भारत के वीर सपूतों को आखिरी-अभिवादन के साथ मित्रो भारत को पाकिस्तान के साथ कठोर बयान जारी करने के अलावा इन बिन्दुओं पर भी विचार करना है हमें # पाकिस्तान के साथ सांस्कृतिक/साहित्यिक/आर्थिक संबंधों पर तुरंत ही समाप्त कर दी जाएँ # स्टार प्लस सोनी जी टी वी इस देश के कलाकारों को लेकर बनने वाले रियलिटी शो से उन कलाकारों को बिदा कर देना चाहिए # इमरान खान जैसे क्रिकेटर'स के विज्ञापन दिखाना बंद किया जाए भारत सरकार के नए विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी का ताज़ा बयान स्पष्ट करता है कि देश की अस्मिता को अब चुनौती देना आसान कदापि नहीं है। सही साधा सटीक इरादा ज़ाहिर किया है सरकार नें इस मसले पर सभी की एक धारणा एक संकल्प होना चाहिए । ताकि कड़ाई जारी रहे. आतंक और आतंकी सपोलों को विश्व के मानचित्र से समाप्त कराने के लिए सबसे अहम् बात ये होगी कि - " नकारात्मक विचार और विचार धाराएँ सख्ती से समाप्त किए जाएँ " भारत ही विश्व को ज़रूरत है सर्वत्र शान्ति की ताकि उत्कृष्टता के साथ मानवीय विकास के परिणाम लाए जा सकें . यहाँ स्पष्ट करदेना चाहता हूँ की सनातन व्यवस्था में सर्वे जना: सुखाना भवन्तु का संदेश सदियों से है.... सभी धर्मों का आधार-भूत संदेश भी यही है
"मेरेप्रिय " वंदे-मातरम यदिदेशकीअस्मिताऔरदेशकोबचानाहै- तोचलिएइस देशकोचुनावीअखाडेमेंतब्दीलहोनेसेबचाएं , सबकेसब एकसुरमेंगायें "शुजलामसुफलाम्मलयजशीतलाम " हम को तय कराना ही होगा "तय करो की वोट बचाना है या की देश " इसपोस्टकीचर्चाकीहरिभूमिनेअपनेनियमितकालम "ब्लॉगकीदुनियासे " में०२/१२/२००८कोहरिभूमिकाआभारब्लॉग-चर्चाकेलिएऔरपोस्टकोशामिलकरानेकेलिए
आ ओ मीत लौट चलें गीत को सुधार लें वक़्त अर्चना का है -आ आरती संवार लें । भूल हो गई कोई गीत में कि छंद में या हुआ तनाव कोई , आपसी प्रबंध में भूल उसे मीत मेरे सलीके से सुधार लें ! छंद का प्रबंध मीत ,अर्चना के पूर्व हो समेटी सुरों का अनुनाद भी अपूर्व हो, अपनी एकता को रेणु-तक प्रसार दें । राग-द्वेष,जातियाँ , मानव का भेद-भाव भूल के बुलाएं पार जाने एक नाव ! शब्द-ध्वनि-संकेत सभी आज ही सुधार लें !
