4.12.19

वेदानां-सामवेदोSस्मि

चित्र : गूगल से साभार 

गीता में सामवेद की व्याख्या करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने अभिव्यक्त किया है कि वेदों में मैं सामवेद हूं ।
ईश्वरीय अनुभूति के लिए अगर वेद है ज्ञान तो साम है गान को महर्षियों ने अभिव्यक्त किया है ।
परंतु साम क्या है ..?
जब ऋषियों ने यह महसूस किया कि केवल मंत्र को सहजता से पढ़ना क्या चाहो उसे विस्तार देना आसान नहीं है तब उन्होंने यह महसूस किया कि हर ऋचाओं में प्राकृतिक रूप से लयात्मकता मौजूद है तब उन्होंने रिचा और मंत्र को छांदस मानते हुए काव्य की संज्ञा दी । संस्कृत भाषा ही छांदस भाषा है । इसे आप सब समझ पा रहे होंगे अगर आप ने ईश्वर की आराधना के लिए संस्कृत में लिखे गए स्त्रोतों का गायन एवं तथा वेदों के मंत्रों का जाप किया हो तो आप इसे सहजता महसूस कर पाते होंगे । यदि नहीं तो एक बार ऐसा महसूस करके देखिए यह । यह कोई नई बात नहीं है जो मैं बता रहा हूं यह सब कुछ लिखा हुआ है विभिन्न ग्रंथों में पुस्तकों में आलेखों में बस आपको उस तक पहुंचना है किताबों में ना भी पढ़ें तो आप इसे महसूस कर सकते हैं ।
आपने संगीत रत्नाकर में ध्वनि शक्तियों के बारे में पढ़ा होगा । ध्वनि की 22 शक्तियां होती है । इन्हें षड्ज में सन्निहित या समावेशित किया गया है ।
इस बिंदु पर मुझे ज्यादा कुछ नहीं कहना है संगीत के विद्यार्थी इसे बेहतर जानते हैं ।
2 अक्टूबर 2014 की घटना मुझे बेहतर तरीके से याद है । उस दिन शासकीय अवकाश था परंतु गांधी जयंती मनाने के लिए मैंने बच्चों को खासतौर पर संगीत के बच्चों को बुलाया और उनसे जाना कि वह किस तरह से अभ्यास करते हैं साथ ही उस दिन हमने महात्मा गांधी का स्मरण भी किया उनके प्रिय भजनों का गायन भी बच्चों से सुना । उस दिन बात करते-करते अचानक मन में एक विदुषी स्वर्गीय कमला जैन का स्मरण हो आया बात 1975 या 76 की है .... हिंदी दिवस के अवसर पर एक काव्य गोष्ठी रेल विभाग द्वारा आयोजित की गई थी जिसमें रेल विभाग में पदस्थ स्टेशन मास्टर के पुत्र होने के कारण मुझे काव्य पाठ के लिए मुझे भी आमंत्रण मिला था । विदुषी श्रीमती कमला जैन ने अपने भाषण में ओमकार के महत्व को रेखांकित करते हुए उसके वैज्ञानिक और शारीरिक प्रभाव का विश्लेषण किया था । अतः मैंने प्रयोग के तौर पर बच्चों से ओंकार के घोष की अपेक्षा की थी । तब तक मैं यह एहसास कर चुका था कि वास्तव में ओम के सस्वर अभ्यास ध्वनि में आकर्षण पैदा होता है क्योंकि यह अभ्यास मैंने कर रखा था । परिणाम स्वरूप यह अभ्यास बच्चों की शिक्षिका डॉ शिप्रा सुल्लेरे ने अपनी कक्षाओं में भी सप्तक में कराया जिसका परिणाम यह है कि अब मेरे संस्थान के बच्चे बाहर जब प्रस्तुतियां देते हैं तो फीडबैक के तौर पर मुझे यह जानकारी मिलती है आपके बच्चे काफी सुरीले हैं ।
यह सत्य है कि- विश्व की समस्त सभ्यताओं से पुरानी भारतीय सनातनी सभ्यता में सामवेद जो अन्य वेदों पृथक ईश्वर आराधना तथा ईश्वर को महसूस करने का क्रिएटिव अर्थात सृजनात्मक रूट चार्ट या रोड मैप है ।
विद्वान यह मानते हैं कि संगीत मस्तिष्क, मेधा, स्वास्थ्य, चिंतन, व्यवहार, सभी को रेगुलेट करता है नियंत्रण भी रखता है । संगीत का अभ्यास हमारे डीएनए में भी परिवर्तन लाता है । और अंत में सर्वे जना सुखिनो भवंतु वेद वाक्य को साकार भी कर देता है ।
नाट्य, चित्र निर्माण, गीत समस्त ललित कलाओं पर अगर आप ध्यान दें तो यह सब शब्द रंग के बेहतर संयोजन का उदाहरण है यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अगर किसी भी क्रिएशन में उचित क्रम बाध्यता नहीं होती तो निश्चित तौर पर वह प्रभावी नहीं हो पाता . कुछ कवि गद्य को कविता कहने की भूल कर रहे हैं कविता में अपनी लयात्मकता है वह उसका लालित्य हुए संप्रेषण क्षमता को प्रभावी बनाती है तो नाटक या कथानक लघु कथा आदि में शब्दों भावों के सुगठित संयोजन से जो लयात्मकता दृष्टिगोचर होती है उससे पाठक अथवा श्रोता या दर्शक एक रिश्ता कायम कर लेता है ।
आज मुझे संगीत की बात करनी है आते हैं अत्यधिक ध्यान वही केंद्रित रखना चाहूंगा । मनुष्य के विकास के साथ उसने संगीत को जीवन में समावेश करने के हर सभ्यता में प्रयास किए हैं । संगीत आया कहां से ? इस बारे में बरसों से एक सवाल मेरी मस्तिष्क में घूमता रहा है....ध्वनियाँ कहां से प्राप्त की गई हैं ? यह प्रश्न के उत्तर में यह महसूस करता हूं और आप सब की सहमति चाहता हूं अगर सही हूं तो संगीत के लिए ध्वनि बेशक हवा बरसात सरिता के कलकल निनाद से पंछियों पशुओं की आवाजों से प्राप्त की गई है । लोकजीवन ने इसे सिंक्रोनाइज करके लोक संगीत का निर्माण किया होगा है या नहीं निश्चित तौर पर आप सहमत होंगे और उसके पश्चात विस्तार से अन्वेषण कर मनुष्य ने संगीत के शास्त्रीय स्वरूप का निर्माण अवश्य किया है ... ऐसा मेरा मानना है ।
यह सब कुछ पर हो जाने के बाद अब यह तय करना जरूरी है कि संगीत की जरूरत क्यों है जीवन को ?
आइए इसे भी तय कर लेते हैं..... एक अदृश्य अनुभूति को समझिए जो आपके शरीर को इस योग्य बनाती है कि आप किसी परम उद्देश्य को पूर्ण करने जिसके लिए आपको धरती पर प्रकृति अर्थात माँ ने जन्म दिया है । संगीत से जीवन सुगठित एवं संवेदी होता है । क्योंकि हम कंप्यूटर या रोबोट नहीं है हमें भावात्मक था जन्म के साथ दी गई है इन्हीं भावों के जरिए हम स्वयं को कम्युनिकेट एवं अभिव्यक्त करते हैं । हमारी अभिव्यक्ति में अथवा कम्युनिकेशन में अगर लयात्मक ता नहीं है तो हम सफल नहीं हो सकते । चाहे तो आप इस विषय पर रिसर्च कर सकते हैं एक एक शब्द यहां मैंने अपनी मानसिक रिसर्च के उपरांत कहा है ।
संगीत शारीरिक अनियमितताओं को नियमित करने का बेहतर तरीका है जिसके परिणाम स्वरूप हम अव्यवस्थित जीवन क्रम को व्यवस्थित जीवन क्रम में बदल देते हैं ।
नास्तिकों को छोड़ दिया जाए तो ईश्वर पर भरोसा करने वालों के लिए यह बताना आवश्यक है कि संगीत में जीवन ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने की क्षमता के विकास का गुण होता है । आप जब शिव आराधना करते हैं रावण के लिखे हुए शिव तांडव को पढ़ते हैं अथवा पुष्पदंत रचित शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ करते हैं तो आप महसूस कर दीजिए उस समय आप कितना प्रभावी ढंग से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारते हुए उस में विलीन हो जाना चाहते हैं ।         

