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शुक्रवार, नवंबर 07, 2008

मेरा संसार :ब्लॉग कहानी भाग 02

छवि-साभार :शैली खत्री के ब्लॉग बार -बार देखो से
समय चक्र ने रुकना कहाँ सीखा यदि समय रुक जाना सीख लेता तो कितना अजीब सा दृश्य होता . प्रथम प्रीत का मुलायम सा एहसास मेरे जीवन में आज भी कभी उभर आता है . मधुबाला सी अनिद्य सुन्दरी जीवन में प्रवेश करती है . चंचला सुनयनी मेरी प्रिया का वो नाम न लूंगा जो है उसे क्षद्म ही रखना उसका सम्मान है . चलिए सुविधा के लिए उसे "मधुबाला" नाम दे दिया जाए .दब्बू प्रकृति का मैं किसी मित्र के अपमानजनक संबोधन से क्षुब्ध कालेज की लायब्रेरी में किताब में मुंह छिपाए अपने आप को

पढ़ाकू साबित कर रहा था. तभी मधु जो मेरे पीछे बैठी मेरे एक एक मूवमेंट पर बारीकी से निगाह रख रही थी बोल पड़ी :'क्या हुआ ?....रो क्यों रहे हो ?'

'कुछ तो नहीं ?'

नहीं,दीपक से कोई कहा सुनी हो गई ?

नहीं तो .........! विस्मित मैं उससे छुटकारा पाने की गरज से क्लास अटैंड करने का बहाना करके निकल गया. मधु मेरा पीछा करते-हुए सीडियों से उतर रही थी ,

कर मधु ने अपने जन्म दिन का न्योता दिया . और मेरी हाँ सुनते ही मुझे पीछे छोड़ते आगे निकल गयी.मेरी पीड़ा प्रथम आमंत्रण से रोमांच में बदल गयी. मन ही मन आहिस्ता आहिस्ता सपनों की आवाजाही शुरू हो गयी.

जन्मदिन के दिन जब मई मधु के घर पहुंचा.जन्मदिन का उपहार जो उसने खोला तो मधु का परिवार बेहद प्रसन्न हुआ मेरे उपहार चयन को ले कर होता भी क्यों न साहित्यिक किताबें थीं जो मधु के पिता जी को आकर्षित कर रहीं थी . इससे अधिक वे मुझे पुत्री के निरापद मित्र होने का खिताब दे चुके थे मन ही मन . जन्मदिन की संक्षिप्त पारिवारिक पार्टी में मै अपने आप को मिसफिट पा रहा था. किंतु मधु के पापा थे की मुझसे चर्चा करने लगे . बमुश्किल मैं उनसे इजाज़त पा सका था उस दिन . मधु बाहर तक छोड़ने आयी मुझे रिक्शा लेना था सो थोड़ा गेट पर चर्चा करने का अवसर भी मिला उसे बस अवसर मिलते ही मधु बोल पड़ी :- लड़कियों को गिफ्ट भी नहीं देना आता बुद्धू कहीं के ?

मैं अवाक उसे अपलक देखता रहा कि एक ऑटो सर्र से निकल गया . तभी मधु ने एक फूल जो अपने साथ लाई थी मुझे दिया मैंने पूछा "ये क्या है ? "

फ़िर वही ,बुद्धू ...ये रिटर्न गिफ्ट है.........! साॅरी तुमको तो रामायण गीता देना थी .

तत्क्षण मेरे अंर्तमन का युवक प्रगट हो गया और मैं बोल पड़ा :"सुनो मधु , मेरा अन्तिम लक्ष्य सिर्फ़ ये.....नहीं है मैं सब जानता हूँ जो तुम कहना चाह रहीं हो लेकिन सही समय पर ही सही काम करना चाहिए अभी हम मित्र ही हैं एक दूसरे के "

ठीक है लेकिन फ़िर मिलोगे तो मुझे तुम से बात करनी है ?

"ज़रूर,किंतु समय की प्रतीक्षा तो करनी ही होगी तुमको "

ठीक है....! पर याद रहे अगले जन्म-दिन के पहले ?

"कोशिश करूंगा ...!"

समय को रोकना आपकी तरह मुझे भी नहीं आता । आए भी तो समय को ख़ुद रुकना आता है क्या......! और समय को रुकना भी आ जाए तो क्या समाज रुकना चाहता है न ही चाहेगी मधुबाला कि उसका अगला जन्म दिन ठीक उस तारीख को न हो । माँ -बाबूजी भी तो चाहते थे कि बेटों की शादियाँ तभी हों जब कि उनकी बेटियाँ ब्याह जाएँ हम घर के अनुशासन को भंग भी नहीं करना चाहते थे । अपने लिए तो सभी जीतें हैं किंतु माँ बाप के सपनों और उनकी आकांक्षाओं के विरुद्ध बिगुल भी नहीं बजाना है इसी सोच को लेकर हम अनुशासित रहे ।हो सकता है कि पिछडेपन की निशानी थी हमारी औरों की नज़रों में ......हम संतुष्ट थे। मधु की -इज़हारे तमन्ना पर अपना रिअक्शन न देना अच्छा था या बुरा ,सही था या ग़लत मुझे मेरा कवि बार बार कहता -"पता तो करो किसी नायिका से कोई भी नायक ऐसा बर्ताव नहीं करता कभी "

'' राम ने भी तो '

राम ने क्या अनुशासन तोडा़ था परिवार का , नहीं उनने तो सिर्फ़ धनुष तोडा था वो जो सशक्त आयुध था , उसका जिसने स्वयं कामदेव को उद्दंडता का सबक सिखाया था । राम ने कभी कोई मर्यादाएं नहीं तोडी । मन ऐसी स्थिति में पीर से सराबोर हुआ कवि तब जागा और रच दिया प्रीतगीत

साथ ही उस दौर में लिखी गयी इस तरह , रचना करना कैसे सीखा मुझे नहीं मालूम किन्तु ऐसा ही है चिंतनघट से जब भाव रस पीया तो ऐसी ही कविता निकली दिल से अपनी चिंता के पैमानों से कुछ पी कर ऐसी कविता कभी न कह पाता । मेरी कवितायेँ सुनाने वालों में मधु भी होती किंतु कविताओं से बेखर ही होती थी वो उसे केवल एक प्रीतगीत ही पसंद था । वैसी कविता लिखने का आग्रह कई बार किया मुझसे न लिखा गया । मेरी कवितायेँ को बूडों़ की कविताएँ होने का आरोप मिला मुझे बुरा नहीं लगा था आज भी वो चुलबुली सी खनकती आवाज़ सुनाई देती है मुझे । आप सोच रहें है न कि उस नायिका का क्या हुआ ? क्या मैं...............?

फ़िर कभी बताउगा अगली किश्त में ये सवाल आप पर ही छूड़ता हूँ कि आप अंदाज़ लगाएं अगली पोस्ट तक ........!



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