औसत नवबौद्धों की
तरह ब्राह्मणों को गरियाने वाले शांति स्वरूप बौद्ध ने अलबरूनी की भारत यात्रा पर
संतराम बी ए लिखित कृति के प्रारंभिक आर्टिकल में जो भी लिखा है उससे पता चल जाता है कि - "नव बौद्ध क्या चाहते
थे और क्या चाहते हैं ?"
परंपरागत रूप से ब्राह्मणों को गाली देने का मुहिम नव पौधों
द्वारा चलाया जा रहा है।
अलबैरूनी के हवाले से शांति स्वरूप जी शराबा नामक खूंखार पशु, एवं चार आंखों वाले हिरण की टिप्पणी का अफवाह का उल्लेख
करते हुए संपादक जी भारतीयों को गपवाज भी कह देते हैं।
मूर्ति पूजा को
के विरुद्ध उनका अलबैरूनी के हवाले से अनपढ़ और अज्ञानी लोगों द्वारा संपादित किया
जाने वाला कार्य साबित करते हुए ब्राह्मणों का अपमान करने से नहीं चूकते। क्या यह
एट्रोसिटी का मामला नहीं है?
अलबैरूनी के
हवाले से एक और उल्लेख करते हुए कहा है कि -"अलबरूनी के समय रामायण पर आधारित
रामलीला का मंचन नहीं होता था..!"
विद्वान महोदय यह नहीं समझ पा रहे हैं कि -"रामलीला
मूल रूप से उत्तर भारत में भगवान राम के जीवन पर रचित तुलसीकृत रामचरितमानस के पास
लोकव्यापी हुई है! जिस काल खंड की चर्चा यहां कही गई है वह कालखंड रामचरितमानस के
कई सौ वर्ष पूर्व का है. ऐसी स्थिति में संभव ही नहीं है कि राम कथाओं का मंचन
किया जाता रहा होगा। इसके अतिरिक्त विद्वान रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है - राम एक
लोक कथा नायक है,
इससे स्पष्ट है कि रामलीला का मंचन भले ही उसे कल में ना
होता हो परंतु राम कथाओं का वाचन जन सामान्य तक पहुंचा अवश्य जाता रहा है। वरना
रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्याय में यह कदापि न लिखने।
मित्रों मूर्ति
पूजा मुसलमानों के लिए त्याज्य है, अतः अलबरूनी का यह कथन स्वाभाविक है।
संपादक की विशेष
योग्यता से समझ में आता है कि -"वे यह नहीं जानते की रामलीला का मंचन
रामचरितमानस के लिखे जाने के उपरांत प्रारंभ हुआ था।" मुझे उनके कालखंड ज्ञान
पर हंसी आ रही है और उन पर तरस आ रहा है।
पंचशील और अष्टांग
को पढ़ने समझने वालों में नकारात्मक बुद्धि नहीं होती परंतु नवबौद्धों को इसका
एहसास कहां ?
