9.5.14

बरगद पीपल नीम सरीखे , तेज़ धूप में बाबूजी !!



किसी के बाबूजी बूढ़े कभी भी नहीं हो सकते अगर उनको उनके बुढ़ापे का एहसास न कराया जाए. मेरे  बाबूजी श्रीयुत काशीनाथ बिल्लोरे उन लोगों की तरह हैं जो कभी बूढ़े नहीं होते यक़ीन न आए तो मेरे मित्रों से जानिये यही सच है. 84 बरस पहले  बाबूजी का जन्म नर्मदांचल के सिराली गांव में हुआ. कुशाग्र तो थे  कई नौकरियां तैयार थीं उनको अपनाने.. वैसे भी वो दौर लम्बी कतारों वाला न था रेवेन्यू में टाइम पास करने बाबू हो गए पर रास न आई नौकरी .. दादाजी रेवेन्यू के पटवारी थे बाबूजी उससे हट के कुछ बनना चाहते थे. रेल विभाग में सहायक स्टेशन मास्टर भर्ती हो गए.   हरदा के इर्दगिर्द की  जमीने उस दौर में इतना सोना उगला नहीं करतीं थीं जितना कि अब पंजाब की मानिंद उगल रहीं हैं. दादाजी भी चाहते थे कि लड़का सरकारी नौकर हो जाए खेती किसानी में क्या रखा है.. मेरे ताऊ जी स्व. पुरुषोत्तम बिल्लोरे, एवम स्व. ताराचंद बिल्लोरे जबलपुर आ चुके थे अपनी अपनी ज़मीने तलाश लीं थीं. आज़ादी के बाद दादाजी स्व. गंगाबिशन बिल्लोरे की तेज़तर्रार किंतु कर्मठ लाइफ़ स्टायल का असर था बाबूजी सहित उनके सात बेटों पर ... सबके सब एक से बढ़कर एक पुरुषोत्तम दादाजी रेलवे में ड्रायवर हो गए, फ़िर किसी आकस्मिक बीमारी के चलते कचहरी में रीडर हो गए. ताराचंद्र जी कलेक्टोरेट में क्लर्क उसके बाद वो वकालत के पेशे में आ गये. , शिवचरन जी संटिंग मास्टर, स्व. रामशंकर जी मस्त मौला किसी नौकरी को नौकरी की तरह नहीं करने वाले अफ़सर पर गुस्सा आया तो वापस बड़े ताऊ के पास ... हाज़िर मुझे ये नौकरी पसंद नहीं का छोटा सा डायलाग डिलीवर कर देते थे. यानी अब तुम मेरे लिये नया जाब खोजो .. .. बरसों ये धंधा जारी रहा . नौकरियां रेवड़ी सी मिला करतीं थीं.. पर बार बार हाथ जोड़ना ताऊ जी को रास न आया सो रामशंकर दादा को गांव वापस भेजा खेती बाड़ी सम्हालो .. भाईयों में बाबूजी पांचवे क्रम पर आता है. छटे उमेश नाराय़ण बिल्लोरे रंगकर्मी कला साधक, लेखक, संगठक व्हीकल में क्लर्क हुए. सबसे छोटे आर्डिनेंस में . यानी सूरज के सातों अश्व से सातों भाई क्रमश: बड़े संयुक्त परिवार में एक  सूत्र में बंधे रहे . इन सात जनकों की  हम 17 संतानों को आज़ तक मालूम नहीं कि पारिवारिक कभी सम्पत्ति को लेकर किसी में कोई अनबन हुई हो .  हां कभी कभार कोई तनाव हुआ भी तो अगले ही दिन खत्म . हमको हमारा परिवार बहुत छोटा नज़र आता था जब पूरा कुनबा जुड़ता तो लगता था कि हां अब हम पूरे हैं.  अब एक परिवार का मामला है तब  कौटौम्बिक परिवार का स्वरूप अब नज़र नहीं आता. बाबूजी को भी अक्सर सबके बीच रहने की आदत है..
 
 स्व. गुहे जी
 इस  बार बाबूजी ने सख्त आदेश दिया मेरा जन्म-दिन ज़्यादा जोर शोर से न मनाएं .. दरअसल   मामला ये था कि वे अपने एक मित्र को मिस कर रहे थे    स्व. मांगीलाल जी गुहे जी अभिन्न मित्र थे उनके  जिनके निधन के बाद बाबूजी कुछ उदास से रहने लगे हैं. बस सतीश भैया ने बड़ी चतुराई बाबूजी को सरप्राइज़ दिया . दिन में उनके हम वयों को होटल पंचवटी गौरव में बुलवाया बिना बाबूजी को बताए. बाबूजी को लेकर आना कठिन था सो शातिराना तरीके से भतीजी डा. आस्था और मैं उनको मंदिर में दर्शन कराने के बहाने ले गये .. फ़िर कहा - बाबूजी , कुछ खाते हैं होटल में और बस पंचवटी गौरव में मेरे उमेश काकाजी ने बाहर आगवानी की वहां बाबूजी के साथी पहले से ज़मा थे खूब खुश हुए सब दोपहर बाबूजी जन्म दिन  आध्यात्मिक तरीके से मनाया   कांफ़्रेंस हाल में नर्मदा अर्चना के बाद स्वस्ति बाबूजी का पुष्पाभिषेक किया गया "महामृत्युंजय मंत्र"  के साथ .
बाबूजी के साथ मेरे बड़े भैया श्री हरीश बिल्लोरे का जन्म दिन भी होता है शाम को घर पर फ़िर से हुआ एक आयोजन .....

बुज़ुर्गों के बिना घर रेगिस्तान लगता है..










बरगद पीपल नीम सरीखेतेज़ धूप में बाबूजी
मां के बाद नज़र आते हैं , “मां ही जैसे हैं बाबूजी ..!!
अल्ल सुबह सबसे पहले , जागे होते बाबूजी-
अखबारों में जाने क्या बांचा करते रहते हैं
दुनिया भर की बातों से जुड़े हुए हैं बाबूजी ..!!
साल चौरासी बीत गए जाने  क्या क्या देखा है
बात चीत न कर पाएं हम  घबरा जाते बाबूजी..!!
जाने कितनी पीढ़ा भोगी होगी जीवन में
उसे भूल अक्सर उस बिसर मित्रों संग हैं मुस्काते बाबूजी ..!!
चौकस रहती आंखें उनकी,किसने क्या क्या की गलती
पहले डांटा करते थे वे, अब समझाते हैं बाबूजी...!!



