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3.12.08

प्यारा भोपाल :मेरी बुआ का जर्जर शरीर

कला बुआ वाला भोपाल
मामाजी वाला भोपाल
मेरा नही हम सबका भोपाल
जिसे निगला था मिथाइल आइसो सायानाईट के
धुंएँ ने जो
समा गया था देहों में उन देहों में
जो निष्प्राण हो गयीं
जो बचीं वे ज़र्ज़र आज भी कांपते हुए जी रहीं हैं
उनमे मेरी कला बुआ जो देह में बैठे प्राण को आत्म-साहस के साथ
सम्हाले रखीं हैं ,
बुआ रोज जीतीं हैं एक नई जिंदगी
उन लोगों को याद भी करतीं हैं
शाह्ज़हानाबाद की आम वाली मस्जिद में उनके आसपास रहने वाली आशा बुआ, अब्दुल चाचा,
जोजफ सतबीर
यानी वो सब जिनकी अलग अलग इबादतगाहें हैं

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