26.4.21

इंडो यूएस रिलेशन बनाम पराधीन सपनेहु सुख नाही

#पराधीन_सपने_सुख_नाही
[ वैक्सीन रा मटेरियल आपूर्ति प्रकरण पर त्वरित टिप्पणी ]
भारत के संदर्भ में अमेरिकन डीप स्टेट और #जो_बायडन ने वैक्सीन के लिए रा मैटेरियलस की आपूर्ति के लिए जो प्रतिबंध लगाए थे को लिफ्ट करने का आश्वासन दिया है। परंपरागत मित्र रूस यूरोपीय यूनियन फ्रांस कनाडा ब्रिटेन ऑस्ट्रेलिया सिंगापुर और भारत के बड़ी संख्या में मित्र राष्ट्र जिनमें ईरान यहां तक कि पाकिस्तान भी शामिल है ने मानवता के हित में भारत को #कोविड19 से जुड़ने के लिए जो हाथ बढ़ाए उसे देख कर जो वाइडन प्रशासन को अपनी नीति में बदलाव करना पड़ा। कुछ राष्ट्र ऐसे होते हैं जो आत्म केंद्रित सिद्धांत पर ही चलते हैं। लेकिन दक्षिण एशिया सहित भारत के  दुख को समझने वाले मित्र यहां तक कि मित्र राष्ट्र भी भारत में प्रति 24 घंटे में 200 से अधिक प्रभावित हो रहे मनुष्यों की रक्षा के लिए आगे कदम बढ़ा रहे हैं। एक सामाजिक टिप्पणी कार और मानवतावादी टिप्पणीकार की हैसियत से मुझे वह घटना याद आ रही है जब भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए क्रायोजेनिक इंजन की तकनीकी आवश्यकता थी। और इसी अमेरिकी डीप सरकार ने ना केवल और सहयोग किया बल्कि रसिया को भी इस बात की धमकी दी थी कि अगर आप ने भारत को यह तकनीकी स्थानांतरित की तो आपको सीक्रेट 5 स्टेटस अलग कर दिया जाएगा। पता नहीं भारत के वैज्ञानिक इतने महान कैसे हैं जिन्होंने अपने प्रयासों से स्वदेशी इंजन का आविष्कार कर ही लिया।
इतना ही नहीं एहसान फरामोश राष्ट्रों को यह समझना चाहिए कि भारत का सूत्र वाक्य विश्व बंधुत्व है ! 
जियो पॉलिटिक्स में इन दिनों वाइडन महाशय और कमला हैरिस एक्सपोज़ हो चुके हैं। परंतु भारत और शेष विश्व का विकास में भाव देखकर इस बार अमेरिका शर्मिंदगी के साथ अपने फैसले को बदलने के लिए बाध्य हुआ।
इतना ही नहीं यह देश अमेरिका फर्स्ट की नीतियों पर चलते हुए केवल भारतीय ही नहीं बल्कि विश्व का चौधरी बने रहने का प्रयास करता है। वर्तमान में अमेरिका ने भारतीय करेंसी को भी ऑब्जरवेशन में रख लिया है। अमेरिकी प्रशासन का यह मानना है कि भारतीय रुपए में कृत्रिम कारणों से अंतरण मूल्यों में कमी की जाती है। मौद्रिक स्थिति को देखते हुए उनकी यह समाज बचकानी प्रतीत होती है। भारतीय करेंसी को इस तरह ऑब्जरवेशन में रखना अमेरिकन विद्वानों के ज्ञान की कमी का सबसे बड़ा उदाहरण है। अर्थशास्त्र के विद्यार्थी का होने के नाते इस करेंसी ऑब्जरवेशन की निंदा करता हूं।
डोनाल्ड ट्रंप का प्रशासन कैसा भी हो पर उनके कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था को एक सकारात्मक स्थान मिला है। अमेरिकी चुनाव के पूर्व हम ऐसे फैसलों की कल्पना कर चुके थे जो भारत के हितों के विपरीत हो। जो वायडन एवं कमला हैरिस का इतिहास देखा जाए तो भी एक ऐसे चिंतन से सरोकार रखते हैं जो भारत के सापेक्ष नहीं है।

सूर्या के समक्ष नतमस्तक हुए ऊर्जा मंत्री


यह कोई अपराधी नहीं जो अपने किए का पछतावा कर रहा हो। यह है मध्य प्रदेश शासन के ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह आइए इस तस्वीर के पीछे की कहानी बताता हूं ।
           देश पर जब संकट आता हैं तो सबसे पहले स्वदेशी कंपनी ही सेवा के लिए आगे आती हैं,जिसका उदाहरण कल  #सूर्या_कंपनी ग्वालियर ने बल्ब निर्माण की नियमित यूनिट बंद कर आक्सीजन की सप्लाई मरीजों के लिए कर दी...।।
      इस सराहनीय कार्य पर मध्यप्रदेश के ऊर्जामंत्री प्रधुम्न सिंह तोमर कंपनी के प्रबंधन के इस निर्णय के फल स्वरुप दोनों हाथ जोड़कर घुटनों के बल बैठ कर प्रबंधन के सामने नतमस्तक हो आभार व्यक्त किया.।
स्वदेसी उद्योग को बढ़ावा दो ये अपने है सुखदुःख के साथी है । धन्य हैं #सूर्या_रोशनी, दोस्तो स्वदेशी उद्योगों ओर उद्योगपतियो को आयातित विचारकों के कहने में आकर अपमानित नहीं करना चाहिए ,देश मे आए संकट पर ये स्वदेशी उद्योग और उद्योगपति ही काम आते है ,अफवाह फैलाने वालों ओर भगदड़ मचाने वालों को इस अनुकरणीय कार्य से शिक्षा लेनी चाहिए। नमन #सूर्या कम्पनी ओर उसके मालिक को।
हमे गर्व है अपने स्वदेसी उद्योगों ओर उद्योगपतियों पर। 
सूचना सौजन्य से महेंद्र शुक्ला
( निवर्तमान महामंत्री
अखिल भारतीय नार्मदीय ब्राह्मण समाज )

25.4.21

मैक सिंह के युधिष्ठिर का जाना अखर रहा है..!

आज हमारे बीच से बीएस पाबला विदा हो गए। 2007 में हम सब ने अंतरजाल पर लिखना शुरू किया था उस शुरुआती दौर में एक दिन एसएमएस आया दिन था 29 नवंबर का। यह दिन मेरा जन्म दिवस है। पाबला जी को उस दौर के हर चिट्ठाकार जन्मदिन विवाह की तिथि याद थी। और सभी को शुभकामनाएं सबसे पहले भेजा करते थे। चिट्ठे पर लिखते भी धाराप्रवाह प्रांजल भाषा का प्रयोग करते हुए उनके विचार खास तौर पर एक आर्टिकल याद है जिसमें उनकी कार छत्तीसगढ़ से एक लंबी यात्रा में क्षतिग्रस्त हो गई थी यह यात्रा वृतांत बेहद रोमांचक और अविस्मरणीय है। पाबला जी का जीवन संघर्ष भरा ग्रंथ कहा जाए तो गलत ना होगा। पूज्यनिया भाभी साहब का जाना पुत्र विछोह उनके जीवन का सबसे दर्दनाक हिस्सा रहा है। पाबला जी से हमारी से शरीर में वर्ष 2011 में विश्व ब्लॉगिंग सम्मेलन में दिल्ली में हुई थी। 
व्यक्तित्व बड़ा शानदार और आलीशान था। उनका हमारे बीच से असमय जाना एक दर्दनाक पहलू है। पाबला साहब बहुत सहज और सुलभ थे। पाबला जी को ब्लॉगिंग तकनीकी का गहरा ज्ञान था। हमारी गलतियों और भूलों के कारण अगर हमारे ब्लॉग में कोई गलती या कमी होती है तो हम बेधड़क उनको कॉल करते । पाबला जी ने किलर झपाटा नामक एक फर्जी आईडी का पता लगा लिया था। इन दिनों में सोशल मीडिया पर अपने Mac Singh  आईडी से अपनी बात कुछ इस तरह से रखते थे जैसे उनका डॉगी मैक उनके बारे में कुछ कह रहा हूं। एक जबरदस्त व्यक्तित्व के धनी पाबला जी आप अपनी तरह के अनोखे व्यक्तित्व के धनी थे। हमारी स्मृतियों में जबरदस्त तरीके से शामिल हो जी मैं भी आखरी सांस तक शायद ही आप लोगों को पाबला जी के जबरदस्त व्यक्तित्व के साथ याद रखूंगा। हे विधाता तुम्हारी शक्ति के आगे कुछ नहीं कहते पर तुम बार-बार क्यों हमारे लोगों को छीन छीन कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हो ओम शांति शांति हे प्रभु इस परम आत्मा को अपने हृदय में स्थान अवश्य देंगे हमारी यही प्रार्थना है उन्हें शत शत नमन

21.4.21

राम और रामायण कदापि काल्पनिक नहीं..!

यह आर्टिकल वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित गैर राजनीतिक आर्टिकल  है । जो यह सिद्ध करता है कि राम कोई काल्पनिक चरित्र नहीं है कृपया इसे अवश्य देखें और शेयर भी कीजिए जिससे अधिकतम राम भक्तों तक यह पहुंच सके।
💐💐💐💐