8.5.14

बटवारे के बाद के बटवारे और भारतीय वोटर


    
   बटवारे के बाद रोज होते बटवारों को  बटवारे देख खुद लौह पुरुष सहित सभी शहीद दु:खी हो बेकल होते ही होंगे . अंग्रेज़ो से हमने कुछ सीखा हो या न सीखा हो पर एक बात हमारे सियासत दां ज़रूर घुट्टी के साथ पी चुके हैं  बाक़ायदा धर्म, जाति, वर्ग, का बंटवारा करने से न तो लज़्ज़ित होते हैं न ही उनमें अब कोई शर्म बाक़ी रह गई है. 
             बड़े मज़े ले लेकर वोटों को रिझाने में बड़े सुनियोजित तरीक़े से किसी भी हिस्से को (जो मूलरूप भारतीय होता है ) भारत से अलग करने में गुरेज़ नहीं करते. सियासीयों का ये शगल तब और परवान चढ़ता है जब जब इलेक्शन क़रीब होते हैं. भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ये सबसे दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है. अब जबकि देश का वोटर अधिक जागरूक और समझदार हो रहा है उसे अपने वोट का अर्थ अब महसूस हो चुका है तब आने वाले आम इंतिखाब में ये हथकंडे शायद ही काम आएं . क्योंकि वोटर जान चुका है कि सच्चाई क्या है. क्यों उसकी रगों पर हाथ फ़ेरा जाता है.. ? वो गाली गलौच भरे भाषणों जिसमे ऊंच नीच, हनीमून, जैसे सर्वथा वर्जित शब्दों का उल्लेख होता है को सिरे से नकार रहा है क्यों कि अब अधिसंख्यक भारतीय वोटर कुर्सी दौड़ के हर हथकंडे से वाकिफ़ है. .
       पिछले दिनों इलेक्शन के दौरान डिंडोरी की सभा में एक पार्टी का प्रचारक नेता सवाल कर रहा था -"जब गाय इनकी माता है तो बोले बैल से इनका नाता क्या होगा..?" बताईये भला ऐसी बेवकूफ़ी भरी बातों का अर्थ क्या है क्या ऐसे मूर्ख वक्ताओं के प्रति वोटर ने क्या सोचा होगा ? जी हां सारे के सारे वोटर जो सभा में जमा किये गये थे.. खुसर फ़ुसर करने लगे.. यानी जिसे सबसे बड़ा बेवकूफ़ समझा जा रहा है सियासित में वो अपनी अक्ल का नमूना दिखा ही देगा. 
          इलेक्शन के रिज़ल्ट जो भी हों लिख के रख लीजिये ज़नता न्याय करेगी .. कौन जीतेगा कितना जीतेगा ये इतर मुद्दा है प्रिणाम साफ़ साफ़ बता देंगें भारत को सिगमेंट्स में बांटना कितना ग़ैर ज़रूरी और बेवकूफ़ी भरा क़दम है.... 







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1.5.14

मई दिवस पर विशेष : दुनिया भर के मज़दूरो

साभार भारत कोश 

साभार : स्टार न्यूज़ एजेंसी 
मई दिवस या 'मजदूर दिवस' या 'श्रमिक दिवस' 1 मई को सारे विश्व में मनाया जाता है। 'मई दिवस' के विषय में अधिकांश तथ्य उजागर हो चुके हैं, फिर भी कुछ ऐसे पहलू हैं, जो अभी तक अज्ञात है। कुछ भ्रांतियों का स्पष्टीकरण और इस विषय पर भारत तथा विश्व के बारे में कम ज्ञात तथ्यों को उजागर करने की आवश्यकता है। यह उल्लेखनीय है कि 'श्रमिक दिवस' का उदय 'मई दिवस' के रूप में नहीं हुआ था। वास्तव में अमरीका में श्रमिक दिवस मनाने की पुरानी परम्परा रही है, जो बहुत पहले से ही चली आ रही थी। मई दिवस भारत में 15 जून, 1923 ई. में पहली बार मनाया गया था।

अमरीका में 'मजदूर आंदोलन' यूरोप व अमरीका में आए औद्योगिक सैलाब का ही एक हिस्सा था। इसके फलस्वरूप जगह-जगह आंदोलन हो रहे थे। इनका संबंध 1770 के दशक की अमरीका की आज़ादी की लड़ाई तथा 1860 ई. का गृहयुद्ध भी था। इंग्लैंड के मजदूर संगठन विश्व में सबसे पहले अस्तित्व में आए थे। यह समय 18वीं सदी का मध्य काल था। मजदूर एवं ट्रेंड यूनियन संगठन 19वीं सदी के अंत तक बहुत मज़बूत हो गए थे, क्योंकि यूरोप के दूसरे देशों में भी इस प्रकार के संगठन अस्तित्व में आने शुरू हो गए थे। अमरीका में भी मजदूर संगठन बन रहे थे। वहाँ मजदूरों के आरम्भिक संगठन 18वीं सदी के अंत में और 19वीं सदी के आरम्भ में बनने शुरू हुए। मिसाल के तौर पर फ़िडेलफ़िया के शूमेकर्स के संगठन, बाल्टीमोर के टेलर्स के संगठन तथा न्यूयार्क के प्रिन्टर्स के संगठन 1792 में बन चुके थे। फ़र्नीचर बनाने वालों में 1796 में और 'शिपराइट्स' में 1803 में संगठन बने। हड़ताल तोड़ने वालों के ख़िलाफ़ पूरे अमरीका में संघर्ष चला, जो उस देश में संगठित मजदूरों का अपनी तरह एक अलग ही आंदोलन था। हड़ताल तोड़ना घोर अपराध माना जाता था और हड़ताल तोड़ने वालों को तत्काल यूनियन से निकाल दिया जाता था।