3.12.19

यौनिक-हिंसा: समाज और व्यवस्था के लिए कुछ सुझाव


                         आलेख-गिरीश बिल्लोरे मुकुल
2012 दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामला भारत की राजधानी दिल्ली में 16 दिसम्बर 2012 को हुई बलात्कार एवम हत्या की घटना रोंगटे खड़े कर दिए थे यह सत्य है कि संचार माध्यम के त्वरित हस्तक्षेप के कारण प्रकाश में आयी वरना यह भी एक सामान्य सा अपराध बनकर फाइलों में दबी होती।
सोशल मीडिया ट्वीटर फेसबुक आदि पर काफी कुछ लिखा गया। इस घटना के विरोध में पूरे नई दिल्ली,  कलकत्ता  और बंगलौर  सहित देश के छोटे-छोटे कस्बों तक में एक निर्णायक लड़ाई सड़कों पर नजर आ रही थी ।   बावजूद इसके किसी भी प्रकार का परिवर्तन नजर नहीं आता इसके पीछे के कारण को हम आप सब जानते हैं ।
बरसों से देख रहा हूं कि नवंबर से दिसंबर बेहद स्थितियों को सामने रख देते हैं । ठीक 7 साल पहली हुई इस घटना के बाद परिस्थितियों में कोई खास परिवर्तन नजर नहीं आ रहा है । हम अगले महीने की 26 तारीख को नए साल में भारतीय गणतंत्र की वर्षगांठ मनाएंगे पता नहीं क्या स्थिति होगी तब मुझे नहीं लगता कि हम तब जबकि महान गणतंत्र होने का दावा कर रहे होंगे तब हां तब ही किसी कोने में कोई निर्भया अथवा प्रियंका रेड्डी का परिवार सुबक रहा होगा तब तक टनों से मोम पिलाया जा चुका होगा । अधिकांश जनता आम दिनों की तरह जिंदगी बसर करने लगे होंगे... हां उनके हृदय में डर अवश्य बैठ चुका होगा । ना तो समाज में और ना ही व्यवस्था में कोई खास परिवर्तन नजर आएगा परंतु परिवर्तन आ सकता है अगर समाज में लोग यह सोचें कि :- हम रेपिस्ट को केवल फांसी के फंदे पर देखना चाहते हैं अगर वह अपना खून है तो भी ..! शायद बदलाव शुरू हो जाएगा, परंतु सब जानते हैं ऐसा संभव नहीं है ।
व्यवस्था भी कानूनी व्यवस्थाओं का परिपालन करते-करते बरसों बिता देगी परंतु फांसी के फंदे तक रेपिस्ट नहीं पहुंच पाएंगे आप जानते हैं कि अब तक आजादी के बाद कुल 57 केस में फांसी की सजा हो पाई है । इसका अर्थ है कि कहीं ना कहीं रेपिस्ट न्याय व्यवस्था में लंबे लंबे प्रोसीजर्स के चलते लाभ उठा ही लेते हैं और जिंदा बनी रहते हैं कि वह लोग हैं जिन्हें जीने का हक नहीं है . एक साहित्यकार होने के बावजूद केवल रेप के मामलों में शीघ्र और अंततः फांसी की सजा की मांग क्यों कर रहा हूं..?
जी हां आपके ऐसे सवाल उठ सकते हैं लेकिन पूछना नहीं यह जघन्य अपराध है और इसका अंत फांसी के फंदे से ही होगा यह जितना जल्दी हो उतना समाज को और उन दरिंदों को संदेश देने के लिए काफी है जो रेप को एक सामान्य सा अपराध मानते हैं ।
सुधि पाठको , साहित्यकार हूं कवि हूं संवेदनशील हूं इसका यह अर्थ नहीं है कि न्याय के पासंग पर यौन हिंसा को साधारण अपराधों की श्रेणी में रख कर तोलूं । यहां ऐसे अपराधों के लिए केवल मृत्युदंड की अपेक्षा है ।
निर्भया कांड के बाद व्यवस्था ने व्यवस्थित व्यवस्था ना करते हुए ... इन अपराधों को स्पेस दिया है यह कहने में मुझे किसी भी तरह का संकोच नहीं हो रहा । हबीबगंज प्लेटफॉर्म पर हुए कांड के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने कुछ नए बदलाव लाने की कोशिश भी की है 50 महिला केंद्रों की स्थापना प्रत्येक जिले में कर दी गई है न्याय के मामले में मध्यप्रदेश की अदालतों में तेजी से काम हुआ है इसकी सराहना तो की जानी चाहिए लेकिन क्या यह पर्याप्त है मुझे लगता है कदापि नहीं आप भी यही सोच रहे होंगे कुछ सुझाव व्यवस्था के लिए परंतु उसके पहले कुछ सुझाव समाज के लिए बहुत जरूरी है अगर आप अभिभावक हैं तो अपनी पुरुष संतान को खुलकर नसीहत देने की पहल आज ही कर दीजिए कि महिलाओं के प्रति बेटियों के प्रति नकारात्मक और हिंसक भाव रखने वाले बच्चों यानी पुरुष संतानों के लिए घर के दरवाजे कभी नहीं खुल सकेंगे ।
समाज ऐसा कदम नहीं उठाएगा जीने का सुधरने का एक मौका और चाहेगा परंतु इन्हीं मौकों के कारण महिलाओं का शोषण करने को स्पेस मिलता है जो सर्वदा गैर जरूरी है क्या अभिभावक ऐसा करना चाहेंगे मुझे नहीं लगता जो पुत्र मोह में फंसे हैं ऐसा धृतराष्ट्री समाज कदापि अपनी पुरुष संतान के खिलाफ कोई कठोर कदम उठाएगा । यह वही समाज है जहां लड़कों के लिए व्रत किए जाते हैं यह वही समाज है जहां कुछ वर्षों पूर्व तक बेटियों के जन्म से उसे उपेक्षित भाव से देखा जाता है इतना ही नहीं बेटी की मां के प्रति नेगेटिविटी का व्यवहार शुरू हो जाना सामान्य बात है .
यह वही समाज है जहां पुत्रवती भव् होने का आशीर्वाद दिया जाता है । समाज से किसी को भी बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है । अगर आप मेरी बात को समझ पा रहे हैं तो गौर कीजिए बेटियों के प्रति स्वयं नजरिया पॉजिटिव करिए तो निश्चित तौर पर आप देवी पूजा करने के हकदार है वरना आप देवी पूजा करके केवल ढोंग करते हुए नजर आते हैं ।
बातें कुछ कठिन और कड़वी है पर उद्देश्य साफ है की औरत को लाचार मजबूर बना देने की आदत व्यवस्था यानी सरकार में नहीं समाज में है । अतः समाज को स्वयं में बदलाव लाने की जरूरत है बलात्कारी पुत्र के होने से बेहतर है बेटी के माता-पिता बन जाओ विश्वास करो डीएनए ट्रांसफर होता है आपका वंश चलता है आपकी वंशावली से आप की पुत्री का नाम मत काटो और आशान्वित रहो की बेटी सच में बेटों के बराबर है ।
धार्मिक संगठनों सामाजिक एवं जातिगत संगठनों थे उम्मीद की जा सकती है कि वे बेटियों की सुरक्षा के लिए सच्चे दिल से कोशिश है करें । अगर समाज सेवा का इतना ही बड़ा जज्बा भी कर आप समाजसेवी के ओहदे को अपने नाम के साथ जोड़ते हैं जो आपकी ड्यूटी बनती है आपका फर्ज होता है कि आप लैंगिक विषमताओं को समाप्त करें फोटो खिंचवाने का फितूर दिमाग से निकाल दें ।
आध्यात्मिक एवं धार्मिक गुरुओं से अपेक्षा की जाती है कि वे ईश्वर के इस संदेश को लोक व्यापी करें जिसमें साफ तौर पर यह कहा गया है कि- हर एक शरीर में आत्मा होती है और ईश्वर की परिकल्पना नारी के बिना अधूरा ही होता है इसका प्रमाण सनातन में तो अर्धनारीश्वर का स्वरूप के तौर पर लिखा हुआ है ।
नदी को लेकर सामाजिक व्यवस्था में बेहद विसंगतियां है । कुछ नहीं अभी अपनी मादा संतानों को सुकोमल बने रहने का पाठ पढ़ाती हैं । जबकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत की हर सड़क चाहे वह हैदराबाद की हो जबलपुर की हो भोपाल की हो जयपुर की हो नई दिल्ली की हो महिलाओं के लिए सुरक्षा कवच ना हो कर हिंसक नजर आने लगी हैं । समाज अगर अपना नजरिया नहीं बनता तो ऐसी घटनाएं कई बार सुर्खियों में बनी रहेगी और आपका विश्व गुरु कहलाने का मामला केवल मूर्खों का उद्घोष ही साबित होगा ।
अब समाज यह तय करें क्यों से करना क्या है सामाजिक कानून कठोर होने चाहिए सामाजिक व्यवस्था इस मुद्दे को लेकर बेहद अनुशासन से बांध देने वाली होनी चाहिए अगर बच्चे के यानी नर संतान के आचरणों में जरा भी आप गलती देखते हैं या गंदगी देखते हैं तो तुरंत आपको उसके ऊपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हुए उसे काउंसलिंग प्रोसेस पर बड़ा करना ही होगा अच्छे मां-बाप की यही पहचान होगी ।
धार्मिक जन जिसमें टीकाकारों कथावाचकों, साधकों योगियों को भी अब सक्रिय होने की जरूरत है । यहां हम उन ढोंगीयों का आव्हान नहीं कर रहे हैं बल्कि उनसे हमारी अपेक्षाएं हैं जो वाकई में समाज के लिए सार्थक कार्य कर रहे हैं ।
व्यवस्था पर भी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि व्यवस्था केवल घोषणा वीर ना रहे बल्कि जमीनी स्तर पर बदलाव लाने की कोशिश करें कुछ बिंदु मेरे मस्तिष्क में बहुत दिनों से गूंज रहे हैं उन पर काम किया जा सकता है....
1 1000 की जनसंख्या कम से कम 50 किशोरयाँ लड़कियां तथा कम से कम 50 महिलाएं आत्मरक्षा प्रशिक्षण प्राप्त हो
2 हर विद्यालय में अनिवार्य रूप से सेल्फ डिफेंस का प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए
3 हर सिविल कोर्ट मुख्यालय में 24 * 7 अवधि के लिए विशेष न्यायिक इकाइयों की स्थापना की जावे
4 हर थाना क्षेत्र में एक एक वन स्टॉप सेंटर की स्थापना हो जहां एफ आई आर चिकित्सा सुरक्षा की व्यवस्था हो
5 प्रत्येक जिला मुख्यालय में फोरेंसिक जांच की व्यवस्था की जा सकती है । यकीन मानिए चंद्रयान मिशन मिशन पर हुई खर्च का आधा भाग इस व्यवस्था को लागू कर सकता ।
6 रेप या यौन हिंसा रोकने के लिए सबसे अधिक फुलप्रूफ व्यवस्था की जानी चाहिए । घटना के उपरांत 3 दिन के बाद हैदराबाद में प्राथमिकी दर्ज की गई यह स्थिति दुखद है । जब हम तकनीकी रूप से बहुत सक्षम हो गए हैं ऐसी स्थिति में इस बात को तय करने की बिल्कुल जरूरत नहीं कि क्षेत्राधिकार किसका है अतः ऐसी टीमों का गठन करना जरूरी है जो मोबाइल हो और कहीं भी प्राथमिकी दर्ज करने का कार्य कर सकें फिर अन्वेषण के लिए भले जिस पुलिस अधिकारी का क्षेत्राधिकार हो उसे सौंप देना पड़े मामला सौंपा जा सकता है ।
7 :- अन्वेषण परिस्थिति जन्य साक्षी को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए
8 :- अन्वेषण हेतु केवल 7 दिनों का अवसर देना उचित प्रतीत होता है अगर साक्ष्यों की अत्यधिक जरूरत है तो अन्वेषण के लिए एसपी एडिशनल एसपी स्तर के अधिकारी से अनुमति लेकर ही अधिकतम अगले 7 दिन की अवधि सुनिश्चित की जा सकती है । अर्थात कुल मिलाकर 14 या 15 दिनों में अन्वेषण का कार्य प्रशिक्षित पुलिस अधिकारियों से कराया जाना उचित होगा ।
9:- भले ही स्थापना व्यय कितना भी हो प्राथमिक अदालतें गठित कर ही देनी चाहिए जो डिस्ट्रिक्ट जज की सीधी मॉनिटरिंग में कार्य करें इनके लिए विशेष न्यायाधीशों की तैनाती बेहद आवश्यक है ।
10:- सार्वजनिक यातायात साधनों में निजी सेवा प्रदाताओं से इस बात की गारंटी लेना चाहिए कि वह जिस वाहन चालक कंडक्टर को भेज रहे हैं अपराधिक प्रवृत्ति के तो नहीं है
11 :- हर सार्वजनिक यातायात व्यवस्था के प्रबंधन के लिए बंधन कारी होना चाहिए कि महिला सुरक्षा के लिए उसके परिवहन वाहन में क्या प्रबंध किए गए हैं निरापद प्रबंध के नियम भी बनाए जाने अनिवार्य है .
12 :- ट्रांसपोर्टेशन व्यवसाय जैसे ट्रक मालवाहक अन्य कार्गो वाहन के चालू किया उसके कंडक्टर की आपराधिक पृष्ठभूमि का परीक्षण करने के उपरांत ही उन्हें लाइसेंस जारी किया जावे
13 :- महिलाओं को लड़कियों को जीपीएस की सुरक्षा तथा आईटी विशेषज्ञ से ऐसी तकनीकी का विकास की अपेक्षा है जिससे खतरे या आसन्न खतरों की सूचना कंट्रोल रूम तथा महिला या बालिका द्वारा एक क्लिक पर भेजी जा सके ऐसी डिवाइस बनाना किसी भी आईटी विशेषज्ञ के लिए कठिन नहीं होगा ।
14 :- पॉक्सो तथा अन्य यौन हिंसा की रोकथाम के लिए बनाई गई नियम अधिनियम प्रावधान आदेश निर्देश को एक यूनिफॉर्म पाठ्यक्रम के रूप में बालक बालिकाओं को पढ़ाना अनिवार्य है
15 :- अन्वेषण के उपरांत मामला दाखिल करने के लिए पुलिस को केवल अधिकतम 20 दिनों की अवधि देनी अनिवार्य है साथ ही निचली अदालत में मामले के निपटान के लिए केवल 20 दिनों का समय दिया जाना उचित होगा।
16 :- कोई भी मामला 20 दिन से अधिक समय लेता है तो हाईकोर्ट को मामले को अपनी मॉनिटरिंग में लेते हुए विलंब की परिस्थिति का मूल्यांकन करने का अधिकार होना चाहिए ।
17 :- उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए क्रमशः 25 दिनों की अवधि नियत की जानी चाहिए जिसमें अपील करने के लिए मात्र हाईकोर्ट की स्थिति में 10 दिवस तथा सुप्रीम कोर्ट की स्थिति में 15 दिवस कुल 25 दिवस ( निचली अदालत के फैसले के उपरांत) देना उचित होगा । यहां विशेष अदालत द्वारा दिए गए फैसले के विरुद्ध 10 दिनों के अंदर अपील की जा सकती है तदोपरांत अगर निर्णय से असंतुष्ट हैं तो 15 दिनों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है ।
अगर व्यवस्था और समाज चाहे तो उपरोक्त अनुसार कार्य करके एक विश्वसनीय व्यवस्था कायम कर सकते 

