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शनिवार, अप्रैल 16, 2022

"भारतीय मानव सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेशद्वार 16000 ईसा-पूर्व" .......... क्यों लिखी गई


 

1.      प्राचीन इतिहास केवल मिथक हो गया तथा मध्यकाल और उसके बाद का इतिहास तो मुगलिया इतिहास बन के रहा गया। अतएव आत्मप्रेरणा से यह कृति लिखने का प्रयास किया है। इस कृति की सफलता पूर्वक पूर्णता के लिए गणनायक बुद्धि दाता श्री गणेश को सर्वप्रथम नमन करता हूं:

2.      तीर्थंकरों का उल्लेख अवश्य है पर यहाँ दो तीर्थंकरों का उल्लेख नहीं किया जो महाभारत कालीन श्रीकृष्ण के समकालीन थे। ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि या नेमिनाथ के नामों का उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। अरिष्टनेमि को भगवान श्रीकृष्ण का निकट संबंधी माना जाता है। उपरोक्त विवरण से श्रीकृष्ण को इतिहास से  विलोपित रखे जाने के उद्देश्य से नेमीनाथ जी का विस्तृत विवरण विलुप्त किया गया।

3.      महात्मा बुद्ध एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ। इनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थीं, फिर भी इतिहास वेत्ताओं ने उसी कुलवंश इक्ष्वाकु वंश के बुद्ध के पूर्वज को काल्पनिक निरूपित किया है .... है न हास्यास्पद तथ्य !

4.      अजीवात जीवोतपत्ति: जीवन का अस्तित्व में लाने में भौतिकरासायनिक-बायोलाजिकल तीन तरह की प्रक्रिया शामिल हैं. परन्तु जीवन का प्राथमिक निर्माण केवल स्वचालित-रासायनिक-प्रक्रिया (Auto-Cemical-Process)” से ही हुई है।

5.      मध्य प्रदेश में भीमबेटका के अवशेष साबित करते हैं कि भारतीय मानव-सभ्यता संस्कृति का अस्तित्व 2.6 लाख साल प्राचीन है.

6.      विश्व में मानव प्रजाति के वर्गीकरण से निम्नानुसार Race को चिन्हित किया गया है... मानव की प्रमुख प्रजातियाँ Principal Races Man निग्रिटो Negrito, नीग्रो Negro आस्ट्रेलॉयड Australoid, भूमध्यसागरीय Mediterranean, नॉर्डिक Nordic, अल्पाइन Alpine, मंगोलियन Mongoion,एस्किमो Eskimo बुशमैन Bushmen, खिरगीज Khirghiz, पिग्मी Pigmy, बद्दू Bedouins, सकाई Sakai, सेमांग Semang, मसाई Masai.यहाँ एक चर्चित विवादित रेस का ज़िक्र करते हैं जिसका उल्लेख ऊपर नहीं हुआ अर्थात कहीं भी आर्य प्रजाति Aryan-Race का ज़िक्र नहीं है. जो यह सिद्ध करता है कि आर्य कोई प्रजाति नहीं है।

7.      रामायण और महाभारत काल काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तविकता से परिपूर्ण है। इस कृति की सह लेखिका के रूप में डॉक्टर हंसा व्यास ( शिष्या प्रोफेसर वाकणकर जी ) जिन बिंदुओं पर प्रमुख रूप से आगे चर्चा करेंगी उनमें से एक है नर्मदा तट पर मौजूद रामायण एवं महाभारत ग्रंथों में मौजूद तत समकालीन स्थावर अवशेष राम के वन मार्ग के का निर्धारण आदि के संदर्भ में लेखन कार्य कर रहे हैं। राम केवल करुणानिधान राम नहीं है कृष्ण केवल कर्म योगी कृष्ण नहीं है हमें ऐतिहासिक संदर्भों को प्रस्तुत करते हुए उनके अस्तित्व और काल्पनिक संदर्भों से उनको दूर करने की जरूरत है। आने वाली पीढ़ी को यह बताना भी आवश्यक है कि राम और कृष्ण किसी भी स्थिति में मिथक नहीं है।

