4.3.21

नोआखली : सीने की आग आज भी...!

नोआखली - एक आपबीती
वीरक वशिष्ठ जी
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This post is Viral on social media. But this is very clear noakhali was not safe Hindu in 1946
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ये कथा मैं कभी साझा नहीं करना चाहता था। ऐसा नहीं कि इच्छा नहीं थी, अपितु यह कहूँ कि साहस नहीं कर पाया। इसी पटल पर कुछ अग्रजों के बहुत प्रेरित करने पर ही आज साहस कर पा रहा हूँ। 
   
जब पहली बार बंदा सिंह बहादुर की कथा पढ़ी तो उसके बाद पूरे दिन अन्य ही लोक में विचरण करता रहा गया था, न भुख लगी न नींद ही आयी थी।
कुछ यही अवस्था इस कथा को सुनकर हुई थी, जिसे एक कलकत्ता की मूलनिवासी दादी माँ ने मुझे सुनाया था, जब मैं दिल्ली से वाराणसी महामना ट्रेन से 2016 के 9 सितम्बर को वापस आ रहा था।
  
हुआ कुछ यूँ था कि एक सज्जन से सहिष्णुता पर बहस हो गयी थी, जिसमें अन्त में हम दोनों अपने अपने पक्ष को लिए ही एक दूसरे से मुँह फेर बैठ गए, क्योंकि किसीको को भी समाधान नहीं चाहिए था, बस स्वयं को सही सिद्ध कर विजय का मिथ्याभिमान पाना था। 

मेरे पक्ष को सुनकर, हम दो सहयात्रियों के बीच के उस अघोषित शीतयुद्ध के उस सन्नाटे (जिसमें ट्रेन के पहियों व पटरियों के आपसी संवाद से उत्पन्न खट-पट, खट-पट के अतिरिक्त कुछ भी न था) को भङ्ग करते हुए सामने के सीट पर लेटी दादी माँ ने मुझे इंगित करते हुए कहा-
 " बेटा! इस सहिष्णुता की परिणति की एक आपबीती कहानी सुनाती हूँ, सुनो!"
   वह दादी माँ जिनके केश अभी भी काले थे, जबकि वय कम से कम 75 वर्ष तो रही होगी, बिना मेरी इच्छा जाने ही कहना प्रारम्भ किया।

" मेरा जन्म बंगाल, अबके बांग्लादेश के नोआखली में मेघना व एक चौड़े नाले के बीच के भूभाग पर 1939 ई. के कालबैशाखी के दिन हुआ था।
    हमारा गाँव मुख्यतः वैद्य लोगों का गाँव था, जिसमें 25 घर वैद्य रहे होंगे तब। ऐसा नहीं कि केवल वैद्य ही थे, कुछ मुस्लिम, कायस्थ व नाविक भी थे। सभी मिल जुलकर रहते थे। हमारे बीच घरेलू सम्बन्ध थे, एक अटूट भाई-चारा था। फहीम नाम का व्यक्ति तो घर के सदस्य जैसा ही था, जिसे पिताजी फहीम दादा कहकर सम्बोधित करते थे।"
 दादी माँ कुछ क्षण रुकीं व मेरे कुछ पूछने से पहले ही पुनः कहना जारी रखा।

" मैं, मेरे दादा ( बड़े भाई ) दिलीप, हमारी बहन 6 माह की पाखी, माँ, पिताजी व दादी माँ, हम छः लोग मेरे परिवार में थे।
  मेरे बड़े पिताजी व बड़ी माँ की मृत्यु मेघना की बाढ़ में नदी पार करते हुए हो गयी थी। उनकी बेटी पारुल व पारुल के पति विशेष दा हमारे घर से ही जुड़े हुए अन्य घर में रहते थे। पारुल दीदी कोई भाई नहीं था।"

" बंगाल में, विशेषकर नोआखली में कालबैशाखी की पूजा बहुत धूमधाम से मनायी जाती थी, क्योंकि वर्ष के उमसभरे चिपचिपे मौसम से, कालबैशाखी के समय बहने वाली ठण्डी समुद्री हवाओं द्वारा निजात मिलती थी, कभी इसी कारण वह समय उत्सव में परिवर्तित हुआ रहा होगा। एक अन्य कारण शीघ्र ही पड़ने वाले लक्ष्मी पूजा का पर्व भी रहा है। जिसकी तैयारी इसी समय प्रारम्भ होती है। इस पर्व के समय जन्म के कारण मेरा नाम लक्ष्मी पड़ा, सभी की दुलारी थी मैं।"
    दादी बिना रुके कहती ही जा रही थीं, और मैं उनके आयु का सम्मान कर उन्हें टोकना नहीं चाहता था, परन्तु अबतक उनकी सुनाई कथा, उनके परिवार व गाँव के विवरण से ही जुड़ी प्रतीत हो रही थी, अतः मन ऊब रहा था।
 सहसा एक शब्द सुनकर मस्तिष्क ठिठका, और रुचि का अवधान हुआ।