प्रभु श्री राम की जन्म दिवस पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। कल 20-21 अप्रैल 2020 की लगभग पूरी रात की अथक कोशिशों के बाद भगवान श्री राम के संबंध में जो जानकारी जुटा सका हूं उसके अनुसार कुछ बातें संक्षिप्त में आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं। इसे आप धैर्य और वैज्ञानिक आधार पर देखेंगे ताकि आप वर्तमान में पढ़ाए जा रहे पश्चिमी एवं वामपंथी विचार को द्वारा लिखे गए इतिहास को समझ पाएंगे। वर्तमान में पढ़ाई जा रहे इतिहास में ढेरों भ्रामक जानकारी हैं। यह आर्टिकल किसी भी प्रकार से किसी विचारधारा का समर्थन ना करते हुए केवल सत्य को समर्पित है।
      पृथ्वी की उत्पत्ति एक खगोलीय घटना है। इस घटना में पृथ्वी आज से 4 दशमलव 5 करोड़ वर्ष पूर्व अपने पथ पर स्थापित हुई। पर प्रकृति अर्थात उसके शीतल होते होते कुछ करोड़ों वर्ष और लगे तदुपरांत ही जीवन उपयोगी वातावरण निर्मित हुआ। यह मान लेते हैं कि  आज से लगभग 2 लाख वर्ष पूर्व वर्तमान मानव के पूर्वज अस्तित्व में आए। और हम यह मानते हैं कि होमो सेपियंस के वंशज है हम मानव। यह कथानक नहीं सत्य है परंतु अंग्रेजी आयातित विचारधारा के आधार पर लिखे गए इतिहास में वैदिक काल को पता नहीं किस दबाव में ईसा के पंद्रह सौ वर्ष पूर्व स्थापित किया है। जबकि बाल्मीकि रामायण जो राम के समकालीन लिखी गई उसमें वेदों के संबंध में उल्लेख है। इसका अर्थ यह है कि राम के काल के पूर्व अर्थात सतयुग के प्रारंभ में अर्थात लगभग 11500 ईसा पूर्व से 9200 वर्ष पूर्व वेदों जिसमें संहिता आरण्यक ब्राह्मण एवं आदि का रचना काल रहा है। जो किसी  एक व्यक्ति द्वारा नहीं लिखे गए बल्कि यह है वेदव्यास द्वारा सुव्यवस्थित किए गए ऐसा मानना चाहिए। 
   अब स्पष्ट है कि रामायण काल के पूर्व त्रेता युग का शुभारंभ 6777 बी सी में हुआ। इस बात के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं भारतीय राजस्व सेवा के एक अधिकारी श्री वेद वीर आर्य ने। उनके नजरिए से देखा जाए तो निम्नलिखित तथ्यों तक पहुंचा जा सकता है-
राम रावण के बीच धर्म युद्ध  हुआ या नहीं अथवा यह एक काल्पनिक घटना है इस प्रश्न के उत्तर में श्री आर्य बताते हैं कि
[  ]  हाल ही में नासा द्वारा अवगत कराया गया कि श्रीलंका से भारत के बीच समुद्र में एक प्राकृतिक रास्ता था। लेकिन सूर्य एवं चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण के कारण जल की अधिकता होने से उस सेतु के जरिए लंका वर्तमान श्रीलंका में जाना कठिन था। अतः राम ने पत्थर झाड़ी वनस्पति बालू इत्यादि का प्रयोग करवा कर एक सेतु का निर्माण किया जिसकी मोटाई  लगभग एक मीटर के आसपास रही है। नासा का यह प्रमाण प्रासंगिक है और राम एवं रावण के बीच हुए धर्म युद्ध की पुष्टि भी करता है। नासा यह बताता है कि राम रामसेतु में पत्थरों का जमाव डेटिंग के हिसाब से 7 हजार बीसी के आसपास रहा है तो यह माना जा सकता है कि राम ने युद्ध की व्यवस्था के लिए इस सेतु का निर्माण किया है।
[  ] श्रीलंका और भारत के बीच समुद्र में एक प्राकृतिक मार्ग था । किंतु जल स्तर बढ़ने से उस रास्ते पर चलना राम की सेना के लिए कठिन था। पता है नल नील के सहयोग से पत्थरों के जरिए जल-स्तर से ऊपर पत्थर इत्यादि डालकर रास्ता तैयार कराया गया।
[  ] इस क्रम में रावण की मृत्यु का कारण हेली धूमकेतु धरती पर नजर आया। इस कथन की पुष्टि के लिए सॉफ्टवेयर के माध्यम से लेखक आर्य ने अपने शोध ग्रंथ में अंकित किया है। तथा यह तथ्य लक्ष्मण के माध्यम से रामायण में उल्लेखित है ।
        वेदवीर आर्य श्री राम की जन्म दिनांक (ईसाई कैलेंडर के मुताबिक का) भी प्रमाण देने से नहीं चूकते। यह तिथि ईसा  पूर्व के ऋणात्मक कैलेंडर में स्थापित किया जा सकता है। 
एक अन्य शोध को देखें तो भी राम का कालखंड लगभग ईशा के 7000 वर्ष पूर्व सुनिश्चित किया गया है
आलोचकों के कारण राम पौराणिक थे या ऐतिहासिक इस पर शोध हुए हैं और हो रहे हैं। सर्वप्रथम फादर कामिल बुल्के ने राम की प्रामाणिकता पर शोध किया। उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण से जुड़े करीब 300 रूपों की पहचान की। 

राम के बारे में एक दूसरा शोध चेन्नई की एक गैरसरकारी संस्था भारत ज्ञान द्वारा पिछले छह वर्षो में किया गया है। उनके अनुसार अगली 10 जनवरी को राम के जन्म के पूरे 7122 वर्ष हो जाएँगे। उनका मानना है कि राम एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। राम का जन्म 5114 ईस्वी पूर्व हुआ था। वाल्मीकि रामायण में लिखी गई नक्षत्रों की स्थिति को 'प्ले‍नेटेरियम' नामक सॉफ्टवेयर से गणना की गई तो उक्त तारीख का पता चला। यह एक ऐसा सॉफ्टवेयर है जो आगामी सूर्य और चंद्र ग्रहण की भविष्यवाणी कर सकता है। 

मुंबई में अनेक वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, व्यवसाय जगत की हस्तियों के समक्ष इस शोध को प्रस्तुत किया गया। और इस शोध संबंधित तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए इसके संस्थापक ट्रस्टी डीके हरी ने एक समारोह में बताया था कि इस शोध में वाल्मीकि रामायण को मूल आधार मानते हुए अनेक वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, ज्योतिषीय और पुरातात्विक तथ्यों की मदद ली गई है। इस समारोह का आयोजन भारत ज्ञान ने आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर की संस्था आर्ट ऑफ लिविंग के साथ मिलकर किया था।

8.4.21

नक्सली हिंसा : वामधारा की देन..!

   वामधारा सिंचित नक्सलबाड़ी वार से रक्तपात भारत को बचाने चरम प्रयासों की ज़रूरत : गिरीश मुकुल

