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रविवार, मार्च 20, 2016

हरे मंडप की तपन


साभार : इंडिया फोरम से 
( एक विधुर पंडित विवाह संस्कार कराने के लिए अधिकृत है ... पर एक विधवा माँ  अपने बेटे या बेटी के विवाह संस्कार में मंडप की परिधि से बाहर क्यों रखी जाती है. उसे वैवाहिक सांस्कृतिक रस्मों से दूर रखना कितना पाशविक एवं निर्मम होता है इसका अंदाजा लगाएं ..... ऐसी व्यवस्था को अस्वीकृत करें . विधवा नारी के लिए अनावश्यक सीमा रेखा खींच कर विषमताओं को प्रश्रय देना सर्वथा अनुचित है आप क्या सोचते हैं....... ? विषमता को चोट कीजिये  )
 वैभव की  देह देहरी पे लाकर रखी गई फिर उठाकर ले गए आमतौर पर ऐसा ही तो होता है. चौखट के भीतर सामाजिक नियंत्रण रेखा के बीच एक नारी रह जाती है . जो अबला बेचारी विधवा, जिसके अधिकार तय हो जाते. उसे कैसे अपने आचरण से कौटोम्बिक  यश को बरकरार रखना हैं सब कुछ ठूंस ठूंस के सिखाया जाता है . चार लोगों का भय दिखाकर .
चेतना  दर्द और स्तब्धता के सैलाब से अपेक्षाकृत कम समय में उबर गई . भूलना बायोलाजिकल प्रक्रिया है . न भूलना एक बीमारी कही जा सकती है . चेतना पच्चीस बरस पहले की नारी अब एक परिपक्व प्रौढावस्था को जी रही है . खुद के जॉब के साथ साथ  संयम को संयुक्ता को पढ़ाना लिखाना उसके लिए प्रारम्भ में  ज़रा कठिन था . कहते हैं न  संघर्ष से आत्मविश्वास की सृजन होता है . वही कुछ हुआ चेतना में . एक सुदृढ़ नारी बन पडी थी . चेतना ने  आत्मबल बढाने के हर प्रयोग किये किस दबंगियत से लम्पट जीवों से मुकाबला करना है बेहतर तरीके से सीख चुकी थी .
बच्चों का इंतज़ार करते करते बालकनी में बैठी  आकाश पर निहारती चेतना ने एक पल अपने फ्लेट को निहारा फिर सोचने लगी 15 साल तक ब्याज और किश्तें चुका कर अपना हुआ फ़्लैट एक संघर्ष की कहानी है वैभव के साथ खुद की कमाई के आशियाने की कसम खाई थी पर वैभव के जाने के बाद कसम को पूरा करना कितना मुश्किल सा था. किराए के मकान में रहना उसे अक्सर भारी पड़ता था . इस फ़्लैट का डाउनपेमेंट के इंतज़ाम की गरज से   भावुकता और विश्वास के साथ  भाई के घर गई थी भाई ने कहा – चेतना देखो दस-बीस हज़ार उधार दिला सकता हूँ पर एक लाख मेरे लिए मुश्किल है . बहन बुरा मत मानना मेरी भी ज़िम्मेदारियाँ हैं  भाई की बात सुन कर चेतना को याद आ रहा था पिता जी के नि:धन पर वैभव के साथ वो  पहुंची थी तीसरे ही दिन  अस्थि संचय के बाद भैया ने बड़े शातिराना तरीके से मकान जमीन के लिए किसी पेपर पर दस्तखत कराए थे तब भैया ने कहा था – “बहन , तेरा भाई हर पल तेरे लिए बाबूजी की तरह मुस्तैद है .” सभी जानते हैं बाबूजी के श्राद्ध को फिजूल खर्ची बताकर  लेशमात्र खर्च न किया. पारिवारिक अर्थशास्त्र तो दस्तखत वाले दिन ही समझ चुकी थी . परन्तु वादा-खिलाफी का परीक्षण  भी हो गया . खैर युक्तियों से मुक्तिमार्ग खोजती चेतना ने वैभव के साथ ली कसम को पूरा किया.
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संयुक्ता के जॉब में आने के बाद संयुक्ता की पसंद के लडके से शादी की रस्म पूरी होनी है . दो दिन बाद बरात आएगी आज खल-माटी की रस्म है . भाभी ने कहा- बहन आप न जा पाओगी ...... मंगल कार्य में सधवा जातीं हैं . ..!
चेतना :- और, बाक़ी रस्मों को कौन कराएगा ?
भाभी  :- मैं हूँ न , आप चिंता मत करो,
चेतना :- पर क्यूं..?
भाभी  :-  सामाजिक रीत के मुताबिक़ विधवाएं हरे मंडप में भी नहीं आतीं थीं वो तो अब बदलाव का दौर है .
चेतना की आत्मा चीखने को बेताब थी पर बेटी की माँ वो भी वैभव सदेह साथ नहीं . जाने क्या सोच चुप रही.   
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चेतना :- भैया पंडित का इंतज़ाम हो गया है न
भाई   :-  हाँ, बिहारी लाल जी के पुत्र हैं ...  बताया था न कि अभिमन्यु शुकुल की पत्नी नहीं रहीं ......
चेतना :- अच्छा, तो ये विधुर हैं ..
भाई   :- हाँ, बहन, बहुत बुरा हुआ इनके साथ                                              
चेतना ( भाभी की तरफ देखकर ) :- विधवा को हरे मंडप में जाने का अधिकार नहीं और पंडित विधुर चलेगा क्यों भाभी ....... ?
                 सम्पूर्ण वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया . भाई-भावज अवाक चेतना को निहारते चुपचाप अपराधी से नज़र आ रहे थे. और अचानक एक ताज़ा हवा बालकनी में लगे हरे मंडप की तपन को दूर करती हुई कमरे में आती है  
फिर क्या था ........ हर रस्म में चेतना थी हर चेतना में उत्सवी रस्में .. ये अलग बात है कि चेतना अपनी आँखें भीगते ही पौंछ लेती इसके पहले कि कोई देखे.  

