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बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे

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डुमारू यूं ही भैंसों को चराता रहेगा सोचिये कब तलक ये ज़ारी रहेगा ?                       चचा ग़ालिब आपने जो लिक्खा था सच में एक गै़रतमंद शायर का नज़रिया है . ज़नाब  आपका कहा सियासी अपना कहा समझने हैं. इंशा-अल्लाह इनको समझदार बीनाई दे वरना वरना क्या ? लोग मंगल पे कालोनी बना लेंगे और अपना ये डुमारू यूं ही भैंसों को चराता रहेगा. और मौज़ में आके कभी कभार उसकी पीठ पे लद के  यूं ही अपनी  बादशाहत का नज़ारा पेश करेगा .  इसे ही विकास कहते हैं.… लोग तो कहें और कहते रहें  मुझे तो झुनझुनों से इतर कुछ भी नहीं लगता . आखिर उनके नज़रिये में दुनियां  " बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल " ही तो है ये दुनियां.  आप हम और ये समूचा हिंदुस्तान जिस दिन अपने नज़रिये से से सोचने लगा तो यक़ीनन इस जम्हूरियत का मज़मून और लिफ़ाफ़ा दौनों ही बदले बदले नज़र आएंगे. सियासत की दीवार पर विचारधाराओं की खूंटियों पर टंगी ज़म्हूरियत बेशक सबसे बड़ी तो है पर उस दीवार  और खूंटियों की मज़बूती पर सोचना ज़रूरी है. वरना बकौल आप चचा ग़ालिब आवाम कहेगी जो शायद दर्दीला हो सकता  " गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है रहने