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बुधवार, मई 14, 2025

भोलाराम का विमोचन

#भोलाराम_का_विमोचन
(व्यंग्यकार गिरीश बिल्लौरे मुकुल 
जबलपुर मध्य प्रदेश)
  सम्मान-सम्मान का यह खेल इतना मस्त है कि इसे ओलंपिक में शामिल कर देना चाहिए। ओलंपिक न सही, तो एशियाई खेलों में। और अगर वह भी न हो, तो जिला-स्तरीय तमाशे में तो जरूर!
यह खेल जेब ढीली कराता है, आत्ममुग्धता को चाँद पर ले जाता है, और भीड से़ तालियां बजवाता  है।
  अर्थात यह खेल बहुत सारे शास्त्रों पर आधारित  है।  अर्थशास्त्र, छापस-शास्त्र, दिखास-शास्त्र, और बकास-शास्त्र का गजब का कॉकटेल।   
     हर शहर में यह खेल जोर-शोर से खेला जाता है। मेरा शहर कोई अपवाद नहीं—बल्कि इस खेल का प्रयागराज, मानसरोवर, येरुशलम मक्का-मदीना है।
   वैचारिकता को ठेंगा दिखाते हुए रोज "सम्मान का ड्रामा" रचा जाता है।
  खेल तो खेल है, खेलने के लिए ही बना है। तो इसे खेलना जरूरी है—बिल्कुल जरूरी!
आयोजक इस खेल का अर्थशास्त्र बखूबी समझते हैं। आप कवि हों, शायर हों, या साहित्य के तुर्रमखाँ—जब तक इस विमोचन की भट्टी से न गुजरें, तब तक आपका नामोनिशान नहीं।
खुशी की बात यह है कि आजकल तो पद्म सम्मानों के लिए कंसलटेंसी एजेंसियाँ खुल गई हैं। दिल्ली की एक रेडियो जॉकी और एक लेखक, जिनका नाम गिनीज बुक में चमकता है, इस धंधे में सर से पाँव तक डूबे हैं।
    यूं तो ये धंधा बड़ा आराम का है, लेकिन जैसा राहत इंदौरी ने फरमाया:
हमसे पूछो कि ग़ज़ल मांगती है कितना लहू,
सब समझते हैं ये धंधा बड़े आराम का है।
  पर क्या करें, कितना भी लहू से भीगो लें कोई हमें साहित्यकार मानता ही नहीं।
  पर हमें अचानक एक दिन भोलाराम जी के टेलीफोन कॉल ने ब्रह्म ज्ञान दे दिया ! तो यह भोलाराम जी कौन है ?
वास्तव में भोलाराम परसाई जी वाले भोलाराम का पुनर्जन्म है । जो इस जन्म में कवि के तौर पर पैदा हुआ है।
  कवि भोलाराम ने जिंदगी भर पुर्जों पर कविताएँ ठूँसीं और पहुंच गए परमज्ञानी जी के दरबार। "साहब, मेरी कविताएँ छपवानी हैं," भोलाराम ने गुहार लगाई।
  परम ज्ञानी, जो ग्राहकों की टोह में बैठे थे, बोले, "कविता पढ़ने की क्या जरूरत? एक नजर में समझ गया। अरे, तुम तो मनोज मुंतशिर को पानी पिलाते हो! ये तो छपनी ही चाहिए।