" बात सन 1946 के 16 अगस्त की है, दो दिन पूर्व ही जिन्ना नें पाकिस्तान की माँग को लेकर डायरेक्ट एक्शन डे की चेतावनी दी थी। नोआखली का शांत परन्तु चहकते रहने वाला वातावरण, एक अजीब से सन्नाटे से भर उठा था। लोगों को विश्वास था कि गाँधी जी के रहते ऐसा कुछ नहीं होगा, और मुस्लिम तो अपने भाई बहन हैं, सदियों से साथ रहते आये थे, साथ खेले बढ़े थे, जिन्ना जैसों के भड़काने से क्या होता है?
 परन्तु आग लगी! बैशाखी की ठण्डी हवा के स्थान पर ऐसी गर्म हवा का तूफान आया, कि सब झुलस गया।

हमारे गाँव से कुछ किलोमीटर दूर एक कॉटन मिल पर 16 अगस्त की दोपहर में, नमाज के ठीक बाद बारिश के स्थान पर सहिष्णुता का परिणाम, भाईचारे का विश्वास बरसा। गुलाम सरवर नाम के कट्टर मुल्ले (जो कि जिन्ना के खास आदमी सुहरावर्दी का पिट्ठू था) के नेतृत्व में जिहादियों के समूह ने कॉटन मिल पर घात लगाया, मुस्लिम कामगारों को एक ओर करके हिन्दू पुरुषों व महिलाओं को अलग अलग कर दिया गया। अबोध, नवजात बच्चों को छीनकर जिहादियों ने ले लिया।
    तब गुलाम सरवर सामने आया, उसने कॉटन मिल के मुस्लिम कामगारों से कहा-
" बिरदराने इस्लाम! अब वक़्त आ गया है, जब हम अपने पैगम्बर के दारुल- इस्लाम के सपने को पूरा करें, अपना खुदका मुल्क़, पाक मुल्क़ पाकिस्तान हासिल करें।
 पर ये यूँ ही नहीं होगा, ये होगा जिहाद की तलवार को हाथ में लेकर, अल्लाह के नाम पर जिहाद करके।
  हमारे मार्गदर्शक जिन्ना साहब ने डायरेक्ट एक्शन डे का आह्वान किया है। जो हमारे साथ हो, अल्लाह का नाम लेकर इन काफिरों के रक्त से पाक मुल्क़ की नींव रखने में साथ आये, इनकी औरतें हमारी माले गनीमत हैं, और ये सपोले आने वाले खतरे। तो बिरदराने इस्लाम! आप जानते हैं न कि क्या करना है?"
   दूसरी ओर से उठे अल्लाहू अकबर के नारे से हिन्दू कामगार काँप उठे, जिन्हें इतने वर्षों से अपना भाई, अपना साथी मानते आए थे, उनमें से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, एक भी मुस्लिम ऐसा नहीं था, जिसके हाथ मे इस्लाम की तलवार न हो।"

"इसके बाद जो प्रारंभ हुआ, उससे मानवता सदा के लिए घायल हो गयी।
    उन पिशाचों ने नवजात बच्चों को, अबोध बालकों को हवा में उछाल दिया। जब उनके शरीर नीचे आये तो तलवारों से बिंधे हुए, कोई बीच से कटकर तड़पते हुए छटपटा रहे थे, तो कुछ तलवारों पर तड़प रहे थे।
  उन अबोध बच्चों की माएँ चीख मारकर बेहोश हो गयीं।
     उधर 4 वर्ष, 6 वर्ष, 7 वर्ष की बच्चियों को वे वहशी, गुलाम सरवर के साथ आये इस्लाम के झंडाबरदारों ने नोचना आरम्भ किया तो दूसरी ओर मुस्लिम कामगारों नें उन हिन्दू कामगार महिलाओं को निःवस्त्र करना प्रारंभ कर दिया, बेसुध पड़ी उन माँओं को भी नहीं छोड़ा उन्होंने। जो हिन्दू पुरुष बचाने आगे आये, वहीं काट दिए गए।

घण्टे भर भी नहीं बीते होंगे, 100 से अधिक हिन्दू महिला पुरुष, 20 से अधिक अबोध बालक बालिका वीभत्स मृत्यु के ग्रास बने।
   
कोई स्त्री नहीं थी जो निःवस्त्र न हो, जिसके स्तन अक्षत हों, जिसका कमसेकम 20 पिशाचों ने बलात्कार न किया हो। कोई अबोध बालिका न थी जिसने जीवित ही, बलात्कार के मध्य ही प्राण न त्यागे दिए हों, कोई अबोध बालक न था, जिसका शरीर कम से कम दो खण्डों में बंटा न हो।
  
उन्होंने जीवित छोड़ा तो एक ही व्यक्ति को, एक वैद्य को, उसके हाथ काटकर। ये कहकर कि वो आगे के गाँव वालों से जाकर बताए कि वो नोआखली छोड़कर चले जायें, नहीं तो इस मिल से भी बुरा हाल होगा उनका। वो वैद्य थे मेरे पिताजी!"
    
