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8.1.23

समाज सुधारक बनाम इंजीनियर मिस्त्री और चेला

पता नहीं समाज को सुधारने का ठेका सब ने क्यों ले लिया है।  सुधारना क्या है ,? 
   इस बारे में उन्हें विचार करना पड़ता है। कई विद्वान तो मुझे इंजीनियर लगते हैं कई विद्वान मैकेनिक लगते हैं और कई विद्वान मैकेनिक का हेल्पर लगते हैं। सब के पास एक ही ही धंधा है चलो समाज सुधार दें...!
   समाज सुधारना इतना आसान होता तो महात्मा बुद्ध के काल में ही सुधर जाता। पर महात्मा के विचार कहां तक जा पाए इसका सबको ज्ञान है, महात्मा बुद्ध के विचारों को सुना है अवेस्ता ने रास्ते में रोक लिया?
  एक बंधु को लगा की मूर्ति पूजा समाज की सबसे बड़ी बुराई है। भैया फिर क्या था..! काफिर कुफ्र जैसे शब्दों का इजाद कर दिया सर तन से जुदा करने की नसीहत दे डाली। तो कोई क्रूस लेकर मारने दौड़ा तो किसी ने जिहाद शुरू कर दिया। फिर भी समाज न सुधरा. बेचारे समाज सुधार को  अपने जीवन काल में इस समाज  को सुधारने की जिम्मेदारी ऊपर वाले ने दी। वैसे ऊपरवाला चाहे तो सीधे समाज सुधार सकता है पर उसने बहुत सारे मध्यस्थ क्यों भेजें हो सकता है कि -ऊपर वाले के पास कामकाज बहुत हो..?
चलो मान भी लिया कि जिम्मेदारी ऊपर वाले ने ही सौंपी होगी परंतु समाज है कि कभी नहीं सुधरा सुधरता भी कैसे समाज को सुधारने और सुधारने के लिए जिस मूल तत्व की जरूरत है उसे तो हम ताक में रख देते हैं। 
  मानता हूं कि बुद्ध ने ऐसा नहीं किया होगा। परंतु बुद्ध के बाद जितने भी बुद्ध बने या तो वे बुद्धू बन गए या बुद्धू बना दिए गए? विमर्श यह है कि दूसरों को सुधारने समझाने और समाज को सुधार देने का दावा करने का काम आजकल एक पेशेवर अंदाज में किया जाता है।
  महात्मा बोल चुके थे - "अप्प दीपो भव:..!"
   अगर सब दीपक बन जाते तो क्या बुराई थी? 
#सांख्य_दर्शन यही कहता है न....!
    चलिए मान भी लिया कि यह सब काल्पनिक है तब भी कथानकों ने भी तो समाज को नहीं सुधारा..! सुधारा क्या सुधारने की आकांक्षा समाज में है ही नहीं। 
 वेद लिखे गए उपनिषद लिखे गए बाद में पुराण फिर भी समाज ना सुधरा। असरानी मेरा प्रिय फिल्मी कलाकार है। असरानी ने फिल्म बनाई थी जिसका नाम था हम नहीं सुधरेंगे। फिल्म कितना पैसा बटोर पाई यह कहना तो मेरे लिए मुश्किल है परंतु समाज को सफल संदेश जरूर दे दिया।
   आज के विचारक तपस्वीयों को शत-शत नमन करता हूं जो बाद में तय करते हैं कि सुधारना क्या है। समाज ना हुआ कोई यंत्र हो गया पहले इंजीनियर देखेगा उसका एस्टीमेट बनाएगा (जैसा आजकल हो रहा है) मिस्त्री देखेगा फिर उस लड़के को बुलाएगा जो उसे उस्ताद उस्ताद कहकर फूला नहीं समाता।
   दिनभर समाज सुधार करके थका हारा समाज सुधारक इंजीनियर मिस्त्री और उसका चेला शाम को एक आध पेग ले लेता है तो क्या बुराई है?
बार-बार सब पाकिस्तान के प्रबंधन को कह रहे थे कि भस्मासुर से बचो पर पाकिस्तान के कान में जू न रेंगी..! पाकिस्तानी यह स्थापित कर दिया था कि अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान यानी अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद वैसे अच्छे आतंकवाद को स्वीकारना चाहिए। पश्चिम के पूरे देश यह मंत्र पसंद भी करने लगे थे कि एक चाय वाले ने बताया कि आतंकवाद आतंकवाद होता है इसमें अच्छे और बुरे का विश्लेषण कर अच्छे आतंकवाद को प्रश्रय देना अच्छी बात नहीं है जब तक समझाते तब तक 9/11 हो चुका था. मामला समाज सुधारने का ही है न? मुझे नहीं लगता कि यह मामला समाज सुधारने का होगा। यह यह तो वर्चस्व की लड़ाई है, सोवियत विखंडन का दर्द जब रूस के पुतिन भैया को महसूस हुआ तो यूक्रेन को निपटाने की कहानी कोई समाज सुधार पर आधारित नहीं है। पुतिन भैया को दुनिया अपने ढंग से चलानी है तो उधर उत्तर कोरिया का सम्राट विश्व को अपने जलवे दिखा कर छोटी-छोटी नजरों से दुनिया पर पड़ने वाले असर को देखता है। उसका बड़ा भैया शी जिनपिंग कम खुदा नहीं है भाई तो पूरे विश्व को अपने नक्शे में निकल जाना चाहता है।