8.      इंडस वैली सिविलाइजेशन जिस पर अभी मात्र 10% से 15% तक कार्य हो सका है। खुदाई से प्राप्त अवशेषों से यह पुष्टि हो रही है कि वे अवशेष 3500 वर्ष प्राचीन न होकर लगभग 4500 वर्ष पुराने हैं। मोहनजोदड़ो हड़प्पा धौलावीरा आदि क्षेत्रों की खुदाई तथा उससे मिलने वाले अवशेषों को ईसा के 4500 से 5000 वर्ष पूर्व का माना है जो कि सभ्यता के अंत के हैं तो सभ्यता का प्रारम्भ कब का होगा आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। भारतीय भूभाग में यद्यपि नदी घाटी सभ्यता के संदर्भों में पर अभी बहुत सारा काम होना शेष है।

9.      हमारे दो प्रतिष्ठित साहित्यकारों क्रमश: श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन की कृति वोल्गा से गंगा तक एवं श्रीयुत रामधारी सिंह जी दिनकर की कृति संस्कृति के चार अध्याय साहित्यानुरागी/विद्यार्थी/एवं मानव समाज भी भ्रमित हुआ हैं। तथा भारतीय जन-मानस में वे इस मंतव्य को स्थापित करने में सफल भी हो गए कि जो तथ्य साहित्यिक कृति में अंकित हैं वे ऐतिहासिक भी हैं। भले ही वे अपनी-अपनी कृतियों को साहित्यिक कृति का रहे थे।

10.    डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर (उपाख्य : हरिभाऊ वाकणकर ; 4 मई 1919 – 3 अप्रैल 1988) भारत के एक प्रमुख पुरातत्वविद् थे। उन्होंने भोपाल के निकट भीमबेटका के प्राचीन शिलाचित्रों का अन्वेषण किया। अनुमान है कि यह चित्र 175000 वर्ष पुराने हैं। इन चित्रों का परीक्षण कार्बन-डेटिंग पद्धति से किया गया, परिणामस्वरूप इन चित्रों के काल-खंड का ज्ञान होता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस समय रायसेन जिले में स्थित भीम बैठका गुफाओं में मनुष्य रहता था और वो चित्र बनाता था। सन 1975 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।

11.    श्री वेदवीर आर्य अध्यावसाई विद्वान हैं । श्री आर्य रक्षालेखा विभाग के में उच्च पद पर आसीन हैं। संस्कृत, आंग्ल, पर समान अधिकार रखने वाले श्री आर्य का रुझान भारत के प्राचीन-इतिहास में है। वे तथ्यात्मक एवं एस्ट्रोनोमी एवं वैज्ञानिक आधार पर इतिहास की पुष्टि करने के पक्षधर हैं। उनकी अब तक दो कृतियाँ क्रमश: THE CHRONOLOGY OF INDIA from Manu to Mahabharata, तथा THE CHRONOLOGY OF INDIA From Mahabharata to Medieval Era, वो कृतियाँ हैं जिनके आधार पर हम भारत के वास्तविक इतिहास तक आसानी से पहुँच सकते हैं। यह कथन इस लिए कह सकने की हिम्मत कर पा रहा हूँ क्योंकि श्री आर्य ने इतिहास को मौजूद वेद, वैदिक-साहित्य में अंकित/उल्लेखित विवरणों, घटनाओं को नक्षत्रीय गणना के आधार पर अभिप्रमाणित करते हुये सम्यक साक्ष्य रखे  हैं। इस कृति का आधार भी श्री वेदवीर आर्य की कृति The chronology of India from Manu To Mahabharata ही है।

12.    यहां अन्य और दो कृतियों का पुन: उल्लेख आवश्यक हैंजिनमे एक श्री राहुल सांकृत्यायन - वोल्गा से गंगा, दूसरे श्री रामधारी सिंह दिनकर जी संस्कृति के चार अध्याय । दोनों ही कृतियों में क्रमशः तक तथा में भारतीय संस्कृति को केवल ईसा-पूर्व, 1800-1500 वर्ष पूर्व तक सीमित कर देते हैं।दिनकर जी तो चार कदम आगे आ गए और उनने यहाँ तक कह दिया –“”