इतना कहते कहते दादी का गला रुद्ध हो गया , आँखों से आँसू पूरे आवेग में बह रहे थे, और मैं अवाक! सुन्न! अबूझ सी अवस्था में विचारहीन हो गया था।
  
दादी ने एक ग्लास में पानी लेकर गला साफ किया। मुझे इतना भी साहस न हो रहा था कि कुछ कह सकूँ। एक ही प्रश्न! क्या ये सत्य है? क्या ये सत्य हो सकता है कि कोई मनुष्य ऐसे स्तर तक जा सकता है? क्योंकि तबतक मेरी दृष्टि में मनुष्य की तरह भासता हर जीव मनुष्य ही था।
  
5 मिनट के नीरव सन्नाटे के बाद, जिसमे मुझे यह तक अभास नहीं था कि ट्रेन द्रुतगति से दौड़ रही है, दादी ने पुनः कहना प्रारम्भ किया।

दादी ने स्वयं को संयत कर आगे कहना आरम्भ रखा, क्योंकि मैं कुछ भी पूछने की अवस्था में था ही नहीं, और दादी को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कि दीर्घ काल से हृदय में अटका कोई शूल बाहर निकाल कर तोष पाना चाहती हैं।

" मैं और मेरे दादा (बड़े भाई) घर के आगे खेल रहे थे, और मेरी माँ जो कि सुबह से ही पिताजी की बात जोह रहीं थीं, चावल को साफ करते हुए बीच-बीच में घर के मार्ग की ओर देख लेती थीं।
  
घर एक कम ऊंचाई के चहारदीवारी से घिरा था, जिससे कि बरामदे में बैठे ही घर की ओर आने वाला मार्ग कुछ दूर तक स्पष्ट दिखता था।
 
दादी माँ बरामदे में आरामकुर्सी पर सहजता से लेटी हुई थीं, कि तभी उनकी दृष्टि मार्ग पर पड़ी, उधर माँ के मुख से घुटी घुटी सी चीख निकल गयी, वह आगे न कुछ बोल सकीं न ही तत्काल ही उठने का उपक्रम कर सकीं। दादी तो उठते हुए वहीं गिरकर बेसुध हो गयीं।

मेरे दादा आयु व ऊँचाई में बड़े होने के कारण देख पाए कि बाहर क्या हो रहा है। वह बीच में ही खेल छोड़कर विक्षिप्त से भागे बाहर गए, जब अंदर आये तो पिताजी साथ में थे।
  
परन्तु यह वो पिताजी नहीं थे, जो प्रातः दवा वितरण के लिए गए थे, ये तो खून से लथपथ, मुख पर एक भय का सा भाव लिए, आँखें शून्य को तकती हुई, जीवन का कोई चिन्ह नहीं था मेरे पिताजी के आँखों में। और....और उनके वे हाथ, जिनसे वो मुझे हवा में उछालते थे, जिन्हें पकड़कर मैंने चलना सीखा था, जिनसे वो मुझे उठाकर अपने कांधों पर रखकर घोड़ा-घोड़ा खेलते थे, अब वो हाथ अपने स्थान पर न थे....वो हाथ...वो हाथ एक माला की भाँति उनके ही गले में लटके थे..."
   
दादी का गला पुनः भर आया, आँखों से निर्झर बह उठे, आँखों मे वह पीड़ा पुनः जीवित हो उठी, जैसे अभी वह दृश्य आंखों के सम्मुख ही हो।
  
कुछ घड़ी व्यतीत हुआ होगा, जब दादी ने पुनः कहना आरम्भ किया, और मैं तो आवक ही था, क्योंकि इतनी वीभत्सता तो मेरे भी संज्ञान में न थी।

"पिताजी का मुख अत्यधिक रक्तस्राव के कारण पीला पड़ गया था, वह घर के चहारदीवारी के अंदर आते ही बेसुध हो गिर पड़े, जैसे घर पहुँचने तक ही साहस बचा रहा हो, दादा पिताजी को सम्भाल नहीं पाए, थे ही कितने वर्ष के? मुझसे 3 वर्ष बड़े ही न!
   
माँ जो अबतक मूर्तिवत हुई पड़ी थीं, अब सहसा अपने साथी को गिरता देख दौड़ पड़ीं और उन्हें अंक में ले वहीं बैठ गईं।

उस दिन ही तो माँ के विवाह की चौदहवीं वर्षगांठ थी, और उसी दिन अपने रक्त से लथपथ बेसुध पति को अपने अंक में लेकर भूमि पर बैठी होश में लाने का प्रयत्न कर रहीं थीं, जिस दिवस उनकी मांग के सिन्दूर को अक्षत होने का आशीष चाहिए था, उसी दिन उनके वैवाहिक दीप की ज्वाला बुझती प्रतीत हो रही थी।वह तो चावल साफ कर रहीं थी कि खीर बनाएंगी, सज के शृंगार करके पिताजी की ही बाट जोहती बैठी थीं, कि वज्रपात हो गया।

वो रोते हुए ही पिताजी को होश में लाने का भरसक प्रयत्न कर रही थीं। इतने में पारुल दीदी के पति भी भागे आये, उन्होंने नदी के किनारे से दूर से ही देख लिया था। शेष गाँव के महिला व पुरुष भी पीछे से भागते हुए आये।

विशेष दा भागे गए व दवा, पट्टी, चोट के रक्तस्राव को बंद करने के लिए घाव पर टाँके चलाने के लिए चिकित्सकीय सुई धागे ले आये। तबतक गाँव वालों ने पिताजी को बरामदे में चौकी पर लेटाया, उनके घावों को कपड़े से दबा कर रखा कि रक्तस्राव पर कुछ नियंत्रण हो, परन्तु निरर्थक!