गिरीश बिल्लोरे “मुकुल” girishbillore@gmail.com   

मंगलवार, जुलाई 01, 2014

"माई री मैं कासे कहूं पीर .... !"


विधवा जीवन का सबसे दु:खद पहलू है कि उसे सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकारों से आज़ भी  समाज ने दूर रखा है. उनको उनके सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकार देने की बात कोई भी नहीं करता. जो सबसे दु:खद पहलू है. शादी विवाह की रस्मों में विधवाओं को मंडप से बाहर रखने का कार्य न केवल गलत है वरन मानवाधिकारों का हनन भी है.              आपने अक्सर देखा होगा ... घरों में होने वाले मांगलिक कार्यों में विधवा स्त्री के प्रति उपेक्षा का भाव . नारी के खिलाफ़ सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस करना ही होगा . किसी धर्म ग्रंथ में पति विहीन नारी को मांगलिक कार्यों में प्रमुख भूमिका से हटाने अथवा दूर रखने के अनुदेश नहीं हैं. जहां तक हिंदू धर्म का सवाल है उसमें ऐसा कोई अनुदेश नहीं पाया जाता न तो विधवा का विवाह शास्त्रों के अनुदेशों के विरुद्ध है.. न ही उसको अधिकारों से वंचित रखना किसी शास्त्र में निर्देशित किया गया है. क्या विधवा विवाह शास्त्र विरुद्ध है? इस विषय पर गायत्री उपासकों की वेबसाइट http://literature.awgp.org/hindibook/yug-nirman/SocietyDevelopment/KyaVidhvaVivahShastraViruddhHai.1 पर स्पष्ट लिखा है कि यह अनाधिकृत है.

