तिरलोक सिंह लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
तिरलोक सिंह लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

4.11.12

शब्दों के हरकारे ने जिस जबलपुर को पढ़ाया उसी जबलपुर ने बिसराया : संदर्भ स्व. तिरलोक सिंह

                          एक व्यक्तित्व जो अंतस तक छू गया है । उनसे मेरा कोई खून का नाता तो नहीं किंतु नाता ज़रूर था । कमबख्त डिबेटिंग गज़ब चीज है बोलने को मिलते थे पाँच मिनट पढ़ना खूब पड़ता था यही तो कहा करतीं थीं मेरी प्रोफ़ेसर राजमती दिवाकर  । लगातार बक-बकाने के लिए कुछ भी मत पढिए ,1 घंटे बोलने के लिए चार किताबें , चार दिन तक पढिए, 5 मिनट बोलने के लिए सदा ही पढिए, . सो मैं भी कभी जिज्ञासा बुक डिपो तो कभी पीपुल्स बुक सेंटर , जाया करता था। पीपुल्स बुक सेंटर में अक्सर तलाश ख़त्म हों जाती थी, वो दादा जो दूकान चलाते थे मेरी बात समझ झट ही किताब निकाल देते थे। मुझे नहीं पता था कि उन्होंनें जबलपुर को एक सूत्र में बाँध लिया है।आज़ के  नामचीन और गुमनाम  लेखकों को कच्चा माल वही सौंपते है इस बात का पता मुझे तब चला जब पोस्टिंग  वापस जबलपुर हुयी। दादा का अड्डा प्रोफेसर हनुमान वर्मा जी का बंगला था। वहीं से दादा का दिन शुरू होता सायकल,एक दो झोले किताबों से भरे , कैरियर में दबी कुछ पत्रिकाएँ , जेब में डायरी, अतरे दूसरे दिन आने लगे मलय जी के बेटे हिसाब बनवाने,आते या जाते समय मुझ से मिलना न भूलने वाले व्यक्तित्व ..... को मैंने एक बार बड़ी सूक्ष्मता से देखा तो पता चला दादा के दिल में भी उतने ही घाव हें जितने किसी युद्धरत सैनिक के शरीर,पे हुआ करतें हैं।
कर्मयोगी कृष्ण सा उनका व्यक्तित्व, मुझे मोहित करने में सदा हे सफल होता.....स्व. ठाकुर दादा,इरफान,मलय जी,अरुण पांडे,जगदीश जटिया,रमेश सैनी,के अलावा,ढेर सारे साहित्यकार के घर जाकर किताबें पढ़वाना तिरलोक जी का पेशा था। पैसे की फिक्र कभी नहीं की जिसने दिया उसे पढ़वाया , जिसके पास पैसा नहीं था या जिसने नही दिया उसे भी पढवाया । कामरेड की मास्को यात्रा , संस्कार धानी के साहित्यिक आरोह अवरोहों , संस्थाओं की जुड़्न-टूटन को खूब करीब से देख कर भी दादा ने इस के उसे नहीं कही। जो दादा के पसीने को पी गए उसे भी कामरेड ने कभी नहीं लताडा कभी मुझे ज़रूर फर्जी उन साहित्यकारों से कोफ्त हुई जिनने दादा का पैसा दबाया ।
कई बार कहा " दादा अमुक जी से बात करूं...?
रहने दो ..क्या ज़रूरत है इस सबकी ...?
यानी गज़ब का धीरज ।

               तिरलोक सिंह पर कम लिखे जाने उनकी चर्चा न होने का दर्द अरुण पांडे के सीने में भी पल रहा है तो ज्ञानरंजन जी का मानना है- "ये सच है कि तिरलोक सिंह के बारे में हमें निरंतर कार्य करने की ज़रूरत है  तिरलोक सिंह के अवदान को न तो शहर का कोई साहित्यकार भूल सकता न ही मेरे बच्चे पाशा और बुलबुल जिनको तिरलोक जी ने अच्छी अच्छी पुस्तकें दीं थी. अब तो न तिरलोक हैं न ही उनका विकल्प जो पूरे शहर के एक सूत्र में जोड़े. कृतज्ञता तो सर्वकालिक होती है भले वह किसी आयोजन के स्वरूप में हो या न हो पर हृदय में  कृतज्ञता भाव सतत होना चाहिये."
                 आज़ के दौर में  कृतज्ञता के भाव रखने वाले लोग कम ही हैं. जो हैं उन पर काम का दबाव अधिक है पर इसके मायने ये नहीं कि तिरलोक सिंह को याद न किया जाए. स्मृति-प्रवाह सतत जारी रहे.सबको याद करते रहना होगा शब्दों के हरकारे को  शहर को उनके बारे में सतत चिंतन करते रहना  चाहिये . 
  उनके जीवन काल में कटनी में हमने एक स्मारिका "शब्दों का हरकारा" प्रकाशित की थी तिरलोक जी को सराहने लगभग पांच सौ से अधिक लोग एकत्र हुए थे. 
          दिनेश अवस्थी ने अपनी टिप्पणी मुझे फ़ोन पर कुछ यूं दर्ज़ कराई-"एक तो दादा हमारे लिये साहित्य लाते थे दूसरा उनकी उपस्थिति पत्नि-बच्चों से संवाद एक विशाल परिवार के भाव की प्रस्तुति हुआ करती  थी . उनका न होना सच एक अपूरणीय नुकसान है "    
यशभारत .11.11.12 
                     सूरज राय "सूरज" ने अपने ग़ज़ल संग्रह के विमोचन के लिए अपनी मान के अलावा मंच पे अगर किसी से आशीष पाया तो वो थे :"तिरलोक सिंह जी "। इधर मेरी सहचरी ने भी कर्मयोगी के पाँव पखार ही लिए। हुआ यूँ कि सुबह सवेरे दादा मुझसे मिलने आए किताब लेकर आंखों में दिखना कम हों गया था,फ़िर भी आए पैदल पैदल और अपने साथ लाए  सड़क को शौचालय बनाकर गंदगी फैलाने वाले का मल जो उनके सेंडिल में..सना था.  मेन गेट से सीढियों तक गंदगी के निशान छपाते ऊपर आ गए दादा. अपने आप को अपराधी ठहरा रहे थे जैसे कोई बच्चा गलती करके सामने खडा हो. इधर मेरा मन रो रहा था कि इतना अपनापन क्यों हो गया कि शरीर को कष्ट देकर आना पड़ा दादा को .संयुक्त परिवार के कुछ सदस्यों को आपत्ति हुयी की गंदगी से सना बूढा आदमी गंदगी परोस गया गेट से सीढ़ी तक . सुलभा के मन में करूणा ने जोर मारा . उनके पैर धुलाने लगी . मानव धर्म के आधार में करुणा का महत्त्व सुलभा से बेहतर कौन समझ पाया होगा तब. . तिरलोक जी का आशीर्वाद लेकर सुलभा ने जाने कितना कुछ हासिल किया मुझे नहीं मालूम . मेरे और अन्य साहित्यकारों के बीच के सेतु तिरलोक जी फिर एकाध बार ही आए अब तो बस आतीं हैं उनकी यादें दस्तक देने मन के दरवाजे तक ऐसा सभी साथी महसूस करते हैं.








Wow.....New

धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...