इस गीत में सच आज जो बात कहनी चाही थी कौन सुनता इस गीत का संदेश खो गया था कुछ ने वाह वाह करके मेरी आवाज़ भुला दी कुछ अर्थ खोजते रहे फ़िर निरर्थक समझ के छोड़ दिया . कुछ के लिए तो फिजूल था कवि । मेरी यानी कवि की आत्मा को मारने वालो "तुम समझो देश तुम्हारे लिए खिलौना कतई न बने इस बात का तमीज इस भारत नें सीख लिया है " आज मैं एक सूची जारी करना चाहता हूँ :- इसे स्वीकारना ही होगा
भारत में कोई भी व्यक्ति या समुदाय किसी भी स्थिति में जाति, धर्म,भाषा,क्षेत्र के आधार पर बात करे उसका बहिष्कार कीजिए ।
लच्छेदार बातों से गुमराह न हों ।
कानूनों को जेबी घड़ी बनाके चलने वालों को सबक सिखाएं ख़ुद भी भारत के संविधान का सम्मान करें ।
थोथे आत्म प्रचारकों से बचिए ।
जो आदर्श नहीं हैं उनका महिमा मंडन तुंरत बंद हो जो भी समुदाय व्यक्ति ऐसा करे उसे सम्मान न दीजिए चाहे वो पिता ही क्यों न हो।
ईमानदार लोक सेवकों का सम्मान करें ।
भारतीयता को भारतीय नज़रिए से समझें न की विदेशी विचार धाराओं के नज़रिए से ।
अंधाधुंध बेलगाम वाकविलास बंद करें ।
नकारात्मक ऊर्जा उत्पादन न होनें दें ।
देश का खाएं तो देश के वफादार बनें ।
किसी भी दशा में हुई एक मौत को सब पर हमला मानें ।
देश की आतंरिक बाह्य सुरक्षा को अनावश्यक बहस का मसला न बनाएं प्रेस मीडिया आत्म नियंत्रण रखें ।
केन्द्र/राज्यसरकारें आतंक वाद पे लगाम कसने देश में व् देश के बाहर सख्ती बरतें । पुलिस , गुप्तचर एजेंसीयों को सतर्क,सजग,निर्भीक रखें उनका मनोबल न तोडें ।
पंकज
स्वामीगुलुशनें बताया की ज्ञान जी ने अपना निर्णय
सुना ही दिया की वे पहल को बंद कर देंगेकबाड़खानाने इस समाचार को को पहले ही अपने ब्लॉग पर लगा दिया था.व्यस्तताओंके चलते या कहूं“तिरलोकसिंह”होते तो ज़रूर यह ख़बर मुझे
समय पर मिल गई होतीलेकिन इस ख़बर के कोई और मायने निकाले भी नहीं जाने चाहिए . साहित्य जगत
में यह ख़बर चर्चा काबिन्दुइस लिए है की मेरेकस्बाईपैटर्नके शहर जबलपुर को पैंतीस बरस से विश्व
के नक्शे परअंकितकर रही
पहल केआकारदाताज्ञानरंजनजी ने पहल बंद कराने की घोषणा कर दी .
पंकज
स्वामी की बात से करने बादतुंरतही मैंने ज्ञान जी से बात की .ज्ञान जी
का कहना था :"इसमें हताशा,शोकदु:ख
जैसी बात न थी न ही होनी चाहिए .दुनिया भर में सकारात्मकजीजेंबिखरींहुईं
हैं . उसे समेटने औरआत्मसात करने का समय आ गया
है"पहल सेज्ञानरंजनसे अधिक उन सबका रिश्ता है जिन्होंने उसेस्वीकारा.
पहल अपने चरम पर है और यही बेहतर वक़्त है उसे बंद करने का .हाँ,पैंतीस
वर्षों से पहल से जोअन्तर-सम्बन्धहै उस कारण पहल के प्रकाशन को
बंद करने का निर्णय मुझे भी कठोर और कटु लगा है किंतु बिल्लोरे अब बताओ
सेवानिवृत्ति भी तो ज़रूरी है.
ज्ञान
जीने एक प्रश्न के उत्तर में कहा :-"हाँ क्यों नहीं, पहल की शुरुआत में तकलीफों को मैं उस तरह देखता
हूँ की बच्चा जब उम्र पता है तो उसके विकास में ऐसी ही तकलीफों का आना स्वाभाविक
है, बच्चे के दांत निकलने में उसे तकलीफ नैसर्गिक
रूप से होती है,चलना सीखने पर भी उसखी
तकलीफों का अंदाज़ आप समझ सकते हैं "उन घटनाओं का ज़िक्र करके मैं जीवन के
आनंद को ख़त्म नहीं करना चाहता. सलाह भी यही है किसी भी स्थिति में
सृजनात्मकता-के-उत्साह को कम न किया जाए. मैं अब शारीरिककारण भी
हैं पहल से अवकाश का।
-->
ब्लागर्सकेलिएज्ञानजीकाकहनाहै
:"पहलकाविरामकोईअन्तिमविरामनहींहै
सकारात्मकताकेसाथस्वयंकेऔरसमाजके
विकासकेढेरोंदरवाज़ेखुलेहैंकभीभीकभीभी
सकारात्मकताकोविरामनहींमिला
हमेंचाहिएकिसकारात्मकता
कोसाथलेकरआगेबढेंजो जो भी
करें बेहतर करें !
