24.10.22

नारी स्वातंत्र्य नहीं नारी सशक्तिकरण

 




    ईरान के घटनाक्रम को हम देखते हैं तो हमें एक नवीन क्रांति का प्रादुर्भाव होता दिखाई देता है। परंपराएं क्या है? परंपराएं किस हद तक अपनाई जानी चाहिए? परंपराओं में परिवर्तन और परिवर्द्धन के तरीके क्या है? इन सभी सवालों का उत्तर मैं अपने चिंतन के आधार पर यहां प्रस्तुत करना चाहता हूं
*परंपराएं क्या है*:- 

  परंपराएं समकालीन व्यवस्था के लिए प्रावधान हैं जो समय अनुकूल परिस्थिति मैं सम्यक रूप से लागू होती हैं। परंतु अगर परिस्थिति बदलती है और बदली हुई परिस्थिति में कोई परंपरा  लंबे समय तक अगर जारी रहती है अथवा इसे जारी रखा जाता है तो परंपरा -"रूढ़ी" के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
  इस क्रम में यह सुझाव अनुकूल है कि परंपराओं का विश्लेषण समय-समय पर होते रहना चाहिए और अगर परिवर्तनशील परिस्थितियों में परंपरा में
परंपराएं किस हद तक अपनाई जानी चाहिए यह सुनिश्चित किया जा सके, साथ ही साथ  परंपराएं कठिन परिस्थितियों का निर्माण ना कर पाऐं..!
  महिलाओं के संदर्भ में देखा जाए तो उनके लिए बनाए गए सारे नियम सनातन में अन्य संप्रदाय के सापेक्ष बेहद बहुविकल्पीय एवं परिवर्तनशील होते हैं। घूंघट प्रथा के बारे में विचार करें तो क्या आपको स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि भारत में यह प्रथा आदिकाल से नहीं थी। पूर्व मध्यकालीन भारत से मध्य कालीन भारत तथा कुछ हद तक अफगानी एवं पूर्णतया चंगेज खान के काल में भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पर्दा प्रथा प्रारंभ हुई। अरब में चंगेज खान का आक्रमण बुर्का प्रणाली का जनक रहा है। चंगेज खान पूरे विश्व में अपने कबीले के डीएनए को विस्तारित करना चाहता था। वह असभ्य एवं बर्बर प्रजाति का लुटेरा था..न की चंगेज खान कोई मुसलमान था। चंगेज खान और उसकी सेना नहीं अरब में सर्वाधिक हिंसक एवं यौन शोषण संबंधी अपराधों को कारित किया था। उसके फलस्वरूप  ऐसी संताने जन्मी जो कुछ लोग कहते हैं कि मुगलों के रूप में बाद में प्रतिष्ठित हुई? यदि यह सही भी है अथवा नहीं भी तब भी महिलाओं की बाध्यता थी कि- "तत्सम कालीन परिस्थितियों में महिलाओं को परदे में रखा जाए।" यह एक मनोवैज्ञानिक और तात्कालिक आवश्यकताओं की परिणिति थी।

परंपराएं किस हद तक अपनाई जानी चाहिए

   भारतीय जीवन दर्शन के अनुसार परंपराएं ठीक उसी तरह से और ऊंची सीमा के भीतर स्वीकार करनी चाहिए जितना उसे सहने की क्षमता हो। उदाहरण के तौर पर अगर एक थैली में आप 5 किलो भार उठा सकते हैं तो आप उससे ही कम  या उसके बराबर हो जो थैली कि भार-क्षमता के अनुकूल हो। एक और विश्व में जहां महिला सशक्तिकरण और विकास में महिलाओं की सक्रिय एवं समानांतर भागीदारी सिद्ध हो रही है वही आप महिलाओं को विभिन्न प्रतिबंधों से अगर जोड़ेंगे तो उत्तर है कि विद्रोह और विवाद स्वभाविक है। हम जिस विषय पर चर्चा कर रहे हैं किसी धर्म संप्रदाय  डॉक्ट्रिन अथवा पंथ के निर्देश से संबंधित ना होकर वर्तमान सामाजिक आवश्यकताओं पर केंद्रित है। बदलते परिवेश में अगर आप और दबाव की स्थिति उत्पन्न करेंगे तो दबाव विस्फोटक होगा। और यह विस्फोट आपको भरेगी बुरा लगे परंतु यह विस्फोट परिवर्तन का आधार होता है। भारतीय सनातनी पौराणिक कथाओं में आपने देखा होगा कि अत्यधिक शारीरिक मानसिक हिंसा एवं दबाव की प्रतिक्रिया होती हैं। प्रतिक्रिया का परिणाम कभी-कभी भीषण और विप्लवी हो जाती है। फिर होता है विध्वंस और यही  विध्वंस एक नए निर्माण का प्रवेश द्वार है