27.11.19

वयोवृद्ध फिल्म कलाकार श्रीमती पुष्पा जोशी का निधन

 फिल्म रेड की दादी श्रीमती पुष्पा जोशी Pushpa Joshi  का दुखद निधन
85 वर्ष की उम्र में अजय देवगन की फिल्म रेड में दादी की भूमिका निभाने वाली श्रीमती पुष्पा जोशी का आज शाम मुंबई में निधन हो गया । पिछले सप्ताह  फिसल कर  गिर जाने से जाने के कारण उनका फैक्चर हुआ जिसका सफलतापूर्वक ऑपरेशन भी मुंबई में ही हुआ था ।  किन्तु दिनांक 26 नवंबर 2019 को रात्रि 11:40 बजे उनका मुंबई में दुखद निधन हो गया ।
जबलपुर निवासी 87 वर्षीय श्रीमती पुष्पा जोशी के पति स्वर्गीय श्री बी आर जोशी डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्यरत थे । जबकि उनके पुत्र आभास  जोशी एवं संगीतकार श्रेयस जोशी है पुत्र श्री रविंद्र जोशी  जितेंद्र जोशी श्री बृजेंद्र जोशी तथा दो पुत्रियां हैं । श्रीमती जोशी के बड़े पुत्र जी संगीतकार थे जिनका निधन हो चुका है । प्रेम नगर जबलपुर निवासी जोशी परिवार कि बुजुर्ग मातुश्री का पूरा जीवन सत्य साई सेवा समिति के साथ नारायण सेवा में बीता । मुझे उनके कर्मठ जीवन एवं हंसमुख स्वभाव ने हमेशा आकृष्ट किया है । निरंतर लोक सेवा के कार्यों में संलग्न मां पुष्पा जोशी जबलपुर से मुंबई अपने पुत्र श्री रविंद्र जोशी के साथ रहने गईं जहां उनकी  पौत्र वधु ने आभास श्रेयस के यूट्यूब चैनल के लिए एक फिल्म बनाई जो अजय देवगन के प्रोडक्शन हाउस को पसंद आई उसी ज़ायका फिल्म को देखकर उन्हें इलियाना डिक्रूज एवं अजय देवगन अभिनीत रियलिस्टिक स्टोरी पर बनी फिल्म में दादी की भूमिका के लिए आमंत्रित किया गया । बहुत दिनों के बाद उन्होंने यह आमंत्रण स्वीकार किया और भी 85- 86 वर्ष की उम्र में वर्ष की उम्र में रजत फलक पर नजर आए और उन्हें उनके काम के लिए बहुत सराहना मिली ।
श्रीमती जोशी मेरी मातुश्री  स्वर्गीय प्रमिला देवी की मित्र थीं
           यूट्यूब पर पुत्रवधू एवं पुत्र श्री रविंद्र जोशी Ravindra Joshi  द्वारा निर्मित एवं प्रदर्शित फिल्म में प्रभावी अभिनय करने के कारण चर्चा में आईं और उन्हें फिल्म रेड में उन्हें 85 वर्ष की उम्र में अभिनय का अवसर मिला । इसके अलावा उन्होंने रामप्रसाद की तेरहवीं फिल्म में भी अभिनय किया है । फेविक्विक द्वारा विगत माह जारी एक एडवर्टाइजमेंट बेहद प्रभावी रहा है ।
जन्म दिनांक 27 अगस्त 1936
निधन 26/10/2019