विधवाओं के लिये वर्जित क्या है

  1. श्रृंगार :- विधवा स्त्री को स्वेत वस्त्र पहनने की अनुमति है. उसे श्रृंगार की अनुमति कदापि नहीं दी गई है. आधार में ये तथ्य है कि रंगीन वस्त्र उसे उत्तेजक बना सकते हैं. जो पारिवारिक सम्मान को क्षति पहुंचाने का कारण हो सकता है.
  2. पुनर्विवाह  :- ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अथक प्रयासों से पुनर्विवाह को अब अंगीकार किया जाने लगा है. 
  3. पारिवारिक सांस्कृतिक आयोजनों में प्रमुख भागीदारी :- पुत्रों, पुत्रीयों, अथवा अन्य रक्त सम्बंधियों के विवाह, चौक, आदि में विधवाओं को मुख्य समारोह से विलग रखा जाता है. यदि कोई विधवा स्त्री अपनी संतान का विवाह करवा रही है तो उसका धन शुद्ध माना जाता है जबकि उसका स्वयं मंडप में प्रवेश वर्जित है. यहां तक कि वर मां/ वधू मां का दायित्व परिवार के किसी अन्य जोड़े को दिया जाता जै. 
  4. ग्रह प्रवेश में किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान में मान्यता का अभाव  :-  आज़ भी मौज़ूद  है यह कुरीति .भले ही विधवा ने स्वयं अर्जित / पति की विरासत से प्राप्त धन से अचल सम्पदा अर्जित की हो 
  5. मनोरंजक/हास-परिहास जैसे पारिवारिक आयोजन  :- ऐसे आयोजन में भी विधवाओं को परे रखने की व्यवस्था समाज में है. 

अगर शास्त्रों द्वारा विधवाओं को सामान्य जीवन से प्रथक रखने की कोशिश के निर्देश दिये भी जाते तो ऐसे निर्देशों को सभ्य-समाज को बदल देना चाहिये.  सनातन धर्म अन्य धर्मों की तरह कठोर नही है. धर्म देख काल परिस्थिति अनुसार  विकल्पों के प्रयोग की अनुमति देता है. किंतु ब्राम्हणवादी व्यबस्था के चलते कुछ मुद्दे अभी भी यथावत हैं. नारी के पति विहीन होने पर उसका श्रृंगार अधिकार छिनना, उसकी चूड़ियां सार्वजनिक तौर पर तोड़ना एक लज्जित कर देने वाली कुरीति है. पति के शोक में डूबी नारी को क़ानून के भय से सती भले ही न बनाता हो ये समाज पर नित अग्नि-पथ पर चलने मज़बूर करता है. उसके अधिकार छीन कर जब मेरी दादी मां के सर से बाल मूढ़ने नाई आता था तब मै बहुत कम उम्र का था पर समझ विकसित होते ही  जब मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सत्तर वर्ष की उम्र में भी उनको विधवा होने का पाठ पढ़ाया जा रहा है तो मैं बेहद दु:खी हुआ.
    तेज़ी से सामाजिक परिवर्तन हो रहा है. किंतु समाज ने अपनी विधवा मां, बहन, बेटी, भाभी, बहू किसी के अधिकार छिनते देख एक शब्द भी नहीं कहा. किसी में भी हिम्मत नहीं है. किस बात का भय है.   हम सनातन धर्म के अनुयायी हैं जो लचीला है..  कर्मकांडी अथवा  पंडे इसे रोजी रोटी कमाने लायक ही जानते हैं. पंडे क्या हमें धर्म के मूल तत्व आ अर्थ बता सकते हैं. वे सिखाएंगे भी क्या..उनका काम सीमित है  हमें सामाजिक बदलाव लाना है. ऐसा सामाजिक बदलाव जिससे किसी प्राणी मात्र को पीडा से मुक्त रखा जा सके.  शंकराचार्यों को ऐसे  विषय पर समाज को मार्गदर्शन देने की ज़रूरत है. न कि विवादित बयानों की .
सुधि पाठको पूरी ईमानदारी से विचारमग्न हो के सोचिये कि आप मेरे इस आह्वान पर क्या सोचते हैं.. नारी के तिरस्कार वाली क्रियाओं से समाज के विमुक्त करने विधवाओं के प्रति सकारात्मक दायित्व निर्वहन से क्या धरती धरती न रहेगी. ... ?          