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हिंसक क्रांति या होनी चाहिए रक्त पास होना चाहिए परंतु यह स्वभाविक घटनाएं हो सकती हैं अतः  सामाजिक व्यवस्था में धर्म एवं संप्रदायों के निर्देशों पर आधारित परंपराओं की आड़ में किसी भी तरह की अतिवादी परंपरा को प्रश्रय ना दिया जाए।

*परंपराओं में परिवर्तन और परिवर्द्धन के तरीके क्या है..*
   जैसा ऊपर बताया कि परंपराओं की निरंतर समीक्षा होनी चाहिए ऐसी स्थिति में परिवर्तन और परिवर्धन के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरण के तौर पर इसे ऐसा समझिए कि यदि आप रोज वस्त्र को धोते हैं तो उसे आप हमेशा सच ही रखते हैं वरना आपको वस्त्र परिवर्तन शीघ्रतम करने की आवश्यकता पड़ती है। फिर अगर परिस्थिति वश आप किसी भी परंपरा का पालन करने के लिए बाध्य हैं तो उसके स्वरूप में उपलब्ध संसाधन एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन कर लेना सनातन व्यवस्था में प्रतिबंधित कदापि नहीं है। आपने देखा होगा कि हमारी बहुत सारी पौराणिक कथाएं बहुत सारे संकेत देती हैं। राजा हरिश्चंद्र एवं तारामती की कहानी बेहद उल्लेखनीय है। राजा हरिश्चंद्र डोम राजा के कर्मचारी हुए उनका काम था चिता के अंतिम संस्कार में सहायता करना तथा शमशान व्यवस्था के लिए कर अथवा शुल्क वसूल करना। तारामती के पुत्र का आकस्मिक देहावसान करने पर तारामती को अंतिम संस्कार करना था। सामान्यतः अंतिम संस्कार की प्रक्रिया दिन में निष्पादित की जाती है। रात्रि में निष्पादन न करने के बहुत सारे कारण हैं। यह कोई तांत्रिक बाध्यता नहीं है। अंतिम संस्कार रात्रि काल में भी हो जाते हैं और किए जा सकते हैं। सामान्यतः दिन में इसलिए यह कार्य कर आना चाहिए क्योंकि प्राचीन भारत में विद्युत उपलब्ध न थी रात्रि काल जटिल होते थे। कहने का आशय है कि सनातन विकल्प युक्त सामाजिक दक्षिणी एवं अध्यात्मिक व्यवस्था है। यहां तारामती ने अपने पुत्र का अंतिम संस्कार किया, तथा शुल्क स्वरूप साड़ी का हिस्सा फाड़ कर दिया। कुल मिलाकर व्यवस्था बिल्कुल साफ है कि-" श्मशान में नारी का जाना वर्जित है परंतु यह पूरी तरह से नहीं। अगर हिंदू धर्म में पूर्ण रूप से इस बात की वर्जना होती तो तारामती को शमशान जाना अनुचित था । अंतिम संस्कार का अधिकार केवल पुरुषों को है ऐसा नहीं अंतिम संस्कार का अधिकार परिवार की महिलाओं को भी होता है और यही महिला सशक्तिकरण का ही संकेत एक उदाहरण है जो प्राचीन व्यवस्था में समाहित है।


 

17.10.22

बुद्ध के विचारों के पुन: प्रचारित/स्थापना का प्रयास

 


बौद्ध मत : विस्तार सीमाएं तथा नव-बुद्धिज्म से आगे ....... 

    बुद्धिज्म  को स्वीकारना प्राचीन काल में स्वभाविक था. खासकर उन स्थानों पर जहाँ लोग एक झुण्ड के रूप में रहते थे, उनमें सभ्यता के विकास का तत्व मौजूद न था. भिक्खुओं ने उनकी जीवन शैली में आमूल-चूल परिवर्तन किया. 

