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17.8.12

न ही तुम हो स्वर्ण-मुद्रिका- जिसे तपा के जांचा जाए.



जितनी बार बिलख बिलख के रोते रहने को मन कहता
उतनी बार मीत तुम्हारा भोला मुख सन्मुख है रहता....!
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सच तो है अखबार नहीं तुम,
जिसको को कुछ पल बांचा जाये.
न ही तुम हो स्वर्ण-मुद्रिका-
जिसे तपा के जांचा जाए.
मनपथ की तुम दीप शिखा हो
यही बात हर गीत है कहता
जितनी बार बिलख बिलख के ...............
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सुनो प्रिया मन के सागर का
जब जब मंथन मैं करता हूं
तब तब हैं नवरत्न उभरते
और मैं अवलोकन करता हूँ
हरेक रतन तुम्हारे जैसा..?
तुम ही हो ये मन  है कहता.
जितनी बार बिलख बिलख के ...............
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15.3.12

आ मीत लौट चलें गीत को सँवार लें

आ मीत लौट चलें गीत को सँवार  ले
अर्चना का वक़्त है आ बातियाँ सुधार लें
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भूल हो गयी अगर गीत में या छंद में
जुट जाएं मीत आ सुधार के प्रबंध में
कोई रूठा हो अगर तो प्रेम से पुकार लें
आ मीत .................................!!
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कौन जाने कुंठित मन कितने घर जलाएगा
कौन जाने मन का दंभ- "कितने गुल खिलाएगा..?"
प्रेम कलश रीता तो, चल अमिय उधार लें ..!!
आ मीत .................................!!
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आत्म-मुग्धता का दौर,शिखर के लिये  ये दौड़
न कहीं सुकून है,न मिला किसी को ठौर
शंखनाद फिर  कभी ! आज  तो  सितार लें ॥!
आ मीत .................................!!
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18.1.12

कविता और गीत : गिरीश बिल्लोरे मुकुल

कविता


"विषय '',
जो उगलतें हों विष
उन्हें भूल 


अमृत बूंदों को
उगलते
कभी नर्म मुलायम बिस्तर से
सहज ही सम्हलते
विषयों पर चर्चा करें
अपने "दिमाग" में
कुछ बूँदें भरें !
विषय जो रंग भाषा की जाति
गढ़तें हैं ........!
वो जो अनलिखा पढ़तें हैं ...
चाहतें हैं उनको हम भूल जाएँ
किंतु क्यों
तुम बेवज़ह मुझे मिलवाते हो इन विषयों से ....
तुम जो बोलते हो इस लिए कि
तुम्हारे पास जीभ-तालू-शब्द-अर्थ-सन्दर्भ हैं
और हाँ 


तुम अस्तित्व के लिए बोलते हो-
इस लिए नहीं कि 

तुम मेरे शुभ चिन्तक हो । 

शुभ चिन्तक 
रोज़ रोटी 
चैन की नींद !!

गीत:-

अनचेते अमलतास नन्हें
कतिपय पलाश।
रेणु सने शिशुओं-सी
नयनों में लिए आस।।
अनचेते चेतेंगें
सावन में नन्हें
इतराएँगे आँगन में
पालो दोनों को ढँक दामन में।
आँगन अरु उपवन के
ये उजास।

ख़्वाबों में हम सबके बचपन भी
उपवन भी।
मानस में हम सबके
अवगुंठित चिंतन भी।
हम सब खोजते
स्वप्नों के नित विकास।।

मौसम जब बदलें तो
पूत अरु पलाश की
देखभाल तेज़ हुई साथ
अमलतास की
आओ सम्हालें इन्हें ये तो
अपने न्यास।।

19.8.11

ढाई आखर “अन्ना” का पढ़ा वो पण्डित होय !!


साभार : आई बी एन ख़बर

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआं,पण्डित भया न कोय
ढाई आखर “अन्ना” का पढ़ा वो पण्डित होय !!

वो जिसने बदली फ़िज़ा यहां की उसी के सज़दे में सर झुका ये
तू कितने सर अब क़लम करेगा, ये जो कटा तो वो इक उठा है
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तेरी हक़ीक़त  तेरी तिज़ारत  तेरी सियासत, तुझे मुबारक़--
नज़र में तेरी हैं हम जो तिनके,तो देख ले अब हमारी ताक़त !!
कि पत्ता-पत्ता हवा चली है.. तू जा निकल जा बदन छिपा के !!
                          वो जिसने बदली फ़िज़ा यहां की उसी के सज़दे में सर झुका ये
***********************
थी तेरी साज़िश कि टुकड़े-टुकड़े हुआ था भारत, वही जुड़ा है
तेरे तिलिस्मी भरम से बचके, हक़ीक़तों की तरफ़ मुड़ा है....!!
                         अब आगे आके तू सर झुक़ा ले..या आख़िरी तू रज़ा बता दे ..?
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ये जो हक़ीक़त का कारवां हैं,तेरी मुसीबत का आसमां है
कि अपनी सूरत संवार आके, हमारे हाथों में आईना है..!
                        अग़रचे तुझमें नहीं है हिम्मत,तो घर चला जा..या मुंह छिपा ले !
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31.3.11

विजयी था विजय है मेरी, करते रहो लाख मनचीते !!