ज्ञान
जी पूरे उछाह के साथ पहल का प्रकाशन बंद कर रहें हैं किसी से कोई दुराग्रह, वितृष्णा,वश
नहीं . पहल भारतीय साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित एवं पठित ऐसी पत्रिका
है जो कल इतिहास बन के सामने होगी बकौल मलय:"पहल,उत्कृष्ट विश्व स्तरीय पत्रिका इस लिए भी बन गई
क्योंकि भारतीय रचना धर्मिता के स्तरीय साहित्य को स्थान दिया पहल में . वहीं भारत
के लिए इस कारण उपयोगी रही है क्योंकि पहल में विश्व-साहित्य की श्रेष्ठतम रचनाओं
को स्थान दिया जाता रहा'' मलय जी आगे कह रहे थे की
मेरे पास कई उदाहरण हैं जिनकी कलम की ताकत को ज्ञान जी नेपहचाना
और साहित्य मेंउनको उच्च स्थान मिला,
प्रेमचंद
के बाद हंस और विभूति नारायण जी के बाद "वर्तमान साहित्य के स्वरुप की तरह
पहल का प्रकाशन प्रबंधन कोई और भी चाहे तो विराम लगना ही चाहिएऐसी
कोशिशों पर पंकज गुलुश से हुई बातचीत पर मैंने कहा था "
इस
बात की पुष्टि ज्ञान जी के इस कथन से हुई :-गिरीश भाई,पहल का प्रकाशन किसी भी स्थिति में आर्थिक
कारणों,से कदापि रुका है आज भी कई
हाथ आगे आएं हैं पहल को जारी रखे जाने के लिए . किंतु पहल के सन्दर्भ में लिया
निर्णय अन्तिम है.
ज्ञान जी
अब क्या करेंगें ?
ज्ञान जी
ने क्यों पहल बंद कर दी
ज्ञान जी
की पहल; का विकल्प
इनमें से
अधिकाँश मुद्दों पर ज्ञान जी ने ऊपर स्पष्ट कर दिया है किंतु एक बार प्रथम
बिन्दु की और सुधि पाठकों का ध्यान आकृष्ट कराना चाहूंगा ज्ञान जी ने
कहा:-"Asa councilor
i am available " ज्ञान जी ने यह भी कहा मुझे और सृजन करना है वो तो
करूंगा ।
पहल के विकल्प
के सम्बन्ध में ज्ञान जी का कथन है : "जो भी होगा अच्छा होगा ऐसा नहीं
है कि पहल के बाद सब कुछ ख़त्म हो गया "
आज क्या बीस दिन से लगातार
पहल को लेकर ज्ञान जी के पास फोन आ रहें हैं उन में आफर भी शामिल हैं । किंतु
दृड़ता से सबसे कृतज्ञता भरे शब्दों में स्नेह बिखेरते ज्ञानरंजन संपृक्त विद्वान
या कहूं महर्षि भाव से दृड़ता से अपने निश्चय का निवेदन कर ही लेते हैं ।
छवि-साभार :शैली खत्रीके ब्लॉग बार -बार देखो से समय चक्र ने रुकना कहाँ सीखा यदि समय रुक जाना सीख लेता तो कितना अजीब सा दृश्य होता . प्रथम प्रीत का मुलायम सा एहसास मेरे जीवन में आज भी कभी उभर आता है . मधुबाला सी अनिद्य सुन्दरी जीवन में प्रवेश करती है . चंचला सुनयनी मेरी प्रिया का वो नाम न लूंगा जो है उसे क्षद्म ही रखना उसका सम्मान है . चलिए सुविधा के लिए उसे "मधुबाला" नाम दे दिया जाए .दब्बू प्रकृति का मैं किसी मित्र के अपमानजनक संबोधन से क्षुब्ध कालेज की लायब्रेरी में किताब में मुंह छिपाए अपने आप को
पढ़ाकू साबित कर रहा था. तभी मधु जो मेरे पीछे बैठी मेरे एक एक मूवमेंट पर बारीकी से निगाह रख रही थीबोल पड़ी :'क्या हुआ ?....रो क्यों रहे हो ?'
'कुछ तो नहीं ?'
नहीं,दीपक से कोई कहा सुनी हो गई ?
