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महफ़ूज़ मुझे खुद मुझसे ज़्यादा प्रिय हो..!

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प्रिय महफ़ूज़ "असीम-स्नेह" बज़ से जाना कि अब बिलकुल ठीक हो हम सबके लिये   खुशी की बात है. तुम्हारी कविता तुमको याद है न  Fire is still alive. But what of the fire? Its wood has been scattered, But the embers still dance. Though the fire is tiny, It survived. Though the fire is weak, It's still alive. Mahfooz Ali   महफ़ूज़ भाई तुम्हारे जीवन की कविता है सच  तुम वो आग हो जिसे कोई सहजता से खत्म कैसे कर सकता है. मैं क्या सारे लोग तुम्हारी ज़िंदगी के लिये अपने अपने तरीक़े से प्रार्थनारत थे. कौन हो किधर से हो कैसे हो मैं नहीं जानना चाहता. पर नेक़ दिल हो तभी तो "महफ़ूज़" हो. सारी बलाएं जो भी जब भी तुम पर आतीं हैं जिसकी आशंका मुझे सदा रहती है ईश्वर की कृपा से सच ज़ल्द निपट ही जातीं हैं.ज़िन्

गिरीश का खुला खत कुंठितों के नाम

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प्रिय कुंठावानों आपका जितना भी ज्ञान था कुंठा  की क्यारियों में रोप  आये हैं. आपके  बारे कहा जाता है कि -”उनके पास  अब तो शब्द भी चुक गये हैं . गाली गुफ़्तार एवम शारीरिक अक्षमता तक पर टिप्पणी करने लगे हैं.” आप के सर पर जिन लोगों का हाथ है वे स्वयम कुंठा के सागर में हिलोरें लेतें हैं.आप को ब्लाग पर गलीच शब्दों का स्तेमाल करने का कोई अधिकार न था न है. जब किसी विवाद में खुद को फंसे देखते है तुरंत ही मित्रवत पोस्ट लिखने का दावा करवाते है, इन रीढ़ हीनों का वैयक्तिक-चरित्र क्या होगा ? यह सब जान-समझ  सकतें है, विवाद जो नहीं था दिनेश जी यदी यह सत्य है तो सब सोच रहे हैं कि यकीनन ये सब कुछ आपसी मिली-भगत थी. जो लोग मौज लेने के लिये किया करतें हैं......?वैसे यह स्वयं लेखक कहते तो गले उतरती ...! समकाल पर आई यह पोस्ट वास्तव में लीपा पोती का एक असफ़ल प्रयास है. इस आरोप को मैं अंगद की तरह पुष्ट मान रहा हूं. वैसे तो देशनामा पर स्पष्ट संकेत मिल गये होंगे. ट्राल किस्म के लोगों को समझ लेना चाहिये. कि ब्लागिंग भी सरस्वती साधना ही तो है. वर्ना हम तो यही गाते रहेंगे खुश दीप भाई का तो अंदाज़ निराला था एक