13.    मान॰ राहुल सांकृत्यायन अपनी किताब वोल्गा से गंगा तक में कथाओं का विस्तार देते हुए मूल वैदिक चरित्रों और वंश का उल्लेख करते हैं तथा उन्हें 6000 से 3500 साल की अवधि तक सीमित करने की कोशिश करते हैं। वे अपनी प्रथम कहानी निशा में 6000 ईसा पूर्व दर्शाते हैं। दूसरी कथा निशा शीर्षक से है जिसमें 3500 वर्ष पूर्व का विवरण दर्ज है।

14.    वेदांग ज्योतिष आदियुग को इस प्रकार से चिन्हांकित किया –“जब सूर्य, चंद्रमा, वसव, एक साथ श्रविष्ठा-नक्षत्र में थे तब आदियुग का प्रारंभ हुआ था।इस तथ्य की पुष्टि करते हुए वेदवीर आर्य ने साफ्टवेयर से गणना करके पहचाना कि – 15962 ईसा-पूर्व अर्थात आज से 15962+2021= 17,983 साल पहले हुआ था।

15.    ब्रह्मा प्रथम नक्षत्र-विज्ञानी हैं जिन्हौने 28 नक्षत्र, 7 राशि, की अवधारणा को स्थापित किया था आदिपितामह ब्रह्मा ने ही पितामह-सिद्धान्त की स्थापना की। धनिष्ठादि- नक्षत्र के नाम इस प्रकार हैं : धनिष्ठा, अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्दा, पुनर्वसु, पुष्य,अश्लेषा, माघ, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजितश्रवण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती।

16.    वेदवीर आर्य जी ने ऋग्वेद के कालखंड को 14500 BCE से 11800 BCE तक कालखंड निर्धारित किया है। ऋग्वेद निर्माण के मध्यकाल को 11800 BCE से 11000 BCE तथा उत्तर ऋग वैदिक काल को 11000 BCE से 10,500 BCE (ईसा पूर्व) चिन्हित किया। अनुसंधानकर्ता श्री वेद वीर ने उन समस्त ऋषियों का भी सूचीकरण किया है जो वेद निर्माण में प्रमुख भूमिका में थे जिसमें लोपामुद्रा का नाम भी सम्मिलित है। ऋग्वेद के उपरांत यजुर्वेद अथर्ववेद सामवेद के निर्माण कालखंड को 14000 से 10500 BCE मानते हैं।

17.    वैदिक संहिताओं, और अन्य ग्रंथों उपनिषदों के लेखन का समय अर्थात कालखंड 10,500 ईसा पूर्व से 6777 ईसा सुनिश्चित करते हैं।

18.    भारत-भूमि पर ईसा पूर्व कम से कम 2.5 लाख से 2 लाख वर्ष पूर्व की कालाअवधि में मानव प्रजाति का जन्म हो चुका था, परंतु 72 हज़ार साल पूर्व के टोबा ज्वालामुखी के प्रभाव से होने वाली धूल मिट्टी इत्यादि के प्रभाव से बचने का केवल एक तरीका था कि लोग किसी कठोर संरचना जैसे गुफा, आदि के भीतर निवास करें। ऐसी स्थिति में पर्वतों जैसी विंध्याचल सतपुड़ा हिमालय तथा आदि की गुफाओं से श्रेष्ठ आश्रय स्थल और कौन सा हो सकता था। इसकी पुष्टि वनों में निवास करने वाले वनवासियों द्वारा बनाए गए शैल चित्रों से होती है जिनका निर्माण डेढ़ लाख वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के सतपुड़ा पर्वत माला में वाकणकर जी ने किया है। ऐसी स्थिति में यह तथ्य पूर्णता है स्पष्ट है कि.....