कार्य समय घटाने का मांग
अमरीका में 18वें दशक में ट्रेंड यूनियनों का शीघ्र ही विस्तार होता गया। विशिष्ट रूप से 1833 और 1837 के समय। इस दौरान मजदूरों के जो संगठन बने, उनमें शामिल थे- बुनकर, बुक वाइन्डर, दर्जी, जूते बनाने वाले लोग, फ़ैक्ट्री आदि में काम करने वाले पुरुष तथा महिला मजदूरों के संगठन। 1836 में '13 सिटी इंटर ट्रेंड यूनियन ऐसासिएशन' मोजूद थीं, जिसमें 'जनरल ट्रेंड यूनियन ऑफ़ न्यूयार्क' (1833) भी शामिल थी, जो अति सक्रिय थी। इसके पास स्थाई स्ट्राइक फ़ंड भी था, तथा एक दैनिक अख़बार भी निकाला जाता था। राष्ट्रव्यापी संगठन बनाने की कोशिश भी की गयी यानी 'नेशनल ट्रेंड्स यूनियन', जो 1834 में बनायी गयी थी। दैनिक काम के घंटे घटाने के लिए किया गया संघर्ष अति आरम्भिक तथा प्रभावशाली संघर्षों में एक था, जिसमें अमरीकी मजदूर 'तहरीक' का योगदान था। 'न्यू इंग्लैंड के वर्किंग मेन्स ऐसासिएशन' ने सन 1832 में काम के घंटे घटाकर 10 घंटे प्रतिदिन के संघर्ष की शुरुआत की।
श्रमिकों की सफलता
1835 तक अमरीकी मजदूरों ने काम के 10 घंटे प्रतिदिन का अधिकार देश के कुछ हिस्सों में प्राप्त कर लिया था। उस वर्ष मजदूर यूनियनों की एक आम हड़ताल फ़िलाडेलफ़िया में हुई। शहर के प्रशासकों को मजबूरन इस मांग को मानना पड़ा। 10 घंटे काम का पहला क़ानून 1847 में न्यायपालिका द्वारा पास करवाकर हेम्पशायर में लागू किया गया। इसी प्रकार के क़ानून मेन तथा पेन्सिल्वानिया राज्यों द्वारा 1848 में पास किए गए। 1860 के दशक के शुरुआत तक 10 घंटे काम का दिन पूरे अमरीका में लागू हो गया।

प्रथम पार्टी का गठन

प्रथम मजदूर राजनीतिक पार्टी सन 1828 ई. में फ़िलाडेल्फ़िया, अमरीका में बनी थी। इसके बाद ही 6 वर्षों में 60 से अधिक शहरों में मजदूर राजनीतिक पार्टियों का गठन हुआ। इनकी मांगों में राजनीतिक सामाजिक मुद्दे थे, जैसे-
10 घंटे का कार्य दिवस
बच्चों की शिक्षा
सेना में अनिवार्य सेवा की समाप्ति
कर्जदारों के लिए सज़ा की समाप्ति
मजदूरी की अदायगी मुद्रा में
आयकर का प्रावधान इत्यादि।
मजदूर पार्टियों ने नगर पालिकाओं तथा विधान सभाओं इत्यादि में चुनाव भी लड़े। सन 1829 में 20 मजदूर प्रत्याशी फ़ेडरेलिस्टों तथा डेमोक्रेट्स की मदद से फ़िलाडेलफ़िया में चुनाव जीत गए। 10 घंटे कार्य दिवस के संघर्ष की बदौलत न्यूयार्क में 'वर्किंग मैन्स पार्टी' बनी। 1829 के विधान सभा चुनाव में इस पार्टी को 28 प्रतिशत वोट मिले तथा इसके प्रत्याशियों को विजय हासिल हुई।

श्रमिक उत्सव
18 मई, 1882 में 'सेन्ट्रल लेबर यूनियन ऑफ़ न्यूयार्क' की एक बैठक में पीटर मैग्वार ने एक प्रस्ताव रखा, जिसमें एक दिन मजदूर उत्सव मनाने की बात कही गई थी। उसने इसके लिए सितम्बर के पहले सोमवार का दिन सुझाया। यह वर्ष का वह समय था, जो जुलाई और 'धन्यवाद देने वाला दिन' के बीच में पड़ता था। भिन्न-भिन्न व्यवसायों के 30,000 से भी अधिक मजदूरों ने 5 दिसम्बर को न्यूयार्क की सड़कों पर परेड निकाली और यह नारा दिया कि "8 घंटे काम के लिए, 8 घंटे आराम के लिए तथा 8 घंटे हमारी मर्जी पर।" इसे 1883 में पुन: दोहराया गया। 1884 में न्यूयार्क सेंट्रल लेबर यूनियन ने मजदूर दिवस परेड के लिएसितम्बर माह के पहले सोमवार का दिन तय किया। यह सितम्बर की पहली तारीख को पड़ रहा था। दूसरे शहरों में भी इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मनाने के लिए कई शहरों में परेड निकाली गई। मजदूरों ने लाल झंडे, बैनरों तथा बाजूबंदों का प्रदर्शन किया। सन 1884 में एफ़ओटीएलयू ने हर वर्ष सितम्बर के पहले सोमवार को मजदूरों के राष्ट्रीय अवकाश मनाने का निर्णय लिया।7 सितम्बर, 1883 को पहली बार राष्ट्रीय पैमाने पर सितम्बर के पहले सोमवार को 'मजदूर अवकाश दिवस' के रूप में मनाया गया। इसी दिन से अधिक से अधिक राज्यों ने मजदूर दिवस के दिन छुट्टी मनाना प्रारम्भ किया।

मजदूर दिवस मनाने का निर्णय
इन यूनियनों तथा उनके राष्ट्रों की संस्थाओं ने अपने वर्ग की एकता, विशेषकर अपने 8 घंटे प्रतिदिन काम की मांग को प्रदर्शित करने हेतु 1 मई को 'मजदूर दिवस' मनाने का फैसला किया। उन्होंने यह निर्णय लिया कि यह 1 मई, 1886 को मनाया जायेगा। कुछ राज्यों में पहले से ही आठ घंटे काम का चलन था, परन्तु इसे क़ानूनी मान्यता प्राप्त नहीं थी; इस मांग को लेकर पूरे अमरीका में 1 मई, 1886 को हड़ताल हुई। मई 1886 से कुछ वर्षों पहले देशव्यापी हड़ताल तथा संघर्ष के दिन के बारे में सोचा गया। वास्तव में मजदूर दिवस तथा कार्य दिवस संबंधी आंदोलन राष्ट्रीय यूनियनों द्वारा 1885 और 1886 में सितम्बर के लिए सोचा गया था, लेकिन बहुत से कारणों की वजह से, जिसमें व्यापारिक चक्र भी शामिल था, उन्हें मई के लिए परिवर्तित कर दिया। इस समय तक काम के घंटे 10 प्रतिदिन का संघर्ष बदलकर 8 घंटे प्रतिदिन का बन गया।