     बुद्धिज्म के  बाहरी विस्तार को अवेस्ता और यवनों का दबाव के कारण रुक सा गया तथा भारत में  आतंरिक  परिस्थिति  को देखा जावे तो "सनातन व्यवस्था" का शुद्धि करण एवं पुनरीक्षण  प्रारम्भ हो गया. यही वो दौर था जब आदिगुरु शंकराचार्य का अभ्युदय हो चुका था. आदि गुरु ने बुद्धिज्म के अन-ईश्वर वाद की परिकल्पना को समाप्त करते हुए अद्वैत-मत का प्रभावी प्रवर्तन किया. आदि-गुरु ने ही सनातन को सुदृढ़ किया उसे सांगठनिक स्वरुप-दिया. साथ ही  पूजा प्रणालियों  का एकीकरण तथा सरलीकरण किया. 

       अन-ईश्वर वाद की परिकल्पना पर आम असहमति  :-   अन-ईश्वर वाद की परिकल्पना कोई भी जन सामान्य अस्वीकृत  करता है. ऐसा होना स्वाभाविक है. क्योंकि हर किसी को आप नास्तिक नहीं बना सकते . एक ओर विज्ञान ईश्वरीय तत्व की तलाश रहा है वहीं दूसरे छोर पर आप ईश्वर विहीन विश्व की परिकल्पना करें यह असंभव है कि कोई इस विचारधारा को सहज स्वीकार करे.   

 निरंतर जारी 

16.10.22

बौद्ध मत : विस्तार सीमाएं तथा नव-बुद्धिज्म

 

14 अक्टूबर 2056 को भीमराव अंबेडकर जी ने हिंदुत्व से स्वयं को पृथक किया था। आज 14 अक्टूबर 2022 है यानी आज से 66 वर्ष पूर्व से अब तक सिलसिला जारी है आज के दिन इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती ही है।

14 अक्टूबर 300 BCE में सम्राट अशोक  बौद्ध हुए थे। इसी दिन को अशोक विजयादशमी के रूप में भी  मनाया जाता है। 

बीबीसी के अनुसार दीक्षा ग्रहण करने का क्रम आज़ से 66 वर्ष से जारी है ,   परंतु यह अर्ध्दसत्य है पूर्ण सत्य है कि- 300 ईसा  पूर्व से जारी है। 

    महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म 563 BCE में हुआ । उनको तत्व ज्ञान होने के उपरांत बुद्धिज़्म का प्रसार भी होने लगा । 

     बुद्ध के प्रवचनों का जन मानस पर सीधा एवम गहरा प्रभाव पड़ता था।  बौद्धमत, का विस्तार  भारत एवं विश्व के अधिकांश हिस्सों में हज़ारों साल पहले  होना प्रारम्भ हो चुका था। 

आप जानते ही हैं कि बुद्ध ने पंचशील का प्रवर्तन किया, उसका प्रबोधन भी किया. जो जन-मन मानस के लिए नया विज़न था . 

1. किसी जीवित वस्तु को न ही नष्ट करना और न ही कष्ट पहुंचाना।

2. चोरी अर्थात दूसरे की संपत्ति की धोखाधड़ी या हिंसा द्वारा न हथियाना और न उस पर कब्जा करना।

3. झूठ न बोलना।

4. तृष्णा न करना।

5. मादक पदार्थों का सेवन न करना।

फिर अष्टांग योग का प्रबोधन भी कम प्रभावी न था ...

बुद्ध मानते थे कि संसार में दु:ख के समापन के लिए बुद्ध ने आर्य अष्टांग मार्ग निर्धारित किया.........

1. सम्यक दृष्टि, अर्थात अंधविश्वास से मुक्ति।

2. सम्यक संकल्प, जो बुद्धिमान तथा उत्साहपूर्ण व्यक्तियों के योग्य होता है।

3. सम्यक वचन अर्थात दयापूर्ण, स्पष्ट तथा सत्य भाषण।

4. सम्यक आचरण अर्थात शांतिपूर्ण, ईमानदारी तथा शुद्ध आचरण।

5. सम्यक जीविका अर्थात किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार की क्षति या चोट न पहुंचाना।

6. अन्य सात बातों में सम्यक परिरक्षण।

7. सम्यक स्मृति अर्थात एक सक्रिय तथा जागरूक मस्तिष्क, और

8. सम्यक समाधि अर्थात जीवन के गंभीर रहस्यों के संबंध में गंभीर विचार। 

मेरे मतानुसार बुद्ध का यह लोक-दर्शन ही धम्म के लोक व्यापीकरण तेज़ी से हुआ है और होता भी है.   