19.    इससे यह सिद्ध होता है कि जन-मानस में कहानियों के माध्यम से त्रुटिपूर्ण जानकारी को प्रविष्ट कराया जा रहा है। कहानी तो एक था राजा एक थी रानी के तरीके से सुनाई जा सकती थी परंतु गंगा से वोल्गा तक के सफर में ऐसा प्रतीत होता है कि बलात एक मंतव्य अर्थात नैरेटिव स्थापित करने की प्रक्रिया पूज्यनीय राहुल सांकृतायन ने करने का प्रयास किया है ।

20.    स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर जी ने भी आर्य सभ्यता एवं संस्कृति और भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को पृथक पृथक रूप से वर्गीकृत कर समाज का वर्गीकरण करने में कोई कोताही नहीं बरती है। इतना ही नहीं वे कहते हैं कि महाभारत का युद्ध पहले हुआ तदुपरांत उपनिषदों का जन्म हुआ। यह तथ्यों की जानकारी अथवा साहित्यिक कृति के रूप में लिखी गई किताब अथवा लिखवाई गई किताब में संभव है कि ऐसा लिखवाया  जाए। वास्तव में तथ्य एवं सत्य यह है कि – “महाभारत ईसा के 3162 वर्ष पूर्व हुआ और संहिता ब्राह्मण आरण्यक एवं उपनिषदों की रचना का काल 10,500 से 6677 ईसा पूर्व माना गया है।

21.    साहित्य अकादमी से पुरस्कृत संस्कृति के चार अध्याय नामक कृति के प्रारंभ में ही ऐसी त्रुटियां क्यों की गई इसका उत्तर मिलना भले ही मुश्किल हो लेकिन इस कृति का उद्देश्य बहुत ही स्पष्ट रूप से समझ में आ रहा है कि पश्चिमी विद्वानों के दबाव में किसी राजनीतिक इच्छाशक्ति के चलते इस कृति का निर्माण किया गया। हतप्रभ हूं कि महाकवि पूज्य रामधारी सिंह दिनकर ने इसे क्यों स्वीकारा ?

22.    कालानुक्रम का बोध न होने के कारण पूज्य दिनकर जी ने एक स्थान पर लिखा है –“ कथा-किंवदंतियों का जो विशाल भंडार हिंदू पुराणों में जमा है उसका भी बहुत बड़ा अंश आग्नेय सभ्यता से आया है। किसी किसी पंडित का यह भी अनुमान है कि - रामकथा की रचना करने में आग्नेय जाति के बीच प्रचलित कथाओं से सहायता ली गई है तथा पंपापुर के वानरों और लंका के राक्षसों के संबंध में विचित्र कल्पनाएं रामायण मिलती हैं, उनका आधार आग्नेय लोगों की ही लोक कथाएं रही होंगी । किंवदंतियाँ और लोक कथाएं पहले देहाती लोगों के बीच फैलती हैं और बाद में चलकर साहित्य में भी उनका प्रवेश हो जाता है।

23.    रामधारी सिंह दिनकर जी ने पुराण में वर्णित सीता का उल्लेख किया है वह मान्य है किंतु यह कैसे मान लें कि दिनकर जी को इस तथ्य का स्मरण में नहीं रहा था कि ऋग्वेद में ज्ञान देवी सरस्वती और वेद निर्माण क्षेत्र की गुमशुदा नदी सरस्वती एक ही नाम थे परंतु एक देवी के रूप में और दूसरी नदी के रूप में भौतिक रूप में उपलब्ध थी। जिनका स्वरूप अलग अलग था। यह स्वाभाविक है कि एक ही नाम किन्ही दो व्यक्तियों के हो सकते हैं ।

24. दिनकर जी ने इस तरह है तो रामायण एवं महाभारत के संदर्भ में कृष्ण की व्याख्या नहीं थी और ना ही कोई तकनीकी साक्ष्य प्रस्तुत किए है जो यह साबित कर सके कि राम और कृष्ण इतिहास पुरुष है। इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि वह इस तथ्य को तो स्वीकारते हैं कि राम और कृष्ण हमारे शाश्वत पुरुष हैं जिनकी चर्चा आज भी होती है किंतु वे उन्हें ऐतिहासिक रूप से संस्कृति के चार अध्याय में सम्मिलित नहीं करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दिनकर जी द्वारा जिन्होंने रश्मि रथी जैसी कृति का लेखन किया उनने जाने किन कारणों से इतिहास की शक्ल में एक कल्प-कथ्य लिखा होगा...?

