पुश्तैनी मकान , मकान नहीं घर होते थे
पुश्तैनी मकान , मकान नहीं घर होते थे गोबर से लिपे सौंधी खुशबू वाले आधा फीट छुई की ढीग से सजे पुश्तैनी मकान ... दरवाजों पर खनकती कुण्डियाँ देर रात जब बजतीं चर्र से खुलते दरवाजे दो घर दूर वाले रामदीन के दादा खांसते खकारते पूछते – बहू कालू आया क्या .. हओ दद्दा हम आ गए ... पूरा मुहल्ला जो रात नौ बजे सोता था पर जागता एक साथ सामान्य दशा में सुबह चार बजे या रात को किसी अनियमित स्थिति में .,. सभी मकान सिर्फ मकान थे ..? न सभी मकान भर थे .. घरों का नाता थी कॉमन दीवार ... जो मुहल्ले को किले में बदल देती थी...! पुश्तैनी मकानों के वाशिंदे प्रजा थे .. जिनपर राज था ......... राजा प्रेम और रानी स्नेह का .. किसी एक का शोक हर्ष सब पर लागू होता .. जब कालू हँसता तो सब हँसते जब दुर्गा रोती तो सब रोते तुलसी क्यारे में कभी हवा से तो कभी तेल चुकने तक दीपशिखा नाचती मोहल्ले वाले पटवारी को न बुलाते घरों को नापवाने .. पुश्तैनी घर ज़िंदा देह थे ज़िंदा देहों को कोई पटवारी मापता है क्या.. ? पुश्तैनी मकान अमर होते हमने मारा है उनको .. बिलखते होंगे पुरखे