। देविंदर का रुखा व्यवहार तथा एक अन्य ब्रिटिश
मेम शाइला से प्यार उसे तलाक के लिए मजबूर कर देता है। दूसरी शादी में भी उसे इसी प्रकार
की समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। वह अपनी बेटी बबली को भी गँवा देती है। अपने
घर के दालान में कबूतरों को दाना चुगाती साधना के जीवन में आई एक नई कबूतरी, जिसकी
शरारतें कुछ-कुछ बबली से मिलती-जुलती हैं। अब साधना उसी के इंतजार में रहती है और उसी
को जीने का सहारा मानकर खुश रहती है.
प्रवासी कथाकारों ने अपने साहित्य के जरिये स्त्री के हर रूप को शब्दों
में बाँध बारीकी से दर्शाने के बहुत ईमानदारी से कोशिश की है. अमरीका की ही एक
और कहानीकार पुष्पा सक्सेना जी की कहानी ‘विकल्प कोई नहीं’, में माँ को बेटे के चले
जाने के बाद , दर्द को छिपाकर सिर्फ बहू की आने वाली लंबी जिंदगी के बारे में सोच कर,
बहू का बेटी की तरह कन्यादान करना और बहू का अतीत से बाहर न आ सकना , बारीकी से दिखाया
है. और औरत का यह रूप जहाँ, वो सास से माँ बन कर फिर एक मार्गदर्शक के नाते बहू सौम्या
को समझाना कि, ‘दूसरा पति ,पहले का विकल्प नहीं हो सकता’, नारी की बुद्धिमत्ता का
द्योतक है. और दूसरी तरफ बिलकुल इसके विपरीत लंदन के सुप्रसिद्ध कथाकार तेजेन्द्र शर्मा
जी कि कहानी ‘देह की कीमत’, में अपने पति हरदीप को, जिसके साथ पम्मी ने सिर्फ 4-5 माह
ही व्यतीत किए थे , जिसे वह विदेशी धरती जापान में खो चुकी है, उसके दुखों और भविष्य
की परवाह न करते हुए, बीजी (सास) ऐसे विषम क्षणों में भी तिजारत और व्यावहारिक फायदे
नहीं भूलती. बेटे की मौत के बाद मित्रों द्वारा चंदे के भेजे पैसे बहू को न मिल पाये,
बल्कि घर में ही रहे, यह सोचकर वो अपने दूसरे बेटे से विधवा बहू पर चादर ओढ़ाने की बात
करती है. औरत के ऐसे स्वार्थी चेहरे को तेजेन्द्र जी ने बड़ी ही कुशलता से उकेरा है.
एक और प्रवासी कथा लेखिका उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ में औरत का बिलकुल अलग रूप
देखने को मिलता है जो घर-गृहस्थी और बच्चों के कारण वर्षों पति से अलग रहती है और जब
सेवानिवृत्त हो कर पति साथ रहने आता है तो सब कुछ बदला हुआ पाता है. यहाँ तक कि पत्नी
भी साथ नहीं रह पाती, अंतराल प्यार खतम कर चुका होता है.
कैनेडा की जानी मानी कथा लेखिका सुदर्शन प्रियदर्शिनी जी
ने अपनी कहानी ‘धूप’ के माध्यम से नारी के मन के अंतरद्वंद्व को उकेरा
है. जिसमे नायिका रेखा अमरीका की धरती पर कदम रखते हुई खुश है. समय के साथ उसे महसूस
होता है की उसका पति बिलकुल अमरीकन बन चुका है और स्वार्थी भी. जैसे दूसरों की स्कीमों
पर बने घरों में उम्र कट रही है. अपनी मनपसंद की चौखट कभी मिल ही नहीं पाएगी, इसलिए
दूसरों के बनाए हुए साँचों में ढल और अपना नापतौल भूलने से पहले वह किस तरह से समझदारी
और हिम्मत से फैसला लेती है. काबिले तारीफ है.
कुल मिला कर प्रवासी-साहित्य में कथाकारों ने अपनी पारखी नज़रों और पैनी
कलम से स्त्री के संघर्ष ,त्याग, साहस और बुद्धिमता का ऐसा ख़ाका खीचने का प्रयास किया
है, जिसमे देशी और विदेशी धरातल पर पाठकों को लाकर एक सवालिया निशान बना, उन्हे समाज
में बदलाव लाने का न्योता देने का काम कर रहे हैं. देशी मिट्टी में देशी संस्कारों
की सौंधी महक से सराबोर इन कहानियों से गुजरते हुए अपने देश, अपनी मिट्टी और अपनी संस्कृति
के प्रति आस्था और विश्वास में बढ़ोतरी होती है।
- डॉ. अनिता कपूर