25. एक और प्रश्न मस्तिष्क पर बोझ की तरह लगा हुआ था ... "ईसा के पंद्रह सौ साल पहले ईसा मसीह के जन्म काल तक क्या चार वेद 18 पुराण ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद, ज्योतिष भाषा विकास मोहनजोदड़ो हड़प्पा धौलावीरा, नर्मदा-घाटी के आसपास के अतिरिक्त  सभी नदियों के आसपास ) सभ्यता एवं संस्कृति का विकास कैसे हो गया था ?

             भाषा बनने में ही कम से कम 100 वर्ष  लग जाते हैं भाषा के विकास में कम से कम 500 साल फिर उन ग्रंथों को रचना इतना आसान तो नहीं ..?

26. समाज का तत्समय चार नहीं 5 खंड में विभाजन किया गया था न कि 4 खंडों में। ब्राह्मण क्षत्रि वैश्य एवं छुद्र (शूद्र ) एवं चांडाल। यह वर्गीकरण पेशे के आधार पर था। पांचों वर्णों का क्रमश: ब्राह्मण क्षत्रि वैश्य एवं छुद्र (शूद्र ) एवं चांडाल का कार्याधारित वर्गीकरण किया गया था न कि जाति के आधार पर।

1.                शूद्र: शूद्र शब्द केवल छुद्र शब्द का अपभ्रंश है। चीनी यात्रियों के द्वारा लिखित विवरण अनुसार उपरोक्त तथ्य प्रमाणित हैं। छुद्र अस्पृश्य नहीं होते। न ही उनको दलित या महा दलित जैसे विशेषणों से संबोधित करना चाहिए । केवल तत्कालीन समय में चांडाल स्वयंभू अस्पृश्य थे।

2.                वणिक या वैश्य: इस वर्ण का कार्य व्यवसाय से अर्थोपार्जन करना था। राज्य की वित्तीय व्यवस्था का के भुगतान एवं राजा को आवश्यकतानुसार धन उपलबढ़ा कराने का दायित्व प्रमुख-रूप से इसी वर्ग का था। ताकि राज्य में क्ल्यानकारी कार्यों, सामरिक, रक्षा, आदि की व्यवस्था के लिए धन का प्रवाह हो सके। इसे रामायण काल कृष्ण के काल, तदुपरान्त नन्द वंश के विवरण एवं अन्य राजाओं के इतिहास के सूक्ष्म विश्लेषण से समझा जा सकता है।

3.                क्षत्री: राज्य की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा व्यवस्था, का भार सम्हालने का दायित्व इसी वर्ण का था

4.                ब्राह्मण: शास्त्र अर्थात- अध्यात्म, दर्शन, कला, शिल्प, युद्ध की नीति, राज्य की नीति, एवं अन्य मानवोपयोगी ज्ञान जैसे आयुर्वेद् वास्तु-कला करना

चांडाल: मानवीय एवं पशुओं के शवों के निपटान शमशान की व्यवस्था, जैविक-कचरे का निपटान कर स्वच्छता का उत्तर-दायित्व। समाज में उनको उनके राजा के अधीन किया था। काशी में यह परंपरा आज भी देखी जा सकती है। केवल तत्कालीन समय में चांडाल स्वयंभू अस्पृश्य थे। वे बहुसंख्यक शाकाहारी समुदाय को स्पर्श नहीं करने देना चाहते थे। क्योंकि वे कायिक-कचरे के निपटान में शामिल होते थे अत: आयुर्वेदिक अनुदेशों का पालन करते हुए लोक-स्वास्थ्य-गत कारणों से गाँव में प्रविष्ट होते समय ढ़ोल पीटते शोर मचाते थे। शमशान घाटों पर भी किसी को भी न छूने की परंपरा का पालन कराते थे ।

 

 

 

 







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