भारत में 'मई दिवस'
कुछ तथ्यों के आधार पर जहां तक ज्ञात है, 'मई दिवस' भारत में 1923 ई. में पहली बार मनाया गया था। 'सिंगारवेलु चेट्टियार' देश के कम्युनिस्टों में से एक तथा प्रभावशाली ट्रेंड यूनियन और मजदूर तहरीक के नेता थे। उन्होंने अप्रैल 1923 में भारत में मई दिवस मनाने का सुझाव दिया था, क्योंकि दुनिया भर के मजदूर इसे मनाते थे। उन्होंने फिर कहा कि सारे देश में इस मौके पर मीटिंगे होनी चाहिए। मद्रास में मई दिवस मनाने की अपील की गयी। इस अवसर पर वहाँ दो जनसभाएँ भी आयोजित की गईं तथा दो जुलूस निकाले गए। पहला उत्तरी मद्रास के मजदूरों का हाईकोर्ट 'बीच' पर तथा दूसरा दक्षिण मद्रास के ट्रिप्लिकेन 'बीच' पर निकाला गया।सिंगारवेलू ने इस दिन 'मजदूर किसान पार्टी' की स्थापना की घोषणा की तथा उसके घोषणा पत्र पर प्रकाश डाला। कांग्रेस के कई नेताओं ने भी मीटिंगों में भाग लिया। सिंगारवेलू ने हाईकार्ट 'बीच' की बैठक की अध्यक्षता की। उनकी दूसरी बैठक की अध्यक्षता एस. कृष्णास्वामी शर्मा ने की तथा पार्टी का घोषणा पत्र पी.एस. वेलायुथम द्वारा पढ़ा गया। इन सभी बैठकों की रिपोर्ट कई दैनिक समाचार पत्रों में छपी। मास्को से छपने वाले वैनगार्ड ने इसे भारत में पहला मई दिवस बताया। फिर दुबारा 1927 में सिंगारवेलु की पहल पर मई दिवस मनाया गया, लेकिन इस बार यह उनके घर मद्रास में मनाया गया था। इस अवसर पर उन्होंने मजदूरों तथा अन्य लोगों को दोपहर की दावत दी। शाम को एक विशाल जूलुस निकाला गया, जिसने बाद में एक जनसभा का रूप ले लिया। इस बैठक की अध्यक्षता डा. पी. वारादराजुलू ने की। कहा जाता है कि तत्काल लाल झंडा उपलब्ध न होने के कारण सिंगारवेलु ने अपनी लड़की की लाल साड़ी का झंडा बनाकर अपने घर पर लहराया।

28.4.14

मन अकारण खुश हो तो व्यक्तित्व में निखार आता है..

               मन अकारण  खुश हो तो व्यक्तित्व में निखार आता है.... कारण सहित प्रसन्नता आत्मविश्वास को दो गुना हो जाता है आज़ मेरे साथ ऐसा ही है.. मेरी बिटिया शिवानी तीन साल पहले बी काम आनर्स के लिये इंदोर गई थी. सवाल ये उठे थे तब कि क्या जबलपुर में बेहतर कालेज नहीं . सवालों को अनसुना किया इंदौर के कुछ कालेज में घूमा एक कालेज प्रबंधन ने बताया - सर, देखिये हमारे कालेज में Abhishek Bachchan तक आ चुके हैं. शिक्षा के व्यावसायीकरण के दौर में @Abhihek Bachchan अथवा Dr. Kumar Vishwas जैसों का सहारा लेना स्वभाविक है.. किंतु मेरी नज़र में सर्वथा ग़लत था और आज़ भी ग़लत ही है..
IPS Academy, Indore में मुझे ऐसा ऐसा कोई प्रलोभन नहीं दिया गया. सीनियर बच्चों के ओजस्वी चेहरों ने कालेज का स्तर बता दिया. बस तीन साला सफ़र Shivani Billore ने ऐसे शुरु किया. स्कूल के दिनों से ही बिटिया में तर्क शक्ति समझदारी और बुद्धि स्तरीय है .
उसकी एक मित्र ने कामर्स विषय लेने पर कुछ कमेंट किया तो एक मित्र को ये कहती पाई गई - "केवल साईंस फ़ेकल्टी से देश नही चलता समझी तुमको तो मैं अपनी कम्पनी में नौकरी दूंगी ,"
संकल्प कुछ सीमा तक सार्थक हुआ , कुछ दिन पहले ही दुनियां की तीन श्रेष्ठ कम्पनीयों में शुमार "यंग्स एंड अर्न्स" कम्पनी के कैम्पस में कालेज से अकेली सलेक्ट हुई. ये अलग बात है कि मैं उसे Indian Administrative Service (IAS) के रूप में देखना चाहता था...
जो भी हो एक संकल्प को खुल के सपोर्ट देना ज़रूरी खासकर बेटियों के.. संकल्पों को नज़र अंदाज़ न करें .. मन बस इसी वज़ह से खुश है कि शिवानी को वापस लेने जाना है.. उसकी परीक्षा अब खत्म हो चुकी है. उसकी मनमोहनी बातों में खो जाना चाहता हूं..

एक गीत आस का एक नव प्रयास सा


अदेह के सदेह प्रश्न कौन गढ़ रहा कहो
गढ़ के दोष मेरे सर कौन मढ़ रहा कहो ?
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बाग में बहार में, ,
सावनी फुहार में !
पिरो गया किमाच कौन
मोगरे के हार में !!
पग तले दबा मुझे कौन बढ़ गया कहो...?
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एक गीत आस का
एक नव प्रयास सा
गीत था अगीत था !
या कोई कयास था...?गीत पे अगीत का वो दोष मढ़ गया कहो...?
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तिमिर में खूब  रो लिये
जला सके न तुम  दिये !
दीन हीन ज़िंदगी ने
हौसले  डुबो दिये !!
बेवज़ह के शोक गीत कौन गढ़ रहा कहो... ?