     यह एक चरमपंथी विचार है । चरम सदा ही पतन का प्रारंभ होता है। अक्सर आप जब शिखर पर चढ़ने का प्रयास करते हैं तब आपका उद्देश्य होता है.... स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर देना। इसका अर्थ यह है कि आप चाहते हैं-" आप उन सब से अलग नज़र आएं जो भीड़ का हिस्सा नहीं है ।
    वामधारा चरमपंथी धारा है। यह एक ऐसी विचारधारा है जिसका प्रारंभ ही कुंठा से होता है।
     कोई भी व्यक्ति जो कुंठित है अर्थात पीडा और क्रोध के सम्मिश्रण युक्त व्यवहार करता है या कुंठित है वह सामान्य रूप से हिंसा के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति बनता है। अर्थात पीड़ा और क्रोध हिंसा  सृजन का प्रमुख घटक है।
      अब आप यह कहेंगे कि-" कृष्ण ही नहीं महाभारत के लिए उत्प्रेरित क्यों किया क्या वे पीड़ा युक्त क्रोध यानी कुंठा से ग्रसित थे..!"
     नहीं कृष्ण कुंठा से ग्रसित नहीं थे। कृष्ण ने युद्ध टालने के बहुत से प्रयास किए उनका अंतिम कथन यह था की कुल 5 गांव पांडवों को दे दिए जाएं ।
      कुंठित तो दुर्योधन था जिसने इतना भी नहीं स्वीकारा । जिसका परिणाम आप सब जानते हैं ।
      नक्सलवाद  दुर्योधनी विचार प्रक्रिया का परिणाम है । वामधारा का अर्थ भी यही है।
        25 मई 1967 में चारू मजूमदार और कनू सान्याल  ने जिस गांव से इस आंदोलन की शुरुआत की थी वह गांव था नक्सलबाड़ी।    
           नक्सलबाड़ी ग्राम की स्थानीय समस्या को किसानों के अधिकार चैतन्य के कारण उनका शक्ति प्रदर्शन भी एक सीमा तक उचित मानने योग्य माना जा सकता है जहां तक आंदोलन जान लेवा न हो । किंतु उनकी इस विजय के उपरांत तत-समकालीन व्यवस्था को इस बिंदु को अपने चिंतन में शामिल करना था ताकि ऐसी हत्यारी परिस्थितियां निर्मित ना हो । यह सत्य है कि न्यायालयीन आदेश का भी कोई पक्षकार पालन ना करें यह सर्वथा अनुचित है असवैधानिक है पर इसका विकल्प हत्या नहीं हो सकता।
    खैर 1967 के बाद बहुतेरे कैलेंडर बदल गए हैं 2021 में 3-4 मार्च को ऐसी कौन सी जरूरत आ पड़ी थी कि- 700 नक्सलियों ने 24 निर्दोष पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। सच पूछिए तो जरूरत बिल्कुल नहीं थी। न आदिवासी मजदूर किसान जमीदार या सूदखोर के चंगुल में थे नाही ऐसी कोई विषम परिस्थिति थी परंतु 1967 से 1970 तक आयातित विचारधाराओं के सहारे यह कांसेप्ट जरूर पुख्ता हो गया कि-" हम सरकार के समानांतर सरकार चला सकते हैं। छत्तीसगढ़ बंगाल बिहार उड़ीसा और झारखंड आंध्र प्रदेश का कुछ हिस्सा सन 1970-71 व्याप्त हो गया । कहते हैं कि 11 प्रदेशों के 90 से अधिक जिले  इस  समस्या से प्रभावित रहे हैं ।
समानांतर सरकार व्यवस्था और न्याय व्यवस्था
   सामान्यतः लोग यह नहीं जानते की समस्या के आधार में क्या है ?   
    साहित्यकारों ने तो लिखना पढ़ना ही छोड़ दिया। तथाकथित असभ्य संस्कृति का विकास और विस्तार का आधार वामधारा ही है।
    एक अध्ययन से पता चलता है कि आज 18 राज्यों के 218 जिलों जिनमें 460 थाने इस हिंसक संस्कृति के प्रभाव में हैं। इस विस्तार के लिए वाम धारा ने इन्हें पर्याप्त बौद्धिक खाद पानी दिया हुआ है जिसके प्रमाण आए दिन आप पढ़ते सुनते हैं परंतु अब इन सूचनाओं से आम आदमी को कोई लेना देना नहीं।
नक्सलवाद का विस्तार करने के लिए जिन चार महत्वपूर्ण बिंदुओं की जरूरत होती है उनमें :-
[  ]  अंतरराज्यीय सीमा पर स्थित क्षेत्र सबसे महत्वपूर्ण होते हैं
[  ] दुर्गम क्षेत्र भी नक्सलवाद को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाते हैं
[  ] आदिवासी जनसंख्या इनका मुख्य चारागाह है।
[  ] सरकार से हमेशा नाराज रहने वाली तथाकथित आयातित विचारधारा के पैरोंकारों से इन्हें खासी मदद मिलती है।
           इस समस्या पर 1970 आते-आते तक तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी गंभीरता से ध्यान देना शुरू ही किया था कि बांग्लादेश की समस्या ने घेर लिया। पर यह भी जानकारी मिलती है कि इंदिरा जी इस समस्या को हल करना चाहती थीं ।
      1970 से 1980 वाली दशक में नक्सल समस्या प्रभावित इलाकों में घटनाएं कम अवश्य हुई थी पर अचानक क्या हुआ के 1990 से 2004 तक नक्सलवादी हिंसा में उतार चढ़ाव देखा गया । 2004 से 2012 तक अचानक नक्सली हिंसा में वृद्धि हुई थी किंतु कोविड-19 आते हिंसा के आंकड़ों में कमियां आने लगी। व्यवस्था के विरुद्ध आतंक फैलाना राष्ट्र के भीतर की समस्या नहीं मानी जा सकती। उनसे हम क्या माने..?
"लाल समस्या आंतरिक नहीं है..!"
     यह समस्या कश्मीर समस्या से कम तो नहीं है। नक्सली समस्या में वह सारे तत्व मौजूद हैं जो अमित्र एवम कुंठित राष्ट्रों द्वारा दूसरे राष्ट्र में फैलाए जाते हैं । माओवाद का विस्तार प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध  है। खासतौर पर जब भी चुनाव होते हैं तब नक्सलवादी गतिविधियां अपेक्षाकृत तेजी से विस्तार पाती हैं।
     आयातित विचारक अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बुज़ुरूआ और सर्वहारा का वर्गीकरण हमेशा जीवंत रखना चाहते हैं। अगर वर्गीकरण न भी हो तो वर्ग बनाना इनकी प्राथमिक नीति होती हैं ।
  छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र की बॉर्डर पर हिडमा नामक कमांडर (जो अपने साथ 800 गुमराह महिलाओं पुरुषों की जमात के साथ चलता है) सक्रिय नजर आता है . छत्तीसगढ़ के पुलिस चीफ का कहना है कि बीजापुर सुकमा की घटना में 700 नक्सलवादियों ने हमला किया था।
हमने पहले ही स्पष्ट किया है कि- "वामधारा अक्सर वर्ग संघर्ष पैदा करने में सक्रिय रहती है। आपने देखा होगा कि विश्वविद्यालय के कैंपस से लेकर थिएटर और आयातित विचारधारा पर केंद्रित साहित्य अगर वर्ग संघर्ष ना हो तो भी वर्गीकरण करके दो वर्गों में परस्पर वैमनस्यता और अस्थिरता पैदा करते हैं। बेशक अर्बन नक्सली गतिविधि कहा जाना गलत नहीं है।"
इसका उदाहरण सीएए विरोधी आंदोलन में स्पष्ट रूप से नजर आया है। कुछ तथाकथित प्रगतिशील विचारकों के आर्टिकलस #पहल  नामक एक मैगजीन में देखे गए।
  साथ ही आपको याद होगा कि चिकन नेक पर अपना हक जमाने के लिए किस तरह से इसी आंदोलन में उत्प्रेरित एवं उत्तेजित किया जा रहा था।
   गंभीरता से सोचें तो माओवाद का उद्देश्य पशुपति से तिरुपति तक खूनी संघर्ष लक्ष्य की प्राप्ति करना है।
     मार्क्स लेनिन  स्टालिन माओ यह वह ब्रांड नेम है जिनके विचारों को वर्गीकरण को आधार बनाकर विस्तार दिया जा रहा है। पर्यावरण कार्यकर्ता मानव अधिकार कार्यकर्ता के लबादों में यह विचारधारा बकायदा गोबर के कंडे में राख के अंदर छिपी हुई आग की तरह जिंदा रहती है।
       तो इसका समाधान क्या है...?
वर्तमान संदर्भ में इसका एकमात्र समाधान उसी भाषा में जवाब देना है जिस भाषा में इन्हें जवाब समझ में आता है फिर भी कुछ समाधान सुलझाने की कोशिश करना मेरा साहित्यकार होने का दायित्व है :-
[  ] गृहमंत्री की की बॉडी लैंग्वेज में अभी तो स्पष्ठ कठोरता नज़र आ रही है । पर यह कब होगा देखने वाली बात है ।
[  ]  कठोर सैन्य कार्रवाई-  क्योंकि यह हमारे देश के नागरिक हैं किंतु उनके मस्तिष्क में इनके विदेशी आकाओं और कमांड देने वाली ताकतों के प्रति अटूट सम्मान है नज़र आता है इनका सीधा रिश्ता भारतीय एकात्मता को प्रभावित करने वालों से है।
[  ] विश्व बिरादरी और मानव अधिकारों की पैरोंकारी करने वाले लोगों को मात्र सूचना देकर आर्मी के एयर सर्विलांस पर इन्हें रखा जाना चाहिए और आवश्यकता पड़ते ही पूरी दृढ़ता के साथ बल प्रयोग करना चाहिए ।
[  ] स्थानीय समुदाय पर इन का सर्वाधिक प्रभाव होता है तथा इनकी अदालतें चलती है उस पर व्यवस्था की पैनी निगाह होनी चाहिए ।
[  ] इंटर स्टेट बॉर्डर्स (सीमाओं) पर  अत्याधुनिक सर्विलांस सिस्टम स्थापित करना आवश्यक है।
[  ] अर्बन नक्सलियों पर चाहे कितना भी विरोध हो सरकारी तौर पर शीघ्र ही जानकारी एकत्र कर ली जानी चाहिए ।
[  ] जन सामान्य को इनके दुष्कृत्यों की जानकारी देने का दायित्व मीडिया साहित्यकार कवियों और लेखकों नाटककारों चित्रकारों का होना चाहिए क्योंकि समाज यानी जनता  को भी राष्ट्र धर्म का पालन करना जरूरी है।
         अभी तो देखना है कि सरकारी हिसाब से नक्सलियों की हिंसक प्रवृत्तियों को कब तक स्थानीय राष्ट्रीय समस्या की श्रेणी से हटाकर कब तक वैदेशिक हस्तक्षेप माना जावेगा ।
सलवा जुडूम एक प्रक्रिया थी शांति स्थापित करने की इसका खुलकर विरोध किया गया। इस आंदोलन की असफलता के लिए जो भी प्रयास किए गए वह सोची समझी रणनीति थी ऐसा प्रतीत होता है।
     बीबीसी वेब पोर्टल ने कहा है कि-"शनिवार को जो मुठभेड़ हुई, वह हिड़मा के गांव पुवर्ती के पास ही है. 90 के दशक में माओवादी संगठन से जुड़े माडवी हिड़मा ऊर्फ संतोष ऊर्फ इंदमूल ऊर्फ पोड़ियाम भीमा उर्फ मनीष के बारे में कहा जाता है कि 2010 में ताड़मेटला में 76 जवानों की हत्या के बाद उसे संगठन में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गई. इसके बाद झीरम घाटी का मास्टर माइंड भी इसी हिड़मा को बताया गया. इस पर 35 लाख रुपये का इनाम है." 
     इसी बीबीसी एवम अन्य कई मीडिया  ने सलवा जुडूम को आदिवासी विरोधी कहा  था ।  मीडियाा की भूमिका येे थी ( 5 /6/15 की बीबीसी की रपट) )

एक दर्ज़न हथियारबंद सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहने वाले चैतराम अट्टामी को आज भी लगता है कि सुप्रीम कोर्ट एक न एक दिन यह मान लेगी कि सलवा जुडूम सही आंदोलन था.

दंतेवाड़ा के कसौली कैंप में बैठे अट्टामी अपनी मुट्ठियां भींचे कहते हैं, “अगर सलवा जुडूम ग़लत था तो मान कर चलिये कि भारत की आज़ादी की लड़ाई भी ग़लत थी.”

अट्टामी दस साल पहले बस्तर में शुरु हुए सलवा जुडूम आंदोलन के ज़िंदा बचे हुए शीर्ष नेताओं में से एक हैं.

छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ सरकार के संरक्षण में शुरु हुए सलवा जुडूम यानी कथित शांति यात्रा के दस साल पूरे हो गए हैं.

माओवाद का पक्षधर बहुत बड़ा बौद्धिक व्यवसायियों समूह हो रहा है जो प्रदेश के महानगरों में सक्रिय है। यह समूह उन सवालों पर मौन है जिसमें मानवता के संदर्भ में सवाल पूछे जाते हैं। सच तो यह है कि कुछ लोग अपनी किताबें भी बंद कर रहे हैं।


6.4.21

ध्वज तिरंगा लौहित किले पे अनमना है ।

            यह कविता राष्ट्र द्रोहियों की दुरभि संधि को उजागर कर रही है 26 जनवरी से लेकर 3-4 अप्रैल 2021 तक की घटनाओं की निकटता को प्रस्तुत कर रही है। देखना है शाहीन बाग पर अश्रुपात करने वाली कलमों की #पहल क्या होगी ..?
व्योम पे देखो ज़रा क्या तम घना है ?
रुको देखूँ शायद ये मन की वेदना है ।।
रक्त वीरों का सड़क को रंग रहा है -
ध्वज तिरंगा लौहित किले पे अनमना है ।
आज ग़र कौटिल्य मिल जाये कदाचित
कहूँगा जन्म लो चाणक्य मेरी याचना है ।
बंदूक से सत्ता के पथ खोजे जा रहें हैं-
जनतंत्र मेरे वतन का अब अनमना है ।।
आयातित बकरियों, का चरोखर देश ये
कर्मयोगी बोलिये, अब क्या बोलना है ?
आज़ाद मुक्ति मांगते बेशर्म होकर -
मुक्ति की ये मांग कैसी, और कैसी चेतना है ?
आज़ फिर सुकमा की ज़मीं को रंगा उनने
दुष्टों का संहार कर दो भला अब क्या सोचना है ।।
       

29.3.21

फागुन के गुन प्रेमी जाने

*होली पर हार्दिक शुभकामनाएं*
फागुन के गुन प्रेमी जाने, 
बेसुध तन अरु मन बौराना ।
या जोगी पहचाने फागुन, 
हर गोपी संग दिखते कान्हा ।। 

रात गये नजदीक जुनहैया, 
दूर प्रिया इत मन अकुलाना ।
सोचे जोगीरा शशिधर आए, 
भक्ति - भांग पिये मस्ताना ।। 

प्रेम रसीला, भक्ति अमिय सी, 
लख टेसू न फूला समाना ।
डाल झुकीं तरुणी के तन सी, 
आम का बाग गया बौराना ।। 

जीवन के दो पंथ निराले, 
कृष्ण भक्ति अरु प्रिय को पाना ।
दोनों ही मस्ती के पथ हैं, 
नित होवे है आना जाना...!! 

चैत बैसाख की गर्म दोपहरिया – 
सोच के मन लागा घबराना ।
छोर मिले न ओर मिले, 
चिंतितमन किस पथ पे जाना ? 