 प्रमुख विस्तारक के रूप में प्रियदर्शी अशोक ने किया।  प्राचीन इतिहासकार  कहते हैं कि -" बुद्धिज्म बुद्ध के उपरांत  तेजी से राजाश्रय के साथ विकसित एवं विस्तारित हुआ है । श्रीलंका चीन हांगकांग, थाईलैंड, बर्मा जापान अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एशिया के देशों सहित  इस विचारधारा ने विस्तार पाया। बौद्ध इसे धम्म कहते हैं। कई विचारकों का मानना है कि इस विचारधारा ने सीरिया तक विस्तार किया थाकिंतु अवेस्टा के प्रसार से इस विचारधारा को सीमित रहना पड़ा। यहां यह कहना एकदम सटीक नहीं है कि- "केवल अवेस्टा के कारण ही ऐसा हुआ। बल्कि इसके कई और कारण थे.. आइए देखते हैं हम कि और क्या कारण हो सकते हैं बुद्धिज्म के विस्तार के रुक जाने के...

 

   सबसे पहले बताना चाहता हूँ कि- धर्म में में एक विशेष गुण होता  है - कि इसका विस्तार सत्ता के जरिए न होकर दार्शनिक महापुरुषों के जरिए होता है, जबकि अन्य सभी संप्रदायों/मतों का विस्तार राज्य के प्रमुख द्वारा कराया जा सकता है और ऐसा हुआ भी है.। संप्रदायों की यह प्रवृत्ति स्वभाविक है।

सनातन के अलावा जैन केवल जैन मत ही एक ऐसा सोशल रिवॉल्यूशन कहा जा सकता है जो राजा महाराजाओं के दखल के बिना अथवा अल्प दखल से विस्तारित हुआ है।

  बौद्ध मत  को मानने वाले राजाओं ने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि बुद्धिज्म को भी विस्तार दिया।

बुद्ध के विचार सहज स्वीकार्य क्यों ?

महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों में अहिंसा करुणा दया और आत्म विकास तपस्या समभाव  जो उपनिषदों का निचोड़ है के प्रचार करने के लिए प्रभावी कदम उठाने से बुद्धिज्म सरलता से जन सामान्य को स्वीकार्य हुआ। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि केवल बौद्ध भिक्षुको द्वारा ही विस्तार किया गया हो । गौतम बुद्ध के विचारों के विस्तार के लिए  राजश्रय से भी प्राप्त हुआ।

   दीर्घकाल में बुद्धिज्म में भी मानवीय महत्वाकांक्षा एवं लोकेशणा के चलते, बुद्धिज्म प्रभावित होने लगा। बुद्धिज्म में सब कुछ अति उत्तम होने के बावजूद भी एक और कमी थी जिसे सांस्कृतिक आकर्षण का अभाव कहा जा सकता है। परिणाम स्वरूप सामान्य व्यक्तियों ने इसे अस्वीकार करना प्रारंभ कर दिया। और यहीं से बुद्धिज्म का विस्तार रुकने लगा। मनुष्य के जीवन में व्यक्तिगत एवं सामूहिक उत्सव के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। उसे मनोरंजन भी चाहिए उसकी इंद्रियों के सुख की पूर्ति के लिए भी जीवन आवश्यक संसाधन जुटाना चाहता है। लेकिन वैराग्य का अतिरेक मनुष्य जीवन को जटिल बना देता है। शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति ना होने पर अर्थात डिजायर्स की पूर्ति का अभाव कुंठा को जन्म देता है। जीवन प्रणाली के लिए अनुकूलता के महत्व को अधिकृत नहीं किया जा सकता। शनै शनै बुद्धिज्म का स्थानीय विस्तार भौगोलिक एवं सामाजिक रुप से क्रमशः रुकता चला गया।

   वैसे यह सर्वव्यापी है कि-"बौद्धमत का आधार सनातन ही है". साथ ही एक बिंदु सनातन का असली संवाहक “सन्यासी ही नहीं बल्कि सद-गृहस्थ भी होता है.”

