जबलपुर
वाले ओशो की सामाजिकता पर सवाल खड़ा हुआ . मेरी नज़र में प्रथम दृष्टया ही प्रश्न गैरज़रूरी सा है ऐसा मुझे इस लिए लगा
क्योंकि लोग अधिकतर ऐसे सवाल तब करतें हैं जब उनके द्वारा किसी का समग्र मूल्यांकन
किया जा रहा हो तब सामान्यतया लोग ये जानना चाहतें हैं की फलां व्यक्ति ने कितने कुँए खुदवाए, कितनी राशि दान में दी, कितनों को आवास दिया कितने मंदिर बनवाए . मुझे
लगता है कि सवाल कर्ता ने उनको व्यापारी अफसर नेता जनता
समझ के ये सवाल कर रहे हैं . जो जनता के बीच जाकर और किसी आम आदमी की / किसी
ख़ास की ज़रूरत पूरी करे ?
ओशो
ऐसे धनाड्य तो न थे बाद में यानी अमेरिका जाकर वे धनाड्य हुए वो जबलपुर के सन्दर्भ
में ओरेगान प्रासंगिक नहीं है. पूना भी
नहीं है प्रासंगिक
पर
ओशो सामाजिक थे समकालीन उनको टार्च बेचने वाले की उपाधि दे गए यानी वे सामाजिक थे
इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा...?
सामाजिक
वो ही होता है जिससे सत्ता को भय हो जावे .. टार्च बेचने वाले की उपाधि सरकारी
किताबों के ज़रिये खोपड़ियों में ठूंस दी गई
थी . स्पष्ट है कि समकालीन व्यवस्था कितनी भयभीत थी.
जबलपुर के परिपेक्ष्य में
कहूं तो प्रोफ़ेसर से आचार्य रजनीश में बदल जाने की प्रक्रिया ही सामाजिक सरोकार
प्राथमिक संकेत था. अब आप
विवेकानंद
में सामाजिक सरोकार तलाशें तो अजीब बात न लगेगी आपको .
कुछ उत्साही किस्म के लोग . दूध, तेल, नापने के लिए इंचीटेप का प्रयोग करने की कोशिश करतें हैं
अलग थलग दिखने के लिए जो कभी हो ही नहीं
सकता .
सांसारिक लोग बेचारे होते
हैं विद्वानों के प्रयोगों और उनकी अंतर-ध्वनि को समझ नहीं पाते हैं बेचारे .
सम्भोग से समाधि तक पर पाबंदी लगाने की
मांग करते सुने जाते थे तब लोग. मैं भी बच्चा था न सम्भोग का अर्थ समझता न समाधि
का . घरेलू कपडे सुखाने वाले तार / रस्सी
आदि पर चिड़िया चिडा के इस मिलन को
मेरा बाल मन चिडे द्वारा चिड़िया के प्रति क्रूरता समझता था. और समाधियाँ तो स्थूल
रूप में देखीं हीं थी जहां माथा नवाते थे हम लोग
.
बहुत देर बाद समझ पाया अर्थ क्या है .! किशोर होते ही एक
बार शिर्डी जाने का अवसर मिला जहां उस समय चाय न मिली .. इतनी तड़प हुई कि आँसू बह निकले . फिर अचानक पूज्य भैया मेरे लिए चाय की
व्यवस्था की . मैंने भी तीन कप चाय गटक ली
... और अचानक इतनी संतृप्ति मिली कि अब चाय मिले न मिले कोई लालसा शेष नहीं है.
तब समझ पाया मानव उकता जाता है ... ओशो ने अति सर्वत्र
वर्जयेत को नकार के साबित किया कि प्रभू से मिलना है तो पहले तृप्ति पा लो फिर
स्वयमेव साधू हो जाओगे और आत्ममंथन करते हुए आत्मज्ञान सहज आत्मसात कर सकोगे . उनने नज़रिया बदल
दिया अनुयाइयों का सामूहिक विचार ही नहीं विजन में बड़े पैमाने पर बदलाव समाज से
प्रभावी संवाद था. क्या ये सामाजिकता नहीं
की आत्मानंद के साथ आध्यात्मिकता के पथ पर पद संचरण के लिए प्रकाश की ज़रूरत होती
है. संत एवं दार्शनिक विभ्रम के अँधेरे पथ पर चलने के लिए सोचतें हैं कि टार्च बेच दी जाए. ये अलग मसला है कि टार्च की
कीमत गटागट की गोली देने वाले
दादा जी ने न बताई .. खैर
मित्रो एक दार्शनिक के सामाजिक सिन्क्रोनाइज़ेशन के सवाल को न चाहते हुए भी खारिज करता हूँ
क्योंकि दार्शनिक शासक नहीं जो व्यवस्थापन
करे वो व्यापारी नहीं कि अपने खजाने का दशांस बाँटें
जबलपुर वाले आचार्य रजनीश मेरी नज़र में सम्मोहक वक्ता थे जीवन को परिष्कृत करने की
उर्जा से ओतप्रोत से ऊर्जा बाँटते थे. टार्च नहीं बेचते थे ये तो तय है. समूह के चिंतन को सकारात्मक बनाने
का माद्दा रखते थे . वे न बाएँ देखते न दाएं वे सीधे सीधे आत्मोत्कर्ष का पाठ
सिखाने के सद्प्रयासों में सक्रीय थे . वे मनुष्यों से से सीधा संवाद करते थे .
अर्थात समाज से संवादी थे अर्थात वे पेड़ों पौधों पहाड़ों को प्रवचन नहीं देते थे
... साफ़ तौर पर सामाजिक ही थे भाई ....!!
लोगों को ऐसा लगता है महात्मा गांधी को तो
वे किशोरावस्था में ही नकारने लगे थे जब वे बापू जी से मिले समाज कल्याण के लिए जेब का पैसा भी दिया
वापस भी ले लिया . पर ऐसा उनने इस लिए
किया समाज कल्याण किसी के ज़रिये क्यों करें ?
वे
गांधी जी से असहमत थे या नहीं ये वार्ता का हिस्सा नहीं पर वे निकट की समस्या के
संकट के लिए सतर्कता का सन्देश देना चाहते थे ऐसा मैं समझता हूँ. यह भी सामाजिकता
है .