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गुरुवार, अगस्त 29, 2013
सुर्खियों से दूर रहे स्वातंत्र्यवीर : श्री मांगीलाल गुहे
ये आज़ाद हवाएं, यह कुछ भी करने की इच्छा, यह कुछ भी कर लेना, यह अपना देश, यह आजाद विचारों का सिलसिला, मुफ्त में नहीं मिला ।
मातृभूमि के लिए बलिदान सदा ही जरूरी होता है। आजाद होने का एहसास सभी यूं ही नहीं आ जाता है। आजाद रहने का एहसास वही महसूस कर सकता है, जो अपने देश जन्मभमि
मातृभूमि से प्यार करते हैं।
आजादी के लिए जज्बा एक युवक के दिल में पनपने लगा !
और उन्होंने कुछ क्रांतिकारी तरीके अपना लिए। यूं तो वे गांधीवादी थे । अब आप कहेंगे कि क्रांतिकारी गांधीवादी कैसे हो सकते हैं ?
1942 का इतिहास आपने पढ़ा होगा। दूसरे विश्व युद्ध के बाद गांधी ने अपना अहिंसा कवच छोड़ ऐलान कर दिया
करो या मरो !
किस-किस पर इस बात का असर हुआ होगा ! अविश्वसनीय तौर पर केवल उन पर हुआ होगा जो अपनी आजादी को हर कीमत पर हासिल करना चाहते थे। उनमें से थे एक हमारे दादाजी बस उन्होंने अपने जीवन का प्रथम लक्ष्य बना लिया था - स्वतंत्रता..!
श्रीयुत गुहे ने गांधी जी के निर्देशों पर सदा अमल किया 1942 में महा. गांधी के “करो या मरो” नारे से प्रभावित होकर अंग्रेज सरकार की पत्राचार व्यवस्था को खत्म करने के इरादे से हरदा के लेटर बाक्सों को बम से नेस्तनाबूत किया,
साथ ही डाक गाड़ी के दो डब्बों के बीच यात्रा करते हुए रस्सी में हंसिया बांध कर रेल लाइन के किनारे के टेलीफ़ोन तारों को काटा ताकि टेलीफ़ोनिक एवम टेलीग्राफ़िक संचार व्यवस्था छिन्न भिन्न हो हुआ यही .उनकी ज़रा सी चूक जान लेवा हो सकती थी. पर युक्तियों और सतर्क व्यक्तित्ववान श्री गुहे ऐसा कर साफ़ बच निकले. श्री गुहे बताते हैं कि मुझसे लोग दूरी बनाते थे . ऐसा स्वभाविक था. लोग क्यों अग्रेजों के कोप का शिकार होना चाहते.
श्रीयुत गुहे हमेशा कुछ ऐसा कर गुज़रते जो विलायती कानून की खिलाफ़त और बगावत की मिसाल होता पर हमेशा वे सरकारी की पकड़ में नहीं आ पाते .कई बार ये हुआ कि अल्ल सुबह हरदा की सरकारी बिल्डिंग्स पर यूनियन जैक की जगह तिरंगा दिखाई देता था. ये करामात उसी क्रांतिवीर की थी जिसे तब उनकी मित्र मंडली मंगूभाई के नाम से सम्बोधित पुकारती थी.उनका एक ऐसा मित्र भी था जो सरकारी रिश्वत की गिरफ़्त में आ गया उसने श्री गुहे को बंदी बनवा दिया. जब मैने मित्र के नाम का उल्लेख करने की अनुमति चाही तो दादाजी ने कहा-”मुझमें किसी से कोई रागद्वेष के भाव नहीं मैं तो देश को आज़ाद हवा दिलाना चाहता था मेरा उद्देश्य पूर्ण हुआ. मैं उसे आज भी मित्र मानता हूं हो सकता है कि उसका परिवार मेरी गिरफ़्तारी के धन से भोजन कर सका हो. अथवा उसकी ज़रूरते पूरी हुईं हों. .!”ऐसे महान विचारक श्रीयुत गुहे जी पर हमें गर्व है.