क्रमश: जारी अगले भाग में 

बुद्धके विचारों के पुन: प्रचारित/स्थापना का प्रयास  



11.10.22

प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् : सलिल समाधिया अपने जन्म पर्व पर

हर जन्मदिन यह बता जाता है कि उम्र का गिनती (क्रोनोलॉजी) से कुछ लेना-देना नहीं !
इधर मेरे हमउम्र.. दादा, नाना हो चुके हैं, उधर मैं तरुणाई से एक वर्ष आगे न बढ़ा हूं. शायद यह क्वांटम फील्ड को मिली 'गुड कमांड' का असर है कि शरीर भी एकदम तरुण है, आवाज और हंसी भी, मन और भाव भी .
मैं अक्सर अपनी पोस्ट में जिस प्रेम और उल्लास की बात करता हूं उसका सैंपल मॉडल मैं स्वयं हूं. मुझे मिलने वाली उलाहनाओं में सबसे बड़ी उलाहना यही होती है कि  "अब बड़े हो जाओ."

मगर जीवन में सब कुछ अपने किए धरे से नहीं होता. बहुत कुछ पहले ही लिख दिया जाता है.
मेरा पूरा जीवन इस अनुसंधान में गुजरा कि 'हर हाल में मानसिक सुकून और खुशी को कैसे बरकरार रखा जा सकता है?'  तब, जबकि आप की पट्टिका में कुछ दुख भी लिखे जा चुके हों !

इस अनुसंधान में मैं दो प्रक्रियाओं से गुजरा.
एक - कोशिश करके जीना.
दूसरा - बिना कोशिश के जीना.
कोशिश करके जीना हमें सब ओर से सिखाया जाता है.  बिना कोशिश के जीना, स्वयं सीखना होता है.
कोशिश का जीवन..उद्यम है.
बिना कोशिश का जीवन..साधना है.
जीने के यही दो तरीके हैं - या तो तैरकर जियो या बहकर जियो.
मैंने दोनों तरह से जीकर देखा. मेरा अनुभव यह रहा कि तैरकर जीना लड़कर जीना है.  यह हमारी ऊर्जा को खा जाता है, यह हमें दूसरों के साथ निरंतर युद्धरत रखता है. इसमें दूसरे से भय है, उसके प्रति अविश्वास है, अलगाव है. 
हम अलग-अलग द्वीपों में रहते हैं और अपने-अपने द्वीप को महफूज करने में लगे रहते हैं.
यह शंका का जीवन है. 
शंका, निरंतर चेतना को कंपायमान रखती है और सिकोड़ देती है.
फिर ऐसा जीवन कितने ही पराक्रम का जीवन क्यों न हो, वह उदात्त नहीं है. वह प्रेम का जीवन नहीं है, वह चिंता और भय का जीवन है.

बेफिक्री का तो एक ही मंत्र है- समर्पण.

तो क्या समर्पण का अर्थ  यह है कि अब पराक्रम न होगा, बेहतरी के लिए कोई उद्यम न होगा ??
नहीं,
समर्पण की यात्रा ऐसी आसान भी नहीं.
समर्पण का एक ही अर्थ है- कर्ता की गैरमौजूदगी.
करनेवाले के हटते ही कर्म में अद्भुत निखार आ जाता है.
सबसे अच्छा खिलाड़ी वही होता है जो एफर्टलेस खेलता है.
सबसे सुंदर गीत लिखा नहीं जाता, उतर आता है.
वह आर्कमिडीज का 'यूरेका' हो कि न्यूटन का सेब, बुद्ध का बुद्धत्व हो  कि ऋग्वेद की ऋचा ..सारे अवतरण तब ही हुए हैं जब कर्ता ग़ैरमौजूद था.
योग में आसन की सिद्धि भी तभी बताई गई है जब साधक एफर्टलेस अवस्था में  हो. 
"प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्" 

मेरा अनुभव है कि यह दूसरा फार्मूला कारगर है. जो काम कोशिश से नहीं होता वह प्रार्थना से हो जाता है.
इस प्रार्थना ने तो सौ दफे मुझे माया में लिप्त होने से बचाया है. 
"भगवान मेरी नैया, उस पार लगा देना
अब तक तो निभाया है, आगे भी निभा देना
दल बल के साथ माया, घेरे जो मुझ को आकर
तो देखते ना रहना, झट आ के बचा लेना.