खैर हमें इससे
क्या लेना देना हमारा काम था आपको सतर्क करना, सो हमने कर दिया।
बावजूद कई
कंट्रोवर्सी के यह पुस्तक पढ़ने योग्य इसलिए है कि- 13 वर्ष तक भारत में रहने वाले अलबरूनी की भारत के बारे में
क्या सोच रही है।
मित्रों अलबरूनी भारत को 13 वर्षों में कैसे जान पाया होगा यह समझना मुश्किल है। जब वह भारत आया था तब
भारत में न तो सूचनाओं के त्वरित संप्रेषण का कोई यंत्र विकसित हुआ था और न ही उस
दौर में अखबार छपते थे।
इस पुस्तक से यह
आवश्यक पता चलता है कि - "अब के एक अन्य लेखक जाहिज ने जो बसरा के निवासी थे ने अपनी मृत्यु 255 हिजरी के पूर्व भारत के ज्ञान की भूरि भूरि प्रशंसा की थी।
जाहिज यह भी लिखते
हैं कि- "भारत ज्योतिष चिकित्सा आयुर्विज्ञान वास्तुकला चित्रकला
दर्शनशास्त्र साहित्य तथा नीति शास्त्र का प्रमुख केंद्र रहा है. । लेखक ने
पंचतंत्र की कहानियों को कलेला दमना के रूप में उल्लेखित करते हुए नीति शास्त्र का
जिक्र किया है।
डॉ सुरेंद्र
अज्ञात की संपादकीय से यह ज्ञात होता है कि महमूद गजनबी ने 997 ईस्वी में सिंहासन पर बैठने बाद भारत के हिंदुओं पर 17 बार आक्रमण किया।
महमूद गजनवी ने
भारत पर अंतिम बार आक्रमण 1026 ईस्वी में किया।
इतना ही नहीं इस कृति के
संपादक इस बात को लेकर मोहम्मद गजनवी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते करतें
हैं कि महमूद गजनवी ने दिरहम ( जो 280 ग्राम चांदी का सिक्का हुआ करता था) में एक तरफ संस्कृत भाषा में देवनागरी
लिपि से मुद्रण कराया था।
स्वाभाविक है कि कोई भी अपने विकसित राज्य को चलाने के लिए
ऐसा ही करेगा। क्या अमेरिकी डॉलर में हिंदी में कुछ लिखा गया है। अगर भारत अमेरिका
का उपनिवेश होता तो निश्चित तौर पर अमेरिकी डॉलर पर हिंदी में अर्थात देवनागरी
लिपि में मुद्रा के मूल इत्यादि पर मुद्रा लिपि अवश्य दर्ज की जाती।
धन्य है नवबौद्ध
आपकी समझ की जितनी तारीफ करूं कम होगी।
हत्यारे और लुटेरे के प्रति आपकी कृतज्ञता का भाव हमें अचंभित कर रहा है।
अगर कोई दोस्तों के प्रति कृतज्ञ के तरीके पूछेगा तो मैं
अवश्य सवाल करेगा तो मैं आप जैसे नव
बौद्धों के अनुकरण की सलाह दूंगा ।
1030 ईस्वी
में महमूद गजनबी की मृत्यु के बाद चाटुकारिता करते हुए इतिहासकार परिश्ता का भी इस
किताब में उल्लेख मिलता है जिसने यह कहा था कि महमूद गजनवी के शासनकाल में शेर और
भेड़िया एक साथ पानी पीते थे।
अनुवादक संपादक डॉ
सुरेंद्र लाल महमूद गजनवी को महान बताने की कोशिश करते हैं। अपनी संपादकीय में
अनुवादक एवं संपादक श्री लाल का मानना है कि - "महमूद गजनवी स्वयं पढ़ा लिखा
नहीं था किंतु विद्वानों का आदर करता था!" चलिए छोड़िए भारतीय संस्कृति की
निरंतरता को इसी तरह के मंतव्य से बाधित करने की कोशिश, न केवल डॉक्टर सुरेंद्र अज्ञात ने की है बल्कि इनके साथ
बहुत सारे वामधर्मी - इतिहास लेखक भी हैं। जिनकी लेखन प्रवृत्ति को देखकर लगता है
कि - "कदाचित यह विंस्टन चर्चिल के परम शिष्य तो नहीं?"
"अलबैरूनी
के भारत" नामक पुस्तक की संपादकीय में एक और विचारक लेनपूल का हवाला भी दिया
गया है जो मोहम्मद गजनवी की श्रेष्ठता को साबित करने का प्रयास करता है। लेनपूल के
हवाले से यह बताया गया है कि - "मोहम्मद गजनबी इतिहास का ऐसा राजा था जिसने
एशिया में दुनिया भर के विद्वानों की जमात इकट्ठी कर ली थी!"
