राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की अवधारणा
आजकल राष्ट्रवादी विचारधारा बेहद प्रासंगिक और प्रभाव शिल्पी है। बावजूद इसके खुद को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए लोग यह प्रयास करते हैं कि वह धर्म की वकालत करें या उस पर चर्चा करते रहे।
और जो अपने आप को राष्ट्रवादी नहीं मानते वह भी इतने कुंठा ग्रस्त नजर आते हैं कि किसी बहुसंख्यक आबादी को निशाना बनाने से खुद को बचा नहीं पाते। जहां तक भारत के संदर्भ में राष्ट्रवाद का प्रश्न है राष्ट्रवाद की परिभाषा का पुनरीक्षण या उसकी स्पष्ट व्याख्या जरूरी है।
वर्तमान में जो परिभाषा दी है सबसे पहले उसे देख लेते हैं:-
"राष्ट्रवाद (nationalism) यह विश्वास है कि लोगों का एक समूह इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर खुद को विभाजित करता है। इन सीमाओं के कारण, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उन्हें अपने स्वयं के निर्णयों के आधार पर अपना स्वयं का संप्रभु राजनीतिक समुदाय, 'राष्ट्र' स्थापित करने का अधिकार है।"
बुद्धिमान और विद्वान इस संदर्भ में मौन है। और उनकी यही चुप्पी न केवल राष्ट्रवाद को सही तरीके से प्रस्तुत होने दे रही है और ना ही उसे अच्छी तरह प्रस्तुत किया जा रहा।
राष्ट्रवाद में जाति का या जाति समूह परंपरा भाषा आदि आदि को घटक के रूप में शामिल कर कुल मिलाकर मानवता के विरुद्ध परिभाषित करने की कोशिश की है। स्पष्ट रूप से देखा जाए तो राष्ट्रवाद को सार्वभौमिकता की भारतीय अवधारणा से जिसमें वसुधैव कुटुंबकम सूत्र वाक्य का उल्लेख किया गया है को मानवता का विरोधी माना है।
वास्तव में राष्ट्रवाद राष्ट्र की भौगोलिक सांस्कृतिक एवं परंपरागत यह कुल मिलाकर सभ्यता के विकास का प्रयास है ।
प्रचलित परिभाषा हिटलर के डोर वाले जर्मन के नाजीवाद की छवि के आधार पर बनाई गई है। भारत जैसे देश जहां की मूल अवधारणा में वसुदेव कुटुंबकम वहां यह परिभाषा लागू करना ऐतिहासिक भूल है।
भारत में राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या होनी चाहिए...?
इस विषय पर अब विमर्श की आवश्यकता है .. !
मेरे दृष्टिकोण से भारत के संदर्भ में "हम भारत के लोग अपनी भौगोलिक सीमाओं के भीतर समतामूलक समाज की परंपराओं का पालन करते हुए शांति सद्भाव एवं समन्वय के साथ राष्ट्र की प्रभुसत्ता, एवं आंतरिक एवं बाहरी सुदृढ़ता के लिए प्रतिबद्ध हैं..! हम अपनी इस प्रतिबद्धता के लिए भारत के संविधान में सन्निहित बिंदुओं के लिए वचनबद्ध हैं । यही हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है यही हमारा राष्ट्रवाद है। हम वैश्विक संस्कृतियों के सम्मान के साथ अपनी संस्कृति के प्रकटीकरण के अधिकार की रक्षा करते हैं। हमारा राष्ट्रवाद किसी संप्रदाय के सम्मान के साथ उनके द्वारा हमारे आत्मसम्मान की रक्षा पर आधारित है।"