गुरुवार, मई 19, 2011

विधवाओं के सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकारों को मत छीनो


एडवोकेट दिनेश राय द्विवेदी जी के ब्लाग
तीसरा खम्बा से आभार सहित  
साभार "जो कह न सके ब्लाग से "

                   विधवा होना कोई औरत के द्वारा किया संगीन अपराध तो नहीं कि उसके सामाजिक और धार्मिक अधिकारों से वंचित किया जाए.अक्सर शादी विवाहों में देखा जाता है कि विधवा की स्थिति उस व्यक्ति  जैसी हो जाती है जिसने कोई गम्भीर अपराध किया हो. जैसे तैसे अपने हौसलों से अपने बच्चों को पाल पोस के सुयोग्य बनाती मां को शादी के मंडप में निभाई जाने वाली रस्मों से जब वंचित किया जाता है तब तो स्थिति और भी निर्दयी सी लगती है. किसी भी औरत का विधवा होना उसे उतना रिक्त नहीं करता जितना उसके अधिकारों के हनन से वो रिक्त हो जाती है. मेरी परिचय दीर्घा में कई ऐसी महिलाएं हैं जिनने अपने नन्हें बच्चों की देखभाल में खुद को अस्तित्व हीन कर दिया. उन महिलाओं का एक ही लक्ष्य था कि किसी भी तरह उसकी संतान सुयोग्य बने. आखिर एक भारतीय  मां को इससे अधिक खुशी मिलेगी भी किस बात से.  दिवंगत पति के सपनों को पूरा करती विधवाएं जब अपने ही बच्चों का विवाह करतीं हैं तब बेहूदी सामाजिक रूढि़यां उसे मंडप में जाने से रोक देतीं हैं. जब बच्चों को वो सदाचार का पाठ पढ़ाते हुए योग्य बना रही होतीं हैं ये विधवा माताएं तब कहां होते हैं सामाजिक क़ानून के निर्माता जो ये देख सकें कि एक नारी पिता और माता दौनों के ही रूप में कितना सराहनीय काम कर रही है. वे औरतें जो "सधवा" होने के नाम पर विधवा माताओं को मंडप से परे ढकेलतीं हैं क्या कभी उनकी सोच में आता है कि किसी "नारी" के प्रति अपराध कर रहीं हैं वो..? नहीं ऐसा शायद ही कोई सोचती होगी. 
                               पाखण्ड भीरू समाज के पुरुष विधवा नारी को जिस नज़रिये से देखतें हैं इस बात पर गौर कीजिये तो पाएंगे कि बस शोषण के लिये तत्पर कोई भयावह रूप नज़र आएगा आपको. कम ही लोग होंगे जो विधवा नारी के सम्मान को बनाए रखने सहयोगी हों, कम ही होंगे जो उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकारों को बचाना चाहते हैं. हम में से कई तो ऐसे भी हैं जो आज़ के बदलते परिवेश में विधवा को सफ़ेद कपड़ों में  ही देखना चाहते हैं. मेरी दादी मेरी समझ विकसित होने से पहले चल बसी वरना उस दौर में उनके बाल मुंडवाने का विरोध अवश्य करता. शायद नाई को लताड़ता भी. मुझे कुछ कुछ याद है सत्तर पचहत्तर बरस की बूड़ी दादी मां के सर से बाल मुंडवाए जाते थे . दादी मां खुद भी ऐसा चाहतीं थीं. परंतु अब ऐसी  स्थिति कम ही देखने को मिलती है. सामाजिक परिस्थितियों में  बदलाव आ रहा है  पर सामाजिक-सोच में बदलाव नहीं आया है. आज़ भी विधवा के अधिकारों के मामले में सामाजिक स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. खासकर मध्य वर्ग जिस अधकचरे चिंतन से गुंथा है उससे निकलना ही होगा. 
     मुझे नहीं लगता भारतीय सामाजिक व्यवस्था में तब तक विधवा महिला को उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकार हासिल नहीं होंगे जब तक कि घर के बच्चे खुद पूरी ताक़त से इस अधिकारों की रक्षा के लिये आगे न आएंगें .     

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