नहीं तो .........! विस्मित मैं उससे छुटकारा पानेकी गरज से क्लास अटैंड करने का बहाना करके निकल गया. मधु मेरा पीछा करते-हुए सीडियों से उतर रही थी ,
कर मधु ने अपने जन्म दिन का न्योता दिया . और मेरी हाँ सुनते ही मुझे पीछे छोड़ते आगे निकल गयी.मेरी पीड़ा प्रथम आमंत्रण से रोमांच में बदल गयी. मन ही मन आहिस्ता आहिस्ता सपनों की आवाजाहीशुरू हो गयी.
जन्मदिन के दिन जब मई मधु के घर पहुंचा.जन्मदिन का उपहार जो उसने खोला तो मधु का परिवार बेहद प्रसन्न हुआ मेरे उपहार चयन को ले कर होता भी क्यों न साहित्यिक किताबें थीं जो मधु के पिता जी को आकर्षित कर रहीं थी . इससे अधिक वे मुझे पुत्री के निरापद मित्रहोने का खिताब दे चुके थे मन ही मन . जन्मदिन की संक्षिप्त पारिवारिक पार्टी में मैअपने आप को मिसफिट पा रहा था. किंतु मधु के पापा थे की मुझसेचर्चा करने लगे . बमुश्किल मैं उनसे इजाज़त पा सका था उस दिन . मधु बाहर तक छोड़ने आयी मुझे रिक्शा लेना था सो थोड़ा गेट पर चर्चा करने का अवसर भी मिला उसे बस अवसर मिलते ही मधु बोल पड़ी :- लड़कियों को गिफ्ट भी नहीं देना आता बुद्धू कहीं के ?
मैं अवाक उसे अपलक देखता रहा कि एक ऑटो सर्र से निकल गया . तभी मधु ने एक फूल जो अपने साथ लाई थीमुझे दिया मैंनेपूछा "ये क्या है ? "
फ़िर वही ,बुद्धू ...ये रिटर्न गिफ्ट है.........! साॅरी तुमको तो रामायण गीता देना थी .
तत्क्षण मेरे अंर्तमन का युवक प्रगटहो गया और मैं बोल पड़ा :"सुनो मधु , मेरा अन्तिम लक्ष्य सिर्फ़ ये.....नहीं है मैंसब जानताहूँ जो तुम कहना चाह रहीं हो लेकिन सही समय पर ही सही काम करना चाहिए अभी हम मित्र ही हैं एक दूसरे के "
ठीक है लेकिन फ़िर मिलोगे तो मुझे तुम से बात करनी है ?
"ज़रूर,किंतु समय की प्रतीक्षा तो करनी ही होगी तुमको "
ठीक है....! पर याद रहे अगले जन्म-दिन के पहले ?
"कोशिश करूंगा ...!"
समय को रोकना आपकी तरह मुझे भी नहीं आता । आए भी तो समय को ख़ुद रुकना आता है क्या......! और समय को रुकना भी आ जाए तो क्या समाज रुकना चाहता है न ही चाहेगी मधुबाला कि उसका अगला जन्म दिन ठीक उस तारीख को न हो । माँ -बाबूजी भी तो चाहते थे कि बेटों की शादियाँ तभी हों जब कि उनकी बेटियाँ ब्याह जाएँ हम घर के अनुशासन को भंग भी नहीं करना चाहते थे । अपने लिए तो सभी जीतें हैं किंतु माँ बाप के सपनों और उनकी आकांक्षाओं के विरुद्ध बिगुल भी नहीं बजाना है इसी सोच को लेकर हम अनुशासित रहे ।हो सकता है कि पिछडेपन की निशानी थी हमारी औरों की नज़रों में ......हम संतुष्ट थे। मधु की -इज़हारे तमन्ना पर अपना रिअक्शन न देना अच्छा था या बुरा ,सही था या ग़लत मुझे मेरा कवि बार बार कहता -"पता तो करो किसी नायिका से कोई भी नायक ऐसा बर्ताव नहीं करता कभी "
'' राम ने भी तो '
राम ने क्या अनुशासन तोडा़ था परिवार का , नहीं उनने तो सिर्फ़ धनुष तोडा था वो जो सशक्त आयुध था , उसका जिसने स्वयं कामदेव को उद्दंडता का सबक सिखाया था । राम ने कभी कोई मर्यादाएं नहीं तोडी । मन ऐसी स्थिति में पीर से सराबोर हुआ कवि तब जागा और रच दिया प्रीतगीत ।
साथ ही उस दौर में लिखी गयी इस तरह ,रचना करना कैसे सीखा मुझे नहीं मालूम किन्तु ऐसा ही है चिंतनघट से जब भाव रस पीया तो ऐसी ही कविता निकली दिल से अपनी चिंता के पैमानों से कुछ पी कर ऐसी कविता कभी न कह पाता । मेरी कवितायेँ सुनाने वालों में मधु भी होती किंतु कविताओं से बेखर ही होती थी वो उसे केवल एक प्रीतगीत ही पसंद था । वैसी कविता लिखने का आग्रह कई बार किया मुझसे न लिखा गया । मेरी कवितायेँ को बूडों़ की कविताएँ होने का आरोप मिला मुझे बुरा नहीं लगा था आज भी वो चुलबुली सी खनकती आवाज़ सुनाई देती है मुझे । आप सोच रहें है न कि उस नायिका का क्या हुआ ? क्या मैं...............?