टाँके लगाने, पट्टी करने के बाद भी रक्तस्राव रुक नहीं रहा था,  गति अवश्य धीमी हो गयी थी। वहाँ उपस्थित जन पिताजी को शीघ्र से शीघ्र कलकत्ता ले चलने की बातें कर रहे थे, परन्तु कैसे? यह समझ नहीं पा रहे थे। सबसे छोटा मार्ग मेघना को पार करते हुए उसपार से जाना था, जो कि उस वर्षा ऋतु में दुष्कर कार्य था। परन्तु शेष कोई उपाय भी न था। लोग नाविकों के छोटी नावों के विषय मे बात कर ही रहे थे कि मूसलाधार वर्षा तेज हवा के साथ प्रारम्भ हो गयी, ऐसे आभास हुआ कि सभी आशाएँ इसी के साथ धुलती जा रही हैं, बहती जा रही हैं, और बहकर मेघना के भँवर में फँसकर सदा के लिए लुप्त होती जा रही हैं।
   
इतने में एक नाविक दादा, जिनका नाम रमेश था, वह भागते हुए आये, और बिना कुछ कहे वहाँ के अवस्था को देख तत्काल अपनी डोंगी पर पिताजी को उस पार ले जाने को तैयार हो गये। उन्होंने ही यह भी बताया कि एक व्यक्ति भी भागता हुआ आया था कुछ देर पहले, उसने कई गुना मूल्य चुकाकर उनसे उस पार उतारने को कहा था, बीच नदी में जब डोंगी पहुंची तो उसी व्यक्ति ने पिताजी के साथ घटी दुर्घटना के विषय रमेश दादा को बताया , यह भी कि वहाँ क्या हुआ था? और यह भी कि गुलाम सरवर नें क्या कहा है! 
    
यह पूछने पर कि वह कौन है और कहाँ से वहाँ पहुँचा था व कैसे वह बच गया? उसने यही कहा कि वह कलकत्ता का व्यापारी है, जो थोक व्यापार करने के उद्देश्य से मिल में आया था, उसने कपड़ों के ढेर में छिपकर अपने प्राणों की रक्षा की थी। वह यही कह रहा था कि सभी गाँव वालों को तत्काल गाँव छोड़कर कलकत्ता के लिए प्रस्थान कर देना चाहिए, क्योंकि गुलाम सरवर आएगा अवश्य! और प्रत्येक गाँव के सभी मुस्लिम उसके साथ हैं। जितना शीघ्र हो सके यहाँ से भाग चलें!"

" परन्तु वहाँ उपस्थित सभी ने एकस्वर में कहा कि वे गाँव छोड़कर नहीं जायेंगे, अपितु वो डटकर सामना करेंगे। पर कैसे? यह किसीको ज्ञात नहीं था।सब्जी व मछली काटने के छोटे चाकुओं के अतिरिक्त था क्या वहाँ?
     
वहाँ उपस्थित मुस्लिम व्यक्तियों ने, जो पीढ़ियों से साथ रह रहे थे , उन्होंने भरोसा दिलाया कि वे कभी भी गुलाम सरवर के ओर से नहीं जायेंगे, वो सभी को बचाएंगे। फहीम चाचा ने  जोर देकर कहा कि कहीं जाने की आवश्यकता नहीं। गुलाम सरवर उनका परिचित है, और वह उसे समझा लेंगे। उन्होंने जोर देकर कहा कि केवल कुछ उन्मादियों के कारण सभी मुस्लिमों को गलत नहीं कहा जा सकता।
  
वहाँ उपस्थित सभी लोग फहीम चाचा से सहमत होते दिखे, सभी ने एक स्वर में कहा कि फहीम सही कह रहा है। पीढियों से एक साथ रहते रहे हैं हम, एक दूजे के सुख दुख में समान सहभागी रहे हैं हम। कोई गाँव छोड़कर नहीं जाएगा।
    
आज समझ आता है कि उस सहिष्णुता की, भाईचारे की बात के स्थान पर यदि आत्मरक्षा के लिए पलायन ही कर गए होते तो सभी जीवित होते। वैद्यों का वह गाँव बंगाल के नक्शे से लुप्त न होता, जिसका आज किसीको नाम तक ज्ञात नहीं है।
   
इस सारे वार्तालाप के साथ-साथ पिताजी को लेकर लोग नदी के किनारे पहुँच गए थे। पिताजी को जिस खाट पर लिटाया गया था, उसके ऊपर छाते लगाकर उन्हें भीगने से बचाने का हर सम्भव प्रयत्न किया जा रहा था, परन्तु उस तेज हवा व बारिश के झोंकों के सम्मुख सब पस्त।
 माँ, भैया, मैं, विशेष दा, पारुल दी, सब पीछे पीछे आ रहे थे। पाखी को बिलखती हुई दादी के पास माँ छोड़ आयी थीं। 
  