आप समझ सकते हैं
कि इस पुस्तक में क्या मिलेगा? बेशक हम
चंद्रवरदाई के हत्यारे का महिमा मंडन देख रहे हैं ..इस कृति में..!
आपको आश्चर्य
होगा कि महमूद गजनबी की तारीफ में कसीदे लिखने वाले समकालीन इतिहासकार जिन्हें हम
चारण या भाट से अधिक नहीं समझते के अलावा वर्तमान में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो उसे
महिमा मंडित करते हैं। लेकिन उससे अधिक आश्चर्यता होगा जब आप यह जानेंगे कि
अलबरूनी मोहम्मद का गुलाम दरबारी था।
अलबैरूनी की महमूद
ने दरबार में ज्योतिषाचार्य का पद दिया था ।
अलबैरूनी, भारत की सांस्कृतिक निरंतरता छिन्न-भिन्न करने के लिए, महमूद गजनवी को जिम्मेदार माना है।
आप सब जानते हैं
कि अलबैरूनी ने भारत के बारे में जो भी लिखा वह पूरी तरह से मौजूद नहीं है परंतु
जितना भी उपलब्ध है वह रोचक और सबके लिए जरूरी भी है। यह अलग बात है कि डॉ
सुरेंद्र अज्ञात ने पुस्तक केवल नव बौद्धों के पॉइंट ऑफ व्यू से लिखी गई है।
मेरा मानना है कि सबको पुस्तक पढ़ना चाहिए चाहे वह किसी ने
भी किसी भी मंतव्य से लिखी हो।
हम और आप किसी भी
पुस्तक गैर जरूरी कहकर को खारिज नहीं कर सकते। अभिव्यक्ति के सम्मान का सबसे बेहतर
उदाहरण भारत में ही मिलता है।
मैं जानता हूं कि
इस पुस्तक के अनुवादित भागों को छोड़ संपादकीय एवं अन्य लेखों में जो भी कुछ
कुंठित भावनाओं से लिखा है उसे छोड़कर आप पुस्तक में अपने आप डूबते चले जाएंगे।
क्योंकि यह पुस्तक आपको विदेशी नजरिए से भारतीय सांस्कृतिक सामाजिक निरंतरता पर टिप्पणी
करती हुई प्रतीत होगी,
तथा आप 1000 वर्ष
पूर्व के भारत को रीक्रिएट कर पाएंगे। यदि आप वास्तविक इतिहास पढ़ना चाहते हैं तो
इस कृति के अलावा एक और महत्वपूर्ण कृति राजतरंगिणी जो कल्हण ने लिखी है का अध्ययन
इसके साथ-साथ अवश्य कीजिए। इससे आपको अलबरूनी के पूर्व और तथा बाद की परिस्थितियों
का आकलन करने में सुविधा होगी।
यह जरूरी नहीं
की अलबरूनी ने जो लिखा वह ब्रह्म सत्य है, हो सकता है कि 13 वर्ष की अवधि में भारत को समझने में उससे शायद चूक होना भी
संभव है। पर एक बात तो तय है की विश्व की सारी संस्कृतियों में भारी परिवर्तन
देखने को मिला परंतु भारत की सांस्कृतिक सामाजिक परंपराएं निरंतर मूल रूप से यथावत
है भले ही उसका आवरण क्यों न बदल गया हो।
मित्रों, इस पुस्तक के अध्ययन से, यह तो ज्ञात होता है कि - "भारत के ज्ञान का विस्तार अरब के रास्ते यूरोप
तक जा पहुंचा था।
यह कहना गलत है कि - "केवल चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर
सम्राट अशोक के कार्यकाल में भारत को वैश्विक पहचान मिली।" भारतीय शून्य और
दशमलव का परिचय बहुत पहले ही वैश्विक कराया जा चुका था।
सम्राट अशोक ने