बरतानिवी सरकार की टेलीग्राफ़िक संचार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने हंसिये को रस्सी से बांधकर हावड़ा मेल में बैठकर रेलवे लाइन के किनारे वाले टेलीफ़ोन के तार घात लगाके काटे जो एक दुस्साहसिक कार्य था. श्री गुहे जी को उनके एक सहयोगी एक कपटी ने अंग्रेज सरकार से रिश्वत लेकर जेल भिजवाया. वे 21 माह तक जेल में रहे ….
सदा ही हौसलों से संकटों समस्याओं को चुनौती देने वाले श्री गुहे जी का जन्म 10 अक्टूबर 1924 को हरदा में हुआ. आपके पिता श्री शिवचरण गुहे कृषक थे.
ये दौर भारतीय कृषकों के लिये अभाव एवम संघर्ष का दौर था. एक ओर अभाव दूसरी ओर सामाजिक अंग्रेज़ सरकार की दमनकारी नीतियों से किशोरावस्था में ही विद्रोही हो गये थे. वे विद्रोही अवश्य थे किंतु विध्वंसक नहीं. ऐसे कई अवसर भी आए जब उनका आक्रोश झलकता साफ़ दिखता था पर आक्रोश सदा विसंगतियों के खिलाफ़ होता था. उनके व्यक्तित्व में बालसुलभ भोले पन की आभा उनके जानने वालों ने अक्सर देखी. पर सत्य तक पहुंचते ही वे गले लगाना भी नहीं भूले.
गांधीजी के आह्वानों का असर उनके किशोर मन पर अवश्य पड़ता था.
मुझसे उनकी हुई कई वार्ताओं में अक्सर मुझे महसूस हुआ कि वे कभी भी अन्याय, चतुराई और कपट को सहन नहीं करते थे ।
यही गुण दर्शाता है कि कोई क्रांतिकारी बन सकता है।
उनके संवादों में सादगी, लोगों के प्रति विश्वास का भाव उनकी गुणात्मक विशेषता थी. स्वभाव से घुमक्कड़ श्री गुहे ने सारे देश का भ्रमण किया तीर्थ यात्राएं तो एकाधिक बार कर चुके थे. अगर यह कहा जावे कि जबलपुर में गुहे जी के समकालीन नार्मदीय बुज़ुर्गों में शक्ति का संचार अगर हुआ तो गुहे जी की वज़ह से ही हुआ ये तय है.
मंगू भैया की गली स मत जाजे रे........!!
मंगू भैया अपने दो मंज़िला पैतृक आवास पर अक्सर थैली में पत्थर लेकर बैठा करते थे. निशाना उन पर साधा जाता था जो फ़िरंगीयों की नौकरी करते या फ़िरंगी होते.
मंगू भैया अपने दो मंज़िला पैतृक आवास पर अक्सर थैली में पत्थर लेकर बैठा करते थे. निशाना उन पर साधा जाता था जो फ़िरंगीयों की नौकरी करते या फ़िरंगी होते.
चोट किसी को नहीं लगती पर इस बात का संदेश अवश्य पहुंचता होगा हरदा वासियों को कि फ़िरंगियों की गुलामी करना ठीक नहीं.
अगर उस दौर को महसूस करें तो आप ये आवाज़ भी महसूस करेंगे जो कदाचित कोई माता पिता अपने नौकरी शुदा बच्चों के लिये होती होगी जिसमें ये कहा जा रहा हो- "मंगू भैया की गली स मत जाजे रे...मंगू भैयो पत्थर मारच"
जेल में हुए अत्याचार...............!!
विश्व को मानवाधिकार के मुद्दे पे घेरने वाले यूरोपीय देश शेष देशों की जेलों के बारे में खूब नसीहतें देतीं हैं पर ब्रिटिश उपनिवेशों की जेलों में क्रूरता पूर्ण यातनाओं के किस्से स्वाधीनता सेनानियों के परिजन जानते हैं . आप क्रिमिनल्स से अधिक कष्ट दी जाती थी. दादा जी ने जैसा बताया कि होशंगाबाद की जेल में उनको घास की साग और रेतीले आटे से बनी रोटियां दी जाती थीं.. !!
सबसे मित्रवत व्यवहार...!!
बच्चे,बूढ़े,युवा, सबके साथ मैत्री पूर्ण व्यवहार गुहे जी के व्यक्तित्व को अधिक आकर्षक बनाने में सहायक सिद्ध हुआ. ।
दुबेजी ने पहचान लिया था... .
