लोहिया जी चंद्रशेखर जी उन भारतीयों के आदर्श हैं जो मानवता के सबसे बड़े सरोकारी कहे जाते हैं। भारत की संसदीय व्यवस्था में इस व्यक्तित्व ने लगभग मोहित कर लिया था । उन दिनों हम डी एन जैन कालेज में स्नातक डिग्री लेने के छात्र थे नेतागिरी का वायरस भी घुस चुका था । घर के लोग नाखुश रहते थे । ज़ायज़ बात है पर युवावस्था में हम सियासत समाज विचारधारा आदि को समझ रहे थे । सब समझते थे कि हम नेतागिरी में सरोपा धंस गए हैं । 1980-81 की बात है । कालेज में ऊटपटांग हरकतों के लिए मशहूर थे मुकेश राठौर । समाजवादी विचारधारा को मानते थे लोहिया जी चंद्रशेखर जी उनके आदर्श थे । पर हम अलहदा सोचते थे ।
आपात काल के बाद चंद्रशेखर जी जबलपुर आए तो उनके सम्मान में हमारी यूनियन ने दादा को बुलाया । डी एन जैन कॉलेज के ओपन एयर थियेटर का लोकार्पण चन्द्रशेखर जी ने ही जिया था ।
उनके भाषण में भूमंडलीकरण भविष्य के भारत की स्थिति, बेरोजगारी पर खुलकर बोले । 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी जी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था।
तभी आपातकाल के जेल के दिन याद करते हुए वे बोले-"हम और हमारे मित्र एक सूखे पेड़ को लेकर किस्म किस्म की चर्चा करते थे । एक दिन मित्र को बताया कि -"बारिश में यह पेड़ अवश्य पुनः पीकेगा ..!
कैसे ये तो ठूँठ है...?
मैने कहा -"इसमें पनपने की इच्छा शक्ति है । जैसे हममें । हम भारतीय प्रजातंत्र के ठूँठ भी निर्बंध होंगे । हमें खुद को आस्था की बूंदों से सींचते रहना होगा । 21 माह तक का आपातकाल गोया प्रजातंत्र में ब्रिटिश राज का ट्रांसलेशन ही था । मित्र अवाक ताकता रहा ।
मई-जून 1975 की बारिश में दो तीन फुहारों के बाद कटा हुआ पेड़ हरियाने लगा ।
चंद्रशेखर जी के मित्र सह क़ैदी ने कहा - "चन्द्रशेखर जी ये तो पनप रहा है !
पनपेगा क्यों नहीं..? भारतीय डेमोक्रेटिक सिस्टम की जड़ें मजबूत और गहरी जो हैं ।
21 मार्च 1977 को आपातकाल वापस हुआ । तब तक वो पेड़ भी फिर से जिंदा हो चुका था ।
उसी दिन एक कविता लिख गई जो उनको ही समर्पित क्ररता हूँ...
आस्था
बोलती नहीं पनपती है
दावा प्रदर्शन
न कभी नहीं ...!
आस्था हरियाती है ।
मंद मंद मुस्काती है ।
आस्था राग-द्वेष से दूर
हाँ बहुत दूर चली जाती है ।।
आस्था
विश्वास की गहरी जड़ों
वाले कटे पेड़ों में
बारिश की बूंदों से
मिल तरुणी में प्रेम सी
अंकुरित हो जाती है
तब सबको नज़र आती है ।
सूखे ठूँठ में
हल्की फुहार के प्यार के बाद
कहीं कभी देखो अंकुरण..!
जान लो यही तो है आस्था का प्रकरण ।।