परम ज्ञानी जी ने "प्रशंसा का ऐसा बम गिरा कि भोलाराम शहीद-ए-आजम हो गए। तीस दिन में किताब मुद्रणालय से बाहर।
  लेकिन सवाल था—दुनिया को कैसे पता चले कि भोलाराम छप गए? परम ज्ञानी जी ने आँख मारी, "चिंता मत करो, फार्मूला मेरे पास है।
"उनका बैकग्राउंड फार्मूला था—सम्मान बाँटो, भीड़ बटोरो। रामलाल, श्यामलाल, लल्लू, जगदर, भुनगे-बगदर—हर कोई सम्मानित होगा। और हर सम्मानित शख्स अपने साथ बीवी, बच्चे, रिश्तेदार, और शायद गर्लफ्रेंड भी लाएगा। बस, इंस्टाग्राम लाइव के लिए भीड़ जुट गई।
विमोचन का तमाशा यानि आयोजन शुरू हुआ। मंच पर मालाएँ, शाल-श्रीफल, और यशगान के फलक।
मुख्य अतिथि त्रैलोक्य स्वामी से कम नज़र न आते थे।
कुछ अतिथि तो क्षीरसागर में विष्णु की तरह विराजमान लग रहे थे। आयोजन में शहर के नामी-गिरामी और "फुर्सत के रात-दिन" वाले लोग जुटे।
हर वक्ता अपने दिमाग के जखीरे को चटखारे ले-लेकर उवाच रहा था। माइक बार-बार खराब हो रहा था, और आयोजक- सह- मंच संचालक पहली लाइन से लेकर हाल के प्रवेश द्वार तक रेकी करते हुए नजर आ रहे थे । हर आमद पर आए हुए आगंतुक के नाम का उल्लेख करते हुए , अपने कार्यक्रम से जोड़ने वाले मंच संचालक उर्फ आयोजक उर्फ परम ज्ञानी की प्रतिभा को शहर का बच्चा-बच्चा जानता है। उनके व्यक्तित्व पर मेरे जैसे अकिंचन का कुछ कहना सूरज को एलईडी लाइट दिखाने के बराबर है।
परम ज्ञानी लीलाधर कृष्ण से कम नहीं हैं तभी तो, महीने में दो-चार साहित्यिक महाभारत हो जाया करते हैं शहर में..!
इस अप्रतिम दृश्य को देखकर भोलाराम को लगा, वे इंद्र सभा में गंधर्वों के बीच बैठे हैं।

  मंच के सामने दर्शक दीर्घा में पीछे वाली पंक्ति में अपन जी और तुपन जी की कानाफूसी शुरू
हो गई थी।
अपन जी: (कान खोजते हुए) गजब आयोजन! कवि को पैसे वाला होना चाहिए है न?
तुपन जी: बिल्कुल! इसे छठी का पूजन कहां कीजिए ।
अपन जी: तुपन जी, बिल्कुल सही कहा आपने।  अब तो हिंदी साहित्य का ये प्रचंड वेग कोई नहीं रोक सकता!
तुपन जी: प्रचंड? अरे, प्रलयंकारी कहो! हां एक बात कि  तुम भी तो सम्मानित हो रहे हो?
अपन जी: (कलकतिया पान से रंगी खीस निपोरते बोले ) हाँ, भाई, दबाव था, वरना अपन अम्मान सम्मान के चक्कर में पड़ते नहीं।
तुपन जी: अरे, पिछले महीने भी तो तुझे किसी किताब की छटी पर शाल-श्रीफल मिला था?