प्रचलित परिभाषा में राष्ट्रवाद को एक अवधारणा Concept माना गया है जबकि उपरोक्त अनुसार दी गई परिभाषा में राष्ट्रवाद कांसेप्ट नहीं एक डिक्लेरेशन अर्थात उद्घोषणा है।
यहां स्वर्गीय बापू श्री मोहनदास करमचंद गांधी जी अर्थात बापू जी के उस उत्तर से सहमति नहीं है कि राष्ट्रवादी भटके हुए हैं।
राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी भारतीय संदर्भों में सहिष्णुता की सबसे बेहतरीन मिसाल है ।
भारतीय राष्ट्रवाद को सूक्ष्म नजर से देखा जाए तो भारतीय राष्ट्रवाद सेवा और समानता का एक अमूर्त किंतु सर्वमान्य दस्तावेज है। भारत में राष्ट्रवाद सनातन धर्म तथा उसमें अंतर्निहित समुदायों तथा अन्य विदेशी संप्रदायों के साथ प्रारंभिक तौर पर ही सम्मानजनक व्यवहार करता है। अतः आवश्यक नहीं है कि पृथक से सेक्युलर होने की कोई गारंटी दी जावे।
भारतीय राष्ट्रवाद किसी आक्रांता भयभीत करने वाली ताकतों संस्कृति एवं धार्मिक कटाक्ष की निंदा करता है। सनातन धर्म में अंतर्निहित प्रावधान डॉक्ट्रींस एवं एडवाइजरी बहुविकल्पीय होने के कारण देश काल परिस्थिति के साथ परिवर्तित होती रहती हैं। किंतु किसी के व्यक्तिगत हित के लिए इसे परिवर्तित नहीं किया जाता और ना ही ऐसी करने की कोई अनुशंसा ही की गई है। अतः यह समझना जरूरी है कि भारतीय राष्ट्रवाद एक तरह से सतर्क एवं सचेत जीवन शैली भी है ।
यह जीवन शैली परंपराओं एवं सामाजिक सांस्कृतिक प्रथाओं के परिपेक्ष में स्वयं अनुकूलित हो जाती है।
मूल रूप से भारत में जाति प्रथा नहीं है। वास्तव में यह वर्ण व्यवस्था है जिसका सीधा संबंध अर्थ उपार्जन की प्रक्रिया से है। कालांतर में सोने का काम करने वाला सोनी हो गया तो लोहे का काम करने वाला लोहार हो गया। क्योंकि उन्हें एक ही प्रकार का एनवायरमेंट प्राप्त था अतः वे उसी समूह में रहने लगे और उन्हीं के साथ सामूहिक सामाजिक व्यवहार रीति रिवाज आदि का पालन करने लगे यह दीर्घकालीन परिणाम है ना कि भारतीय दर्शन में इसका कोई अस्तित्व रहा है। इसे समझने के लिए वैदिक व्यवस्था को समझना होगा।
विदेशी आक्रांताओं के आक्रामक रवैया से तदुपरांत फूट डालो राज करो के सिद्धांत के आधार पर सामाजिक विघटन मध्यकाल के आते आते वृहद रूप से हो गया और इसे स्थायित्व मिला। यद्यपि यह विषय बहुत अधिक विचार का है परंतु इस विषय पर विमर्श आयातित विचारधाराओं के प्रभाव से बेहद नकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ है। अब तो ना शास्त्रार्थ होते नाही विमर्श होते। अब केवल अपनी मत एवं मंतव्य की स्थापना के प्रयास बौद्धिक स्तर पर भी होने लगे हैं। अस्तु भारतीय राष्ट्रवाद किसी जाति धर्म संप्रदाय वर्ग वर्ण भाषा क्षेत्र से विरत एकात्मता की परिभाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। यहां जर्मन की तरह कभी कोई कोई बंधन नहीं था या नहीं है कि भारत में रहकर आप अपनी स्वधर्म का या सांप्रदायिक मूल्यों का पालन नहीं कर सकते। इसका उदाहरण पूर्व काल में भारत में गिरजाघर और प्रार्थना स्थल के लिए हमारे पूर्वज भूमि और संसाधन भी प्रदान करते थे।