मैं अब वैसा ही जी रहा हूं जैसा जीवन का बहाव है. एक तृण-भर की इच्छा जो है तो बस यही कि बचा जीवन, कहीं नदी किनारे एक छोटी सी कुटिया बनाकर, संपूर्ण सजगता और ध्यान की गहनता उतर कर जिऊं.
यदि कोई प्रेमी मित्र मिलने आए तो अपने हाथों से भोजन पकाकर उसका सत्कार करूं.
तब नदी किनारे कहीं मौन बैठें या तत्व-दर्शन की गूढ चर्चा हो.

आह्ह ! आज फिर वही प्रार्थना याद आ गई जो जैसे मेरे हृदय की पुकार है.
इस प्रार्थना को स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी बहुत मीठा गाते थे -
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में।
है जीत तुम्हारे हाथों में, और हार तुम्हारे हाथों में॥

यदि मानव का मुझे जन्म मिले तो प्रभु चरणों का पुजारी बनूँ 
और अंत समय में प्राण तजूँ, साकार तुम्हारे हाथों में, निराकार तुम्हारे हाथों में.

##सलिल##

6.10.22

"हाँ भई..नमक का दरोगा है गुजरात..!"

तथ्य संकलन एवं प्रस्तुति:गिरीश बिल्लोरे
        एक प्रोफेसर के एक ट्वीट ने हंगामा बरपा दिया है। महामहिम राष्ट्रपति  ने जब कहा कि भारत की 70% आबादी गुजरात का नमक खाती है। तो इस बात को अन्य अर्थों में ले जाते हुए पॉलिटिकल रंगों में रंगने की कोशिश करने वाले एक राजनीतिक दल के नेता ने महामहिम के वक्तव्य की न सिर्फ आलोचना की बल्कि उनके विरुद्ध अनाप-शनाप बातें  ट्विटर पर कर दीं।
मित्रों, वास्तव में भारत में नमक का दरोगा अगर है तो वह गुजरात ही है। गुजरात के जामनगर, मीठापुर, झाखर, चैरा, भावनगर, राजुला, गांधीधाम, कांधला, मालिया और लावणपुर.  सहित 15 जिलों में दैनिक उपयोग के नमक का उत्पादन होता है। जबकि तमिलनाडु में तूतीकोरिन, वेदारानयम, कोवलांग. आंध्र प्रदेश में चिन्नागंजम, इसकापल्ली, कृष्णापट्टम, काकीनाड़ा और नौपाडा. महाराष्ट्र में भांडप, भायंदतर और पालघर. ओडिसा में गंजम और सुमादी. पश्चिम बंगाल में कोंतेई

राजस्थान में झीलों  सांभर, नेवा, राजस, कुच्चाम, सुजानगढ़ और फलोदी हैं आदि झीलों में नमक की मौजूदगी है.
   जमीन के नमक उत्पादन कच्छ के रण में कारागोंडा, धरंगधारा और संथालपुर मैं होता है.
   पहाड़ियों पर भी नमक का उत्पादन किया जाता हिमाचल प्रदेश में  इसका उत्पादन होता है।
विश्व में नमक का उत्पादन करने वाले प्रथम तीन देशों में अमेरिका चीन और भारत का नाम है। भारत में सर्वाधिक नमक गुजरात के समुद्र तटीय इलाकों से उत्पादित होता है जिसकी आपूर्ति भारत की 70% आबादी के लिए की जाती है। पूरे देश में 11799 यूनिट है.
    