रमेश दादा ने डोंगी पर पिताजी को लिटाया, तबतक फहीम चाचा सबसे आगे बढ़कर डोंगी पर चढ़ गए यह कहते हुए कि वह और रमेश दा उस तेज हवा व बारिश में नाव को एकसाथ संभाल के उस पार पहुँचा सकते हैं। डोंगी छोटी होने व पिताजी को लेटाकर रखने के कारण उस चार व्यक्तियों की क्षमता वाली डोंगी में अन्य किसी के लिए स्थान नहीं बचा था। अतः यह निश्चित हुआ कि शेष लोग पीछे पीछे अन्य लोग दूसरी अन्य डोंगीयों से साथ हो लेंगे, तबतक पिताजी को उस पार भेजा जाए।"

कुछ रुककर, जैसे कुछ सोचते हुए दादी ने पुनः कहना आरम्भ किया-
" बारिश की बूंदों के लगातार मुख पर पड़ने के कारण पिताजी की चेतना कुछ वापस आयी, तो उन्होंने माँ को पास बुलाकर बस इतना ही कहा -" भाग जाओ यहाँ से, सब भाग जाओ, वे आते ही होंगे", और पुनः चेतनाशून्य हो गए।
 
इसी के साथ डोंगी ने नदी में प्रवेश किया। माँ पिताजी को देखे ही जा रही थी। किसीको न पता था कि बस....वे अंतिम पल हैं , जब वह मुख अंतिम बार दिखेगा।

"मूसलाधार वर्षा कारण बनी या कुछ और, ये समझ न आया, परन्तु मझधार में ज्यों ही नौका पहुँची वहाँ उपस्थित लोगों के मुँह से चीख निकल गयी।"

इतना कहकर दादी पुनः रुक गयीं, क्योंकि उनका गला भर आया था। कुछ समय में संयत होकर उन्होंने पुनः बताना प्रारम्भ किया।

" अचानक वह छोटी नाव(डोंगी) फहीम चाचा की ओर से झुकी और पिताजी एक झटके में उफनाती मेघना में जा गिरे।
 नाविक चाचा पीछे पीछे कूदे, और ज्ञात नहीं कि फहीम चाचा को क्या सुझा, वह कुछ देर बाद ही पानी में कूदे। उसी समय वर्षा इतनी तीव्र हुई कि कुछ दूर की चीजें भी सूझना बन्द हो गयीं। जब मूसलाधार वर्षा की वह धुँध छटी तो नदी किनारे केवल फहीम चाचा थे, नाविक चाचा व पिताजी का कोई चिन्ह नहीं दिखा।"
  दादी पुनः अपने रुंध आये गले को साफ करने के लिए रुकीं, और पुनः संयत हो कहना जारी रखा।

"फहीम चाचा ने बाहर आकर बताया कि मझधार में उफनती मेघना ने पिताजी व नाविक चाचा को लील लिया। जैसे कि कोई नरभक्षी हो, जिसे मानव शरीर की भूख हो।
 मेघना वैसे भी प्रत्येक वर्ष अनेक बालकों को लील जाती है, जो अबोध वहाँ खेल खेल में गहरे जल में या नदी के तीखे ढाल  के चँगुल में फँस जाते हैं।"

 माँ, जो कि अत्यन्त भावुक रही थी उससे पहले के वर्षों में, अचानक से काठ मार गया उन्हें, आँखें सुनी, चेहरा निस्तेज परन्तु अश्रु की एक बूँद नहीं।

  गाँव वाले माँ को और हम रोते बिलखते भाई बहनों को लेकर घर आये, और आया उसी के साथ वह पिशाच और उसकी वो नरपिशाचों की सेना, जिन्हें हर काफ़िर औरत माले-गनीमत लगती थी और हर काफ़िर पुरुष व बच्चा जन्नत के मार्ग का रोड़ा।"
  दादी की आँखों में यह बताते हुए उस समय भी भय का एक घृणा मिश्रित भाव था, और थे झर झर झरते अश्रु।
  दादी ने आगे कहना जारी रखा, और अश्रुओं ने एक कहानी कहना ।
" सैकड़ों जिहादियों के साथ गुलाम सरवर आ धमका, और प्रारम्भ हुआ एक नंगा नाच।
   नदी किनारे से वापस लौटे दुःखी निहत्थे लोगों पर हाथों में तलवार, कटार, भाले लिए वे पिशाच टूट पड़े।
  माँ, जो कि अब तक काठवत बनी हुई थी, अचानक से अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए चिंतित हो गयी। जिसे अभी कुछ क्षणों पहले वैधव्य ने आ घेरा था, वह अब अपने बच्चों की सुरक्षा में जुट गई थी।
 माँ ने मुझे व दादा को अनाज रखने के कोटर में छिपा कर उसके ऊपर से कपड़े रख दिये। पाखी को जब वो हमें देने लगी तो पाखी रोने लगी, उसके रोने से कोई हमारे स्थान को ढूंढ न ले इसलिए पाखी को माँ ने स्वयं ही ले लिया। माँ ने भाई को सौगंध दी कि कुछ भी हो, न वो बाहर आये न मुझे आने दे।

  अब समझ आता है कि उसकी दो संतानें सुरक्षित रहें इसलिए एक बच्चे का मोह त्यागना ही उसे उचित लगा होगा।

सहसा कमरे के दरवाजे के झटके से खुलने की आवाज ने हम दोनों भाई बहन को भयभीत कर दिया।
 माँ को कहते हुए हमने सुना " फहीम भाई! ये क्या है? तुम और गुलाम सरवर के साथ। तुमने तो अपने दादा से, पाखी के पिताजी से सदैव हमारी रक्षा का वचन दिया था न! तुम इस सरवर के साथ क्यों हो?"