आजकल राष्ट्रवादी विचारधारा बेहद प्रासंगिक और प्रभाव शिल्पी है। बावजूद इसके खुद को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए लोग यह प्रयास करते हैं कि वह धर्म की वकालत करें या उस पर चर्चा करते रहे।
और जो अपने आप को राष्ट्रवादी नहीं मानते वह भी इतने कुंठा ग्रस्त नजर आते हैं कि किसी बहुसंख्यक आबादी को निशाना बनाने से खुद को बचा नहीं पाते। जहां तक भारत के संदर्भ में राष्ट्रवाद का प्रश्न है राष्ट्रवाद की परिभाषा का पुनरीक्षण या उसकी स्पष्ट व्याख्या जरूरी है।
वर्तमान में जो परिभाषा दी है सबसे पहले उसे देख लेते हैं:-
"राष्ट्रवाद (nationalism) यह विश्वास है कि लोगों का एक समूह इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर खुद को विभाजित करता है। इन सीमाओं के कारण, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उन्हें अपने स्वयं के निर्णयों के आधार पर अपना स्वयं का संप्रभु राजनीतिक समुदाय, 'राष्ट्र' स्थापित करने का अधिकार है।"
बुद्धिमान और विद्वान इस संदर्भ में मौन है। और उनकी यही चुप्पी न केवल राष्ट्रवाद को सही तरीके से प्रस्तुत होने दे रही है और ना ही उसे अच्छी तरह प्रस्तुत किया जा रहा।
राष्ट्रवाद में जाति का या जाति समूह परंपरा भाषा आदि आदि को घटक के रूप में शामिल कर कुल मिलाकर मानवता के विरुद्ध परिभाषित करने की कोशिश की है। स्पष्ट रूप से देखा जाए तो राष्ट्रवाद को सार्वभौमिकता की भारतीय अवधारणा से जिसमें वसुधैव कुटुंबकम सूत्र वाक्य का उल्लेख किया गया है को मानवता का विरोधी माना है।
वास्तव में राष्ट्रवाद राष्ट्र की भौगोलिक सांस्कृतिक एवं परंपरागत यह कुल मिलाकर सभ्यता के विकास का प्रयास है ।
प्रचलित परिभाषा हिटलर के डोर वाले जर्मन के नाजीवाद की छवि के आधार पर बनाई गई है। भारत जैसे देश जहां की मूल अवधारणा में वसुदेव कुटुंबकम वहां यह परिभाषा लागू करना ऐतिहासिक भूल है।
भारत में राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या होनी चाहिए...?
इस विषय पर अब विमर्श की आवश्यकता है .. !
मेरे दृष्टिकोण से भारत के संदर्भ में "हम भारत के लोग अपनी भौगोलिक सीमाओं के भीतर समतामूलक समाज की परंपराओं का पालन करते हुए शांति सद्भाव एवं समन्वय के साथ राष्ट्र की प्रभुसत्ता, एवं आंतरिक एवं बाहरी सुदृढ़ता के लिए प्रतिबद्ध हैं..! हम अपनी इस प्रतिबद्धता के लिए भारत के संविधान में सन्निहित बिंदुओं के लिए वचनबद्ध हैं । यही हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है यही हमारा राष्ट्रवाद है। हम वैश्विक संस्कृतियों के सम्मान के साथ अपनी संस्कृति के प्रकटीकरण के अधिकार की रक्षा करते हैं। हमारा राष्ट्रवाद किसी संप्रदाय के सम्मान के साथ उनके द्वारा हमारे आत्मसम्मान की रक्षा पर आधारित है।"
प्रचलित परिभाषा में राष्ट्रवाद को एक अवधारणा Concept माना गया है जबकि उपरोक्त अनुसार दी गई परिभाषा में राष्ट्रवाद कांसेप्ट नहीं एक डिक्लेरेशन अर्थात उद्घोषणा है।