हरदा के मजिस्ट्रेट श्री दुबे जी ने श्रीयुत गुहे जी को आंदोलन के कारण कारागार में भेजा था.. आज़ाद भारत में सन 1948 में उनको आर्डिनेन्स फ़ैक्ट्री जबलपुर में नियुक्ति पत्र देते वक्त पहचाना और बड़े आत्मीयता और सम्मान से नियुक्ति पत्र दिया
प्रमोशन के साथ क्लर्क भी दिया.
अच्छे कार्यों की वज़ह से गुहे जी को दो बार विशिष्ट सेवा पदक मिले. विशेष पदोन्नति के पूर्व रिकार्ड लिखने में गुहे जी ने जब असमर्थता व्यक्त की तो फ़ैक्ट्री प्रशासन ने उनको एक लिपिक की सुविधा भी मुहैया कराई. श्री गुहे सेवानिवृत्ति के समय चार्जमैन के पद पर थे .
साहित्यकार भौंचक रह गये थे :-
आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री जी ने ताम्रपत्र से समादरित किया था गुहे जी को . इसी क्रम में संस्कारधानी की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था “मिलन” ने दादाजी को “शौर्य-चक्र” प्रदान किया . मातृज्योति भवन में शहर के सारे साहित्यकार थे मूर्धन्य वक्ताओं की कमी भी न थी उस हाल में. दादाजी बहुत मान मनुहार के बाद मंच पर बमुश्किल राजी हुए थे. पर मुझ पर बंधन लगाया कि मैं उनको भाषण के लिये न बुलवाऊं. मैने विश्वास दिलाया पर सदन ने उनसे वक्तव्य का आग्रह किया तो गुहे जी इंकार न कर सके . और स्वतंत्रता के पूर्व एवम बाद के सामाजिक राजनैतिक आर्थिक साहित्यिक घटनाक्रम एवम वातावरण पर ऐसे प्रहार किये कि जबलपुर के साहित्यकार भौंचक रह गये. अंतत: सारे उत्तरवर्ती वक्ताओं ने अपने भाषण में एक एक कर गुहे जी वक्तव्य के अंश शामिल किये . पूरा कार्यक्रम गुहे दादाजी पर केंद्रित हो गया था.
अगर उस दौर को महसूस करें तो आप ये आवाज़ भी महसूस करेंगे जो कदाचित कोई माता पिता अपने नौकरी शुदा बच्चों के लिये होती होगी जिसमें ये कहा जा रहा हो- "मंगू भैया की गली स मत जाजे रे...मंगू भैयो पत्थर मारच"
जेल में हुए अत्याचार...............!!
विश्व को मानवाधिकार के मुद्दे पे घेरने वाले यूरोपीय देश शेष देशों की जेलों के बारे में खूब नसीहतें देतीं हैं पर ब्रिटिश उपनिवेशों की जेलों में क्रूरता पूर्ण यातनाओं के किस्से स्वाधीनता सेनानियों के परिजन जानते हैं . आप क्रिमिनल्स से अधिक कष्ट दी जाती थी. दादा जी ने जैसा बताया कि होशंगाबाद की जेल में उनको घास की साग और रेतीले आटे से बनी रोटियां दी जाती थीं.. !!
सबसे मित्रवत व्यवहार...!!
बच्चे,बूढ़े,युवा, सबके साथ मैत्री पूर्ण व्यवहार गुहे जी के व्यक्तित्व को अधिक आकर्षक बनाने में सहायक सिद्ध हुआ. ।
दुबेजी ने पहचान लिया था... .
हरदा के मजिस्ट्रेट श्री दुबे जी ने श्रीयुत गुहे जी को आंदोलन के कारण कारागार में भेजा था.. आज़ाद भारत में सन 1948 में उनको आर्डिनेन्स फ़ैक्ट्री जबलपुर में नियुक्ति पत्र देते वक्त पहचाना और बड़े आत्मीयता और सम्मान से नियुक्ति पत्र दिया
प्रमोशन के साथ क्लर्क भी दिया.