इसके पश्चात हमने जानी पहचानी आवाज सुनी, जो कि गुलाम सरवर को इंगित करके बात कर रही थी।
" सरवर भाई! इस साली पर मेरी दृष्टि वर्षों से है, परन्तु क्या करूँ, इस काफ़िर वैद्यों के गाँव में हम ईमानवालों का क्या वश चलता।
 रोज इसके घर आता था कि इसे देख सकूँ, इसे पाने के बहुत सपने देखे हैं , पर एक वश न चला।"
फहीम के मुँह से ये शब्द सुनकर हमें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये वही फहीम हैं। आगे उसने पुनः कहा-

"  और सुन तू! तुझपे मेरी नजर उसी दिन से है, जिस दिन तू उस काफ़िर से ब्याह के आयी। तेरे पति से इसीलिए तो साठ-गाँठ की, कि किसी दिन मौका पाकर तुझे भोग सकूँ, पर साला नसीब, मौका ही नहीं मिला। और तू क्या सोचती है, तेरा वो अधमरा पति नदी में अपने से गिर गया? मैंने ही नाव को ऐसे चलाया कि वह झटके से नदी में गिर पड़े। मर गया साला, मेरे रास्ते का काँटा। अब तो तुझे भी भोगूँगा, और तेरी वो लौंडिया है न! उसे रखैल बनाकर रखूँगा। कहाँ है तेरी हमशक्ल वो लौंडिया, बता!"

" सुनो फहीम! तुम्हें जो करना है करो! पर मेरे बच्चों को छोड़ दो।"
" करूँगा तो अपने मन का ही। इसीलिए तो गुलाम भाई को बुलाया है यहाँ। क्यों गुलाम भाई?"

" हाँ बिरादर! इन काफिरों के लिए तो कहा ही गया है कि जैसे पाओ, वैसे ही कत्ल करो! इनकी बीवियों, बच्चों को बलात अपने संग ले जाओ। ये तो माले गनीमत हैं। तुम्हें जो करना है करो फहीम भाई! मेरे आदमी तुम्हारे साथ रहेंगे। मैं थोड़ा बगल वाले घर के उस लौंडिया से मिल आऊँ, वो जिसके पति और उसे मेरे आदमियों ने पकड़ के रखा हुआ है।"

" अरे! वो पारुल और उसका पति है गुलाम भाई! वो भी लौंडिया मस्त है। जाओ जाओ।"

" हाँ बिरादर फहीम! तुम भी अपनी प्यास बुझाओ! मैं भी आता हूँ"

"सुन! अपनी इस छोटी लौंडिया को बगल रख। जैसा कहता हूँ कर, तो आज के लिए तेरी जान बक्श दूँगा। जब तक मेरा कहा मानेगी, तबतक तेरी और तेरे बच्चों की जान बची रहेगी। और भाग के जाएगी कहाँ? मेरे आदमी इस गाँव को घेरे रहेंगे और दूसरी तरफ तेरे पति को लीलने वाली मेघना उफनाई हुई है ही, कौन बचाएगा तुम्हें? जो कहता हूँ कर!"

तभी दूर से पारुल दीदी के चीखने की आवाज नें मुझे डरा दिया। दादा ने मुँह पे हाथ रखकर मुझे चुप कराये रखा। इधर हमारी घर से घुटी घुटी चीखें सुनाई दे रही थीं, उधर पारुल दीदी की दर्द और भय से उठती चीखें मेरे आंखों के सामने छाते अंधकार को और घना करती जा रही थीं। पारुल दीदी की चीखों से ऐसा लगता था जैसे कई भूखे भेड़िये किसीको नोच रहे हों। तभी कुछ मिनटों बाद फहीम की आवाज पुनः सुनाई दी।

"  आज तो दिल खुश कर दिया तूने! जा! आज तेरी और तेरे बच्चों की जान बक्श दी। कल फिर आऊँगा। दे अपनी ये लौंडिया दे। ये अमानत रहेगी तेरी। जबतक ये मेरे पास है, तू जाएगी कहाँ?"

