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अधमुच्छड़ ज़ेलर जो आधों को इधर आधों को उधर भेजता है.. बाक़ी को यानी "शून्य" को अपने पीछे लेके चलता है.

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                     कई वर्षों से हमारी समझ में ये बात क्यों न आ  रही है कि दुनिया बदल रही है. हम हैं कि अपने आप को एक ऐसी कमरिया से ढांप लिये है जिस पर कोई दूजा रंग चढ़ता ही नहीं. जब जब हमने समयानुसार खुद को बदलने की कोशिश की है या तो लोग   हँस दिये यानी हम खुद मिसफ़िट हैं बदलाव के लिये .    शोले वाले अधमुच्छड़ज़ेलर और उनका  डायलाग याद है न ... "हम अंग्रेजों  के ज़माने के जेलर हैं  "                         अधमुच्छड़  ज़ेलर ,  आधों को इधर आधों को उधर भेजता है.. बाक़ी को यानी "शून्य" को अपने पीछे लेके चलता है.  सचाई यही है मित्रो, स्वयं को न बदलने वालों के साथ निर्वात (वैक्यूम) ही  रहता है.                               इस दृश्य के कल्पनाकार एवम  लेखक की मंशा जो भी हो मुझे तो साफ़ तौर यह डायलाग आज़ भी किसी भी भौंथरे व्यक्तित्व को देखते आप हम दुहराया करते हैं.       आज़ भी आप हम असरानी साहब पर हँस  देते हैं. हँसिये  सलीम   जावेद  ने बड़ी समझदारी और चतुराई  से कलम का प्रयोग किया  ( जो 90 % दर्शकों के श्रवण- ज़ायके से वे वाक़िफ़ थे ) और असरानी साहब से कहलवाया