9.11.08
एक थे तिरलोक सिंग जी
एक व्यक्तित्व जो अंतस तक छू गया है । उनसे मेरा कोई खून का नाता तो नहीं किंतु नाता ज़रूर था । कमबख्त डिबेटिंग गज़ब चीज है बोलने को मिलते थे पाँच मिनट पढ़ना खूब पङता था । लगातार बक-बकाने के लिए कुछ भी मत पढिए ,1 घंटे बोलने के लिए चार किताबें , चार दिन तक पढिए, 5 मिनट बोलने के लिए सदा ही पढिए, ये किसी प्रोफेसर ने बताया था याद नहीं शायद वे राम दयाल कोष्टा जी थे ,सो मैं भी कभी जिज्ञासा बुक डिपो तो कभी पीपुल्स बुक सेंटर , जाया करता था। पीपुल्स बुक सेंटर में अक्सर तलाश ख़त्म हों जाती थी, वो दादा जो दूकान चलाते थे मेरी बात समझ झट ही किताब निकाल देते थे। मुझे नहीं पता था कि उन्होंनें जबलपुर को एक सूत्र में बाँध लिया है। नाम चीन लेखकों को कच्चा माल वही सौंपते है इस बात का पता मुझे तब चला जब पोस्टिंग वापस जबलपुर हुयी। दादा का अड्डा प्रोफेसर हनुमान वर्मा जी का बंगला था। वहीं से दादा का दिन शुरू होता सायकल,एक दो झोले किताबों से भरे , कैरियर में दबी कुछ पत्रिकाएँ , जेब में डायरी, अतरे दूसरे दिन आने लगे मलय जी के बेटे हिसाब बनवाने,आते या जाते समय मुझ से मिलना न भूलने वाले व्यक्तित्व ..... को मैंने एक बार बड़ी सूक्ष्मता से देखा तो पता चला दादा के दिल में भी उतने ही घाव हें जितने किसी युद्धरत सैनिक के शरीर,पे हुआ करतें हैं। कर्मयोगी कृष्ण सा उनका व्यक्तित्व, मुझे मोहित करने में सदा हे सफल होता..... ठाकुर दादा,इरफान,मलय जी,अरुण पांडे,जगदीश जटिया,रमेश सैनी,के अलावा,ढेर सारे साहित्यकार के घर जाकर किताबें पढ़वाना तिरलोक जी का पेशा था। पैसे की फिक्र कभी नहीं की जिसने दिया उसे पढ़वाया , जिसके पास पैसा नहीं था या जिसने नही दिया उसे भी पढवाया । कामरेड की मास्को यात्रा , संस्कार धानी के साहित्यिक आरोह अवरोहों , संस्थाओं की जुड़्न-टूटन को खूब करीब से देख कर भी दादा ने इस के उसे नहीं कही। जो दादा के पसीने को पी गए उसे भी कामरेड ने कभी नहीं लताडा कभी मुझे ज़रूर फर्जी उन साहित्यकारों से कोफ्त हुई जिनने दादा का पैसा दबाया । कई बार कहा " दादा अमुक जी से बात करूं...? रहने दो ...? यानी गज़ब का धीरज । सूरज राय "सूरज" ने अपने ग़ज़ल संग्रह के विमोचन के लिए अपनी मान के अलावा मंच पे अगर किसी से आशीष पाया तो वो थे :"तिरलोक सिंह जी "। इधर मेरी सहचरी ने भी कर्मयोगी के पाँव पखार ही लिए। हुआ यूँ कि सुबह सवेरे दादा मुझसे मिलने आए किताब लेकर आंखों में दिखना कम हों गया था,फ़िर भी आए पैदल । सड़क को शौचालय बनाकर गंदगी फैलाने वाले का मल उनके सेंडील मे.... मेन गेट से सीदियों तक गंदगी के निशान छपाते ऊपर आ गए दादा. अपने आप को अपराधी ठहरा रहे थे जैसे कोई बच्चा गलती करके सामने खडा हो. इधर मेरा मन रो रहा था की इतना अपनापन क्यों हो गया कि शरीर को कष्ट देकर आना पड़ा दादा को .संयुक्त परिवार के कुछ सदस्यों को आपत्ति हुयी की गंदगी से सना बूडा आदमी गंदगी परोस गया गेट से सीडी तक . सुलभा के मन में करूणा ने जोर मारा . उनके पैर धुलाने लगी .
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Wow.....New
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7 टिप्पणियां:
दादा का सहज और सरल परिचय दिया, आभार.
बहुत मार्मिक परिचय दिया दादा का आपने ! अक्सर ऐसा ही होता है इस जमाने में ! बहुत धन्यवाद !
दसियों बार त्रिलोकी दादा से किताबें खरीदी हैं । आश्चर्य किया है उनकी जिजिविषा पर । सुना है कि अब वो नहीं हैं । क्या जबलपुर को उनकी याद नहीं आती जब विवेचना के नाटक होते हैं । जब कहीं कोई आयोजन होता है तो क्या अब भी त्रिलोकी दादा की तरह कोई मेज़ पर किताबें सजाता है ।
" bhut bahvntmk artical hai .... accha lgaa pdh kr.."
Regards
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन said...
मार्मिक परन्तु अति सुंदर!
काश! आपके अद्भुत शब्द सत्य हों सबके लिए!
इस द्रश्य की आवृत्ति अक्सर होती है
मेरे इर्द-गिर्द तिरलोक सिंह जी
की यादें अक्सर इसी तरह घूमतीं हैं
समीर भाई युनुस जी ताऊ जी सीमा जी
स्मार्ट इंडियन सभी का आभारी हूँ की मेरे
साथ सभी ने याद किया मेरे ज्ञान पितृ को
उनके .लिए अरुण पांडे के अलावा किसी ने और
कभी कुछ किया है मुझे इस का ज्ञान नहीं
चाहता हूँ की अब ................
खैर जाने दीजिए .............. दादा के बाद अब कोई
इतना हिम्मत वाला नहीं बचा जो बुक स्टाल लगा ले
युनुस भाई
प्रिय मुकुल जी, दादा की बड़ी ही सुंदर याद दिला दी आपने. जिन दूकानों का आपने ज़िक्र किया वो कितनी बड़ी साहित्य स्थल थीं ना अपने समय की. कितना साहित्यिक जबलपुर था वो. है तो अब भी मगर ज़रा बिख़र सा गया है. होगा फिर एक होगा. आप जैसे, अपने शहर को इतना प्यार करने वाले लोग अपना काम आख़िर कर ही रहे हैं तो मेहनत तो रंग लायेगी. ऐसा मेरा वीश्वास है. सदा आपका.
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