मती जोशी ने अपने पुत्र की कविता छोडूंगी ना आज अभी जीवन बाकी है अपने फेसबुक अकाउंट पर पोस्ट भी की थी , हमेशा से ज़िंदादिल श्रीमती जोशी एक आइकॉन हीं थीं ।  आखरी सांस तक कार्य करते रहने वाली श्रीमती पुष्पा जोशी को विनम्र श्रद्धांजलि

24.11.19

ट्रांसफर ऑफ़ मेमोरी कैसे होती है

【साभार : गूगल 】
*कहाँ सुरक्षित रख सकते हैं आप अपनी स्मृतियाँ...!*
ईशा फाउंडेशन के प्रवर्तक एवं संचालक सद्गुरु कहते हैं कि मृत्यु के बाद अशरीरी व्यक्ति अर्थात प्राण बीता जीवन याद रख सकता है अपनी पुरानी यादों को.भी ।
*यह कैसे होता है...?*
अभी मैं सद्गुरु की बातों का समर्थन करते हुए कहूंगा की यादें किस तरह से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक या एक जनक से दूसरे जनक तक स्थानांतरित होती है *ट्रांसफर ऑफ़ मेमोरी* का एक सिद्धांत मैं सामने रखना चाहता हूं । आपके डीएनए में जो आपके बच्चे के जन्म तक मौजूद है वह गर्भाधान के समय उसमें ट्रांसफर हो जाता है और फिर जो आपकी पत्नी का डीएनए है उसने जो भी कुछ मौजूद होता है यादों के तौर पर वह भी उस भ्रूण में ट्रांसफर हो जाता है । और इसका परिणाम 9 माह पूर्ण होते ही आप आसानी से देख सकते हैं या तो वह बच्चा आपकी तरह दिखाई देगा या फिर वह आपकी पत्नी की तरह या नहीं बच्चे की मां की तरह यानी समस्त यादें ट्रांसफर हो गई है । फिर घरेलू वातावरण का प्रभाव भ्रूण कल से यानी जब बच्चा गर्भावस्था में विकसित होता है तब की यादें उसके शरीर में जुड़ती हैं आपको याद होगा अभिमन्यु का कथानक जिसने गर्भावस्था में ही चक्रव्यूह तोड़ने के प्रोसेस को समझ लिया था इससे बेहतर कोई उदाहरण ना होगा आप सब को समझाने के लिए भ्रूण जब उसका स्वरूप विकसित होता रहता है तब आप माता को जो भी सुनाते हैं समझाते सिखाते हैं अथवा जितना भी उसे प्रताड़ित करते हैं या खुशी देते हैं उसका असर बच्चे की स्मृति में जुड़ता चला जाता है और फिर ठीक उसी तरह नजर आता है बच्चा जैसा आप उसे विकसित करते हैं । यह है शारीरिक यादों का स्थानांतरण ट्रांसफर आफ मेमोरी का सिद्धांत इसे आप कह सकते हैं अगर चाहे तो । सद्गुरु कहते हैं कि काया और अदेह शरीर जीवन के दो स्वरूप होते हैं ।
मैं सहमत हूं ....अदेह शरीर एक उर्जा पिंड होता है क्योंकि यह अपने डीएनए में शरीर के साथ रहते वक्त इतना सिंक्रोनाइज हो जाता है की इमोशन आचार विचार व्यवहार विचारधारा कार्यप्रणाली जैसी चीजें डीएनए में स्टोर कर देता है ।
विज्ञान भी इससे सहमत है असहमति का सवाल इस वजह से भी नहीं कि अब हम डीएनए को खोज चुके हैं ।
शरीर की स्मृतियां आपके शरीर से आप के वंशज के शरीरों में कैसे पहुंच जाते हैं ? यह सवाल करना अब ग़ैरजरूरी है क्योंकि डीएनए एकमात्र वह व्यवस्था है जिसमें आपकी मौजूदा कायिक यादों को समेट कर रखता है ।
कायिक यादें क्या है ?
कायिक यादों का अर्थ साफ तौर पर बॉडी के स्ट्रक्चर प्रवृत्ति व्यवहार आदि के अलावा और कुछ नहीं ।
शरीर का ढांचा कैसा बनेगा उसने क्या बदलाव होंगे वह सब निर्भर करता है... इस बात पर कि क्या क्या ट्रांसफर हुआ । ट्रांसफर प्रक्रिया में फिजिकल यानी कायिक गुणधर्म किसी जीवित व्यक्ति के डीएनए में सुरक्षित हो जाते हैं । और जब वह व्यक्ति रीप्रोडक्टिव प्रक्रियाओं में शामिल होता है तो वह डीएनए में स्टोर यानी संग्रहित होने के कारण संतान में स्थानांतरित हो जाता है । आपने देखा होगा जो जातियां अपराध करती हैं उनकी संतानें भी अपराध करतीं हैं । और जो लोग अध्ययन करते हैं उनकी संतानें भी अच्छा अध्ययन करने की अभ्यस्त होती हैं अर्थात जो भी डीएनए में सुरक्षित हो जाता है उसका आने वाली पीढ़ी बखूबी उपयोग करती हैं यहां यह स्पष्ट कर दूं अपवाद स्वरूप कुछ बातों को छोड़ दिया जाए तो सामान्य रूप से यही होता है आपने देखा होगा और महसूस भी किया होगा जींस में बदलाव केवल व्यवहार आचार में बदलाव से आते हैं लेकिन यह तुरंत हो जाए ऐसा नहीं है बदलाव पीढ़ियों में ही आ सकते हैं। डार्विन गलत नहीं है ना ही हमारी सामाजिक व्यवस्था में प्रचलित लोकोक्तियां एवं मुहावरे जिनमें यह कहा जाता है कि आपकी संतान पर आपकी व्यवहार का असर दिखाई देता है । और ऐसा होता भी है । सामान्य रूप से राजा का बेटा राजा होता है आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि यह है एक सामान्य और शाश्वत घटना है जिसे आप हम सभी जानते हैं। कभी आप अपने पुराने एल्बम से फोटो निकालिए । जिसमें आपके दादा परदादा का चित्र हो आप देखेंगे आपकी ही पीढ़ी के किसी व्यक्ति का चेहरा मोहरा किसी पूर्वज से मिलता है । यह है डीएनए के खजाने में आपकी स्मृतियों का
संग्रहित होकर आने वाली समय तक सुरक्षित रहना ।
आप इस सिद्धांत से सहमत अवश्य होंगे । अपने अगले किसी आर्टिकल में मैं अनिवार्य रूप से अदेह शरीर ने स्मृतियों के संग्रह का विश्लेषण करूंगा तब तक के लिए इजाजत दीजिए नमस्कार
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

9.11.19

आप शांति दूत हैं : हिंदुस्तान महफूज रहेगा

हिंदुस्तान की तासीर है कि वह विश्व में खुद को एक ऐसी जम्हूरियत के तौर पर पेश करें जहां बस अमन हो बेशक अमन पसंद लोगों का वतन इस बार भी अपनी वही छवि और लोगों के सामने पेश करेगा जो इलाहाबाद हाईकोर्ट के पहले और बाद में पेश हुई थी । विश्व के बहुत सारे देश और हर हिंदुस्तान को समझने वाला इंसान स्तब्ध है कि कल क्या होगा । दोस्तों कल और कल के बाद हिंदुस्तान हिंदुस्तान रहेगा जैसा हिंदुस्तान था । इसमें कोई शक नहीं कि सैकड़ों वर्षा से तिरंगे की शान बरकरार है बरकरार रहेगी यह हिंदुस्तान की हवाओं की तासीर है । कल जो फैसला आना है आने दीजिए हम पूरे सम्मान के साथ उस फैसले को स्वीकार करेंगे । हमारी नस्लें आने वाले फैसले को और उसके बाद की परिस्थितियों को स्वीकार स्वीकारेंगी । आशावादी हूं पूरा हिंदुस्तान एक रहेगा सुप्रीम कोर्ट कल यानी 9 नवंबर 2019 को जो फैसला देगा उसका असर भी पॉजिटिव ही होगा । यह अलग बात है कि लोग जो सवाल उठाने के आदी हैं वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आते परंतु जब देश के जम्हूरियत और अमन पसंद लोग जिनकी संख्या सबसे ज्यादा है जरूर ऐसी ताकतों के खिलाफ एकजुट होंगे और समाज की देश की आंतरिक एकता को मजबूत बना देंगे
। उन जम्हूरियत पसंद अमन पसंद लोगों में आप शामिल है राष्ट्रीय हित में कल और आने वाले दौर को खुशनुमा बनाएं ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः

5.11.19

क्यों लिखते हैं दीवारों पर - "आस्तिक मुनि की दुहाई है"

सांपों से बचने के लिए घर की दीवारों पर आस्तिक मुनि की दुहाई है क्यों लिखा जाता है घर की दीवारों पर....!
आस्तिक मुनि वासुकी नाम के पौराणिक सर्प पात्र की पुत्री के पुत्र थे । एक बार तक्षक से नाराज जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया और इस यज्ञ में मंत्रों के कारण विभिन्न प्रजाति के सांप यज्ञ वेदी संविदा की तरह आ गिरे । तक्षक ने स्वयं को बचाने के लिए इंद्र का सहारा लिया तो वासुकी ने ऋषि जगतकारू की पत्नी यानी अपनी बहन से अनुरोध किया कि पृथ्वी पर रहने वाले सभी सांपों की रक्षा कीजिए और यह रक्षा का कार्य आपके पुत्र मुनि आस्तिक ही कर सकते हैं । अपने मामा के वंश को बचाने के लिए आस्तिक मुनि जो अतिशय विद्वान वेद मंत्रों के ज्ञाता थे जन्मेजय की यज्ञशाला की ओर जाते हैं । किंतु उन्हें सामान्य रूप से यज्ञशाला में प्रवेश का अवसर पहरेदार द्वारा नहीं दिया जाता । किंतु आस्तिक निराश नहीं होते और वे रिचाओं मंत्रों के द्वारा यज्ञ के सभी का सम्मान करते हैं । जिसे सुनकर जन्मेजय स्वयं यज्ञशाला में उन्हें बुलवा लेते हैं । जहां आस्तिक मुनि पूरे मनोयोग से यज्ञ एवं सभी की स्तुति की जैसे जन्मेजय ने उनसे वरदान मांगने की उम्मीद की । जन्मेजय की मांग तक्षक को आहूत करने के लिए मंत्र पढ़ने का अनुरोध यज्ञ करने वाले लोगों से किया । इंद्र के साथ तक्षक स्वयमेव खींचे हुए यज्ञ वेदी के पास आते चले गए । इंद्र तो अपनी ताकत से वापस निकलने में कामयाब हो जाते हैं लेकिन तक्षक यज्ञ वेदी पर गिरने लगते हैं। जिन्हें मंत्र बल से आस्तिक मुनि रोक देते हैं । तभी यज्ञ करने वाले विप्र को वरदान देने का आग्रह करते हैं . यज्ञ के यजमान जन्मेजय ने वरदान मांगने की अपेक्षा करते हुए आस्तिक मुनि की वाणी की मंत्रों की स्तुति की सराहना की । तब आस्तिक मुनि ने सर्प यज्ञ रोकने क्या वरदान मांगा । इससे एक पूरी की पूरी प्रजाति बच गई और सरीसृप वंश जीवित रह गया । 
कथा पौराणिक है लेकिन इकोसिस्टम को बनाए रखने के लिए इस विद्वान मुनि की सराहना करनी चाहिए सांपों को आस्तिक मुनि की दुहाई देकर मनुष्य के बनाए घरों में घुसने से रोकने का प्रयास करते हैं हम इस तरह लिख कर आस्तिक मुनि की दुहाई है । 
*जैव- विविधता को बनाए रखने के लिए यह कहानी बेहद महत्वपूर्ण है . भारतीय संस्कृति की कथाएं विश्व समाज के लिए यह एक प्रेरक कहानियाँ होतीं हैं... भारतीय एतिहासिक माइथ कहने वालों के मुंह पर तालाबंदी कर सकती है परंतु समझने की जरूरत है पर समझाया कुछ और जाता है...!*

3.11.19

टिकिट चेकर के झापड़ ने प्रेमनाथ को बना दिया था एम्पायर टाकीज का मालिक : श्री सच्चिदानंद शेकटकर





         अपने दमदार अभिनय के लिए प्रसिद्ध रहे अभिनेता प्रेमनाथ हमारे जबलपुर के ही गौरव पुत्र थे। उनने अंग्रेजों द्वारा बनाई गई एम्पायर टाकीज को भी खरीद लिया था। इस टाकीज को खरीदने का किस्सा भी लाजवाब है।
प्रेमनाथ जब स्कूल में पढते थे तब एक बार वो एम्पायर टाकीज की दीवाल फांदकर बिना टिकट लिए पिक्चर देखने बैठ गए। जब टिकिट चेकर टिकिट चेक करने आया तो किशोर प्रेमनाथ से टिकिट मांगी तो उनने टिकिट न होने की बात कही और बताया कि वो बाउंड्री वाल फांदकर अंदर आ गए। टिकिट चेकर ने प्रेमनाथ को एक झापड़ मारा और पकडकर बाहर लाया और बोला जैसे तुम दीवार फांदकर आये थे वैसे ही फांदकर बाहर भागो। जाने के पहले किशोर प्रेमनाथ ने टिकिट चेकर से कहा कि देखना एक दिन मैं इस टाकीज को खरीद लूंगा।
      प्रेमनाथ जब बडे़ हुए और पिता की मर्जी के खिलाफ अभिनय करने मुंबई चले गए। 1952 में उन्होंने एम्पायर टाकीज खरीद ली। मालिक बनने के बाद जब प्रेमनाथ ने टाकीज का उद्घाटन किया तो जिद्दी प्रेमनाथ का रूप सामने दिखा। प्रेमनाथ उसीतरह से बाउंड्री वाल फांदकर टाकीज के भीतर गये जैसे वो किशोर अवस्था में दीवार फांदकर टाकीज के भीतर गये थे। यह संयोग रहा कि प्रेमनाथ को झापड़ मारने वाला टिकिट चेकर तब भी काम कर रहा था। प्रेमनाथ ने उस टिकिट चेकर को बुलाया। घबराते हुए टिकिट चेकर प्रेमनाथ के सामने आया। लेकिन उस नजारे को देखकर सब लोग दंग रह गए जब प्रेमनाथ उसी कुर्सी पर बैठे जिससे उन्हें टिकिट चेकर ने उठाकर भगाया था।

कुर्सी से उठकर प्रेमनाथ ने झापड़ मारने वाले टिकिट चेकर को बिठाया और फूलमाला पहनाकर उसका स्वागत किया उसे मिठाई भी खिलाई। फिर प्रेमनाथ ने टिकिट चेकर को गले लगाया और उससे बोले यदि तुमने मुझे झापड़ मार कर भगाया न होता तो आज मैं इस एम्पायर टाकीज का मालिक नहीं बनता।
ऐसे दिलदार थे हमारे शहर के गौरव प्रेमनाथ अमर प्रेमनाथ। आज पुण्यतिथि पर उन्हें श्रृद्धांजलि।