यहां स्वर्गीय बापू श्री मोहनदास करमचंद गांधी जी अर्थात बापू जी के उस उत्तर से सहमति नहीं है कि राष्ट्रवादी भटके हुए हैं।
राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी भारतीय संदर्भों में सहिष्णुता की सबसे बेहतरीन मिसाल है ।
भारतीय राष्ट्रवाद को सूक्ष्म नजर से देखा जाए तो भारतीय राष्ट्रवाद सेवा और समानता का एक अमूर्त किंतु सर्वमान्य दस्तावेज है। भारत में राष्ट्रवाद सनातन धर्म तथा उसमें अंतर्निहित समुदायों तथा अन्य विदेशी संप्रदायों के साथ प्रारंभिक तौर पर ही सम्मानजनक व्यवहार करता है। अतः आवश्यक नहीं है कि पृथक से सेक्युलर होने की कोई गारंटी दी जावे।
भारतीय राष्ट्रवाद किसी आक्रांता भयभीत करने वाली ताकतों संस्कृति एवं धार्मिक कटाक्ष की निंदा करता है। सनातन धर्म में अंतर्निहित प्रावधान डॉक्ट्रींस एवं एडवाइजरी बहुविकल्पीय होने के कारण देश काल परिस्थिति के साथ परिवर्तित होती रहती हैं। किंतु किसी के व्यक्तिगत हित के लिए इसे परिवर्तित नहीं किया जाता और ना ही ऐसी करने की कोई अनुशंसा ही की गई है। अतः यह समझना जरूरी है कि भारतीय राष्ट्रवाद एक तरह से सतर्क एवं सचेत जीवन शैली भी है ।
यह जीवन शैली परंपराओं एवं सामाजिक सांस्कृतिक प्रथाओं के परिपेक्ष में स्वयं अनुकूलित हो जाती है।
मूल रूप से भारत में जाति प्रथा नहीं है। वास्तव में यह वर्ण व्यवस्था है जिसका सीधा संबंध अर्थ उपार्जन की प्रक्रिया से है। कालांतर में सोने का काम करने वाला सोनी हो गया तो लोहे का काम करने वाला लोहार हो गया। क्योंकि उन्हें एक ही प्रकार का एनवायरमेंट प्राप्त था अतः वे उसी समूह में रहने लगे और उन्हीं के साथ सामूहिक सामाजिक व्यवहार रीति रिवाज आदि का पालन करने लगे यह दीर्घकालीन परिणाम है ना कि भारतीय दर्शन में इसका कोई अस्तित्व रहा है। इसे समझने के लिए वैदिक व्यवस्था को समझना होगा।
विदेशी आक्रांताओं के आक्रामक रवैया से तदुपरांत फूट डालो राज करो के सिद्धांत के आधार पर सामाजिक विघटन मध्यकाल के आते आते वृहद रूप से हो गया और इसे स्थायित्व मिला। यद्यपि यह विषय बहुत अधिक विचार का है परंतु इस विषय पर विमर्श आयातित विचारधाराओं के प्रभाव से बेहद नकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ है। अब तो ना शास्त्रार्थ होते नाही विमर्श होते। अब केवल अपनी मत एवं मंतव्य की स्थापना के प्रयास बौद्धिक स्तर पर भी होने लगे हैं। अस्तु भारतीय राष्ट्रवाद किसी जाति धर्म संप्रदाय वर्ग वर्ण भाषा क्षेत्र से विरत एकात्मता की परिभाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। यहां जर्मन की तरह कभी कोई कोई बंधन नहीं था या नहीं है कि भारत में रहकर आप अपनी स्वधर्म का या सांप्रदायिक मूल्यों का पालन नहीं कर सकते। इसका उदाहरण पूर्व काल में भारत में गिरजाघर और प्रार्थना स्थल के लिए हमारे पूर्वज भूमि और संसाधन भी प्रदान करते थे।