अपन जी: हाँ, मेरा भी सम्मान हुआ था। सम्मान में मिले श्रीफल की चटनी बनवाई। पाइल्स के लिए मुफीद है, बब्बू भाई बता रहे थे।
तुपन जी: अरे, पाइल्स तो मुझे भी है! आजमाऊँगा।
तभी मंच से चीख: "संस्था ‘दो और दो पांच’ श्री तुपन जी को भी उनकी साहित्य साधना के लिए सम्मानित करती है! यह उनका संस्था की ओर से दिए जाने वाला लाइफटाइम सम्मान है । जोरदार तालियों से इनका सम्मान कीजिए। "
पूरे  हॉल में तालियों की आवाज़ गूंजने लगीं।
तुपन जी भी फट्ट से मंच पर जा पहुँचे, यह अलग बात है कि कथित तौर पर उन्हें सम्मान की दरकार नहीं रहती। खचाखच्च फोटो हैंचे गए, स्वयंभू पत्रकार पर और आमंत्रित पत्रकार वीडियो जर्नलिस्ट ने मंच का घेराव करके फोटो वीडियो रिकॉर्ड किए। तुपन जी के सम्मान की कार्रवाई 5 मिनट के अंदर निपटा दी गई। लाइफटाइम अवॉर्ड के लिए इतना टाइम काफी है।
तुपन जी, लौटते वक्त कलगीदार मुर्गे की तरह दाएं बाएं बैठे दर्शकों  के प्रति आभार प्रदर्शित करते गर्दन हिलाते आभार  जताते, वापस सीधे अपन जी के पास लौट आए।
आज  भोलाराम का साहित्यकार बन जाने का सपना भी पूरा होने वाला था परंतु उनके विमोचित होने के पहले मंच से लगभग बीस सम्मान आवंटित हो चुके थे ।
हॉल में भगदड़ मच गई। उद्घोषक चीख रहा था। सम्मान वितरण में  "कछु मारे, कछु मर्दिसी" वाली स्थिति बन गई थी।
   भीड़ सेल्फी ले रही थी, इंस्टाग्राम रील्स बना रही थी, और यूट्यूब पर लाइव बाइट्स चल रहे थे।
  इस बीच उद्घोषक ने भोलाराम जी को इनवाइट कर लिया। मंच के मध्य में गणेश जी की तरह स्थापित होने के निर्देश का पालन करते हुए  भोलाराम भावुक हो उठे। कभी  उन्हें लगा, वे साहित्य जगत में स्थापित हो गए।
   वे यह महसूस कर रहे थे गोया उनकी एक ओर दिनकर दूसरी ओर भवानी प्रसाद तिवारी जी खड़े दिखते,  यह भी महसूस किया होगा उनने कि माखनलाल चतुर्वेदी , सुभद्रा दीदी बिल्कुल आसपास मौजूद हैं ।
     कभी हॉल में मचे तमाशे देख कर उसे लगा कि वे ठगे गए हैं।
   तभी पीछे से आवाज़ आई - "काय भोलू , कवि कब बन गए रे?
झल्ले की आवाज़ सुन  भोलाराम पानदरीबा वाले भोलू बन गए ।
*****
लेकिन सच यही है साहित्यकार की प्राण प्रतिष्ठा का यह अजीबोगरीब खेल एकदम नया नहीं।
हर शहर में यह तमाशा होता रहता है।
जहां परम ज्ञानी जैसे लोग इसके सर्जनहार, और भोलाराम जैसे कवि इसके शिकार।
साहित्य के नाम पर यह "दूल्हा-दुल्हन आपके, बाकी सब हमारा" का धंधा है।
और हाँ, अगली बार विमोचन में वायरल रील्स का बजट भी जोड़ लीजिएगा।
(नोट: परसाई के शहर में व्यंग्य लिखना अपराध हो, तो यह अपराध बार-बार करूँगा!)
#डिस्क्लेमर: यह व्यंग्य है। किसी व्यक्ति, स्थान, या घटना से इसका कोई लेना-देना नहीं। समानता महज संयोग है।
#गिरीशबिल्लौरेमुकुल 

रविवार, जनवरी 23, 2011

सबने कहा ज़िगरे वाले इंसान हैं समीर लाल


पूरब का जात्री
पश्चिम की रात्री
’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह : दिनांक18/01/२०११
आधिकारिक रपट 
(देर के लिये माफ़ी नामा सहित )
             उस दिन किसी ने कहा  देश विदेश में ख्याति अर्जित करेगी किताब,तो किसी ने माना जिगरा है समीर में ज़मीन से जुड़े रहने का, तो कोई कह रहा था वाह अपनी तरह का अनोखा प्रवाह है. किसी को किताब बनाम उपन्यासिका- ’ट्रेवलागलगी तो किसी को रपट का औपन्यासिक स्वरूप किंतु एक बात सभी ने स्वीकारी है कि: ’समीरलाल एक ज़िगरे वाला यानि करेज़ियस व्यक्ति तो है ही लेखक भी उतना ही ज़िगरा वाला है…!’