20.10.19

नाटक समीक्षा : बरी द डेड

#बरी_द_डेड मंचन दिनांक 19 अक्टूबर 2019 स्थान- मानस-भवन,
निर्देशक:- श्री सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ नीपा रंगमंडल,  लखनऊ 
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निर्देशक द्वारा प्रिय अक्षय ठाकुर का विशेष रूप से उल्लेख करना मेरे लिए गौरव की बात थी क्योंकि आप जानते हैं कि अक्षय से मेरा रिश्ता बालभवन का है और उससे अधिक यह कि अक्षय में अद्भुत अभिनय एवं कला पक्ष की समझ है वह पढ़ता भी है हिस्ट्री भी पड़ता है वर्तमान को समझता भी है कुल मिलाकर थिएटर का #अक्षयपात्र भी बनेगा यह मेरा दावा है चिरंजीव अक्षय को आशीर्वाद और शुभकामना
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         नाटक का आमन्त्रण था Vinay Amber की ओर से ही नहीं Supriya Shrivastava Amber Amber की जानिब से भी आमंत्रण पूरे फैस्टिवल के लिए भी..... परन्तु Akshay Thakur के न्योते की वजह से समय से एक घंटे पहले पहुँच  गया . सेट डिजायनर श्री जोशी जी  की तारीफ़ अक्षय ने पहले ही कर दी थी सो था भी गजब.. !
      जबलपुर नाटक के मामले में बता दूँ कि  अन्य शहरों के सापेक्ष यहां  अधिक अच्छे दर्शक देता है.. इस लिए हर निर्देशक को जो जबलपुर में नाटक पेश करने का मन बना रहे हों समझदारी से प्रस्तुति के लिए अपना श्रेष्ठतम नाटक ही लाते हैं.
      जबलपुरिया दर्शक हूट नहीं करते सताते नहीं पर निर्देशक और टीम को समझ लेते हैं. खैर मुद्दे पर आते हैं.
                      नाटक की कहानी शुरू होती है चार जिंदा सैनिकों द्वारा छह मरे हुए सैनिकों की लाशें को दफन करने की जद्दोजहद से । कब्र को 6 फीट गहरा खोजना था और फावड़े के जरिए जिंदा सैनिक यही कुछ करते नजर आ रहे थे ।
         कब्र खोदने वालों को अजीब तरीके से गुस्सा आ रहा था और वह अपनी बॉस के खिलाफ थे । जिंदा सैनिकों में नाराजगी थी वे कहते थे हुक्मरानों की वजह से हमें तकलीफ होती है । जब 6 फीट गड्ढे खुद ही जाते हैं तो दफनाने का हुक्म मिलता है किंतु इसके पहले संस्कार विधियों को अपनाने की जरूरत को नजरअंदाज नहीं किया जाता और युद्ध भूमि में दो धर्मगुरु आते हैं यहां निर्देशक ने पंडित छोड़कर पादरी और मौलवी धर्मगुरु को ही बुलाया जो समझ से परे रहा है ।
  एक सिपाही द्वारा शीघ्रता के साथ लाशों को सुपुर्द ए खाक करने की दलीलों से प्रभावित होकर दोनों धर्मगुरुओं ने सहमति दी । संवादों में बेहद चुटीला पन नजर नहीं आया जब की जरूरत भी नहीं थी उसकी परंतु कुछ जगह संवादों को चुटीला बनाने की नाकामयाब कोशिश की गई थी यहां काम किया जाना शेष है ।
मैं कहानी के जितने हिस्से की बात कर रहा हूं संवाद उतने भाग के टिप्पणी योग्य थे तो लिख दिया ।
अब बारी थी लाशों को गड्ढों में रखा गया । वहां लाशों के कराहने की आवाज सुनाई दी और फिर सारी लाशें दफन होने से इनकार करने लगी उन्होंने इंकलाब भी कर दिया ।
यहां सार्जेंट ने अपने बड़े ऑफिसर्स को इस बारे में बताया । परंतु पहली बार ऑफिसर्स अपनी दलील देकर वापस कर दिया और कहा दफनाने की कोशिश करो इसके बाद डॉक्टर को भेजकर डेथ सर्टिफिकेट भी हासिल किए । तीसरी बार तीन चरित्रों को वहां भेजा गया संभवत है एक मंत्री दूसरा ब्यूरोक्रेट और तीसरा आर्मी का हेड था । मंत्री ने लाशों से दफन हो जाने को कहा एक लच्छेदार भाषण भी दिया परंतु लाशें थीं बहुत जबर थीं  जो कि टस से मस ना हुईं । फिर उनसे जुड़ी महिलाओं को बुलाकर समझ वाया गया ।  लाशों ने उनको भी इंकार कर दिया सबकी अपनी अपनी वजह थी हर सैनिक किसी ना किसी कारण के लिए दफन नहीं होना चाहता था । यह नाटक यह प्रदर्शित करना चाहता है की सैनिक भी युद्ध नहीं चाहते । कथा किस पृष्ठभूमि में लिखी गई है वर्तमान पृष्ठभूमि से बिल्कुल इतर मामला है उम्मीद की जा सकती है कि एक सामाजिक पृष्ठभूमि पर लिखी गई कहानी हो सकती है तो कथावस्तु स्वीकार्य है । लंबे समय से युद्ध ग्रस्त देश के  सैनिक ऐसा सोच सकते हैं । परंतु  वर्तमान संदर्भों में भारत के संदर्भ में यह नाटक प्रासंगिक नहीं है यह है मै पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं और कह भी रहा हूं।
सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ जी ने अगर यह नाटक कश्मीर के संदर्भ पेश किया है तो भी समझ से परे है ।
यह मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि दर्शकों की टिप्पणियां है समझ गई ना कि जबलपुर का दर्शक फिल्मों के मामले में कैसा भी हो लेकिन थिएटर के दर्शक एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी ही है । नाम न बताते हुए एक दर्शक की टिप्पणी कोट करूंगा- यह नाटक तो सीधे प्रधान सेवक को भी समझाने की कोशिश करता है ।
नाटक के अंत में इस बात का उदघोष कि हम युद्ध नहीं चाहते मन को प्रभावित करता है । अगर प्रधान सेवक की बात करें तो जब जिस देश पर जैसी परिस्थिति आती है , तब उस देश का शासक वैसा ही करता है और करना भी चाहिए । अगर यह कल्पना है तो भी सेना में विद्रोह की चिंगारी को हवा देना किसी भी देश के लिए तब तक ठीक नहीं जब तक की विश्व बंधुत्व के मूल्यों को विश्व स्वयं न जीने लगे । मित्रों यहां यह समझने की जरूरत है की युद्ध तो कोई भी विचारधारा नहीं चाहती परंतु कुछ विचार धाराएं युद्ध पर आधारित ही है जो यह कहती हैं कि सत्ता का रास्ता बंदूक की गोलियों से निकलता है उन्हें भी युद्ध से तौबा कर लेनी चाहिए । आज भारत को अगर यह समझाया जा रहा है तो गैर जरूरी है क्योंकि कन्वेंशनल वार से ज्यादा खतरनाक चोरी-छिपे युद्ध करना क्या सिर्फ भारत की भौगोलिक सीमाओं को क्षतिग्रस्त देखा जा सकता है अगर हां भारत के संदर्भ में यह नाटक स्वीकृति योग्य है । निर्देशक और लेखक के बीच संवाद हीनता का होना स्वभाविक है !
मुझे नहीं लगता कि निर्देशक वैश्विक पॉलिटिकल सोच के साथ इस नाटक पेश कर रही थे बल्कि वे तो यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि- किसी के लिए भी उपयोगी नहीं किसी को भी सुख नहीं देता युद्ध में जीता हुआ भी कभी नहीं जीतता । निर्देशक श्री सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ जी को बधाई नाटक कला पक्ष बहुत मजबूत है संवादों में कुछ बातों की तरफ रंगकर्मी श्री सीताराम सोनी जी के आग्रह पर विशेष ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा उनका मत था कि- मृत्यु के बाद जिजीविषा ही नहीं होती तो दफन होने या ना होने का मामला ही नहीं बनता सोनी जी की बात आप तक पहुंचा रहा हूं । वहां बहुत दिनों के बाद फिर ज्ञान जी पंकज गुलुष जी से  रमेश सैनी जी ताम्रकार जी गंगा चरण मिश्र जी आदि से भेंट हुई ...!
हां एक बात और अंत में जो गीत हुआ उसमें एक हँसिया  जिसे एक पात्र बजा बजा कर समूह गीत गा रहीं थीं ।  सोच रहा था कमल झाड़ू पंजा आदि आदि नजर ना आए आते भी कैसे इनमें से.....

15.10.19

नेत्रहीन बालिकाओं से मिलकर भावुक हुए अभिजीत भट्टाचार्य


आप से सीखने आया हूं सीखकर जाऊंगा : अभिजीत भट्टाचार्य
बेटियों मैं आप से सीखने आया हूं और सीखकर ही जाऊंगा । नेत्र दिव्यांग बच्चियां से मिलकर भावुक हुए सुप्रसिद्ध गायक अभिजीत भट्टाचार्य ने आगे कहा कि- बच्चियों की गायकी सुनकर मैं हतप्रभ हूं इनमें जो कम समय में इतना प्रभावी गायन प्रशिक्षण प्राप्त किया है उसके लिए मैं उनसे कुछ ना कुछ हासिल करके ही जा रहा हूं जो ईश्वर ने इन बालिकाओं को दिया है वह सहज उपलब्ध नहीं होता । आजकल गायन में सफलता बहुत से है जो हर आसानी से मिल जाती है तकनीकी इसे बहुत आसान बना देती है परंतु आप जिस तरह से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं वह अद्भुत है आजकल जो गाना भी नहीं जानता वह भी गाना गा लेता है और उसका गाना प्रसिद्ध भी हो जाता है तकनीकों के कारण संगीत में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है और आप सबको इससे प्रतिस्पर्धा करनी है । मैं आपके गायन से अभिभूत हुआ हूं तक आशय के विचार नेत्रहीन कन्या विद्यालय की संगीत छात्राओं के समक्ष व्यक्त करते हुए अभिजीत ने नगर निगम जबलपुर संभागीय बाल भवन जबलपुर एवं नेत्रहीन कन्या विद्यालय के प्रति शुभकामनाएं व्यक्त की ।
श्री आशीष कुमार आयुक्त नगर निगम जबलपुर श्री रोहित कौशल अतिरिक्त आयुक्त नगर निगम जबलपुर संचालक संभागीय बाल भवन गिरीश बिल्लोरे, सहायक आयुक्त श्रीमती एकता अग्रवाल प्राचार्य नेत्रहीन कन्या विद्यालय श्री पूनम चंद्र मिश्र, कार्यक्रम कोऑर्डिनेटर शैलजा सुल्लेरे, डॉक्टर शिप्रा सुल्लेरे की उपस्थिति में कार्यक्रम का शुभारंभ श्री अभिजीत भट्टाचार्य के स्वागत सत्कार से हुआ । इस क्रम में संभागीय बाल भवन जबलपुर के संचालक गिरीश बिल्लोरे डॉक्टर शिप्रा सुल्लेरे, श्री सोमनाथ सोनी एवं श्री देवेंद्र यादव तथा श्रीमती विजयलक्ष्मी अय्यर द्वारा किया गया । नेत्रहीन कन्या विद्यालय के प्राचार्य श्री पूनम चंद मिश्र श्रीमती किरण एवं श्रीमती रेखा नायडू द्वारा भी अतिथि कलाकार का स्वागत किया ।
तदुपरांत स्वच्छता अभियान स्वच्छ भारत मिशन के लिए विशेष रूप से तैयार समूह गीत की प्रस्तुति डॉक्टर शिप्रा सुल्लेरे के संगीत निर्देशन में
मोना , नीलम, गुनिता, हर्षिता, शिवकुमारी, दसोदा, सीता बर्मन, ललित, महिमा,रोशनी, चन्द्रकला, सोनिया, शिवानी-1, प्रीति, सुरजना, सरिता, बिट्टू, वर्षा, सुमंती, गुड़िया, सिया कुमारी, अर्चना एवम शिवानी-2 मे की गई कार्यक्रम में गिटार पर श्रेया ठाकुर तबले पर कुमारी मनीषा तिवारी हारमोनियम पर कुमारी मुस्कान सोनी ने संगीत सहयोग दिया । आयोजन में सुश्री किरण एवं रेखा नायडू का उल्लेखनीय सहयोग मिला है।

