हरदे वाला बाबूलाल
हरदे* वाला बाबूलाल एक टांग पर खड़ा एक हाथ उंचा आकाश को निहारता अक्सर देखा जाता था घंटाघर में जोर जोर से कुछ बोलता था जाने क्या कौन जाने काला कम्बल कब सोता था उसे ओढ़कर कौन जाने ? किसानों की छकड़ी से बाबूलाल को तकते बच्चे पूछते - " यो काई बोलच दाजी " .... कुण जाणा कई बोले है .... पोरया, अ वो धसाढ़नई मुड़ो भित्तर कर ....... बच्चे छिप जाते गाड़ी के भीतर हरदे वाला बाबूलाल एक टांग पर खड़ा एक हाथ उंचा आकाश को निहारता लोग कहते थे गरिया रहा है अंग्रेजों को.…………………। मेरे घर के ऐन सामने वाला बूढ़ा भी है रोज़िन्ना ...................... लोगों को गरियाता है मातृ-भगनी अलंकरण करता पर वो बाबूलाल नहीं है हरदे वाला यह कविता श्रीमती जी से आज सुबह हुई चर्चा पर आधारित है * हरदे= हरदा