       जी हां, यही तो हुआ समीरलाल की कृति ’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह के दौरान  दिनांक 18/01/2011 के दिन कार्यक्रम के औपचारिक शुभारम्भ में अथितियों स्वागत पुष्पमालाओं से किया गया फ़िर शुरु हुआ क्रमश: अभिव्यक्तियों का सिलसिला सबसे पहले आहूत किये गये समीर जी के पिता श्रीयुत पी०के०लाल जिन्हौंने बता दिया कि-’हां पूत के पांव पालने में नज़र आ गये थे जब बालपन में समीर ने इंजिनियर्स पर एक तंज लिखा था.
श्रीमति साधना लाल को जब आहूत किया तो पता चला कि वे इस बात के लिये तैयार तो न थीं फ़िर भी उनने सभी के प्रति कृतज्ञता  अंत:करण से व्यक्त की.
समीर स्वयम कम ही बोले मुझे लग रहा था कि समीरलाल काफ़ी कुछ कहेंगेकिताब पर, उड़नतश्तरी पर, किंतु समीर जी बस सबके प्रति आभारी ही नज़र आये. संचालक के तौर पर मेरी सोच पहली बार गफ़लत में थी. समीर भावुक थे उनने अपनी अभिव्यक्ति में कहा –“किसी रचना कार के लिये उसकी कृति का विमोचन रोमांचित कर देने वाला अवसर होता है जब संपादक श्री ज्ञानरंजन जी डा० हरिशंकर दुबे सहित विद्वतजन उपस्थित हों तब वे क्या कहें और कैसे कहें कितना कहें आभारी व्यक्त करते रहे अपनी अभिव्यक्ति में ” 
श्रीयुत श्रवण कुमार दीपावरे का कथन कोट करना ज़रूरी है यहां :-”मुझे नहीं मालूम ब्लाग क्या है, समीर लाल किस ऊंचाई पर है. मुझे तो वो पिंटू याद है जो आज़ भी पिंटू ही है पिंटू ही रहेगा.भोला भाला स्रजनशील हमारा पिंटू.यानी सभी जैसे  समीर जी के बचपन के मित्र  , राकेश कथूरिया लाल परिवार के समधी दम्पत्ति श्रीमति-श्री दीवान सहित सभी उपस्थित जन  बेहद आत्मिक रूप से आयोजन से जुड़ गये थे

कवि-लेखक एवम ब्लागर डा० विजय तिवारी ’किसलय’के शब्दों में  
                  भाई समीर लाल समीरकी पुस्तक देख लूँ तो चलूँपर बात करने के पूर्व उनके बारे में बताना भी आवश्यक है क्योंकि कृति और कृतिकार, संतान और जनक जैसे होते हैं. जनक का प्रभाव अपनी संतान पर स्पष्ट रुप से देखा जाता है.
अड़तालीस वर्षीय भाई समीर जी पैदा तो हुए थे रतलाम में, परन्तु अध्ययन एवं संस्कार संस्कारधानी में प्राप्त किये. आप म.प्र. विद्युत मंडल के पूर्व कार्य पालन निर्देशक इंजी श्री पी.के.लाल जी के सुपुत्र हैं. चार्टर्ड एकाउन्टेन्सी भारत में एवं मेनेजमेन्ट एकाउन्टेन्सी अमेरीका से की. सन 1999 के बाद आप कनाडा के ओन्टारियो में निवास करने लगे. कनाडा के एक प्रतिष्ठित बैंक में तकनीकी सलाहकार होने के साथ साथ आप टेक्नोलाजी पर नियमित लेखन करते हैं.
आपका एक लघुकथा संग्रह मोहे बेटवा न कीजोके साथ ही वर्ष 2009 में चर्चित एवं लोकप्रिय काव्य संग्रह बिखरे मोतीभी हिन्दी साहित्य धरोहर में शामिल हो चुके है. इसमें गीत, छंदमुक्त कविताएँ, गज़लें, मुक्तक एवं क्षणिकाएँ समाहित हैं. एक ही पुस्तक में पाँच विधाओं की ये अनूठी पुस्तक भाई समीर के चिन्तन का प्रमाणिक दस्तावेज की तरह है.