 जबकि आयुर्वेद मैं सबसे महत्वपूर्ण एवं व्रत उपवास करने वाले हर भारतीय साधक के मुंह में जाने वाला नमक जिसे हम सेंधा नमक के नाम से जानते हैं पाकिस्तान से ही आता है। इस लिहाज से तो हम सब पाकिस्तान का नमक खाते हैं। सेंधा नमक को लेकर पाकिस्तान और भारत के बीच एक ऐसी संधि है किसी भी परिस्थिति में इस नमक का आयात न तो भारत रोक सकता न ही पाकिस्तान निर्यात रोक सकता है। सेंधा नमक चट्टानी नमक होता है। आप सोच रहे होंगे कि भारत में सेंधा नमक का उत्पादन बिल्कुल नहीं होता ऐसा नहीं है,
सेंधा नमक राजस्थान के सांभर नामक झील से प्राप्त होता है। परंतु पाकिस्तान में सेंधा नमक के उत्पादन के सापेक्ष भारत में इसकी उत्पादन क्षमता और गुणवत्ता उतनी नहीं है जितनी पाकिस्तान से आने वाले नमक में है।
नमक को लेकर भारतीय फिल्म शोले का एक डायलॉग मुझे याद आ रहा है तेरा क्या होगा कालिया? सरदार मैंने आपका नमक खाया। तो फिर आपको याद होगा कि सरदार ने क्या कहा अब गोली खा. इसी तरह मुंशी प्रेमचंद नमक का दरोगा कहानी लिखकर ईमानदारी की पराकाष्ठा का आकलन प्रस्तुत किया था। कुछ लोग सैलरी मिलते ही सबसे पहले नमक खरीदते हैं। जबकि कुछ खीर में मिठास की समृद्धि को बढ़ाने के लिए चुटकी भर नमक डाल देते हैं। नमक कभी किसी के हाथ में नहीं दिया जाता वरना उस व्यक्ति से झगड़ा हो जाता है । नमक हलाल नमक हराम ई जैसे शब्द बड़े मायने रखते हैं। जबकि कुछ लोग ऐलान करते हुए सीना तान कर यह कहते हुए सुने गए कि-"मैंने तुम्हारा नमक थोड़ी खाया है जो तुम्हारी गुलामी करूंगा ..?"
   नमक का सीधा संबंध नैतिकता से जोड़ा जाता है यह सही है कि भारत में कुल खपत होने वाली नमक की मात्रा का लगभग 70% से अधिक हिस्सा गुजरात से आता है। गांधी और वर्तमान प्रधानमंत्री भी गुजरात से आते हैं गुजरात में महात्मा जी ने  नमक सत्याग्रह प्रारंभ किया था। भारत में नमक का उत्पादन बहुत पुराना है। आयुर्वेद में भी नमक के इस्तेमाल का विवरण प्राप्त है। कहने का अर्थ यही है कि-" सच में गुजरात भारत में नमक का दरोगा है। नमक को लेकर कुछ अवधारणाएं कुछ मिथक तथा कुछ भ्रांतियां हैं..! परंतु हमारे पॉलिटिकल विचारक अध्ययन करते हैं और बातें अधिक करते हैं। विगत 2 दिनों से एक विद्वान प्रोफ़ेसर जो पॉलिटिकल भी हैं ने महामहिम राष्ट्रपति जी के बयान पर सवाल खड़ा करने के लिए  ट्वीट कर दिया। इस समय उनके कारण सोशल मीडिया के प्लेटफार्म ट्विटर का माहौल नमकीन सा हो गया है। इसके साथ साथ लोगों को बात करने का मौका भी नहीं दिया। जब तक पूरी जानकारी न हो तब तक हमें कुछ बोलना अथवा लिखना नहीं चाहिए। अब प्रोफेसर डॉ उदित राज के ट्वीट को ही देख लीजिए महामहिम पर सवाल उठाकर वह अब जनता के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं। दशहरा मना कर फुर्सत हुई जनता सोशल मीडिया पर टिकलियां फोड़ते नजर आ रही है ।


  

4.10.22

जबलपुर का दशहरा : 400 वर्ष से अधिक पुरानी परंपरा (लेखक प्रशांत पोळ )

( प्रशांत पोळ एक सामाजिक विचारक इतिहास विद और चिंतनशील व्यक्ति हैं.)
  जबलपुर का दुर्गोत्सव यह अपने आप मे अनूठा हैं. *पूरे देश मे रामलीला, दुर्गोत्सव और दशहरा जुलूस का अद्भुत और भव्य संगम शायद अकेले जबलपुर मे होता हैं.*
  भारत मे 1857 का क्रांतियुध्द समाप्त होने के कुछ वर्ष बाद, अंग्रेजों ने बाॅम्बे  - हावडा रेल लाईन का काम शुरु किया. १८७० मे यह रेल लाईन प्रारंभ हुई. जबलपुर इस लाईन का महत्वपूर्ण स्टेशन / जंक्शन था. इस काम के सिलसिले मे अनेक बंगाली परिवार जबलपुर मे स्थाईक हुए. और 1872 मे पहली बार एक नई ऐतिहासिक परंपरा का आरंभ हुआ. बृजेश्वर दत्त जी के यहां दुर्गा देवी की मिट्टी की प्रतिमा स्थापित की गई. तीन वर्ष के पश्चात यह उत्सव अंबिकाचरण बंदोपाध्याय (बॅनर्जी) जी के यहां स्थानांतरीत हुआ. ठीक आठ वर्ष के बाद, अर्थात 1878 मे सुनरहाई मे कलमान सोनी जी ने बुंदेली शैली की दुर्गा प्रतिमा स्थापित की. मिन्नीप्रसाद प्रजापति इसके मूर्तिकार थे. 
  उन दिनों गढा यह एक परिपूर्ण और व्यवस्थित बसाहट थी. गढा वासियों ने इस उत्सव को हाथों हाथ लिया. जबलपुर के बाकी मोहल्लों मे यह उत्सव प्रारंभ हुआ. देवी की मूर्ती बनाने जबलपुर के शिल्पी (कलाकार) तो सामने आएं ही, साथ ही जबलपुर जिस 'सीपी एंड बरार' प्रांत का हिस्सा था, उसकी राजधानी नागपुर से भी मूर्तिकार आने लगे. *धीरे - धीरे यह दुर्गोत्सव भव्य स्वरुप मे मनाया जाने लगा. मूर्तियों के विसर्जन के लिये दशहरा विसर्जन जुलूस प्रारंभ हुआ, जिसने इतिहास रच दिया..!*