मन से व्याकुल तन से आकुल
राधारमण का कौन ठिकाना ।
बेसुध बैठ गई सखि मैं तो-
देख मेरा सखि तापस बाना ।।

गोकुल छोड़ गए जब से तुम
छूटा हमारा भी पानी-दाना ।
प्राण की राधा झुलसी झुलसी
तुरतई अब किसन को होगा आना ।।

💐💐💐💐💐💐
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

24.3.21

पॉक्सो एक्ट की जानकारी सर्वव्यापी हो''- रिजु बाफना आई ए एस


 बच्चों के लिए पॉक्सो अधिनियम के अंतर्गत महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा चलाए जा रहे प्रचारात्मक अभियानों को अंतर्विभागीय समन्वय से प्रभावशाली बनाया जा सकता है। आज ऐसे ही प्रयासों की नितांत आवश्यकता है। तदाशय के विचार जिला पंचायत की मुख्य कार्यपालन अधिकारी रिजु बाफना ने व्यक्त किये।

होटल कल्चुरी में आयोजित शिक्षा विभाग के प्राचार्योंबाल विकास परियोजना अधिकारियों एवं स्वयं सेवी संस्थाओं के प्रतिनिधियों के लिये महिला बाल विकास द्वारा आयोजित पॉक्सो एक्ट पर केन्द्रित कार्यशाला में व्यक्त किए।

जिला विधिक प्राधिकरण के सदस्य सचिव ए.डी.जे. शरद भामकर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि 'जन्म-प्रमाण-पत्र एवं आयु प्रमाण पत्र के संबंध में प्रत्येक अॅथारिटी को सजगता बरतनी चाहिए तथा इस एक्ट में अंतर्निहित प्रावधानों जैसे वैधानिक कार्यवाही प्रक्रिया और प्रभावित को सहायता प्राप्त करने हेतु सरकारी अमले को विशेष रूप से आम जनता को जानकारी देना अत्यावश्यक है।

शिक्षा विभाग की ओर से जिला शिक्षा अधिकारी घनश्याम सोनी ने इस बात पर सहमति दी कि निकट भविष्य में महिला बाल विकास विभाग एवं शिक्षा विभाग मिलकर बच्चों के बीच इस अधिनियम की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए प्रत्येक स्कूल में मासिक सत्रों का प्रावधान करेंगे। कार्यक्रम की आवश्यकता एवं उपयोगिता पर श्री संजय अब्राहम सहा. संचालक द्वारा भी विचार व्यक्त किया गया।

इस अवसर पर बचपन बचाओ अभियान के प्रतिनिधियोंप्रांतीय समन्वयक सलमान मंसूरी  तथा बबन प्रकाश ने तकनीकी सत्र में पॉक्सो एक्ट की महत्ताप्रावधान एवं प्रक्रियाओं की जानकारी दी। साथ ही चाइल्ड लाइन ने लैंगिक अपराध से प्रभावित बच्चों के लिए विस्तार से जानकारी दी। जिला कार्यक्रम अधिकारी ने आमंत्रित अतिथियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित किया तथा कार्यक्रम का संचालन गिरीश बिल्लौरे ने किया।


चंद्रशेखर जी का वक्तव्य

लोहिया जी चंद्रशेखर जी उन भारतीयों के आदर्श हैं जो मानवता के सबसे बड़े सरोकारी कहे जाते हैं। भारत की संसदीय व्यवस्था में इस व्यक्तित्व ने लगभग मोहित कर लिया था । उन दिनों हम डी एन जैन कालेज में स्नातक डिग्री लेने के छात्र थे नेतागिरी का वायरस भी घुस चुका था । घर के लोग नाखुश रहते थे । ज़ायज़ बात है पर युवावस्था में हम सियासत समाज विचारधारा आदि को समझ रहे थे । सब समझते थे कि हम नेतागिरी में सरोपा धंस गए हैं । 1980-81 की बात है । कालेज में ऊटपटांग हरकतों के लिए मशहूर थे मुकेश राठौर । समाजवादी विचारधारा को मानते थे लोहिया जी चंद्रशेखर जी उनके आदर्श थे । पर हम अलहदा सोचते थे । 
     आपात काल के बाद चंद्रशेखर जी जबलपुर आए तो उनके सम्मान में हमारी यूनियन ने दादा को बुलाया । डी एन जैन कॉलेज के ओपन एयर थियेटर का लोकार्पण चन्द्रशेखर जी ने ही जिया था । 
    उनके भाषण में भूमंडलीकरण भविष्य के भारत की स्थिति, बेरोजगारी पर खुलकर बोले । 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी जी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था।
     तभी आपातकाल के जेल के दिन याद करते हुए वे बोले-"हम और हमारे मित्र एक सूखे पेड़ को लेकर किस्म किस्म की चर्चा करते थे । एक दिन मित्र को बताया कि -"बारिश में यह पेड़ अवश्य पुनः पीकेगा ..!
 कैसे ये तो ठूँठ है...?
मैने कहा -"इसमें पनपने की इच्छा शक्ति है । जैसे हममें । हम भारतीय प्रजातंत्र के ठूँठ भी निर्बंध होंगे । हमें खुद को आस्था की बूंदों से सींचते रहना होगा । 21 माह तक का आपातकाल गोया प्रजातंत्र में ब्रिटिश राज का ट्रांसलेशन ही था ।  मित्र अवाक ताकता रहा । 
 मई-जून 1975 की बारिश में  दो तीन फुहारों के बाद कटा हुआ पेड़ हरियाने लगा । 
  चंद्रशेखर जी के मित्र सह क़ैदी ने कहा - "चन्द्रशेखर जी ये तो पनप रहा है ! 
पनपेगा क्यों नहीं..? भारतीय डेमोक्रेटिक सिस्टम की जड़ें मजबूत और गहरी जो हैं । 
21 मार्च 1977 को आपातकाल वापस हुआ । तब तक वो पेड़ भी फिर से जिंदा हो चुका था ।
उसी दिन एक कविता लिख गई जो उनको ही समर्पित क्ररता हूँ...
आस्था 
बोलती नहीं पनपती है 
दावा प्रदर्शन 
न कभी नहीं ...!
आस्था हरियाती है । 
मंद मंद मुस्काती है । 
आस्था राग-द्वेष से दूर 
हाँ बहुत दूर चली जाती है ।।
आस्था
विश्वास की गहरी जड़ों 
वाले कटे पेड़ों में
बारिश की बूंदों से 
मिल तरुणी में प्रेम सी
अंकुरित हो जाती है 
तब सबको नज़र आती है ।
सूखे ठूँठ में 
हल्की फुहार के प्यार के बाद
कहीं कभी देखो अंकुरण..!
जान लो यही तो है आस्था का प्रकरण ।।

     
     
 

20.3.21

सपेरों का देश भारत


 तो अक्सर अजय भाई किताबें लेकर आते हैं..  पर आज मामला कुछ और था,  हमारा आपसी वादा था कि किसी दिन वह संवाद करने आएंगे। उन्होंने वादा निभाया और निश्चित समय पर आ भी गए।

विमर्श प्रारंभ हुआ फटी हुई जींस,  भारतीय संस्कृति,  और डासना मंदिर पर भी चर्चा हुई। इसी क्रम में जब अंग्रेजों ने भारत को सांप सपेरा का देश कहने के बिंदु पर चर्चा हो हुई तो बहुत मुखर होकर इस विचारक ने कहा-" यह तो भारतीय ज्ञान-विज्ञान की पराकाष्ठा है, कि एक गली-गली घूमने वाला व्यक्ति पिटारी में सांप को लेकर अपने साथ न केवल घूम रहा है बल्कि उसके साथ जीवन भी व्यतीत कर लेता है ।" 

   उन्होंने आगे कहा-" एक व्यक्ति स्टेथ स्कोप की तरह सांप को अपनी गले में लपेट कर घूमता है। उससे बड़ा परम ज्ञानी महा विज्ञानी और कौन हो सकता है..?"

     विज्ञान के इस दौर में सांप के साथ रहना सच में असंभव है। सांप सपेरों के देश में जीवों का मनोविज्ञान और उसके साथ रहने का विज्ञान का किसी और देश में असंभव है ।

    मित्रों, हम सांप के साथ रहने के लिए भी योग्य है जो बिल्कुल विपरीत प्रकृति का है। आपको यह बात अच्छी लगी तो दोस्तों में शेयर अवश्य कीजिए इस देश की परंपराओं का सतत सम्मान कीजिए।

6.3.21

मातृशक्ति दुर्गावती को नमन

महिला दिवस के पूर्व माँ दुर्गावती का स्मरण
💐💐💐💐
पग में लोहा बांध के
मस्तक  कील सजाय 
करधन बाँकैं अस्तर सबै
संग  कटार छिपाए ।।
सरमन हौदा चढ़ गई
सुत बांधे माँ पीठ ।
मरहुँ पै झुखिबो नहीं
जा गौंड वंश की रीत ।
दक्कन के राजा कहें
नहिं आवा सुल्तान ?
कहे विदूषक नाच कै
पकड़े दुर्गा नै कान ।।
तपोभूमि जाबालि की
तँह रेवा को खण्ड ।
शिव दीन्हें आसीरबचन
दीनहुँ सुराज अखंड ।।
रानी के समराज में-
सुख वैभव चहुँ ओर ।
स्वर्ण मणि धनधान्य से
हर घर कोष अछोर ।।
फाग बरेदी ढिमरयाई कौ
गांवन गांवन  शोर ।
न चोरी को भय कहूँ
खुले द्वार चहुँ ओर ।।
सुबह सुबह लमटेर से
गुंजित रेवा के तीर ।
कहुँ रेवा शांत सरल
कहुँ माँ व्यग्र अधीर ।।
रेवा की अनुरागिनी 
दुर्गा नित दें सुख दान।
ज्ञानीजन के पूजे पगा
कर ग्राम भूमि धन दान ।।
चौंसठ जोगिन धाम को दुर्गा सदा सहाय ।
भाई आधार सिंह नित सत्कर्म सुझाय ।।
बरगी के चानक्य नै
गोंडन राज बिठाए ।
बामन गोंडन के प्रेम से
दुनिया झुलसी जाय ।।
ग्यारा सदी में सूर्य सम
मदन शाह को राज ।
बावन गढ़ वनवाय कै
बने मदन महाराज ।। 

ग्राम्य कवि गावन लगे
इक थो बहादुर बाज़ ।
दुर्गा नै पर कांट कय 
छीनो मालव को राज ।।
मातु नरमदा के तीर तट
सुत संगराम दलपत भये 
गोंडवंश के बीर ।।
शेरशाह सूरी सहित मुगल में भड़कन लागी पीर ।।
खान मियाना ललचा गयो
गढ़ मंडला चढ़ धाय । 
रानी की रणनीति ने
लीन्हों बंदी बनाय ।।
सुन सखि ऐसी दुर्गावती 
देवी दुर्गा को रूप ।
चेहरा कोउ न लख सकै
कोउ कामी नर नै भूप ।।
रानी के समराज में
नहिं जात पात को भेद ।
बाम्हन कायथ गोंड सब लगें 
एक जात इक देश ।।
रानी नै होती अगर, दक्कन तलक 
होत मुगलिया राज ।
जैसे हम सब आज हैं 
वैसे होते न आज ।।
तबहुँ कहै कविराय मुकुल
दुर्गा को प्रतिपल पूजो ।
नारी-महिमा गान सम
गान नहिं कोई दूजो ।। 

4.3.21

नोआखली : सीने की आग आज भी...!