अच्छे कार्यों की वज़ह से गुहे जी को दो बार विशिष्ट सेवा पदक मिले. विशेष पदोन्नति के पूर्व रिकार्ड लिखने में गुहे जी ने जब असमर्थता व्यक्त की तो फ़ैक्ट्री प्रशासन ने उनको एक लिपिक की सुविधा भी मुहैया कराई. श्री गुहे सेवानिवृत्ति के समय चार्जमैन के पद पर थे .
साहित्यकार भौंचक रह गये थे :-
आज़ादी की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर भारत के प्रधानमंत्री जी ने ताम्रपत्र से समादरित किया था गुहे जी को . इसी क्रम में संस्कारधानी की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था “मिलन” ने दादाजी को “शौर्य-चक्र” प्रदान किया . मातृज्योति भवन में शहर के सारे साहित्यकार थे मूर्धन्य वक्ताओं की कमी भी न थी उस हाल में. दादाजी बहुत मान मनुहार के बाद मंच पर बमुश्किल राजी हुए थे. पर मुझ पर बंधन लगाया कि मैं उनको भाषण के लिये न बुलवाऊं. मैने विश्वास दिलाया पर सदन ने उनसे वक्तव्य का आग्रह किया तो गुहे जी इंकार न कर सके . और स्वतंत्रता के पूर्व एवम बाद के सामाजिक राजनैतिक आर्थिक साहित्यिक घटनाक्रम एवम वातावरण पर ऐसे प्रहार किये कि जबलपुर के साहित्यकार भौंचक रह गये. अंतत: सारे उत्तरवर्ती वक्ताओं ने अपने भाषण में एक एक कर गुहे जी वक्तव्य के अंश शामिल किये . पूरा कार्यक्रम गुहे दादाजी पर केंद्रित हो गया था.
प्रोफेसर महेशदत्त मिश्र की दृष्टि में दादाजी -
प्रोफेसर महेश दत् मिश्रा
, कछियाना स्थित अपने मकान से प्रतिदिन साहू मोहल्ले वाली गली से निकलकर हमारे घर के सामने से निकाल करते थे। मैं जानता था उन्हें प्रणाम करता था। एक दिन में घर में रुक गए और पढ़ाई के अलावा साक्षरता अभियान पर मुझे चर्चा करने लगे। और मुझे बताने लगे - सच तो यह है कि केवल अहिंसा से अंग्रेज भारत नहीं छोड़ सकते थे. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों और भारत का क्रांतिकारी होता नव युवा क्राउन और ब्रिटिश इंडियन एडमिनिस्ट्रेशन के लिए सर दर्द बन चुका था। आजाद होने के रहस्य का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा तुम्हारी समाज के मांगीलाल ने भी तो क्रांति की थी जानते हो उन्हें ?
दादा जी के लिए मन में श्रद्धा तभी दोगुनी हो गई थी।
दादा जी के बारे में उनके समकालीन उन्हें जैसा भी समझते हों , मेरे लिए वे अद्भुत थे। पर हमारा चिंतन कभी यह महसूस नहीं कर सका कि हम अपनी समाज के ऐसे महान व्यक्ति के सम्मान में कभी कोई
ऐसा विमर्श प्रोग्राम रखते ताकि हम नई पीढ़ी को कुछ बता सकते ? अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है । आईए हम कीछ सोचते हैं आने वाली पीढ़ी को आजादी के दीवाने के बारे में बताने की कोशिश करते हैं।
·
श्रीयुत पं. मांगीलाल गुहे
·
पिता स्व.शिवकरण गुहा “रायली वाले बाबूजी” ( गोदड़ी वाले)
·
माता : गं. तु. सोना बाई
·
पत्नि : ग. तु. गायत्री
देवी सुपुत्रि स्व. जागेश्वर पटवारी सन्यासा
·
जन्म :- 10.10.1924,
·
जन्म स्थान :- हरदा
·
विचारधारा :- गांधीवादी फिर क्रांतिकारी ।
·
पुत्र :- इंजि. श्री गोविंद गुहा,( भोपाल ), श्री भगवान दास
जी गुहा ( रायपुर ), अनिल दत्त गुहा, सुनील दत्त गुहा,
सुपुत्री
दामाद :- श्रीमति आशा पाराशर, श्री दिनेश
पाराशर छिपावड़, ___________________________________________________________
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