27.4.14

उनको आस्तीन में सम्हाल के रखने की ज़ुर्रत

       
मेरा एक अभिन्न मित्र 
 
भाई आदतन किसी को भी ह्यूमलेट करने के आदी हैं  एक बात माननी पड़ेगी बंदा है बहुत दिमाग़दार जो कहता और करता है सटीक यानी उसका निशाना सदा ही केवल उसी को लाभ पहुंचाने वाला होता है.. कुल मिला कर मैने भी इस हुनर को सीखने उसे अपनी आस्तीन में महफ़ूज़ रखा है. बाहार जाएगा क्या मालून कौन उसका एपीसोड खत्म कर दे ... ? 
           अब हमने उसे भाई कहा है तो क़रीबी होगा हमारे लंगोटिया यार है भाई.. अपना... हां न सिर्फ़ लंगोटिया बल्कि पोतड़िया यार है.. डा. सुले मैडम के हस्पताल में हम दौनों साथ ही साथ प्रसूते थे. तब से अब तक दोस्ती सलामत दोस्ताना सलामत केवल हम सलामत नहीं कुछ दाग लगवाए हम पर उस रासायनिक दुष्कर्म में  उस भाई का अहम रोल था. दाग धोने में खूब मदद की ऐसा लोगों को लगा पर सच तो ये है कि वो केवल हमारे दाग-धोने में अपने अवदान को रेखांकित करता रहा वास्तव में उसने खास किस्म का वाचिक कैमिकल हम पर रगड़ रहा था ताक़ि हमारे दाग पुख्ता और ताज़ा तरीन बनें रहें ..
      उसका नाम न पूछो तुलसी सहित कई आदि कवियों ने राम को तो अमर कर दिया किंतु साथ ही साथ रावण का उल्लेख कर उसे भी अमरत्व प्रदान कर उसे ऐतिहासिक बनाया पर मैं उन सहृदयी कवियों में नहीं यक़ीनन मैने  उन मित्रों का नाम कभी न तो लिखा और न ही लिखूंगा  क्यों कि मैने उनसे आनुपातिक दूरी कायम कर ली है.. ये अलग बात है कि उनको आस्तीन में  सम्हाल के रखने की ज़ुर्रत की है. 
        न जाने दुनिया को क्या हो गया है.. आज़कल रिश्ते रिस रहे हैं.. मज़बूरी हो गया है इन नातों को ढोना लोगों के लिये ... दरअसल अब तो रिश्ते सामयिक आवश्यकता आधारित होते हैं.. अब रिश्तों को लेकर गंभीर होना निरी बेवकूफ़ी मानी जाती है . जो भी हो देश परदेश में अवसरानुसार मैत्री भले आवश्यक हो किंतु सतत मानसिक जुड़ाव वाली मैत्री का पाठ कृष्ण ने पढ़ा है तो हमें पश्चिमी बुनावट वाले नाते क्यों पसंद आने लगे हैं.. जो आधारित हैं.. "आज नाता :कल बाय बाय टाटा "   वाले सिद्धांत पर रिश्ते पोर्टेबल भी हो चले हैं नैनो भी... जितना विस्तार का अवसर मिल रहा है हमें उतने ही हम सिमट रहे हैं.. अब आप का माथा दु:ख रहा होगा न कि भाई की कथा सुनाते सुनाते ये क्या हम तत्व विश्लेषण करने लगे तो भाई हम मजे मंजाए लिक्खाड़ हैं सुनिये हम उसी बनाम उन्हीं मित्रों की बात कर रहे जिनसे रिसता है मित्रता का रिश्ता ...... कमीनगी तो देखिये ज़नाब मुझसे मिलकर गया नामाकूल मेरे सामने मेरे सुखी रहने की कामना करके गया .. और किसी आदमखोर रसूखदार को मेरी चुगली कर रहा था अन्य आदमखोरों के साथ  .. तभी से मैने तय किया है है इन पीठ पर वार करने वालों को अपनी आस्तीन में रख लूं लोग बाजुएं काटते हैं.. जिसके लिये मैं तैयार हूं .. मेरी तो बाजुएं कटेंगी वैसे भी अधूरा हूं  पर बाजुओं में रहने वाले का क्या हश्र होगा आप समझ ही गए होगे न अब तक.... तो भाईयो....... सककर्मियों ... आस्तीन में रहना चाहोगे.. तो बता देना


कवि अमृत ”वाणी” ने चुटीले अंदाज़ में आस्तीन वालों का कुछ यूं सम्मान किया है..

सांप हमें क्या काटेंगे
हमारे जहर से
वे बेमौत  मरे जायेंगे
अगर हमको काटेंगे ?

कान खोल कर सुनलो
विषैले   सांपो
वंश समूल नष्ट  हो जायेगा
जिस दिन हम तुमको काटेंगे
क्यों

क्योंकि
हम आस्तीन के सांप हे |


..................................

अंतिम सत्य 

What is the difference between welding and wedding .
In welding there are sparks first and bonding later, whereas in wedding there is bonding first and sparks later. 
...................................

फ़िर सत्ता के मद में ये ही,बन जाएंगे अभिसारी

अमिय पात्र सब भरे भरे से ,नागों को पहरेदारी
गली गली को छान रहें हैं ,देखो विष के व्यापारी,
मुखर-वक्तता,प्रखर ओज ले भरमाने कल आएँगे
मेरे तेरे सबके मन में , झूठी आस जगाएंगे
फ़िर सत्ता के मद में ये ही,बन जाएंगे अभिसारी
..................................देखो विष के व्यापारी,
कैसे कह दूँ प्रिया मैं ,कब-तक लौटूंगा अब शाम ढले
बम
 से अटी हुई हैं सड़कें,फैला है विष गले-गले.
बस गहरा चिंतन प्रिय करना,खबरें हुईं हैं अंगारी
..................................देखो विष के व्यापारी,
लिप्सा मानस में सबके देखो अपने हिस्से पाने की
देखो उसने जिद्द पकड़ ली अपनी ही धुन गाने की,
पार्थ विकल है युद्ध अटल है छोड़ रूप अब श्रृंगारी
..................................देखो विष के व्यापारी,

24.4.14

निर्लिप्त जननायक को भी नेपथ्य में ले जाने की क्षमता वाले लोग मौज़ूद हैं. : सुलभा बिल्लोरे