नोआखली - एक आपबीती
वीरक वशिष्ठ जी
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This post is Viral on social media. But this is very clear noakhali was not safe Hindu in 1946
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ये कथा मैं कभी साझा नहीं करना चाहता था। ऐसा नहीं कि इच्छा नहीं थी, अपितु यह कहूँ कि साहस नहीं कर पाया। इसी पटल पर कुछ अग्रजों के बहुत प्रेरित करने पर ही आज साहस कर पा रहा हूँ। 
   
जब पहली बार बंदा सिंह बहादुर की कथा पढ़ी तो उसके बाद पूरे दिन अन्य ही लोक में विचरण करता रहा गया था, न भुख लगी न नींद ही आयी थी।
कुछ यही अवस्था इस कथा को सुनकर हुई थी, जिसे एक कलकत्ता की मूलनिवासी दादी माँ ने मुझे सुनाया था, जब मैं दिल्ली से वाराणसी महामना ट्रेन से 2016 के 9 सितम्बर को वापस आ रहा था।
  
हुआ कुछ यूँ था कि एक सज्जन से सहिष्णुता पर बहस हो गयी थी, जिसमें अन्त में हम दोनों अपने अपने पक्ष को लिए ही एक दूसरे से मुँह फेर बैठ गए, क्योंकि किसीको को भी समाधान नहीं चाहिए था, बस स्वयं को सही सिद्ध कर विजय का मिथ्याभिमान पाना था। 

मेरे पक्ष को सुनकर, हम दो सहयात्रियों के बीच के उस अघोषित शीतयुद्ध के उस सन्नाटे (जिसमें ट्रेन के पहियों व पटरियों के आपसी संवाद से उत्पन्न खट-पट, खट-पट के अतिरिक्त कुछ भी न था) को भङ्ग करते हुए सामने के सीट पर लेटी दादी माँ ने मुझे इंगित करते हुए कहा-
 " बेटा! इस सहिष्णुता की परिणति की एक आपबीती कहानी सुनाती हूँ, सुनो!"
   वह दादी माँ जिनके केश अभी भी काले थे, जबकि वय कम से कम 75 वर्ष तो रही होगी, बिना मेरी इच्छा जाने ही कहना प्रारम्भ किया।

" मेरा जन्म बंगाल, अबके बांग्लादेश के नोआखली में मेघना व एक चौड़े नाले के बीच के भूभाग पर 1939 ई. के कालबैशाखी के दिन हुआ था।
    हमारा गाँव मुख्यतः वैद्य लोगों का गाँव था, जिसमें 25 घर वैद्य रहे होंगे तब। ऐसा नहीं कि केवल वैद्य ही थे, कुछ मुस्लिम, कायस्थ व नाविक भी थे। सभी मिल जुलकर रहते थे। हमारे बीच घरेलू सम्बन्ध थे, एक अटूट भाई-चारा था। फहीम नाम का व्यक्ति तो घर के सदस्य जैसा ही था, जिसे पिताजी फहीम दादा कहकर सम्बोधित करते थे।"
 दादी माँ कुछ क्षण रुकीं व मेरे कुछ पूछने से पहले ही पुनः कहना जारी रखा।

" मैं, मेरे दादा ( बड़े भाई ) दिलीप, हमारी बहन 6 माह की पाखी, माँ, पिताजी व दादी माँ, हम छः लोग मेरे परिवार में थे।
  मेरे बड़े पिताजी व बड़ी माँ की मृत्यु मेघना की बाढ़ में नदी पार करते हुए हो गयी थी। उनकी बेटी पारुल व पारुल के पति विशेष दा हमारे घर से ही जुड़े हुए अन्य घर में रहते थे। पारुल दीदी कोई भाई नहीं था।"

" बंगाल में, विशेषकर नोआखली में कालबैशाखी की पूजा बहुत धूमधाम से मनायी जाती थी, क्योंकि वर्ष के उमसभरे चिपचिपे मौसम से, कालबैशाखी के समय बहने वाली ठण्डी समुद्री हवाओं द्वारा निजात मिलती थी, कभी इसी कारण वह समय उत्सव में परिवर्तित हुआ रहा होगा। एक अन्य कारण शीघ्र ही पड़ने वाले लक्ष्मी पूजा का पर्व भी रहा है। जिसकी तैयारी इसी समय प्रारम्भ होती है। इस पर्व के समय जन्म के कारण मेरा नाम लक्ष्मी पड़ा, सभी की दुलारी थी मैं।"
    दादी बिना रुके कहती ही जा रही थीं, और मैं उनके आयु का सम्मान कर उन्हें टोकना नहीं चाहता था, परन्तु अबतक उनकी सुनाई कथा, उनके परिवार व गाँव के विवरण से ही जुड़ी प्रतीत हो रही थी, अतः मन ऊब रहा था।
 सहसा एक शब्द सुनकर मस्तिष्क ठिठका, और रुचि का अवधान हुआ।

" बात सन 1946 के 16 अगस्त की है, दो दिन पूर्व ही जिन्ना नें पाकिस्तान की माँग को लेकर डायरेक्ट एक्शन डे की चेतावनी दी थी। नोआखली का शांत परन्तु चहकते रहने वाला वातावरण, एक अजीब से सन्नाटे से भर उठा था। लोगों को विश्वास था कि गाँधी जी के रहते ऐसा कुछ नहीं होगा, और मुस्लिम तो अपने भाई बहन हैं, सदियों से साथ रहते आये थे, साथ खेले बढ़े थे, जिन्ना जैसों के भड़काने से क्या होता है?
 परन्तु आग लगी! बैशाखी की ठण्डी हवा के स्थान पर ऐसी गर्म हवा का तूफान आया, कि सब झुलस गया।

हमारे गाँव से कुछ किलोमीटर दूर एक कॉटन मिल पर 16 अगस्त की दोपहर में, नमाज के ठीक बाद बारिश के स्थान पर सहिष्णुता का परिणाम, भाईचारे का विश्वास बरसा। गुलाम सरवर नाम के कट्टर मुल्ले (जो कि जिन्ना के खास आदमी सुहरावर्दी का पिट्ठू था) के नेतृत्व में जिहादियों के समूह ने कॉटन मिल पर घात लगाया, मुस्लिम कामगारों को एक ओर करके हिन्दू पुरुषों व महिलाओं को अलग अलग कर दिया गया। अबोध, नवजात बच्चों को छीनकर जिहादियों ने ले लिया।
    तब गुलाम सरवर सामने आया, उसने कॉटन मिल के मुस्लिम कामगारों से कहा-
" बिरदराने इस्लाम! अब वक़्त आ गया है, जब हम अपने पैगम्बर के दारुल- इस्लाम के सपने को पूरा करें, अपना खुदका मुल्क़, पाक मुल्क़ पाकिस्तान हासिल करें।
 पर ये यूँ ही नहीं होगा, ये होगा जिहाद की तलवार को हाथ में लेकर, अल्लाह के नाम पर जिहाद करके।
  हमारे मार्गदर्शक जिन्ना साहब ने डायरेक्ट एक्शन डे का आह्वान किया है। जो हमारे साथ हो, अल्लाह का नाम लेकर इन काफिरों के रक्त से पाक मुल्क़ की नींव रखने में साथ आये, इनकी औरतें हमारी माले गनीमत हैं, और ये सपोले आने वाले खतरे। तो बिरदराने इस्लाम! आप जानते हैं न कि क्या करना है?"
   दूसरी ओर से उठे अल्लाहू अकबर के नारे से हिन्दू कामगार काँप उठे, जिन्हें इतने वर्षों से अपना भाई, अपना साथी मानते आए थे, उनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, एक भी मुस्लिम ऐसा नहीं था, जिसके हाथ मे इस्लाम की तलवार न हो।"

"इसके बाद जो प्रारंभ हुआ, उससे मानवता सदा के लिए घायल हो गयी।
    उन पिशाचों ने नवजात बच्चों को, अबोध बालकों को हवा में उछाल दिया। जब उनके शरीर नीचे आये तो तलवारों से बिंधे हुए, कोई बीच से कटकर तड़पते हुए छटपटा रहे थे, तो कुछ तलवारों पर तड़प रहे थे।
  उन अबोध बच्चों की माएँ चीख मारकर बेहोश हो गयीं।
     उधर 4 वर्ष, 6 वर्ष, 7 वर्ष की बच्चियों को वे वहशी, गुलाम सरवर के साथ आये इस्लाम के झंडाबरदारों ने नोचना आरम्भ किया तो दूसरी ओर मुस्लिम कामगारों नें उन हिन्दू कामगार महिलाओं को निःवस्त्र करना प्रारंभ कर दिया, बेसुध पड़ी उन माँओं को भी नहीं छोड़ा उन्होंने। जो हिन्दू पुरुष बचाने आगे आये, वहीं काट दिए गए।

घण्टे भर भी नहीं बीते होंगे, 100 से अधिक हिन्दू महिला पुरुष, 20 से अधिक अबोध बालक बालिका वीभत्स मृत्यु के ग्रास बने।
   
कोई स्त्री नहीं थी जो निःवस्त्र न हो, जिसके स्तन अक्षत हों, जिसका कमसेकम 20 पिशाचों ने बलात्कार न किया हो। कोई अबोध बालिका न थी जिसने जीवित ही, बलात्कार के मध्य ही प्राण न त्यागे दिए हों, कोई अबोध बालक न था, जिसका शरीर कम से कम दो खण्डों में बंटा न हो।
  
उन्होंने जीवित छोड़ा तो एक ही व्यक्ति को, एक वैद्य को, उसके हाथ काटकर। ये कहकर कि वो आगे के गाँव वालों से जाकर बताए कि वो नोआखली छोड़कर चले जायें, नहीं तो इस मिल से भी बुरा हाल होगा उनका। वो वैद्य थे मेरे पिताजी!"
    
इतना कहते कहते दादी का गला रुद्ध हो गया , आँखों से आँसू पूरे आवेग में बह रहे थे, और मैं अवाक! सुन्न! अबूझ सी अवस्था में विचारहीन हो गया था।
  
दादी ने एक ग्लास में पानी लेकर गला साफ किया। मुझे इतना भी साहस न हो रहा था कि कुछ कह सकूँ। एक ही प्रश्न! क्या ये सत्य है? क्या ये सत्य हो सकता है कि कोई मनुष्य ऐसे स्तर तक जा सकता है? क्योंकि तबतक मेरी दृष्टि में मनुष्य की तरह भासता हर जीव मनुष्य ही था।
  
5 मिनट के नीरव सन्नाटे के बाद, जिसमे मुझे यह तक अभास नहीं था कि ट्रेन द्रुतगति से दौड़ रही है, दादी ने पुनः कहना प्रारम्भ किया।

दादी ने स्वयं को संयत कर आगे कहना आरम्भ रखा, क्योंकि मैं कुछ भी पूछने की अवस्था में था ही नहीं, और दादी को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि दीर्घ काल से हृदय में अटका कोई शूल बाहर निकाल कर तोष पाना चाहती हैं।

" मैं और मेरे दादा (बड़े भाई) घर के आगे खेल रहे थे, और मेरी माँ जो कि सुबह से ही पिताजी की बात जोह रहीं थीं, चावल को साफ करते हुए बीच-बीच में घर के मार्ग की ओर देख लेती थीं।
  
घर एक कम ऊंचाई के चहारदीवारी से घिरा था, जिससे कि बरामदे में बैठे ही घर की ओर आने वाला मार्ग कुछ दूर तक स्पष्ट दिखता था।
 
दादी माँ बरामदे में आरामकुर्सी पर सहजता से लेटी हुई थीं, कि तभी उनकी दृष्टि मार्ग पर पड़ी, उधर माँ के मुख से घुटी घुटी सी चीख निकल गयी, वह आगे न कुछ बोल सकीं न ही तत्काल ही उठने का उपक्रम कर सकीं। दादी तो उठते हुए वहीं गिरकर बेसुध हो गयीं।

मेरे दादा आयु व ऊँचाई में बड़े होने के कारण देख पाए कि बाहर क्या हो रहा है। वह बीच में ही खेल छोड़कर विक्षिप्त से भागे बाहर गए, जब अंदर आये तो पिताजी साथ में थे।
  
परन्तु यह वो पिताजी नहीं थे, जो प्रातः दवा वितरण के लिए गए थे, ये तो खून से लथपथ, मुख पर एक भय का सा भाव लिए, आँखें शून्य को तकती हुई, जीवन का कोई चिन्ह नहीं था मेरे पिताजी के आँखों में। और....और उनके वे हाथ, जिनसे वो मुझे हवा में उछालते थे, जिन्हें पकड़कर मैंने चलना सीखा था, जिनसे वो मुझे उठाकर अपने कांधों पर रखकर घोड़ा-घोड़ा खेलते थे, अब वो हाथ अपने स्थान पर न थे....वो हाथ...वो हाथ एक माला की भाँति उनके ही गले में लटके थे..."
   