                  मित्र के गृह प्रवेश की पूजा में अपने घर से 110 किलोमीटर दूर कनाडा की ओन्टारियो झील के किनारे बसे गाँव ब्राईटन तक कार ड्राईव करते वक्त हाईवे पर घटित घटनाओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन श्रृंखला हीदेख लूँ तो चलूँहै. यह महज यात्रा वृतांत न होकर समीर जी के अन्दर की उथल पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का भी सबूत है. अवमूल्यित समाज के प्रति चिन्ता भाव हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि इस किताब के माध्यम से मानव मानव से पाठक पाठक से सीधा सम्बन्ध बनाने की कोशिश है क्योंकि कहीं न कहीं कोशिशें कामयाब होती ही है.
              लेखक की बाल सुलभ संवेदनायें जागृत होती हैं और हाई वे पर बच्चों द्वारा कॉफी सर्व करने पर भारत और कनाडा में बेतुका फर्क पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं. भारतीय बच्चों का काम करना बाल शोषण और कनेडियन बच्चों का काम करना पर्सनालिटी डेवेलपमेंट कहा जाता है. उनका मानना है कि बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की बात भला कैसे पर्सनालिटी डेवेलपमेंट हो सकती है.
 युवा विचारक एवम सृजन धर्मी श्री पंकज स्वामी ’गुलुश’(पब्लिक-रिलेशन-आफ़िसर म०प्र० पूर्व-क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी) की  अभिव्यक्ति सुनिए 

समीक्षक इंजिनियर ब्लागर :- श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव
         एक ऐसा संस्मरण जो कहीं कहीं ट्रेवेलाग है, कहीं डायरी के पृष्ठ, कहीं कविता और कहीं उसमें कहानी के तत्व है। कहीं वह एक शिक्षाप्रद लेख है, दरअसल समीर लाल की नई कृति ‘‘देख लॅू तो चलूं‘‘ उपन्यासिका टाइप का संस्मरण है। समीर लाल हिन्दी ब्लाग जगत के पुराने,  सुपरिचित और लोकप्रिय लेखक व हर ब्लाग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले चर्चित टिप्पणीकार है। उनका स्वंय का जीवन भी किसी उपन्यास से कम नहीं है। ‘‘जब वी मेट‘‘ के रतलाम से शुरू उनका सफर सारी दुनियां के ढेरो चक्र लगाता हुआ निरंतर जारी है। उनकी हृष्ट पुष्ट कद काठी के भीतर एक अत्यंत संवेदनशील मन है और दुनियादारी को समझने वाली कुषाग्रता भी उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। अपने मनोभावों को पाठक तक चित्रमय प्रस्तुत कर सकने की क्षमता वाली भाषाई कुशलता भी उनमें है। इस सबका ही परिणाम है कि जब मैं उनकी नई पुस्तक ‘‘देख लूँ  तो चलूँ ‘‘ पढने बैठा तो बस पढ़ लूँ  तो उठुं  वाली शैली में पूरा ही पढ गया। 
सुप्रसिद्ध साहित्यकार, अग्रणी कथाकार और पहल के यशस्वी संपादक श्री ज्ञानरंजन जी (मुख्य अतिथि ) 
देख लूँ तो चलूँ में इसको लेकर नायक ऊबा हुआ है. हमारे आधुनिक कवि रघुबीर सहाय ने इसे मुहावरा दिया है, ऊबे हुए सुखी का. इस चलते चलते पन में आगे के भेद, जो बड़े सारे भेद हैं, खोजने का प्रयास होना है. धरती का आधा चन्द्रमा तो सुन्दर है, उसकी तरफ प्रवासी नहीं जाता. देख लूँ तो चलूँ का मतलब ही है चलते चलते. इस ट्रेवलॉग रुपी उपन्यासिका में हमें आधुनिक संसार की कदम कदम पर झलक मिलती है. 50 वर्ष पहले महान ब्रिटिश कवि और एनकाउन्टर के संपादक स्टीफन स्पेंडर ने कहा था कि आधुनिकता धाराशाही हो रही है- माडर्न मूवमेंट हैज़ फेल्ड. भारत में ही देखें, बंगाल, केरल, तामिलनाडु, कर्नाटक, उत्तरपूर्व, महाराष्ट्र और गुजरात में क्लैसिकल और आधुनिकता का एक धीर संतुलन है. जीवन में, कविता में, साहित्य में.यही दृष्य यूरोप में है. समीर लाल भी अपनी जड़ों से प्यार करते हैं पर ऐसा करते हुए लगता है कि जड़ें गांठ की तरह कड़ी और धूसरित हो रही हैं. हमारा देश भी वही हो रहा है धीरे धीरे जैसा प्रवासी का प्रवासी स्थलों पर लगता है.