               
[इस आलेख में मेरे स्वम के विचार हैं ब्लाग के स्वामी से इस आलेख का कोई लेना देना नहीं है ]
                      आज़ ही किसी ने वाट्स-अप पर एक ज़बरदस्त कोटेशन भेजा ... " उच्च स्तरीय सोच वाले   नित नूतन रास्ते तलाशते हैं.. सफ़लता के लिये सहज  और और सरल पथ क्या हों.. मध्यम स्तर की सोच वाले घटनाओं के विन्यास में व्यस्त होते हैं जबकि सामान्य सोच वाले केवल किसी व्यक्ति की प्रसंशा अथवा निंदा में डूबे रहते हैं…!!"
  आज़कल तीसरी श्रेणी के लोगों की भरमार है. लोग एक दूसरे के छिद्रांवेषण में इतने मशगूल हो जाते हैं कि उनको अच्छा बुरा सब एक सा नज़र आता है. बोलते हैं तो इस तरह कि बोल नहीं रहे बल्कि जीभ से ज़हर बो रहे हैं.. और ये स्थितियां देश में सियासी मंचों पर बाक़ायदा आप हर अतरे-दूसरे दिन देख सुन रहें हैं. मित्रो जो दिमागों में होता है वो  दिलों के रास्ते दुनियां तक आसानी से संचरित हो जाता है.
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और फ़्रांस की   क्रांति ( French Revolution1789-1799)  सामंती आचरण के विरुद्ध उपजी  थी जबकि स्वातंत्र्योत्तर भारत की परिपक्व होती  प्रजातांत्रिक व्यवस्था में  भारत को ऐसी किसी नकारात्मक राजनैतिक विद्रूपता की आवश्यकता नहीं है जो हिंसा,घृणा तक  सत्ता के व्यामोह में फ़ंस कर किसी भी हद गिरा जावे . किंतु सत्ता का चिरयौवन किसे सम्मोहित न करेगा यही सम्मोहन चिंतन पर सहज़ ही विपरीत प्रभाव डालता है जिसकी परिणिती बेलग़ाम अभिव्यक्ति के रूप में अवतरित होती है. यहां यह कहना आवश्यक है कि  क्रियेशन के लिये आवश्यकतानुसार विध्वंस आवश्यक है.. यानि हर पुनर्रचना को विध्वंस की ज़रूरत नेहीं होती . 
     कल जब आज़ का दौर इतिहास होगा तब  अन्ना हज़ारे का अभ्युदय फ़िर अचानक नेपथ्य में जाना आकस्मिक दुर्घटना ही माना जावेगा . इसके तथ्यांवेषण में एक नहीं कई  नाम शामिल किये  जावेगें जो अन्ना की सामाजिक क्रांति को सियासत के छोर तक ले जाने के मोहपाश में आज़ नज़र आ रहे हैं.  यानी आज़ जन समुदाय की क्रांति को आधार देने वाले निर्लिप्त जननायक को भी नेपथ्य में ले जाने की क्षमता वाले लोग मौज़ूद हैं.   जहां तक सेक्यूलरिज़्म का सवाल है सेक्यूलर होने का दावा करने वाली पार्टियां खुद एक धर्म विशेष को अछूत बनाने में पीछे क़तई नहीं रहतीं . शाज़िया का ये कथन सुन के आप खुद ही फ़ैसला कीजिये कि क्या शाज़िया सही हैं..जो प्रोवोग करतीं नज़र आ रहीं हैं 

19.4.14

चावल के दानों पर हुए अत्याचार का प्रतिफ़ल: पोहा उर्फ़ पोया...

गूगल बाबा के पास है पोहे का अकूत भंडार 
दिनेश को अपनी बारी का इंतज़ार है..
 हम  डिंडोरी जाते समय इसी महाप्रसाद 
यानि पोहेका सेवन करते हैं सुबह-सकारे..!!
 मित्रो पोएट्री जैसे मेरा प्रिय शगल है ठीक उसी तरह मेरे सहित बहुतेरे लोगों का शौक सुबह सकारे पोहा+ईट= पोहेट्री है.  पो्हे के बारे  गूगल बाबा की झोली  किसम किसम की रेसिपी और सूचनाएं अटी पड़ी है. पर एक जानकारी हमने खोजी है जो गूगल बाबा के दिमाग में आज़ तलक नईं आई होगी कि हम बहुत निर्दयी हैं.. क्योंकि  हम चावल Rice के दानों पर हुए अत्याचार के प्रतिफ़ल पोहे सेवन कितना मज़ा ले लेकर करतें हैं.  जैसे ही ये भाव मन में आया तो मन बैरागी सा हो गया. किंतु दूसरे ही क्षण लगा बिना अत्याचार के हम अन्नजीवी हो ही नहीं सकते सो मन का वैराग्य भाव तुरंत ऐसे गायब हुआ जैसे किसी सरकारी  के मन से ऊपरी आय से घृणा भाव तिरोहित होता है. अस्तु ..आगे बांचिये . पोहा जबलईपुर में खासकर करमचन्द चौक पर सुबह-सकारे मिलता है तो  इंदोर (इंदौर) में किसिम किसिम के पोए चौराए चौराए (चौराहे-चौराहे) मिलते हैं. हम अपनी मौसेरी बहन के घर पहुंचे तो हमको सेओं-पोया,कांदा-पोया,आलू-पोया, पोया विद ग्रीन-मैंगो, न जाने  कितने कितने  स्वाद भरे पोए (पोहे) खिलाए सुधा ताई ने. 

                अंतर्ज़ाल की सुप्रसिद्ध लेखिका अर्चना चावजी से हम अनुरोध करने वाले थे कि वे "पोहे के सर्वव्यापीकरण : विशेष संदर्भ इन्दोर "  पर एक ललित नि:बंध लिखें.. पर वे नानी बन गईं हैं अपनी इस पदोन्नति से वे अति व्यस्ततम स्थिति में हैं अतएव अधिक अपेक्षा ठीक नहीं सो सुधिजन जानें कि- हम अपने बेहतर अनुभव के आधार पर दावे के साथ यह तथ्य प्रतिपादित करतें हैं कि भारतीय वोटर और इंदोरी पोहा एक ही गुणधर्म वाले हैं.. जिसके साथ भी मिलते हैं ठीक उसी में समाविष्ट हो स्वादिष्टतम बनने की सफ़ल कोशिश कर ही लेते हैं. किंतु असर अपनी इच्छानुसार ही छोड़ते हैं. भाई समीरलाल जी- कित्ते बरस हो गए कनाडा गए ..  कनाडा से जबलपुर  तीन बरस आय थे न बड्डा  .. पर न तो करमचंद चौक वाले पोहे का ठेला लगना बंद हुआ न ही सुबह सवेरे मनमोहन टी स्टाल इंद्रा-मार्केट के समोसों का साइज़ ही कम हुआ. इतना ही नहीं गोपाल होटल वाला मिल्क-केक जो आप अंकल के लिये डाट न पड़े इस चक्कर में ले जाते थे उसका ही स्वाद बदला है.  भाई इंडिया में बदलाव आसानी से नहीं आते .. चीजे बदल भी जावें तो अचरज़ न कीजै.. बस होता यूं है कि "बाटल" बदल जाती है. हिस्ट्री उठा के देख लीजिये ... न तो जबलईपुर में कोई खास बदलाव आया न हीं इन्दोर के पोये में.. अब प्रदेश के इन दो महानगर (?) में खास बदलाव नहीं हुए तो जान लीजिये देश में भी ऐसा कुछ नया न हो जावेगा जैसा केज़रीकक्का खांस- खखार के कहते फ़िर रए हैं.  
              चोरी, डकैती, बदमासी, उल्लू-बनाविंग योजनाएं, आदि आदि सर्वत्र यथावत हैं. सबका एजेंडा एक ही है कि किसे किस तरह और कित्ता उल्लू बनाया जावे. 
       चलो सोया जावे........... फ़िज़ूल में कुछ भी अनाप-शनाप लिखा गया... आज़ पोहे से शुरू कथा का अंत किधर किया आप भी मुझ पर हंस रहे होंगे.. पर सुधि पाठको जब आप दिन भर खबरों में लोगें को अनाप-शनाप कहते -सुनते हैं तो इत्ता सा अनाप-शनाप मेरा पढ़ लिया तो कोई बुराई है क्या..... ??