अपनी राज्य विस्तार के साथ-साथ केवल बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से बौद्ध धर्म का
विस्तार किया। विस्तार सीरिया तक हुआ था, परंतु अवेस्ता के विस्तार के बुद्ध के संदेश वाहक या तो वापस आ गए अथवा
उन्होंने अपना मार्ग बदल लिया।
मित्रों इतिहास
एक रोचक विषय है,
इतिहास का विस्तृत ज्ञान गहन अध्ययन और हमारी विश्लेषणात्मक
बुद्धि से किया जाना चाहिए। अलबरूनी के अलावा जितने भी विदेशी विचारक भारत आए
उन्होंने भारत से बहुत कुछ हासिल किया। पर भी उतना ही हासिल कर पाए होंगे जितना तत
समकालीन परिस्थितियों से उन तक उपलब्ध हो सका है।
अन्य नकारात्मक
उल्लेख के बावजूद अनुवादक संपादक इस बात पर सहमति व्यक्त करते हैं कि अलबरूनी ने
मोहम्मद गजनवी के चिंतन को कभी भी सहमति नहीं दी। वे गजनी के मंदिरों पर आक्रमण ल
खसोट से अस्मत रहे हैं।
अलबैरूनी एक
विद्वान कुशाग्र और सहिष्णुता पूर्ण व्यवहार करने वाले व्यक्ति थे। वे भारत के
समकालीन परिदृश्य को सिरे से खारिज नहीं करते बल्कि जहां प्रशंसा जरूरी है वहां
प्रशंसा करते हैं।
इस किताब में यह उल्लेख मिलता है कि 587 ईस्वी में मृत्यु को प्राप्त करने वाले वराह मिहिर ने एस्ट्रोनॉमी में जिन राशियों का उल्लेख किया है वह यूनानी सभ्यता से प्रभावित है। इसकी समर्थन में गुणाकर मुले के ग्रंथ कल की वैज्ञानिक अवधारणा का हवाला देते हुए कहते हैं कि छठी शताब्दी तक राशियों के भारतीय नाम नहीं थे। अलबरूनी ने अपने भारत में विदाई 13 वर्षों में प्राचीनतम ग्रंथों का अध्ययन नहीं किया था।
वेद उपनिषद
रामायण महाभारत में अंतर निहित घटना आधारित कैलेंडर को समझने में कहीं न कहीं
अलबैरूनी से गलती हुई है। एक ट्रांसलेटर केवल उतना ही कर सकता है जितना उसमें
ट्रांसलेट करने की क्षमता हो।
नक्षत्र विज्ञान
के अध्ययन से निमिष पल सप्ताह पखवाड़ा, तथा माह का अनुमान सहज लगाया जा सकता है।
जबकि बुद्ध गुप्त
ने 485 ईस्वी में सप्ताह के किसी दिन का उल्लेख किया है। इसका
जिक्र मध्य प्रदेश के आयरन के शिलालेख में मिलता है जिसमें गुरुवार को सुरगुरु
दिवस के रूप में संबोधित किया है।
अलबैरूनी को समझने
के लिए इस कृति को पढ़ा जाना गलत नहीं होगा। परंतु अगर हम सॉफ्टवेयर की मदद से
गुणाकर मुले जी की कृति काल की वैज्ञानिक अवधारणा के साथ पुनरावलोकन करेंगे तो
हमें सब कुछ स्पष्ट रूप से नजर आएगा। संपादक राहु केतु नामक ग्रहण के अस्तित्व को
अस्वीकार करते हैं। जबकि नवीनतम शोध से ऐसे ग्रहों के अस्तित्व अभी तक सब प्रमाण
अमान्य नहीं किया है।
खैर संपादकीय तो हमारे पारंपरिक ज्ञान की खिल्ली उड़ने के
लिए लिखी गई है पर किताब में क्या है यह जानने के लिए आप इस कृति को इस समीक्षा के
प्रकाश में पढ़िए ताकि आप सही निर्णय तक पहुंच सकें।।