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गुरुवार, नवंबर 13, 2008

माचिस की तीली के ऊपर बिटिया की से पलती आग

माचिस की तीली के ऊपर बिटिया की से पलती आग

यौवन की दहलीज़ को पाके बनती संज्ञा जलती आग .

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एक शहर एक दावानल ने निगला नाते चूर हुए

मिलने वाले दिल बेबस थे अगुओं से मज़बूर हुए

झुलसा नगर खाक हुए दिल रोयाँ रोयाँ छलकी आग !

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युगदृष्टा से पूछ बावरे, पल-परिणाम युगों ने भोगा

महारथी भी बाद युद्ध के शोक हीन कहाँ तक होगा

हाँ अशोक भी शोकमग्न था,बुद्धं शरणम हलकी आग !

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सुनो सियासी हथकंडे सब, जान रहे पहचान रहे

इतना मत करना धरती पे , ज़िंदा न-ईमान रहे !

अपने दिल में बस इस भय की सुनो 'सियासी-पलती आग ?


हाँ अशोक भी शोकमग्न था,बुद्धं शरणम हलकी आग

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