15.4.14

मुझे ऐसा मोक्ष नहीं चाहिये

हां मां सोचता हूं 
मुझे भी मुक्ति चाहिये.. 
वेदों पुराणों ने 
जिसे मोक्ष  कहा है..!
कहते हैं कि 
सरिता में अस्थियों के प्रवाह से 
मुक्ति मिलती है.... 
औरों की तरह मेरी अस्थियां भी
सरिता में प्रवाहित होंगी..?
मां,
तुम्हारे पावन प्रवाह को मेरी अस्थियां 
दूषित करेंगी
न मुझे ऐसा मोक्ष नहीं चाहिये
बार बार जन्म लेना चाहता हूं
तुम्हारे तटों को बुहारने 
तुमको पावन सव्यसाची मां कह के पुकारने
मुझे जन्म लेना ही होगा.. 
मुक्ति मोक्ष न अब नहीं.. 
बस तेरे सुरम्य तटों पर 
जन्मता रहूं..
बारंबार ......
कोल-भील-किरात- मछुआ 
मछली- पक्षी- कछुआ 
कुछ भी बनूं सुना है....
तेरे तट में 
सब दिव्य हो जाते हैं... 
मां... रेवा.... सच यही मोक्ष है न........




बेलगाम वक्ता मुलायम सिंह जी उर्फ़ नेताजी


https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEglopmFyeOELOZABWW-kuwdCbHwbD-VTLqZLze_Jtt-64Xi7AxVL8IyW94kp6UDGRuac3BkDP0LNlLCPHF2GyMcN5Hze-1-hh-2w21UlddVwZy9HmbtRFKxgsF1QEPIFJ1TxNYTzg8cr-B_/s1600/1175483985.jpg
http://hindi.cri.cn/mmsource/images/2006/04/07/lunyi4.jpghttp://www.bbc.co.uk/hindi/images/pics/eunuch150.jpg                जो दु:खी है उसे पीड़ा देना सांस्कृतिक अपराध नहीं तो और क्या है. नारी के बारे में आम आदमी की सोच बदलने की कोशिशों  हर स्थिति में हताश करना ही होगा. क़ानून, सरकार, व्यवस्था इस समस्या से निज़ात दिलाए यह अपेक्षा हमारी सामाजिक एवम सांस्कृतिक विपन्नता के अलावा कुछ नहीं. आराधना चतुर्वेदी "मुक्ति" ने अपने आलेख में इस समस्या को कई कोणों से समझने और समझाने की सफ़ल कोशिश की है. मुक्ति अपने आलेख में बतातीं हैं कि हर स्तर पर नारी के प्रति रवैया असहज है. आर्थिक और भौगोलिक दृष्टि से भी देखा जाए तो नारी की स्थिति में कोई खास सहज और सामान्य बात नज़र नहीं आती. मैं सहमत हूं कि सिर्फ़ नारी की देह पर आकर टिक जाती है बहसें जबकी नारी वादियों को नारी की सम्पूर्ण स्थिति का चिंतन करना ज़रूरी है. परन्तु सामाजिक कमज़ोरी ये है कि हिजड़ों पर हंसना, लंगड़े को लंगड़ा अंधे को अंधा  कहना औरत को सामग्री करार दिया जाना हमारी चेतना में बस गया है  जो सबसे बड़ा सामाजिक एवम सांस्कृतिक अपराध  है .
                    आप सभी जानते हैं कि  औरतों, अपाहिजों,हिज़ड़ों को हर बार अपने आपको  को साबित करना होता है. कि वे देश के विकास का हिस्सा हैं.. अगर इस वर्ग को देखा जाता है तो तुरंत मन में संदेह का भाव जन्म ले लेता है कि "अरे..! इससे ये काम कैसे सम्भव होगा.....?" सारे विश्व में कमोबेश ऐसी ही स्थिति है.. .. सब अष्टावक्र रूज़वेल्ट को नहीं जानते, सबने मैत्रेयी गार्गी को समझने की कोशिश कहां की. यानी कुल मिला कर सामाजिक सांस्कृतिक अज्ञानता और इससे विकास को कैसे दिशा मिलेगी चिंतन का विषय है.
                       इससे आगे मुलायम सिंह जी उर्फ़ नेताजी  का चिंतन आज़ के दौर में एक  दोयम दर्ज़े का घटिया और गलीच चिंतन है. गुंडों को (कदाचित चुनाव जीतने के यंत्रों को) बचाने नेताजी का बयान दुख:द घटना है. पर उनके इस चिंतन पर गोया उनका भूत तारी है. शायद उनके पिता ने यही कह उनको माफ़ी दे दी होगी.
                      किसी मूर्ख अधिकारी के मुंह से सुना-"कमज़ोर पेदा होता ही मर जाने के लिये..!" यानी दमन के लिये प्रेरक ऐसी अवधारणाओं को लेकर मुलायम सिंह जैसे कठोर एवम  कुत्सित विचारक अगर बोलते हैं तो सामंती दौर का अहसास किया जा सकता है. सच कितना कढ़वा बोलते हैं लोग इतना सोच लें कि उनके  घरों में नारीयां भी हैं तो शायद गलीच वाक्य न बोल पाते . आने वाले कल को किसने देखा न जाने उनकी आने वाली पीढ़ी जब अपने ऐसे दुराग्रही पूर्वज़ों के बारे में सोचेगी तो क्या सोचेगी .......
 खैर..... सब मुलायम की तरह कठोर और कुंठित  नहीं होते... चलिये आप हम अपनी सोच को पावन बनाएं रखें.. हिज़ड़ों से शुभकामनाएं लें....अपाहिज़ों के अंतस में उर्ज़ा का संचरण करें.. औरतों का सम्मान करें      
(चित्र साभार : लखनऊ ब्लागर एसोसिएशन ,CRI एवम BBC  से )

14.4.14

सक्षम चिरंजीवी भव:

इन दिनों हमारे नेता सक्षम जी खूब मज़े ले रहे हैं सियासत के भी सियासियों के भी पेशे से तो सक्षम जी मस्ती के थोक व्यापारी हैं.. पए इनका बिज़नस  अन्य से अलहदा है.कल की ही बात है... माइक मिला तो बस लगे हाथ में लेके कुछ कुछ बोलने .. मानो बोल रहे हों -" प्यार कैसे किया जा सकता है इस अंटी से पूछो ...!" बेचारे सक्षम जी क्या जाने ये क्या सभी ऐसेइच्च तो करतीं हैं.. हम सारे पति टाइप के लोगों की औक़ात इससे ज़्यादा कहां..? बताओ भला .. आप पार्टी के बाद ऐसा असर हुआ कि झाड़ू इकदम स्टार बन गई.. आव देखा देखा न ताव वो तो एक दिन हम पे ही तन गई. 
  फ़िर एकाएक चुप हो गये वे टी.वी. देख देख के जान चुके हैं कि - हिंदुस्तान में सारे फ़साद की जड़ में माइक का बड़ा भारी योगदान है.. ! अस्तु सक्षम जी माइक को कच्चा चबा जाने के गुंताड़े में लग गये एन वक़्त पे सामाजिक संस्था के कर्ताधर्ता ने सक्षम जी को समझाया-"न बेटे ऐसा नहीं करते लो सौंफ़ खाओ.. !!"

         सौंफ़ के शौकीन भाई सक्षम ने सौंफ़ मुट्ठी भरी और मुंह में दस पच्चीस दाने मुंह में गये होंगे बाक़ी केज़री कक्का वाली दिल्ली सरकार सरीखे बिखर गए ज़मीन पर . और कोई होता तो ज़मीन से उठा के खाने लगता पर अपने सक्षम जी सरकार ओह सारी सौंफ़ का एक भी दाना ज़मीन से उठाया नहीं फ़िर डब्बे में हाथ घुसेड़ा और एक मुट्ठी फ़िर .. फ़िर वही हुआ तब तक किसी ने उनको ढोलक दिखा दी.. भाई ने पास पड़े काडलैस माइक से बज़ाने का असफ़ल प्रयास किया किसी ने टोका-"बेटे, हाथ से बजाओ.."
            ढोलक बजी पर उत्ती तेज़ नहीं.. बच्चे का हाथ बच्चे का ही होता है.. आप रोजिन्ना अखबारों समाचारों में देख ही रहे हैं .. राहुल बाबा के हाल.. ढुलकिया बज़ा ही नईं पा रए .. बताओ.. भला बच्चों से ढोलक बजी है कभी. 
  अर्र ये क्या कहानी बताते बताते हम राहुल बाबा तक आ गए .. माफ़ करना भाई ग़लती से गलती हो गई.. कोई सियासी लेख थोड़े न लिख रहे हैं हम पर आज़ कल उपमाओं  की तलाश में हमने खबरिया उर्फ़ ज़बरिया चैनल’स पर खबरों की बौछार की वज़ह से मिली निकटतम उपमाओं का स्तेमाल कर लिया माफ़ करना सुधि पाठको.. 
हां तो हम कह रए थे कि-" अर्र, भूल गये क्या कह रए थे.. ?".. हां याद आया सक्षम जी ने ढोलक बजाई.. फ़िर क्या हुआ... किस्सा गो... अरे भाई फ़िर क्या कुछ नहीं हम सब वापस आ गए ... अपने अपने घर मस्तीखोरी के होलसेल डीलर सक्षम से मिल के .. अभी तक उसकी शैतानियां याद आ रहीं हैं.. सक्षम मेरे भांजे अमित जोशी का बेटा है.. चिरंजीवी भव:  

12.4.14

महिला वोटर्स में 12.21% की बढ़त जबकि मात्र 7.31% पुरुष वोटर्स बढ़े

भारतीय जनतांत्रिक व्यवस्था अब एक रोचक नुक्कड़ तक जा पहुंची है.. जहां से एक रास्ता जाता दिखाई देता है प्रजातांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था के शिखर पर पहुंचने का तो दूसरा आत्मविश्वास से लबालब जनतंत्र के मुख्य बिंदू यानी "वोटर" की "आत्मविश्वासी-पहल" तक जाने का. दौनों ही रास्ते पाज़िटिविटी से लबालब हैं ... ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि अब मतदाता आत्मशक्ति से भरा पूरा नज़र आ रहा है.
         वोट अब कीमती इस लिये भी है कि वोटर ने उसकी ताक़त को पहचान लिया. इस पहचान से परिचित कराने का श्रेय भारत के शक्तिवान निर्वाचन आयोग को देना भी गलत फ़ैसला नहीं है. मध्य-प्रदेश के आंकड़ों को देखिये पिछले लोकसभा चुनाव के सापेक्ष 09.71% वोटों का इज़ाफ़ा हुआ . और महिलाओं ने अपना पोलिंग परसेंट बढ़ाकर 12.21% जबकि पुरुष वोटर्स मात्र 7.31%  की वृद्धि दर्ज कर पाए. 
प्रथम चरण में ग्रीन ज़ोन में जिन ज़िलों को रखा जाता है वो बेशक सराहना के पात्र हैं
छिन्दवाड़ा
81.08
76.89
79.05
होशंगाबाद
71.11
59.65
65.76
मण्डला
69.21
64.08
66.68
बालाघाट
69.14
67.04
68.1

शहडोल, सतना और जबलपुर, जिलों को पीले ज़ोन में रखा जा सकता है... 
शहडोल
65.6
58.57
62.2
सतना
64.82
60.28
62.68
जबलपुर
62.2
54.48
58.53

सबसे पीछे रहने वाले ज़िलों में रीवा, सीधी जिले रहे जिनको लाल क्षेत्र में वर्गीकृत किया है
रीवा
55.84
51.58
53.84
सीधी
59.72
53.67
56.86

जिन जिलों में महिलाओं ने पोलिंग में कम हिस्सेदारी दिखाई उनका वोटिंग प्रतिशत भी कम ही रहा. 

क्यों बढ़ा मतदान का प्रतिशत ?

           वोटिंग के बाद अचानक सभी आश्चर्य चकित हैं कि क्या हुआ कि अचानक मतदान के प्रतिशत में एकाएक वृद्धि हो गई. बात दरअसल ये थी कि निर्वाचन आयोग का लक्ष्य था कि कम से कम दस फ़ीसदी इज़ाफ़ा हो. इस लक्ष्य को लेकर 

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अलबरूनी का भारत : समीक्षा

   भारत के प्राचीनत   इतिहास को समझने के लिए   हमें प्राचीन   से मध्यकालीन तथा ब्रिटिश उपनिवेश कालावधि में भारत के प्रवास पर   आ...