" नहीं फहीम! मेरी बेटी को मत ले जाओ! हाथ जोड़ती हूँ! ये मेरे बिना नहीं रह पाएगी। तुमने जो कहा मैंने किया।"

" नहीं रे! कल आऊँ तो तू जिंदा रहे और भागे भी न, इसलिए इसे मेरे पास रहना जरूरी है। दे इसे!"
 माँ के प्रतिरोध की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी।

 दरवाजे के झटके से खुलने की आवाज आई। उसके बाद कमरे में बस सन्नाटा था। कुछ समय बाद माँ ने हमें कोटर से बाहर निकाला। उसके कपड़े फटे हुए थे। वह अस्तव्यस्त सी, सुनी आँखों से हमें देख रही थी। आँखों से ऐसे अश्रु बह रहे थे, जैसे किसी चट्टान से पानी रिस रहा हो। माँ ने अपने बच्चों को बचाने के लिए, अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया था।

" माँ! पाखी कहाँ है?" दादा ने चिंतित होते हुए माँ से पूछा,
और माँ ने बस उन्हें सीने से लगा लिया।

 कुछ पलों बाद माँ को जैसे कुछ भान हुआ तो वो हमें लेकर पारुल दीदी के घर की ओर भागीं। घर के बरामदे में दादी माँ की शीश कटी देह पड़ी थी। भाई वहीं दादी से लिपटकर रोने लगे।मैं माँ से लिपटी ठिठक गयी, क्योंकि माँ वहीं ठिठक गयीं, परन्तु मुख वैसे ही भाव विहीन, कुछ घण्टों में मिले दारुण दुःख नें उन्हें बदल के रख दिया था। वहाँ से उठकर जब हम आगे आँगन में पहुँचे तो वहाँ का दृश्य देखकर दादा वहीं गिर पड़े, उनके सहन की क्षमता साथ छोड़ चुकी थी। वो भूमि पर पड़े मांस के लोथड़े की ओर दिखाकर उल्टी करने लगे। मैं भी माँ से लिपट गयी।"
 ये बताते हुए दादी थर-थर, थर-थर काँप रहीं थीं। जैसे अभी भी सब आँखों के सामने ही हो।

" वहाँ का दृश्य ऐसा था कि देखकर क्रूरता भी लजा जाए। पूरे आँगन में रक्त ही रक्त था। आँगन के खंभे से विशेष दा नग्न बंधे थे, उनके शिश्न को काटकर फेंक दिया गया था। उनके गले व शरीर पर कई गहरे तलवार के घाव थे। जिनसे अब रक्त नें बहना बंद कर दिया था। रक्त बचा ही कहाँ था अब? और वह भी अब कहाँ शेष थे?
 
और.... और पारुल दीदी  उनके सामने ही भूमि पर रक्त से सनी हुई मृत पड़ी थीं। उनके हाथ उनके पीछे की ओर बंधे थे।देह पूर्णतः निर्वस्त्र। उनके स्तनों को जैसे दाँतों से नोच दिया गया था। उनकी देह ऐसे दिख रही थी, जैसे कई भूखे भेड़ियों ने एक साथ नोच नोच के अपनी रक्त की प्यास बुझाई हो। उबकाई और भय से मैं वहीं बेसुध हो गयी।

 ज्ञात नहीं कितने समय बाद जब चेतना लौटी तो मैंने अपने आपको और दादा को एक डोंगी में पाया। जिसे रमेश चाचा के भाई सोमेश चाचा खे रहे थे। उनके शरीर पर कई गहरे घाव थे। जिसपर बंधी कपड़े की पट्टियों से अब भी रक्त रिस रहा था। 
    
दादा ने रोते रोते मुझे बताया कि गुलाम और फहीम के चले जाने के पश्चात सोमेश दादा चुपके से घर के पिछले दरवाजे से आये और माँ से वहाँ से भाग चलने को कहा, उन्होंने नदी पार करा देने की बात कही।
  
माँ नें स्वयं आने से मना कर दिया, परन्तु दादा को सौगंध देकर, समझा बुझाकर मुझे और दादा को सोमेश चाचा के  साथ भेज दिया। चारों ओर रात्रि का अँधियारा छाया हुआ था। हम कहाँ जा रहे थे, कुछ समझ नहीं आ रहा था। अँधियारा...जो न जाने कब छँटेगा? "
  
इसके पश्चात दादी की हिचकियाँ उनके नियंत्रण में न रहीं, इस करुण कथा को सुनाने के साथ ही उनके धैर्य का बन्धा टूट गया। केवल उनके फूट फूट के रोने की आवाज ही उस ट्रेन के डिब्बे में सुनाई दे रही थी और मेरे साथ वहाँ बैठे लोग केवल उन्हें एकटक देखे जा रहे थे। मुझे अबतक ये भान ही नहीं था कि ट्रेन के उस डिब्बे में हमारे अतिरिक्त भी कई लोग थे, जो कि यह कथा सुन रहे थे। कुछ औरतें ऐसी थीं, जो सुबक रहीं थीं।
  
इस सिसकियों से भरे सन्नाटे को तोड़ा उस व्यक्ति की आवाज नें, जिनसे इस कथानक के प्रारम्भ में मैं तर्क कर रहा था। वो थे उन दादी के बड़े भाई दिलीप दादा! उन्हीने आँसुओं से भरी आँखों को लिए भर्राई आवाज में कहना प्रारम्भ किया

"जब मेरी बहन बेसुध हो गयी थी  और  सोमेश चाचा ने वहाँ से चलने के लिए कहा तो माँ ने मुझे ढाँढस बंधाते हुए कहा था कि वो पाखी को लेकर आयेंगी। उन्होंने सोमेश चाचा को निर्देश दिए कि नदी पार के ब्राह्मणों के गाँव में पिताजी के एक परिचित के साथ हम दोनों को कलकत्ता पहुंचवाने की व्यवस्था कर दें। वहाँ हमारे पिताजी की बहन रहती थीं। 
   