        समीर लाल ने अपनी यात्रा में एक जगह लिखा है- हमसफरों का रिश्ता! भारत में भी अब रिश्ता हमसफरों के रिश्ते में बदल रहा है. फर्क इतना ही है कि कोई आगे है कोई पीछे. मेरा अनुमान है कि प्रवासी भारतीय विदेश में जिन चीजों को बचाते हैं वो दकियानूस और सतही हैं. वो जो सीखते है वो मात्र मेनरिज़्म हैबलात सीखी हुई दैनिक चीजें. वो संस्कृति प्यार का स्थायी तत्व नहीं है.
             निर्मल वर्मा जो स्वयं कभी काफी समय यूरोप में रहे कहते हैं कि प्रवासी कई बार लम्बा जीवन टूरिस्ट की तरह बिताते हैं. वे दो देशों, अपने और प्रवासित की मुख्यधारा के बीच जबरदस्त द्वंद में तो रहते हैं पर निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर पाते. इसलिए अपनी अधेड़ा अवस्था तक आते आते अपने देश प्रेम, परिवार प्रेम और व्यस्क बच्चों के बीच उखड़े हुए लगते हैं
समीर लाल का उपन्यास पठनीय है, उसमें गंभीर बिंदु हैं और वास्तविक बिंदु हैं. मैं उन्हें अच्छा शैलीकार मानता हूँ. यह शैली भविष्य में बड़ी रचना को जन्म देगी. उन्हें मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामना.
इसी क्रम में अध्यक्षीय उदबोधन में डा० हरिशंकर दुबे ने कहा   
                      ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है, इस बात को प्रमाणित करती है यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’. कहा जाता है जह मन पवन न संचरइ रवि शशि नाह प्रवेश- ऐसी कोई सी जगह है जहाँ पवन का संचरण न हो, जहाँ समीर न हो अब समीर इसके बाद यहाँ से कनाडा तक और कनाडा से भारत तक अबाध रुप से प्रवाहित हो रही है और उस निर्वाध प्रवाह में निश्चित रुप से यह उपन्यासिका  ’देख लूँ तो चलूँ’ आपके सामने है. 
कार्यक्रम के संचालन की जोखिम भरी ज़वाबदारी मुझे मिली थी खरा था खोटा था मुझे नहीं मालूम पर किसी भी कमी के लिये समीर लाल जी सहित उन सबसे माफ़ी ही नहीं विनत निवेदन भी करता हूं कि कमियां ज़रूर बताएं सुधार लूं स्वयम को !!
पत्रिका जबलपुर 19.01.2011
कार्यक्रम के दूसरे चरण में लज़ीज़ व्यंजनों  के साथ चाय काफ़ी के साथ भी किताब,ब्लाग, और समकालीन सहित्यिक विमर्श जारी रहा. भाई आनंदकृष्ण का सबसे मिलना जुलना मुझे आकर्षित करता रहा. तो बवाल आदि का खेमा बदल बदल के सबसे मिलना भी बरबस अंतिम चरण को रोचक बनाता रहा. हल्की-फ़ुल्की समीक्षा आयोजन पर होनी थी सो शुरु ही हो गई.थी और इस बीच  मौका मिलते ही विदा ली हमने भी सबसे . जैसा कि अब आपसे विदा लेता हूं अगली पोस्ट तक के लिये. 

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