चीन के बनाए हुए वायरस से दुनिया को जितना नुकसान हुआ उतना लाभ भी हुआ है । कोविड-19 के दौर में इतने महान लोग जो न कर सके आप सोच रहे होंगे मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं?
उस समय एक महान विचार सभी लोगों के मन में आ चुका था पता नहीं कल क्या होगा। त्याग उत्सर्ग दान क्षमा दया करुणा की भावनाएं जिधर देखो उधर नजर आती थी। कोई भूखे मरते हुए कुत्तों की तीमारदारी में लगा था तो कोई गाय के लिए चारा बांट रहा था। कोई मुंबई से अपने गांव जाने वालों को चप्पल पहना रहा था तो कोई खाना खिला रहा था। इसे कहते हैं बदलाव शायद यह स्थिति एक दो साल और चल जाती तो यह तय हो गया था कि विश्व समाज बदल जाएगा। परंतु जैसे ही लॉकडाउन खत्म हुआ वैसे ही मानसिक स्थितियां बदली और फिर हम पुराने लटके झटकों के साथ जिंदगी जीने लगे।
   देखी अनदेखी आपदाओं से समाज सुधर जाता है। संकट में संबंध पवित्र हो जाते हैं। यह ब्रह्म सत्य का बोध आप अपने कोविड-19 वाले दिनों में समय यात्रा करके पुनः महसूस कर सकते हैं।
आत्म साक्षात्कार किए बिना दुनिया को सुधारने निकले लोगों की हालत उस बादल जैसी होती है जिसे यह पता नहीं होता कि उनके प्रयासों से होना जाना क्या है..? ना समाज बदलेगी ना व्यवस्था ना ही लोग बदलेंगे। पूरा विश्व चला था पाकिस्तान को सुधारने पूरा विश्व चाइना को सुधारने के उतारू है पर क्या कोई सफल हो सका है या होगा मुझे संदेह है।
  कुछ वस्तुओं में मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट होता है इंजीनियर भी कुछ नहीं कर पाएगा मिस्त्री और उसका चेला भी कुछ नहीं कर सकता। अब आप पूछेंगे ऐसी कौन सी चीज है? हम बताते हैं न
1.सबसे पहले सत्ता पर काबिज होने की लालच 
2.समाज में वर्चस्व की स्थापना करने की उत्कंठा
3. अत्यंत महत्वाकांक्षा
4. और भेद की दृष्टि
   सुधारना यही है सुधरना भी इसे चाहिए समाज भी सुधर जाएगा प्रशासनिक स्वरूप भी सुधर जाएगा और जब यह सुधरेगा तो भारत का आर्थिक दृश्य भी सुधर जाएगा।
   सच मायनों में समाज सुधारक सीधे समाज को सुधारने लगते हैं अपने विचारों का पुलिंदा जबरिया सिर पर पटक के निकल जाते हैं। सांख्य दर्शन कहता है आत्मिक उत्कर्ष के लिए कोशिश की जाए पर लक्ष्य भौतिक है तो आध्यात्मिक विकास कैसे होगा? सच बताओ अगर आप अध्यात्म की बात करेंगे या आप कहेंगे अलख निरंजन ऐसी स्थिति में तुरंत आपको धर्म से बांध दिया जाएगा इतना जलील किया जाएगा कि आप बोल न सके आप सोचते हैं कि दूरी बनाई जाए बना लेते हैं यह सोच कर आप एक निरापद दूरी बना लेते हैं।
 इन दिनों में वैचारिक अत्याचार के खिलाफ झंडा उठाकर खड़े होने की जरूरत है। हमें समाज नहीं सुधर वाना उन लोगों से जो आयातित विचारधारा को लेकर भारत के मौलिक स्वरूप को बदलने के एजेंडे के साथ बदलाव चाहते हैं। ऐसे लोगों का सीधा तरीका होता है वर्ग बनाओ वर्ग के साथ हो रहे कहे अनकहे अत्याचार की व्याख्या करो फिर कुंठा के बीज बो दो और युद्ध करने दो।

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