7.10.19

दफ्न जो सदियों तले है वो खज़ाना दे दे : मुज़फ्फर वारसी



मुजफ्फर वारसी हिंदुस्तान और पाकिस्तान के मशहूर शायर है यह जितने पाकिस्तान में मकबूल रहे उससे ज्यादा मां भारती  के  बेटों से इन्हें मोहब्बतें मिली हैं।  वारसी साहब का जन्म यूं तो हिंदुस्तान में हुआ 47 के बंटवारे में वे पाकिस्तान चले गए किंतु एक फिलॉस्फर पर की तौर पर पहचाने जाने लगे । वारसी साहब की आवाज और कलाम दोनों ही अव्वल दर्जे का होने से उनकी बात सीधे दिल में उतर आया करती थी और जिन शब्दों का इस्तेमाल वह अपनी पोएट्री में करते थे वह गुलजार जैसे शायरों के लिए एक रास्ता बन गए । साथियों उस देश में जहां ना तो शायरों की कदर है ना ही कलमकारों की उनका हिंदुस्तान से जाना मेरी नजर में ठीक ना था । यह बंदूक पकड़ने  वाले कमसिनों देश बनाने की जद्दोजहद पाकिस्तानी एडमिनिस्ट्रेशन ने की है जबकि वहां के बच्चे एक सर्वे के मुताबिक भारत के बच्चों की तरह ही बेहद बड़ी बौद्धिक क्षमता वाले हुआ करते हैं परंतु पाकिस्तानी एडमिनिस्ट्रेशन ने वहां के पॉलिटिकल चिंतन ने बच्चों को सही रास्ता दिखाया होता तो दोनों मुमालिक बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में बहुत आगे होते परंतु वहां इल्म तालीम और बौद्धिक क्षमताओं के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया और हम यह सब करते रहे ।
     साथियों किसी देश की तरक्की का आधार देश के बच्चे हैं हम कूची बांसुरी और कलम पकड़ाते हैं और वो जेहाद का पाठ पढ़ाते हैं । अंतर नजर आता है फौरी तौर पर आए ना आए दो दशक बीत जाने के बाद जब बच्चा बीस इक्कीस साल का होता है वह किसी भी देश के लिए कीमती बन जाता है इसका मीज़ान वहां के जाहिल सियासतदां नहीं लगा पाए वहां तो अब्दुल कादिर जैसा साइंटिस्ट होता है और यहां कलाम साहब जैसे सर्व पूज्य लोग होते हैं बस इतना सा फर्क है दोनों मुल्कों में तो चलिए सुनते हैं मुजफ्फर वारसी साहब को
यहाँ चटका लगाइये
जन्म: 23 दिसंबर 1933, मेरठ
मृत्यु: 28 जनवरी 2011, लाहौर, पाकिस्तान

5.10.19

भारत की आत्मा धर्म में बसती है ..तॊ आप ग़लत हैं ! : Salil Samadhiya

लेखक : सलिल 
अगर आप सोचते हैं कि भारत की आत्मा धर्म में बसती है ..तॊ आप ग़लत हैं !
वह अध्यात्म , तप और  त्याग में भी नही बसती !
  वह उत्सव, तीज , त्योहारों में भी नही बसती !!
वह सिर्फ़ एक ही चीज़ में बसती  है ..
और वह है   "दिखावा "  !!

....इसे आप ध्यान से समझ लें!
पूरे भारत की  आत्मा में जो तत्व गहरे समाया है,   वह 'सत्य' या 'परमात्मा' नही है!
 वह है -  "मैं क्या चीज़ हूं !"

यहां हर व्यक्ति इस जुगत लगा है कि,
  किसी भी तरह से , किसी भी क्षेत्र में सफ़ल होकर,  दूसरों को बता सके कि  "देख , मैं क्या चीज हूं "
यही दिखाने के लिए वह पैसा कमा रहा हैं ,
यही दिखाने के लिए वह  नेतागिरी कर रहा है , यही दिखाने के लिए वह अधिकारी बना है ,
यही दिखाने के लिऐ वह कविता कर रहा है, लिख रहा है !

यह महज़ जीविकोपार्जन का मामला नही है !
यह नुमाईश का मामला है !
अपनी हैसियत के प्रदर्शन का मामला है !
 यही दिखाने के लिए वह नाच रहा है ..गा रहा है  या ..अन्य उद्यम कर रहा है  !!
जब तक ये  "दिखावावाद" जिंदा हैं भारत में ,
आप भूल जाईये  कि यहां कोई उत्थान हो सकता है !
न साम्यवाद , न समाजवाद, न राष्ट्रवाद !

अभी सौ वर्षों तक यहां जो "वाद" चलेंगे वो हैं  -
 "अहंवाद"  "मैं वाद",  "स्वार्थवाद" ,  "परिवारवाद", "लूटखसोट वाद "
और जब तक ये "वाद" हैं , तब तक किसी भी तरह का उत्थान भारत में परम असंभवना है !
वह इसलिए , क्योंकि यहां खून के एक खरबवें  हिस्से में भी जो विष भरा है ..वह है  ""वी.आई.पी.वाद", 
""वर्गभेद वाद " का  विष !

यहां आलम ये है कि एक स्कूल , एक क्लास में पढ़े बालसखा भी  ग्रुपों में बँट जाते हैं !
जो सफ़ल हैं ..वो स्वयं को एलीट मानने लगते हैं और अन्यों को दोयम !
भारत में शायद ही ऐसा अधिकारी देखने मिलेगा जो अपने मातहतों  को हिक़ारत से ना देखता हो!
  शायद ही ऐसे लोग मिलेंगे जो घर में  काम करने वाली बाई , मजदूर,  प्लम्बर , इलेक्ट्रिशियन  या  स्वीपर को तुच्छता  से ना देखते हों !
 शायद ही ऐसा नेता मिलेगा जिसके आस-पास 4-6 छर्रे न मँडराते हों ...और वह अपने आप को आलमगीर  न समझता हो !
फ्लाइट से कहीं जाने वाला व्यक्ति .. जब तक 10-20 बार  अनेक लोगों के बीच ये ना बक ले कि  "मेरी कल सुबह 10 बजे की फ्लाइट है"  या ,
 "मैं कल 5 बजे की फ्लाइट से वापिस लौटा!" ..उसे लगता हैं कि  मेरा आना जाना  सफ़ल नही हुआ !
छुटभैये बिल्डर ज़रा सा पैसा आते ही मोटी मोटी सोने  की चेन  और कड़ा  पहनकर अपने सफ़ल होने की भौंडी  नुमाईश करते  मिलेंगे !
नव धनाड्य हर साल कारें बदल कर अपने अमीर होने की पुनर्रुदघोषणा करते हैं  !

कुल मिलाकर ..जिस एक भाव से पूरा भारतवर्ष आविष्ट  हैं ..वह है -
"देख , मैं क्या हूं , और तू क्या है ?"

..यह दिखावावाद ही  वह खाद है.. जिस पर लहलहा रही हैं  भ्रष्टाचार की फसलें ,
वर्ग भेद के पौधे !
 और इन पर भिनभिना रहे हैं उच्चता  और निम्नतावाद  के कीड़े !
इसी के कारण सब रोगी हैं,  तनाव ग्रस्त हैं , कुंठित हैं ,  मनोविषादी हैं !

..यही कारण है कि  भारत डायबिटीज , हृदयरोग , ब्लड प्रेशर ,  कैंसर जैसी सभी प्रमुख बीमारियों का हब बना हुआ है !
और इन बीमारियों के निवारणार्थ  गली -गली में उग रहे हैं ..धर्म गुरु , ज्योतिषी , आयुर्वेदा,  योगा  के स्वयं-भू कमअक़्ल लपोसड़  विद्वान !