मैं तो मर कर ही जीतूंगा जीतो तुम तो जीते जीते !
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कितनी रातें और जगूंगा कितने दिन रातों से होंगे
कितने शब्द चुभेंगें मुझको, मरहम बस बातों के होंगे
बार बार चीरी है छाती, थकन हुई अब सीते सीते !!
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अपना रथ सरपट दौड़ाने तुमने मेरा पथ छीना है.
      अपना दामन ज़रा निहारो,कितना गंदला अरु झीना है
  चिकने-चुपड़े षड़यंत्रों में- घिन आती अब जीते-जीते !!
**************
    अंतस में खोजो अरु रोको, अपनी अपनी दुश्चालों को
चिंतन मंजूषाएं खोलो – फ़ैंको लगे हुए तालों को-
      मेरा नीड़ गिराने वालो, कलश हो तुम चिंतन के रीते !!
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सरितायें बांधी हैं किसने, किसने सागर को नापा है
लक्ष्य भेदना आता मुझको,शायद तथ्य नहीं भांपा है
    विजयी था विजय है मेरी, करते रहो लाख मनचीते !!
     ****************

1.3.11

दीप शिखा तुम मुझे बताना कहां हैं परबत किधर है समतल...........?

यहाँ भी देखिये 

सुर सरिता की सहज धार सुन
तुम तो अविरल हम भी अविचल !!
॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑
अश्व बने सुर-सातों जिसके
तुम सूरज का तेज़ संजोकर !
चिन्तन पथ से जब जब निकले
गये सदा ही मुझे भिगोकर !!
आज़ का दिन तो बीत गया यूं जाने कैसा होगा फ़िर कल !!
सुर सरिता की सहज .......!
॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑
जीवन पथ जो पीर भरा हो
नयन नीर सावन सा झर झर !
कितने परबत पार करोगे
ये सब कुछ साहस पर निर्भर ..?
दीप शिखा तुम मुझे बताना कहां हैं परबत किधर है समतल...........?
सुर सरिता की सहज .......!
भूलो मत कुरुक्षेत्र युद्ध एक प्रमाण मीत !
जननी हैं ,भगनी है, रमणी हैं नारियां -
सुन्दर प्रकृति की सरजनी हैं नारियां 
हैं शीतल मंद पवन,लावा  ये ही तो हैं
धूप से बचाए जो वो  छावा यही तो हैं !

13.2.11

वही क्यों कर सुलगती है ? वही क्यों कर झुलसती है ?






वही  क्यों कर  सुलगती है   वही  क्यों कर  झुलसती  है ?
रात-दिन काम कर खटती, फ़िर भी नित हुलसती है .
न खुल के रो सके न हंस सके पल –पल पे बंदिश है
हमारे देश की नारी,  लिहाफ़ों में सुबगती  है !

वही तुम हो कि  जिसने नाम उसको आग दे  डाला
वही हम हैं कि  जिनने  उसको हर इक काम दे डाला
सदा शीतल ही रहती है  भीतर से सुलगती वो..!
 
कभी पूछो ज़रा खुद से वही क्यों कर झुलसती है.?

मुझे है याद मेरी मां ने मरते दम सम्हाला है.
ये घर,ये द्वार,ये बैठक और ये जो देवाला  है !
छिपाती थी बुखारों को जो मेहमां कोई आ जाए
कभी इक बार सोचा था कि "बा" ही क्यों झुलसती है ?

तपी वो और कुंदन की चमक हम सबको पहना दी
पास उसके न थे-गहने  मेरी मां , खुद ही गहना थी !
तापसी थी मेरी मां ,नेह की सरिता थी वो अविरल
उसी की याद मे अक्सर  मेरी   आंखैं  छलकतीं हैं.

विदा के वक्त बहनों ने पूजी कोख  माता की
छांह आंचल की पाने जन्म लेता विधाता भी
मेरी जसुदा तेरा कान्हा तड़पता याद में तेरी
उसी की दी हुई धड़कन इस दिल में धड़कती है.