दादी का गला पुनः भर आया, आँखों से निर्झर बह उठे, आँखों मे वह पीड़ा पुनः जीवित हो उठी, जैसे अभी वह दृश्य आंखों के सम्मुख ही हो।
  
कुछ घड़ी व्यतीत हुआ होगा, जब दादी ने पुनः कहना आरम्भ किया, और मैं तो आवक ही था, क्योंकि इतनी वीभत्सता तो मेरे भी संज्ञान में न थी।

"पिताजी का मुख अत्यधिक रक्तस्राव के कारण पीला पड़ गया था, वह घर के चहारदीवारी के अंदर आते ही बेसुध हो गिर पड़े, जैसे घर पहुँचने तक ही साहस बचा रहा हो, दादा पिताजी को सम्भाल नहीं पाए, थे ही कितने वर्ष के? मुझसे 3 वर्ष बड़े ही न!
   
माँ जो अबतक मूर्तिवत हुई पड़ी थीं, अब सहसा अपने साथी को गिरता देख दौड़ पड़ीं और उन्हें अंक में ले वहीं बैठ गईं।

उस दिन ही तो माँ के विवाह की चौदहवीं वर्षगांठ थी, और उसी दिन अपने रक्त से लथपथ बेसुध पति को अपने अंक में लेकर भूमि पर बैठी होश में लाने का प्रयत्न कर रहीं थीं, जिस दिवस उनकी मांग के सिन्दूर को अक्षत होने का आशीष चाहिए था, उसी दिन उनके वैवाहिक दीप की ज्वाला बुझती प्रतीत हो रही थी।वह तो चावल साफ कर रहीं थी कि खीर बनाएंगी, सज के शृंगार करके पिताजी की ही बाट जोहती बैठी थीं, कि वज्रपात हो गया।

वो रोते हुए ही पिताजी को होश में लाने का भरसक प्रयत्न कर रही थीं। इतने में पारुल दीदी के पति भी भागे आये, उन्होंने नदी के किनारे से दूर से ही देख लिया था। शेष गाँव के महिला व पुरुष भी पीछे से भागते हुए आये।

विशेष दा भागे गए व दवा, पट्टी, चोट के रक्तस्राव को बंद करने के लिए घाव पर टाँके चलाने के लिए चिकित्सकीय सुई धागे ले आये। तबतक गाँव वालों ने पिताजी को बरामदे में चौकी पर लेटाया, उनके घावों को कपड़े से दबा कर रखा कि रक्तस्राव पर कुछ नियंत्रण हो, परन्तु निरर्थक!

टाँके लगाने, पट्टी करने के बाद भी रक्तस्राव रुक नहीं रहा था,  गति अवश्य धीमी हो गयी थी। वहाँ उपस्थित जन पिताजी को शीघ्र से शीघ्र कलकत्ता ले चलने की बातें कर रहे थे, परन्तु कैसे? यह समझ नहीं पा रहे थे। सबसे छोटा मार्ग मेघना को पार करते हुए उसपार से जाना था, जो कि उस वर्षा ऋतु में दुष्कर कार्य था। परन्तु शेष कोई उपाय भी न था। लोग नाविकों के छोटी नावों के विषय मे बात कर ही रहे थे कि मूसलाधार वर्षा तेज हवा के साथ प्रारम्भ हो गयी, ऐसे आभास हुआ कि सभी आशाएँ इसी के साथ धुलती जा रही हैं, बहती जा रही हैं, और बहकर मेघना के भँवर में फँसकर सदा के लिए लुप्त होती जा रही हैं।
   
इतने में एक नाविक दादा, जिनका नाम रमेश था, वह भागते हुए आये, और बिना कुछ कहे वहाँ के अवस्था को देख तत्काल अपनी डोंगी पर पिताजी को उस पार ले जाने को तैयार हो गये। उन्होंने ही यह भी बताया कि एक व्यक्ति भी भागता हुआ आया था कुछ देर पहले, उसने कई गुना मूल्य चुकाकर उनसे उस पार उतारने को कहा था, बीच नदी में जब डोंगी पहुंची तो उसी व्यक्ति ने पिताजी के साथ घटी दुर्घटना के विषय रमेश दादा को बताया , यह भी कि वहाँ क्या हुआ था? और यह भी कि गुलाम सरवर नें क्या कहा है! 
    
यह पूछने पर कि वह कौन है और कहाँ से वहाँ पहुँचा था व कैसे वह बच गया? उसने यही कहा कि वह कलकत्ता का व्यापारी है, जो थोक व्यापार करने के उद्देश्य से मिल में आया था, उसने कपड़ों के ढेर में छिपकर अपने प्राणों की रक्षा की थी। वह यही कह रहा था कि सभी गाँव वालों को तत्काल गाँव छोड़कर कलकत्ता के लिए प्रस्थान कर देना चाहिए, क्योंकि गुलाम सरवर आएगा अवश्य! और प्रत्येक गाँव के सभी मुस्लिम उसके साथ हैं। जितना शीघ्र हो सके यहाँ से भाग चलें!"

" परन्तु वहाँ उपस्थित सभी ने एकस्वर में कहा कि वे गाँव छोड़कर नहीं जायेंगे, अपितु वो डटकर सामना करेंगे। पर कैसे? यह किसीको ज्ञात नहीं था।सब्जी व मछली काटने के छोटे चाकुओं के अतिरिक्त था क्या वहाँ?
     
वहाँ उपस्थित मुस्लिम व्यक्तियों ने, जो पीढ़ियों से साथ रह रहे थे , उन्होंने भरोसा दिलाया कि वे कभी भी गुलाम सरवर के ओर से नहीं जायेंगे, वो सभी को बचाएंगे। फहीम चाचा ने  जोर देकर कहा कि कहीं जाने की आवश्यकता नहीं। गुलाम सरवर उनका परिचित है, और वह उसे समझा लेंगे। उन्होंने जोर देकर कहा कि केवल कुछ उन्मादियों के कारण सभी मुस्लिमों को गलत नहीं कहा जा सकता।
  
वहाँ उपस्थित सभी लोग फहीम चाचा से सहमत होते दिखे, सभी ने एक स्वर में कहा कि फहीम सही कह रहा है। पीढियों से एक साथ रहते रहे हैं हम, एक दूजे के सुख दुख में समान सहभागी रहे हैं हम। कोई गाँव छोड़कर नहीं जाएगा।
    
आज समझ आता है कि उस सहिष्णुता की, भाईचारे की बात के स्थान पर यदि आत्मरक्षा के लिए पलायन ही कर गए होते तो सभी जीवित होते। वैद्यों का वह गाँव बंगाल के नक्शे से लुप्त न होता, जिसका आज किसीको नाम तक ज्ञात नहीं है।
   
इस सारे वार्तालाप के साथ-साथ पिताजी को लेकर लोग नदी के किनारे पहुँच गए थे। पिताजी को जिस खाट पर लिटाया गया था, उसके ऊपर छाते लगाकर उन्हें भीगने से बचाने का हर सम्भव प्रयत्न किया जा रहा था, परन्तु उस तेज हवा व बारिश के झोंकों के सम्मुख सब पस्त।
 माँ, भैया, मैं, विशेष दा, पारुल दी, सब पीछे पीछे आ रहे थे। पाखी को बिलखती हुई दादी के पास माँ छोड़ आयी थीं। 
  
रमेश दादा ने डोंगी पर पिताजी को लिटाया, तबतक फहीम चाचा सबसे आगे बढ़कर डोंगी पर चढ़ गए यह कहते हुए कि वह और रमेश दा उस तेज हवा व बारिश में नाव को एकसाथ संभाल के उस पार पहुँचा सकते हैं। डोंगी छोटी होने व पिताजी को लेटाकर रखने के कारण उस चार व्यक्तियों की क्षमता वाली डोंगी में अन्य किसी के लिए स्थान नहीं बचा था। अतः यह निश्चित हुआ कि शेष लोग पीछे पीछे अन्य लोग दूसरी अन्य डोंगीयों से साथ हो लेंगे, तबतक पिताजी को उस पार भेजा जाए।"

कुछ रुककर, जैसे कुछ सोचते हुए दादी ने पुनः कहना आरम्भ किया-
" बारिश की बूंदों के लगातार मुख पर पड़ने के कारण पिताजी की चेतना कुछ वापस आयी, तो उन्होंने माँ को पास बुलाकर बस इतना ही कहा -" भाग जाओ यहाँ से, सब भाग जाओ, वे आते ही होंगे", और पुनः चेतनाशून्य हो गए।
 
इसी के साथ डोंगी ने नदी में प्रवेश किया। माँ पिताजी को देखे ही जा रही थी। किसीको न पता था कि बस....वे अंतिम पल हैं , जब वह मुख अंतिम बार दिखेगा।

"मूसलाधार वर्षा कारण बनी या कुछ और, ये समझ न आया, परन्तु मझधार में ज्यों ही नौका पहुँची वहाँ उपस्थित लोगों के मुँह से चीख निकल गयी।"

इतना कहकर दादी पुनः रुक गयीं, क्योंकि उनका गला भर आया था। कुछ समय में संयत होकर उन्होंने पुनः बताना प्रारम्भ किया।

" अचानक वह छोटी नाव(डोंगी) फहीम चाचा की ओर से झुकी और पिताजी एक झटके में उफनाती मेघना में जा गिरे।
 नाविक चाचा पीछे पीछे कूदे, और ज्ञात नहीं कि फहीम चाचा को क्या सुझा, वह कुछ देर बाद ही पानी में कूदे। उसी समय वर्षा इतनी तीव्र हुई कि कुछ दूर की चीजें भी सूझना बन्द हो गयीं। जब मूसलाधार वर्षा की वह धुँध छटी तो नदी किनारे केवल फहीम चाचा थे, नाविक चाचा व पिताजी का कोई चिन्ह नहीं दिखा।"
  दादी पुनः अपने रुंध आये गले को साफ करने के लिए रुकीं, और पुनः संयत हो कहना जारी रखा।

