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बाप की साली :मौसी क्यों नहीं..?

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        आभार : नवभारत टाईम्स            गिरीश बिल्लोरे मुकुल     मैं उस महान लेखक का नाम भूल गया हूं परंतु उनकी लिखी गई कहानी का कथानक याद है।  सामान्य रूप से हम अपने कहे हुए  शब्दों असर को गहराई से नहीं जानते, और तो और हम अपने किए गए कृत्य का प्रभाव क्या पड़ेगा इसका अनुमान नहीं लगा पाते।  हरिहरन की गायक गजल मुझे बहुत पसंद आती है शायद आपने भी सुनी होगी- " जब कभी बोलना  मुख्तसर बोलना वक़्त पर बोलना मुद्दतों सोचना....   इसमें कोई शक नहीं बोलने से पहले और कुछ करने से समझ लेना चाहिए कि-" हमारे मुंह से निकले शब्द कितने सकारात्मक असर छोड़ते हैं अथवा उनका कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ता है ? हां तुम्हें बता रहा था कि, बात बहुत पुरानी है उस वक्त शायद हम कॉलेज में पढ़ा करते थे। कॉलेज के कैंपस से जुड़ी एक कहानी कैरेक्टर हॉस्टल में खाना बनाने या साफ सफाई करने का काम किया करती थी। पूरे स्टूडेंट्स उसे बाप की साली कहकर परेशान किया करते थे । ऐसा नहीं था कि इस कहानी की पात्र जिसे लोग बाप की साली कहते थे उसे छात्र पसंद नहीं करते थे परंतु ऐसा अलंकरण  महिला पात्र को बहुत दु:खी कर देता

क्या आपके फ़ादर अली ने भी कभी पहनी है ऐसी घड़ी..?

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भास्कर से साभार     बूचड़खाने से चीखते पुकारते कटते पशुओं की सी स्थिति हो चुकी है गोया हमारे चिंतन के लिये विषय चुक से गए हों  अपने इर्द-गिर्द देखिये कोई मौन-दृढ़ता युक्त व्यक्तित्व आपको क़तई नज़र न आएंगें. हम किसे सच मानें किसे झूठ इतना तक सामर्थ्य शेष नहीं रहा . कारण कारण क्या है बताते शर्म आती है सच जानना है तो जान ही लो :-"हम एक मानसिक दीवालियेपन वाले दौर में आ चुकें हैं !" सूचनाऒं की बौछार को हम सत्य मान लेते हैं.   हमारी नज़र में हम उम्दा हैं बाक़ी सब बाक़ी सब दोयम दर्ज़े के . यानी सरो-पा नैगिटिविटि . दस बरस पहले एक दम्पत्ति दीवाली की खरीदी के वास्ते पास के शहर से आई थी. उन दिनों वीडियो-गेम्स का बड़ा चलन था. स्टेटस सिंबल बढ़ाने किये जाने वाले यत्नों में  सपूत के लिये वीडियो-गेम खरीदता जोड़ा  आपस में बतिया रहा था गुप्ता जी के बेटे के पास जो है उससे बेहतर है न ये . गुप्ता जी उनका सहकर्मी या पड़ौसी था. पेशे से अफ़सर ये लोग वाक़ई आपसी स्पर्द्धा में बच्चों तक को घसीट लेते है .गुप्ता जी के बेटे से बेहतर वीडियो-गेम उनके पास होना क्यों ज़रूरी है इस बात की पतासाजी करन

27.08 .2011 सारे भरम तोड़ती क्रांति के बाद

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                      शाम जब अन्ना जी को विलासराव देशमुख जी ने एक ख़त सौंपा तो लगा कि ये खत उन स्टुपिट कामनमे् न्स की ओर से अन्ना जी लिया था जो बरसों से सुबक और सुलग  रहा था.अपने दिल ओ दिमाग में  सुलगते सवालों के साथ. उन सवालों के साथ जो शायद कभी हल न होते किंतु एक करिश्माई आंदोलन जो अचानक उठा गोया सब कुछ तय शुदा था. गांधी के बाद अन्ना ने बता दिया कि अहिंसक होना कितना मायने रखता है. सारे भरम को तोड़ती इस क्रांति ने बता दिया दिया कि आम आदमी की आवाज़ को कम से कम हिंदुस्तान में तो दबाना सम्भव न था न हो सकेगा. क्या हैं वे भरम आईये गौर करें... मध्यम वर्ग एक आलसी आराम पसंद लोगों का समूह है : इस भ्रम में जीने वालों में न केवल सियासी बल्कि सामाजिक चिंतक, भी थे ..मीडिया के पुरोधा तत्वदर्शी यानी कुल मिला कर "सारा क्रीम" मध्य वर्ग की आलसी वृत्ति से कवच में छिपे रहने की  आदत से... परिचित सब बेखबर अलसाए थे और अंतस में पनप रही क्रांति ने  अपना नेतृत्व कर्ता चुन लिया. ठीक वैसे जैसे नदियां अपनी राह खुद खोजतीं हैं   क्रांति के लिये कोई आयकान भारत में है ही नहीं : कहा न भारत एक अनोखा देश है

भय बिन होत न प्रीत

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                          भय बिन होत न प्रीत एक गहन विमर्श का विषय है. सामान्य रूप से सभी स्वीकार लेते हैं . स्वीकारने की   वज़ह है भय के बिना कोई भी अनुशासन की डोर से बंध नहीं सकता :- जी हां , यह एक पुष्टिकृत [प्रूव्ड] सत्य है. अगर दुनिया भर में व्यवस्था को चलाने के लिये कानूनों के उल्लंघन की सज़ा के प्रावधान न होते तो क्या कोई इंसान कानून को मानता ? कदापि नहीं अधिकारों और कर्तव्यों के साथ साथ सर्व   जन हिताय दण्ड का प्रावधान इस लिये किया गया है कि आम आदमी अपने हित के लिये दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण न करे. कानून के साथ दिये गये दाण्डिक प्रावधानों से समाज में एक भय बनता है जो अनुशासन को जन्म देता है.   भय सामाजिक-सिस्टम को संतुलित रखता है   एवम सुदृढता करता है :-  समाज के रिवाज़ नियम उसके आंतरिक ढांचे को संतुलन एवम सुदृढता [ स्ट्रैबिलिटी] देता है.    समाज के संचालन के लिये में रीति-रिवाज़ बनाये गये हैं जो देश-काल-परिस्थितियों के अनुसार तय होते हैं सामाजिक-व्यवस्था के लिये ज़रूरी हैं.... जैसे परिवार के पालन-पोषण की जिम्मे