सोमेश चाचा, जिनके परिवार का भी वही हाल हुआ था, जो कि पारुल दीदी और विशेष दा का। उनकी 6 माह की बेटी को उन पिशाचों ने भूमि पर पटक पटक के मार दिया था सोमेश चाचा की आँखों के सामने ही। उनके पत्नी और 7 वर्ष की बेटी को बीसो नरपशुओं नें नोच नोच कर मृत्यु मुख में फेंक दिया था। उनके 8 वर्ष के बेटे को कमर के पास से दो खण्डों में काट दिया था उन पामरों नें। सोमेश चाचा ने नदी में कूदकर अपनी रक्षा की।
   
परन्तु इतने विकट कष्ट भोगने के पश्चात भी उन्होंने अनेक अनाथों को मेघना के पार पहुँचाया था, जो कि किसी भाँति बच गए थे, उनमें एक हम भी थे।
   
हमें भी पिताजी के मित्र के पास पहुँचाकर वह पुनः हमारे गाँव में बचे किसी अन्य असहाय को बचाने वापस चले गए। वह एक अपराधबोध से भरे थे, कि अपने परिवार को अपनी आँखों के सामने मरते, कष्ट भोगते देख कर भी उन्हें बचा न सके।
 
उन्हें हमने पुनः कभी नहीं देखा, और न ही देखा कभी अपनी माँ को, न ही देखा कभी अपनी बहन पाखी को।"
    
दिलीप जी अपने भर आये गले को संयत करने का प्रयास करते हुए भर्राई आवाज में कह रहे थे- "वर्षों बाद ज्ञात हुआ कि अगले दिन गुलाम सरवर के आदमियों नें हमारे गाँव को जला दिया।
 
और इस प्रकार हमारे गाँव का अस्तित्व राख में बदलकर मेघना में बह गया। और उसी के साथ हमारी आस भी जल गई, आस अपने माँ और पाखी से मिलने की।"
इतना कहकर दिलीप जी भी सिसकने लगे।
इसी के साथ उस डिब्बे में सिसकियाँ सिसकियों का साथ दे रहीं थीं। अनेक अन्य औरतें जो उस डिब्बे में ये कथा सुन रही थीं, उनकी हिचकियों से डिब्बे के वातावरण में दुःख का बोझ से बन रहा था, जिससे हम सब दबे जा रहे थे। और...और मेरी आँखों के अश्रुओं के साथ ही बहुत कुछ बहता जा रहा था। मेरी सहिष्णुता, मेरी सेकुलरता, मेरा वह विश्वास कि दोषी मनुष्य होता है, कोई पंथ या मजहब नहीं।

आप सही समझ रहे हैं! उस तर्क में वह व्यक्ति मैं ही था, जिसके मस्तिष्क में सेक्युलेरिज्म का प्रेत पैठा हुआ था, और वह दिलीप जी थे , जो मुझे वामपंथ-जनित छद्म सहिष्णुता का वास्तविक रूप बताना चाह रहे थे।
  
मुझे आजभी स्मरण नहीं कि कभी रेलगाड़ी की यात्रा में मैं इतना शांत, इतना विचारों के झंझावातों में फंसा कभी इतना चुपचाप रहा होऊँ, जितना उस कथानक के सुनने के बाद शेष यात्रा के घण्टों में रहा।
    
दादी और दिलीप जी से पूरे यात्रा में अन्य बातें भी हुयीं, कि कैसे उनके पिताजी के मित्र के पलायन करते गाँव के लोगों के साथ वे सब कलकत्ता आये, कैसे नोआखली में मानव इतिहास में अबतक का सबसे बड़ा क्रूरता का नंगा नाच हुआ? क्या था गाँधी बाबा का दोष इस घटना में? सब। यह सब फिर कभी।

अभी इतना ही कि, जब वाराणसी स्टेशन पर मैं उतरा तो मैने   मैकाले-शिक्षा व लहरु के षड़यंत्र जनित सहिष्णुता व सेक्युलेरिस्म का बोझा वहीं ट्रेन में ही छोड़ दिया।

(इस कथानक को जितना मैंने दादी और दिलीप जी से सुना, उसे छोटे से छोटा करके बताने का प्रयास किया है। वह भी इस पटल के कुछ प्रियजनों के कई बार प्रेरित करने पर। उस वीभत्सता को जितना कम से कम वीभत्स करके कह सकता था, कहा। जो बताया, वह इसलिए कि ज्ञात हो कि आजभी ये विश्व जिनसे त्रस्त है , वह सदैव से ऐसे ही क्रूर हैं, ऐसे ही पशु हैं, बर्बर, बलात्कारी, फहीम की तरह छल करने वाले।
 
अतः सावधान!
   
आप पर है, साझा करें या स्वयं तक रखें।परन्तु सज्ज रहें! वह संकट आजभी वैसा ही है। देर है तो उनके इस देश के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभाव प्राप्त करने की।   
सर्वत्र शरिया होगा, सर्वत्र आयतों की कर्कश ध्वनि होगी और सर्वत्र दिखेगा नोआखली! )

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