"फहीम चाचा ने बाहर आकर बताया कि मझधार में उफनती मेघना ने पिताजी व नाविक चाचा को लील लिया। जैसे कि कोई नरभक्षी हो, जिसे मानव शरीर की भूख हो।
 मेघना वैसे भी प्रत्येक वर्ष अनेक बालकों को लील जाती है, जो अबोध वहाँ खेल खेल में गहरे जल में या नदी के तीखे ढाल  के चँगुल में फँस जाते हैं।"

 माँ, जो कि अत्यन्त भावुक रही थी उससे पहले के वर्षों में, अचानक से काठ मार गया उन्हें, आँखें सुनी, चेहरा निस्तेज परन्तु अश्रु की एक बूँद नहीं।

  गाँव वाले माँ को और हम रोते बिलखते भाई बहनों को लेकर घर आये, और आया उसी के साथ वह पिशाच और उसकी वो नरपिशाचों की सेना, जिन्हें हर काफ़िर औरत माले-गनीमत लगती थी और हर काफ़िर पुरुष व बच्चा जन्नत के मार्ग का रोड़ा।"
  दादी की आँखों में यह बताते हुए उस समय भी भय का एक घृणा मिश्रित भाव था, और थे झर झर झरते अश्रु।
  दादी ने आगे कहना जारी रखा, और अश्रुओं ने एक कहानी कहना ।
" सैकड़ों जिहादियों के साथ गुलाम सरवर आ धमका, और प्रारम्भ हुआ एक नंगा नाच।
   नदी किनारे से वापस लौटे दुःखी निहत्थे लोगों पर हाथों में तलवार, कटार, भाले लिए वे पिशाच टूट पड़े।
  माँ, जो कि अब तक काठवत बनी हुई थी, अचानक से अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए चिंतित हो गयी। जिसे अभी कुछ क्षणों पहले वैधव्य ने आ घेरा था, वह अब अपने बच्चों की सुरक्षा में जुट गई थी।
 माँ ने मुझे व दादा को अनाज रखने के कोटर में छिपा कर उसके ऊपर से कपड़े रख दिये। पाखी को जब वो हमें देने लगी तो पाखी रोने लगी, उसके रोने से कोई हमारे स्थान को ढूंढ न ले इसलिए पाखी को माँ ने स्वयं ही ले लिया। माँ ने भाई को सौगंध दी कि कुछ भी हो, न वो बाहर आये न मुझे आने दे।

  अब समझ आता है कि उसकी दो संतानें सुरक्षित रहें इसलिए एक बच्चे का मोह त्यागना ही उसे उचित लगा होगा।

सहसा कमरे के दरवाजे के झटके से खुलने की आवाज ने हम दोनों भाई बहन को भयभीत कर दिया।
 माँ को कहते हुए हमने सुना " फहीम भाई! ये क्या है? तुम और गुलाम सरवर के साथ। तुमने तो अपने दादा से, पाखी के पिताजी से सदैव हमारी रक्षा का वचन दिया था न! तुम इस सरवर के साथ क्यों हो?"

इसके पश्चात हमने जानी पहचानी आवाज सुनी, जो कि गुलाम सरवर को इंगित करके बात कर रही थी।
" सरवर भाई! इस साली पर मेरी दृष्टि वर्षों से है, परन्तु क्या करूँ, इस काफ़िर वैद्यों के गाँव में हम ईमानवालों का क्या वश चलता।
 रोज इसके घर आता था कि इसे देख सकूँ, इसे पाने के बहुत सपने देखे हैं , पर एक वश न चला।"
फहीम के मुँह से ये शब्द सुनकर हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये वही फहीम हैं। आगे उसने पुनः कहा-

"  और सुन तू! तुझपे मेरी नजर उसी दिन से है, जिस दिन तू उस काफ़िर से ब्याह के आयी। तेरे पति से इसीलिए तो साठ-गाँठ की, कि किसी दिन मौका पाकर तुझे भोग सकूँ, पर साला नसीब, मौका ही नहीं मिला। और तू क्या सोचती है, तेरा वो अधमरा पति नदी में अपने से गिर गया? मैंने ही नाव को ऐसे चलाया कि वह झटके से नदी में गिर पड़े। मर गया साला, मेरे रास्ते का काँटा। अब तो तुझे भी भोगूँगा, और तेरी वो लौंडिया है न! उसे रखैल बनाकर रखूँगा। कहाँ है तेरी हमशक्ल वो लौंडिया, बता!"

" सुनो फहीम! तुम्हें जो करना है करो! पर मेरे बच्चों को छोड़ दो।"
" करूँगा तो अपने मन का ही। इसीलिए तो गुलाम भाई को बुलाया है यहाँ। क्यों गुलाम भाई?"

" हाँ बिरादर! इन काफिरों के लिए तो कहा ही गया है कि जैसे पाओ, वैसे ही कत्ल करो! इनकी बीवियों, बच्चों को बलात अपने संग ले जाओ। ये तो माले गनीमत हैं। तुम्हें जो करना है करो फहीम भाई! मेरे आदमी तुम्हारे साथ रहेंगे। मैं थोड़ा बगल वाले घर के उस लौंडिया से मिल आऊँ, वो जिसके पति और उसे मेरे आदमियों ने पकड़ के रखा हुआ है।"

" अरे! वो पारुल और उसका पति है गुलाम भाई! वो भी लौंडिया मस्त है। जाओ जाओ।"

" हाँ बिरादर फहीम! तुम भी अपनी प्यास बुझाओ! मैं भी आता हूँ"

"सुन! अपनी इस छोटी लौंडिया को बगल रख। जैसा कहता हूँ कर, तो आज के लिए तेरी जान बक्श दूँगा। जब तक मेरा कहा मानेगी, तबतक तेरी और तेरे बच्चों की जान बची रहेगी। और भाग के जाएगी कहाँ? मेरे आदमी इस गाँव को घेरे रहेंगे और दूसरी तरफ तेरे पति को लीलने वाली मेघना उफनाई हुई है ही, कौन बचाएगा तुम्हें? जो कहता हूँ कर!"

तभी दूर से पारुल दीदी के चीखने की आवाज नें मुझे डरा दिया। दादा ने मुँह पे हाथ रखकर मुझे चुप कराये रखा। इधर हमारी घर से घुटी घुटी चीखें सुनाई दे रही थीं, उधर पारुल दीदी की दर्द और भय से उठती चीखें मेरे आंखों के सामने छाते अंधकार को और घना करती जा रही थीं। पारुल दीदी की चीखों से ऐसा लगता था जैसे कई भूखे भेड़िये किसीको नोच रहे हों। तभी कुछ मिनटों बाद फहीम की आवाज पुनः सुनाई दी।

"  आज तो दिल खुश कर दिया तूने! जा! आज तेरी और तेरे बच्चों की जान बक्श दी। कल फिर आऊँगा। दे अपनी ये लौंडिया दे। ये अमानत रहेगी तेरी। जबतक ये मेरे पास है, तू जाएगी कहाँ?"

" नहीं फहीम! मेरी बेटी को मत ले जाओ! हाथ जोड़ती हूँ! ये मेरे बिना नहीं रह पाएगी। तुमने जो कहा मैंने किया।"

" नहीं रे! कल आऊँ तो तू जिंदा रहे और भागे भी न, इसलिए इसे मेरे पास रहना जरूरी है। दे इसे!"
 माँ के प्रतिरोध की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी।

 दरवाजे के झटके से खुलने की आवाज आई। उसके बाद कमरे में बस सन्नाटा था। कुछ समय बाद माँ ने हमें कोटर से बाहर निकाला। उसके कपड़े फटे हुए थे। वह अस्तव्यस्त सी, सुनी आँखों से हमें देख रही थी। आँखों से ऐसे अश्रु बह रहे थे, जैसे किसी चट्टान से पानी रिस रहा हो। माँ ने अपने बच्चों को बचाने के लिए, अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया था।

" माँ! पाखी कहाँ है?" दादा ने चिंतित होते हुए माँ से पूछा,
और माँ ने बस उन्हें सीने से लगा लिया।

 कुछ पलों बाद माँ को जैसे कुछ भान हुआ तो वो हमें लेकर पारुल दीदी के घर की ओर भागीं। घर के बरामदे में दादी माँ की शीश कटी देह पड़ी थी। भाई वहीं दादी से लिपटकर रोने लगे।मैं माँ से लिपटी ठिठक गयी, क्योंकि माँ वहीं ठिठक गयीं, परन्तु मुख वैसे ही भाव विहीन, कुछ घण्टों में मिले दारुण दुःख नें उन्हें बदल के रख दिया था। वहाँ से उठकर जब हम आगे आँगन में पहुँचे तो वहाँ का दृश्य देखकर दादा वहीं गिर पड़े, उनके सहन की क्षमता साथ छोड़ चुकी थी। वो भूमि पर पड़े मांस के लोथड़े की ओर दिखाकर उल्टी करने लगे। मैं भी माँ से लिपट गयी।"
 ये बताते हुए दादी थर-थर, थर-थर काँप रहीं थीं। जैसे अभी भी सब आँखों के सामने ही हो।

" वहाँ का दृश्य ऐसा था कि देखकर क्रूरता भी लजा जाए। पूरे आँगन में रक्त ही रक्त था। आँगन के खंभे से विशेष दा नग्न बंधे थे, उनके शिश्न को काटकर फेंक दिया गया था। उनके गले व शरीर पर कई गहरे तलवार के घाव थे। जिनसे अब रक्त नें बहना बंद कर दिया था। रक्त बचा ही कहाँ था अब? और वह भी अब कहाँ शेष थे?
 