पूरा भारत भरा पड़ा है जग्गी-फग्गी , श्री-फ्री, आबाओं-बाबाओं और  चंगाई सभाओं से !
..कहीं सुबह गार्डन में नकली हास्यासन हों रहे है ..,
तॊ कहीं  जिन्नाद उतारे जा रहे हैं !

उधर ..पति पैसा कमाने की मशीन हुआ जा रहा है ..इधर पत्नि नकली जीवन की घुटन और नैराश्य से तिल तिल मर रही है !

जिस दिन ये श्रेष्ठता साबित करने  का जिन्न  उतर जाएगा भारत के सिर से, उस दिन  सब दुरुस्त होने लगेगा ..शरीर भी , स्वास्थ्य भी  धर्म भी , अध्यात्म भी !
...नकली बाबा , हकीम,  वैद्य , डाक्टर भी !

मगर इस नुमायशी आदमी के रहते साम्यवाद भी एक  सपना है  और राष्ट्रवाद भी दूर की कौड़ी है  !
...क्योंकि जब "मैं" मिटता है  और  "दूसरा" दिखता है ..
तब साम्यवाद भी संभावना है ..
जब "मैं" मिटता है और  "राष्ट्र" दिखता है ..तब राष्ट्रवाद भी संभावना है !

...लेकिन जब तक ये एलीट होने की विष्ठा भरी है दिमाग़ में ..और उच्चता -निम्नता  की पेशाब बह रही है रगों में ..तब तक इस देश में कोई संभावना नही है !

बचपन में एक कविता पढ़ी थी स्कूल में !

"दो आदमी  एक कमरे में ,
कमरा..  घर में
    घर , मुहल्ले में
        मुहल्ला.. शहर में
           शहर.. प्रदेश में
              प्रदेश , देश में

...ऐसे बढ़ते हुए वो बात  ब्रहांड तक जाती थी !

इस ब्रहांड में रेत के एक कण के खरबवें हिस्से से भी कम हैसियत है पृथ्वी की !
 हम-आपकी तॊ बिसात ही क्या ??
जब तक इस बोध से अनुप्राणित ना होंगे प्राण ..तब तक कोई संभावना नही है !

हाथ में सोने का कड़ा पहनने से कोई एलीट नही हॊता !
एलीट हॊता है आदमी , चेतना के उत्थान से !
एलीट हॊता है वो ..जिसकी आंखें सौम्य हों ,
जिसका ललाट भव्य हो ,
जिसकी भावना उद्दात हो ,
जिसके हृदय में प्रेम हो

मनुष्य एलीट हॊता है ..चेतना के विस्तार से ,
वस्तुओं के संग्रहण से नही !
ब्रह्मआत्म ऐक्य बोध से ,
दिखावे से नही !!
ये पूरब की उद्घोषणा थी !

मगर अब हम उस ऊंचाई से बहुत गहरी गर्त में आ गिरे हैं !

##सलिल ##

3.10.19

औसतन सब ठीक है सर तप रहा पग बर्फ पर


न रखूंगा रिक्त मैं..हिय के  समंदर को कभी ।
जाने कब किस को..मंथन की ज़रूरत आ पड़े ?
औसतन सब ठीक है सर तप रहा पग बर्फ पर –
रोज़ छपते हैं अब  कुछ इस तरह के आंकड़े !!
धुंध की रोगन वज़ह है दूर तक दिखता नहीं
पाँव भी उनके सुनहरी बेड़ियों से हैं बंधे.....!!


2.10.19

और बापू मुस्कुराए : भाग 2


कला अनुदेशक डॉ रेणु पांडेय के निर्देशन नें बच्चों ने बनाई प्रतिमा मिट्टी से..! गांधी जी के इस बस्ट को बनाकर बच्चे आज मेरे पास दिखाने लाए.! मन को प्रभावित करने के लिए इतना काफी था...प्रयोगवादी महात्मा ने देश को जो दिया वह कोई आसानी से नहीं दिया जाता अगर दिया भी जाए तो आसानी से ग्रहण करना मुश्किल है....लेकिन कमाल है.... #कृषकाय_काया का जिनने जो भी समाज को दिया समाज में हूबहू ग्रहण किया । करते भी क्यों ना क्योंकि उस समय की जनता में अपने नेता के प्रति सम्मान और विश्वास दोनों की कमी ना थी अटूट श्रद्धा विश्वास और सम्मान के साथ मेरी स्वर्गीया नानी गांधी बाबा की जय कहकर अपनी पूजा समाप्त करती थी ।
ब्रिटिश भारत के दौर में जब शिक्षा का आंकड़ा बहुत कमजोर था तब जबकि समाज बेहद जटिल समस्याओं से भी जूझ रहा था पर गांधी ने चरखी और तकलीफ पर कते सूत से पूरे देश को एक करने की कोशिश की । गांधी जी पर बहुत सारे सवाल उठते हैं उनसे आज के दौर को कोई लेना देना नहीं क्योंकि गांधी अंतरराष्ट्रीय चेहरा बन चुके हैं । ज़िद्दी तो प्रिटोरिया में भी थे महात्मा जब उन्हें फर्स्ट क्लास के डब्बे से बाहर कर दिया था और उन्होंने अपने हक की लड़ाई शुरू कर दी पहला आंदोलन का युवा गांधी का बेशक और वह भी दक्षिण अफ्रीका में ?
फिर वहां से यानी अफ्रीका से लौटे समाज के नायक ज़िद्दी गांधी ने नमक बना दिया खादी पहना दी और कहा कि स्वतंत्रता से पहले स्वच्छता जरूरी है हम उसे कैसे भूल सकते हैं । गांधी की व्यवसाई बुद्धि तो थी क्यों ना होती कम लागत पर अधिक लाभ आजादी का युद्ध कुछ इसी तरह से लड़ने के लिए प्रेरित किया न ज़्यादा खून बहाने की जरूरत महसूस की थी उनने भले ही बाद में कहना पड़ा करो या मरो की भी एक सीमा थी होती भी है पर विपरीत ध्रुव पर खड़े नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें अपना द्रोणाचार्य माना गांधी के प्रयोग के साथ साथ गरम दल के लोगों ने भी वही किया जो करना था बेशक युद्ध क्या संघर्ष क्या आंदोलन क्या गांधी तो वही सा के लिए प्रतिबद्ध थे और परिणाम आप देख रहे हैं यहां उन वीर शहीदों को अनदेखा नहीं कर रहा हूं जिन्होंने दायर की गोलियां खाई या आजाद हिंद सेनानी के रूप में अपना बलिदान दिया होना भी यही चाहिए पूर्ण प्राथमिकता के साथ ऐसे शहीदों को नमन करना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता भी होनी चाहिए । केवल हिंसा नहीं जरूरत पड़ने पर कृष्ण भी बनो जो हमेशा जरूरी भी है....
कुछ बातें कुछ मुद्दे और कुछ तर्क गांधी जी के जीवन को कटघरे में भले ही खड़ा कर दें परंतु औसतन महात्मा के व्यक्तित्व को देखा जाए तो वे विश्व के सबसे ज्यादा चर्चित और मोहक व्यक्तित्व को पेश करने में सफल हुए । 150 साल 150 साल बहुत बड़ी अवधि है.. !
हां यह सच है कि गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में स्वतंत्रता और सेल्फ रिस्पेक्ट यानी आत्म सम्मान की रक्षा के लिए डिफेंसिव आक्रमण किया और आक्रमण भी अनोखा सत्याग्रह अहिंसा ऐसे अस्त्रों का प्रयोग केवल और केवल महात्मा ही कर सकते थे आज भी गांधीजी इसीलिए जरूरी है । एक आयातित विचार पोषक साहित्यकार सह पत्रकार ने पंद्रह साल पहले अपने भाषण में जब गांधी जी को सामयिक बताया उस दिन मैं अवाक रह गया था ! अवाक रहना स्वभाविक था गांधी जी के सिद्धांतों से सुविधाजनक दूरी बनाए रखने वाले विचारकों ने गांधी को जरूरी बता दिया तब मुझे लगा कि वर्तमान में भी इन विचारकों के दिमाग में हिचकिचाहट है वह स्वीकार नहीं पा रहे हैं कि गांधी आज के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि भविष्य के लिए भी अति महत्वपूर्ण हैं । महात्मा का सार्वकालिक होना स्वभाविक है । गांधीवाद भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर बेहद सकारात्मक असर छोड़ता है । जब ग्रामोद्योग की बात चलती है तब लगता है कितना सच सोच रहे थे तत्कालीन लोकनायक महात्मा गांधी । अगर महात्मा गांधी में इतनी सकारात्मक सोच ना होती तो उनका लोकप्रिय होना भी नामुमकिन था सार्वजनिक स्वीकृति की बात तो बहुत दूर हो जाती है परंतु कुछ लोगों को छोड़कर महात्मा जी को सार्वजनिक स्वीकृति मिली है इसे कोई नकार नहीं सकता । गोलमेज सम्मेलन और फिर सिलसिलेवार हुए अहिंसक आंदोलनों सड़कों पर आंदोलनकारियों ने अपनी ओर से रक्त पात नहीं कराया ।

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