फ़िर कभी बताउगा अगली किश्त में ये सवाल आप पर ही छूड़ता हूँ कि आप अंदाज़ लगाएं अगली पोस्ट तक ........!
सर, और सर के चम्मच जो सर के खाने के सहायक उपकरण होते हैं को मेरा हार्दिक सलाम मैं….. आपका दास जो आपको नहीं डालता घास,इसलिएक्योंकि आप कोई गधे थोड़े हैं॥ आप आप हैं मैं आपका दास इतना दु:साहस कैसेकरूँ हज़ूर । आप और आपका ब्रह्म आप जानिए मेरा तो एक ही सीधा सीधा एक हीकाम है.आपकी पोल खोलना . आपकीमक्कारियों की पाठशाला में आपको ये सिखाया होगा कि किस तरह लोगों को मूर्खबनाया जाता है..किन्तु मेरी पाठशाला में आप जैसों को दिगंबर करने का पाठबडे सलीके से पढाया गया मैंनें भी उस पाठ को तमीज से ही पढा है.तरकशका तीर कलम का शब्द सटीक हों तो सीने में ही उतरते हैं सीधे ॥ तो सर आपअपने स्पून सम्हाल के रखिये शायद ये आपके बुरे वक़्त में काम आ जाएँ ।परंतु ऐसा कतई नहीं . होगा सर आप अपने सर से मुगालता उतार दीजिए । कि कोईचम्मच खाने के अलावा कभी और उपयोग में लाया जा सकता है॥
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एक ऑफिस में बॉस नाम की चीज़ भेजी जाती है…..लोग समझते हैं कि बॉस ऑफिस चलाताहै। यहाँ आपको बता दूं - ऑफिस तो चपरासी जिसका नाम राजू आदि हों सकता है… वोही तो ऑफिस खोलता सुबह समय पर तिरंगा चढाता है। शाम उसे निकालता है … आवेदन लेता है साहब को बाबू के हस्ते आवेदन देता है । आवेदक को काम केरस्ते बताता है…! बेकार फ़ाइल जिससे कुछ उपजने की उम्मीद ना हों ऎसीनामुराद नास्तियों को बस्ते में सुलाता है।अब भैया ! आप हीबताओ न ! ऑफिस कौन चलाता है….?
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आप को इस बात को समझाता हूँ -”सरकार में लोग बाग़ काम करतें हैं काम होना तो कोई महत्वपूर्ण बात है हीनहीं महत्त्व तो काम नहीं हों तब दीखता है “अबदेखिए न….. दफ्तर में बाबूलाल की अर्जी के खो जाने का ठीकरा मैने जांच केबाद राजू भृत्य के सर फोड़ दिया बाबूलाल भी खुश हम भी खुश ।जिम्मेदारीतय करने जब लोग निकले हजूर पाया गया छोटी नस्ल के कर्मचारी दोषी हैं ।भैया दोषी वोही होता है जो सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार हों जैसे मेरा चपरासीराजू …!भैया ! देखा सबसे छोटा सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है ” देश में “बाकी आप खुद समझ दार हैं ……आगे क्या लिखूं …. आप समझ गए न ।
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तो भाई इस लम्बी कहानी में मैं हूँ,आपहैं हम सभी तो हैं… चालू रहेगा ये उपन्यास जो राग दरबारी वाले आई.ए.एस.कीतर्ज़ पर तो नही पर उनसे प्रभावित ज़रूर होगा अगर ये आपकी आत्म कथा है तोआन लाईन कमेन्ट दे देना शायद मेरे काम आ जायेगी
आपकी बात……ऊपर जो लिखा सो लिखा उसे भूल जाना वो तो यूँ ही लिख दियाकहानी शुरू होती हैअब सो सुन भाई साधौ ….टूटे फूटे घर में रहने वाला राजूचपरासी घर से परेशान होता तो भगवान् से अपने घर को सर्किट हाउस साबनाने की नामुरादअपील करता !