और.... और पारुल दीदी  उनके सामने ही भूमि पर रक्त से सनी हुई मृत पड़ी थीं। उनके हाथ उनके पीछे की ओर बंधे थे।देह पूर्णतः निर्वस्त्र। उनके स्तनों को जैसे दाँतों से नोच दिया गया था। उनकी देह ऐसे दिख रही थी, जैसे कई भूखे भेड़ियों ने एक साथ नोच नोच के अपनी रक्त की प्यास बुझाई हो। उबकाई और भय से मैं वहीं बेसुध हो गयी।

 ज्ञात नहीं कितने समय बाद जब चेतना लौटी तो मैंने अपने आपको और दादा को एक डोंगी में पाया। जिसे रमेश चाचा के भाई सोमेश चाचा खे रहे थे। उनके शरीर पर कई गहरे घाव थे। जिसपर बंधी कपड़े की पट्टियों से अब भी रक्त रिस रहा था। 
    
दादा ने रोते रोते मुझे बताया कि गुलाम और फहीम के चले जाने के पश्चात सोमेश दादा चुपके से घर के पिछले दरवाजे से आये और माँ से वहाँ से भाग चलने को कहा, उन्होंने नदी पार करा देने की बात कही।
  
माँ नें स्वयं आने से मना कर दिया, परन्तु दादा को सौगंध देकर, समझा बुझाकर मुझे और दादा को सोमेश चाचा के  साथ भेज दिया। चारों ओर रात्रि का अँधियारा छाया हुआ था। हम कहाँ जा रहे थे, कुछ समझ नहीं आ रहा था। अँधियारा...जो न जाने कब छँटेगा? "
  
इसके पश्चात दादी की हिचकियाँ उनके नियंत्रण में न रहीं, इस करुण कथा को सुनाने के साथ ही उनके धैर्य का बन्धा टूट गया। केवल उनके फूट फूट के रोने की आवाज ही उस ट्रेन के डिब्बे में सुनाई दे रही थी और मेरे साथ वहाँ बैठे लोग केवल उन्हें एकटक देखे जा रहे थे। मुझे अबतक ये भान ही नहीं था कि ट्रेन के उस डिब्बे में हमारे अतिरिक्त भी कई लोग थे, जो कि यह कथा सुन रहे थे। कुछ औरतें ऐसी थीं, जो सुबक रहीं थीं।
  
इस सिसकियों से भरे सन्नाटे को तोड़ा उस व्यक्ति की आवाज नें, जिनसे इस कथानक के प्रारम्भ में मैं तर्क कर रहा था। वो थे उन दादी के बड़े भाई दिलीप दादा! उन्हीने आँसुओं से भरी आँखों को लिए भर्राई आवाज में कहना प्रारम्भ किया

"जब मेरी बहन बेसुध हो गयी थी  और  सोमेश चाचा ने वहाँ से चलने के लिए कहा तो माँ ने मुझे ढाँढस बंधाते हुए कहा था कि वो पाखी को लेकर आयेंगी। उन्होंने सोमेश चाचा को निर्देश दिए कि नदी पार के ब्राह्मणों के गाँव में पिताजी के एक परिचित के साथ हम दोनों को कलकत्ता पहुंचवाने की व्यवस्था कर दें। वहाँ हमारे पिताजी की बहन रहती थीं। 
   
सोमेश चाचा, जिनके परिवार का भी वही हाल हुआ था, जो कि पारुल दीदी और विशेष दा का। उनकी 6 माह की बेटी को उन पिशाचों ने भूमि पर पटक पटक के मार दिया था सोमेश चाचा की आँखों के सामने ही। उनके पत्नी और 7 वर्ष की बेटी को बीसो नरपशुओं नें नोच नोच कर मृत्यु मुख में फेंक दिया था। उनके 8 वर्ष के बेटे को कमर के पास से दो खण्डों में काट दिया था उन पामरों नें। सोमेश चाचा ने नदी में कूदकर अपनी रक्षा की।
   
परन्तु इतने विकट कष्ट भोगने के पश्चात भी उन्होंने अनेक अनाथों को मेघना के पार पहुँचाया था, जो कि किसी भाँति बच गए थे, उनमें एक हम भी थे।
   
हमें भी पिताजी के मित्र के पास पहुँचाकर वह पुनः हमारे गाँव में बचे किसी अन्य असहाय को बचाने वापस चले गए। वह एक अपराधबोध से भरे थे, कि अपने परिवार को अपनी आँखों के सामने मरते, कष्ट भोगते देख कर भी उन्हें बचा न सके।
 
उन्हें हमने पुनः कभी नहीं देखा, और न ही देखा कभी अपनी माँ को, न ही देखा कभी अपनी बहन पाखी को।"
    
दिलीप जी अपने भर आये गले को संयत करने का प्रयास करते हुए भर्राई आवाज में कह रहे थे- "वर्षों बाद ज्ञात हुआ कि अगले दिन गुलाम सरवर के आदमियों नें हमारे गाँव को जला दिया।
 
और इस प्रकार हमारे गाँव का अस्तित्व राख में बदलकर मेघना में बह गया। और उसी के साथ हमारी आस भी जल गई, आस अपने माँ और पाखी से मिलने की।"
इतना कहकर दिलीप जी भी सिसकने लगे।
इसी के साथ उस डिब्बे में सिसकियाँ सिसकियों का साथ दे रहीं थीं। अनेक अन्य औरतें जो उस डिब्बे में ये कथा सुन रही थीं, उनकी हिचकियों से डिब्बे के वातावरण में दुःख का बोझ से बन रहा था, जिससे हम सब दबे जा रहे थे। और...और मेरी आँखों के अश्रुओं के साथ ही बहुत कुछ बहता जा रहा था। मेरी सहिष्णुता, मेरी सेकुलरता, मेरा वह विश्वास कि दोषी मनुष्य होता है, कोई पंथ या मजहब नहीं।

आप सही समझ रहे हैं! उस तर्क में वह व्यक्ति मैं ही था, जिसके मस्तिष्क में सेक्युलेरिज्म का प्रेत पैठा हुआ था, और वह दिलीप जी थे , जो मुझे वामपंथ-जनित छद्म सहिष्णुता का वास्तविक रूप बताना चाह रहे थे।
  
मुझे आजभी स्मरण नहीं कि कभी रेलगाड़ी की यात्रा में मैं इतना शांत, इतना विचारों के झंझावातों में फंसा कभी इतना चुपचाप रहा होऊँ, जितना उस कथानक के सुनने के बाद शेष यात्रा के घण्टों में रहा।
    
दादी और दिलीप जी से पूरे यात्रा में अन्य बातें भी हुयीं, कि कैसे उनके पिताजी के मित्र के पलायन करते गाँव के लोगों के साथ वे सब कलकत्ता आये, कैसे नोआखली में मानव इतिहास में अबतक का सबसे बड़ा क्रूरता का नंगा नाच हुआ? क्या था गाँधी बाबा का दोष इस घटना में? सब। यह सब फिर कभी।

अभी इतना ही कि, जब वाराणसी स्टेशन पर मैं उतरा तो मैने   मैकाले-शिक्षा व लहरु के षड़यंत्र जनित सहिष्णुता व सेक्युलेरिस्म का बोझा वहीं ट्रेन में ही छोड़ दिया।

(इस कथानक को जितना मैंने दादी और दिलीप जी से सुना, उसे छोटे से छोटा करके बताने का प्रयास किया है। वह भी इस पटल के कुछ प्रियजनों के कई बार प्रेरित करने पर। उस वीभत्सता को जितना कम से कम वीभत्स करके कह सकता था, कहा। जो बताया, वह इसलिए कि ज्ञात हो कि आजभी ये विश्व जिनसे त्रस्त है , वह सदैव से ऐसे ही क्रूर हैं, ऐसे ही पशु हैं, बर्बर, बलात्कारी, फहीम की तरह छल करने वाले।
 
अतः सावधान!
   
आप पर है, साझा करें या स्वयं तक रखें।परन्तु सज्ज रहें! वह संकट आजभी वैसा ही है। देर है तो उनके इस देश के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभाव प्राप्त करने की।   
सर्वत्र शरिया होगा, सर्वत्र आयतों की कर्कश ध्वनि होगी और सर्वत्र दिखेगा नोआखली! )

21.2.21

मां यह चादर वापस ले ले...!


माँ खादी की चादर ले ले
माँ, कभी स्कूल में टीचर जी ने मुझे सिखाई थी मां खादी की चादर दे दे मैं गांधी बन जाऊंगा।
उन दिनों यह कविता मुझे एक गणतंत्र दिवस कार्यक्रम में सुनानी थी। शायद मैं  चौथी अथवा पांचवी क्लास में पढ़ता था कुछ अच्छे से याद नहीं है। बहुत दिनों बाद पता चला कि मुझे गांधी एक सीमा के बाद गांधी नहीं बनना है। गांधी जी के शरीर में एक पवित्र आत्मा का निवास था यह कौन नहीं जानता। बहुत दिनों तक खादी और चादर में उलझा रहा। चरखा तकली हाफ खाकी पेंट  वाली सफेद बुशर्ट गांधी बहुत दिन तक दिमाग पर इसी तरह हावी थे अभी भी हैं।
     गांधी बनने के बाद बहुत दिनों तक मूर्ख बुद्धू बनकर शोषित होते रहना जिंदगी की गोया नियति बन गई हो।
  जलियांवाला बाग सुभाष चंद्र बोस सरदार भगत सिंह चंद्रशेखर आजाद यह सब तो बहुत बाद में मिले। उम्र की आधी शताब्दी बीत जाने के बाद उम्र के आखिरी पड़ाव में आकर यह सब मिल पाए हैं।
     अहिंसा परम धर्म है इसे अस्वीकृत नहीं करता कोई भी। सभी इसे परम धर्म की प्रतिष्ठा देते हैं और जिंदगी भर देते रहेंगे यह सनातनी परंपरा है ।
    परंतु हर दुर्योधनों को याद रखना पड़ेगा कि -" पार्थ सारथी कृष्ण यदि अंतिम समझौता अर्थात कुल 5 गांव के आधार पर युद्ध रोकने का अनुरोध करें और दुर्योधनों के साथ सहमति ना बन सके तो युद्ध अवश्य ही होगा।"
    याद रख दुर्योधन षड्यंत्र से मुझे फर्क नहीं पड़ेगा मैं जो अर्जुन हूं अरिंजय कृष्ण का साथ मिलते ही कुरुक्षेत्र अवश्य जाऊंगा।
   सुधि पाठकों, समझ गए ना कि क्या कह रहा हूं। अब गांधी के अलावा बाकी सब से मिल चुका हूं। सब ने सब कुछ समझा दिया है सत्य असत्य सत्य के साथ प्रयोग भी समझ चुका हूं।
     इंद्रजीत नेमिनाथ ने कृष्ण को अवश्य समझाया होगा अहिंसा का अमृत रस हमारी संस्कृति में नेमिनाथ जी के पूर्व से भी राजा मांधाता ने स्थापित कर दी थी। संपूर्ण 24 तीर्थंकर यही तो समझाते रहे हैं। हमने कभी नहीं सोचा की सत्ता का रास्ता बंदूक की नली से जाता है हम तो सत्ता का रास्ता वसुधैव कुटुंबकम की स्थापना के लिए अश्मित के जरिए तलाशते रहे। बुद्ध ने भी यही तो किया था। बोधिसत्व बनो और बुद्ध तक की जैसे की यात्रा करो रोज जन्मो रोज मारो हर नए जन्म में नया चिंतन लेकर आओ अंततः बुद्ध बन जाओ। युद्ध नहीं करना है मत करो। पर युद्ध ना करने से अगर लाखों भारतीय मारे जाते हैं तो युद्ध ना करना हिंसा ही है। तुम विश्व को समाप्त करने के लिए विषाणु भेजते हो हम दुनिया को बचाने के लिए टीके भेज रहे हैं कभी सोचा है तुम अपनी मूल प्रवृत्ति के इर्द-गिर्द हो।
  तुम बाएं बाजू चलते रहो मैं दाएं बाजू चलता रहूंगा। तुम चिड़िया चूहे गिलहरी खरगोश मारते रहो हम चिडियों से चीटियों तक चुग्गा चुगाते रहेंगे ।
     आओ ना तुम भी दाएं बाजू आ जाओ । 


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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...