आज़ की रात फ़िर जागा  उसी की याद में लोगो-
तुम्हारी मां तुम्हारे साथ  तो  होगी  इधर  सोचो
कहीं उसको जो छोड़ा हो तो वापस घर  में ले आना
वही तेरी ज़मीं है और  उजला सा फ़लक भी है !
        * गिरीश बिल्लोरे मुकुल,जबलपुर



अपने माता-पिता को ओल्ड-एज़-होम भेजने वालों  विनम्र आग्रह करता हूं कि वे अपने आकाश और अपनी ज़मीन को वापस लें आएं

देवाला=देवालय,पूजाघर,बा=मां, फ़लक=आसमान
प्रेम-दिवस पर विशेष "इश्क़-प्रीत-लव" पर

12.6.10

एक गीत.....................पॉड्कास्ट.......

मेरे प्रयास को सराहने केलिए मै आप सभी श्रोताओं  की आभारी हूँ.....आगे भी सहयोग मिलता रहेगा इसी कामना के साथ .............आपके सुझावों का स्वागत है.........
आज प्रस्तुत है................

 
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री जी की इस रचना को आप यहाँ पढ सकते हैं.................
http://uchcharan.blogspot.com/

19.4.10

माचिस की तीली के ऊपर बिटिया की पलती आग:भाग तीन [पाड्कास्ट में]

सुधि  श्रोतागण एवम पाठक/पाठिका गिरीश का हार्दिक अभिवादन स्वीकारिये आज़ मैने किसी का साक्षात्कार रिकार्ड नहीं किया अपनी ही आवाज़ में अपने सबसे लम्बे गीत के वे अंश प्रस्तुत कर रहा हूं जो बाह्य और अंतस की आग को चित्रिर करतें हैं सफ़ल हूं या असफ़ल फ़ैसला आप सुधिजनों के हाथ है...........
इसे सुनिये =>


अथवा पढिये =>
माचिस की तीली के ऊपर बिटिया की से पलती आग
यौवन की दहलीज़ को पाके बनती संज्ञा जलती आग .
********
एक शहर एक दावानल ने निगला नाते चूर हुए
मिलने वाले दिल बेबस थे अगुओं से मज़बूर हुए
झुलसा नगर खाक हुए दिल रोयाँ रोयाँ छलकी आग !
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युगदृष्टा से पूछ बावरे, पल-परिणाम युगों ने भोगा
महारथी भी बाद युद्ध के शोक हीन कहाँ तक होगा
हाँ अशोक भी शोकमग्न था,बुद्धं शरणम हलकी आग !
********
सुनो सियासी हथकंडे सब, जान रहे पहचान रहे
इतना मत करना धरती पे , ज़िंदा न-ईमान रहे !
अपने दिल में बस इस भय की सुनो सियासी-पलती आग ?
********
तुमने मेरे मन में बस के , जीवन को इक मोड़ दिया.
मेरा नाता चुभन तपन से , अनजाने ही जोड़ दिया
तुलना कुंठा वृत्ति धाय से, इर्षा पलती बनती आग !
********
रेत भरी चलनी में उसने,चला सपन का महल बनाने
अंजुरी भर तालाब हाथ ले,कोशिश देखो कँवल उगा लें
दोष ज़हाँ पर डाल रही अंगुली आज उगलती आग !!

23.9.08

आ ओ ! मीत लौट चलें




आ ओ मीत लौट चलें गीत को सुधार लें
वक़्त अर्चना का है -आ आरती संवार लें ।
भूल हो गई कोई गीत में कि छंद में
या हुआ तनाव कोई , आपसी प्रबंध में
भूल उसे मीत मेरे सलीके से सुधार लें !
छंद का प्रबंध मीत ,अर्चना के पूर्व हो
समवेती सुरों का अनुनाद भी अपूर्व हो,
अपनी एकता को रेणु-रेणु तक प्रसार दें ।
राग-द्वेष,जातियाँ , मानव का भेद-भाव
भूल के बुलाएं पार जाने एक नाव !
शब्द-ध्वनि-संकेत सभी आज ही सुधार लें !

2.9.08

सुबह,-"सुबह" उदास सी

जो जिया वो प्रीत थी ,अनजिया वो रीत है
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है
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प्रीत के प्रतीक पुष्प -माल मन है गूंथता
भ्रमर बागवान से -"कहाँ है पुष्प ?" पूछता !
तितलियाँ थीं खोजतीं पराग कण
पुष्प वेणी पे सजा उसी ही क्षण ,!
कहो ये क्या प्रीत है या तितलियों पे जीत है…….?
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !
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सुबह,-"सुबह" उदास सी,उठी विकल पलाश सी
चुभ रही थी वो सुबह,ओस हीन घास सी
हाँ उस सुबह की रात का पथ भ्रमित सा मीत है
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !
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तभी तो हम हैं हम ज़बाँ को रात में तलाशते
मिल गए तो खुश हुए,मिले न तो उदास से
यही तो जग की रीत है हारने में जीत है
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !
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