अपील तो सब करतें हैं सबकी अपील अलाऊ हो ये कैसे संभव है .सर्किट हाउस जब अच्छे-अच्छों को को लुभा सकता है तो वो राजू को क्यों नहीं लुभासकता . आपको याद होगा अब्राहम लिंकन को सफ़ेद-घर पसंद आया वो अमेरिका केसदर बने थे न.? यदि वे सपना देख सकते हैं तो अपने राजू ने देखा तो क्याबुरा किया।
आजकल मेरे शहर के कई लोग मुझसे पूछ रहें हैं “भाई, क्या नया कुछ लिखा “जींख़ूब लिख रहा हूँ …!क्या ..गद्य या गीत …?अपुन को उपर से नीचे सरकारी अफसर हुआ देख उनके हरी लालकाली सारी मिर्चियां लग गईँ … कल्लू भैया हमसे पूछ बैठे:-” क्या चल रहा है ?”
हमारे मुँह से निकल पड़ा जो दिल में था , हमने कहा-”भाई,आजकल हमारी बास से खट पट चल रही है…वो शो- काज लिख रहे हैं और अपन उसका ज़बाव !”
ये तो आप राज काज की बात कर रहे हो… मैं तोआपकी साहित्य-साधना के बारे मैं पूछ रहा .?
मैंनें कहा - “भाई,साहित्य औरजीवन के अंतर्संबंधों को पहचानों “लोग बाग़ मेरी बात में कुंठा को भांपतेकन्नी काटते । हमने भी लोगों के मन की परखनली में स्प्रिट लैंप की मदद सेउबलते रसायन को परखा , अब जो हमको साहित्य के नाम पे चाटता तो अपन झट रागसरकारी गाने लगते , जो सरकारी बात करता उसको हम साहित्यिक-वार्ता में घसीट लेते.
कोई अपने दर्द के अटैची लेकर आता मेरे पास तो मैं अपनी मैली-कुचैली पोटली खोलने की कोशिश करता !इससे - वो लोग मेरे पास से निकल जाते कुछतो समझने लगे जैसे मैं बदबू दार हूँ…!”और अपन बेमतलब के तनाव से दूर..!!
हजूर ! रजनीश और गिरीश दौनों ही एक ही शहर के पर्यावरण से सम्बंधित हैं…अब देखिए ! सामर्थ्यकी चाबी को लेकर ओशो दिमागी तौर पर लगभग बेहद उत्साहित हो जाते थे । अपने राम भी ऐसे लोगों को जो "सामर्थ्यकी चाबी " लेकर पैदा हुए मामू बना देते हैं , जेइच्च धंधा है अपुन का….!
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ओशो से अपना गहरा नाता रहा है वो वक्ता थे अपन भी वक्ता है डेरों प्रमाण हैं इसके खूब शील्डैं जीतीं थीं हमने उषा त्रिपाठी के संग डी एन जैन कालेज के लिए भैया धूम थी अपनी उनदिनों ओशो के लगभग 25 साल बाद .जब हम अपने वज़न से भारी रजत वैजयंती लेकर आए ....प्राचार्य .प्रोफेसर .विनोद अधौलिया जी रो पड़े थे पिता स्व.भगवत शरण जी को याद करके .जी उस दौर में मेरी तरक्की सदाचार के लिए मेरेगुरुदेवों ने आशीर्वाद दिए थे. माँ-बाबूजी भी मुझे लेकर चिंतनरत होते .
सब कुछ बड़ों के आशीर्वाद से ही घटा है जीवन में . अफसरी मिली भले छोटी नस्ल के बड़ी भी मिलतीतो क्या वही सब कुछ करता जो आज कर रहा हूँ.