    किसी जमाने मे जबलपुर का दशहरा चल समारोह, जिसमे दुर्गा प्रतिमाएं भी विसर्जन के लिये शामिल होती थी, अत्यंत भव्य होता था. चौबीस घंटे जुलूस चलता था. सवा सौ के लगभग प्रतिमाएं होती थीं. किंतु कालांतर मे शहर बडा होता गया. उसमे उपनगर जुडते गए, तो स्वाभाविक रूप से दशहरा चल समारोह का विकेंद्रीकरण होता गया. इस समय मुख्य चल समारोह के साथ ही गढा, सदर, कांचघर, रांझी आदी क्षेत्रों मे भव्यता के साथ चल समारोह निकलते हैं. दशहरे का उत्साह और इस उत्सव की उमंग पूरे जबलपुर क्षेत्र मे समान रुप से फैली हुई दिखती हैं.  
*जबलपुर यह उत्सवप्रिय शहर हैं. इस शहर ने उत्तर प्रदेश की रामलीला को अपना लिया.* दुर्गोत्सव के प्रारंभ होने से भी पहले, अर्थात सन 1865 मे मिलौनीगंज मे गोविंदगंज रामलीला समिति व्दारा रामलीला प्रारंभ हुई, जो आज तक अविरत चल रही हैं. मशाल और चिमनी के प्रकाश मे प्रारंभ हुई यह रामलीला आज अत्याधुनिक तकनिकी का प्रयोग कर रही हैं, और इसीलिये यह आज भी प्रासंगिक हैं तथा भक्तों की भीड खिंचती हैं. यह रामलीला, पारंपारिक एवं शुध्द स्वरुप मे मंचित होती हैं. इसके पात्र भी मंचन के दिनों मे पूर्ण सात्विक जीवन जीते हैं. 
गोविंदगंज की देखा देखी, गढा, सदर, घमापुर, रांझी आदी अनेक स्थानों पर आज भी रामलीला का मंचन उसी भक्तिभाव से होता हैं. 
*सप्तमी से लेकर तो दशहरे तक, जबलपुर के रौनक की, जबलपुर वासियों के उत्साह की कोई तुलना हो ही नही सकती. लगभग ६०० से ७०० भव्य मूर्तियों की प्रतिष्ठापना की जाती हैं.* पहले नागपुर के मूर्तिकारों व्दारा प्रमुख उत्सव समितीयों मे मूर्ती बनाई जाती थी. पुराना बस स्टैंड (सुपर बजार) की मूर्ती मूलच॔द व्दारा निर्मित होती थी, तो शंकर घी भंडार (सब्जी मंडी), गल्ला मंडी और हरदोल मंदिर (गंजीपुरा) की प्रतिमाएं, सुधीर बनाते थे. अनेक वर्षों पहले, सब्जी मंडी मे रखी गई, सिंह के रथ पर सवार, सुधीर व्दारा बनाई गई, मां जगतजननी की प्रतिमा आज भी अनेकों के स्मरण मे होगी. नागपुर की इस परंपरा को अभी - अभी तक जीवित रखा हैं, शरद इंगले ने. दिक्षितपुरा की हितकारिणी शाला मे स्थापित प्रतिमा उन्ही के व्दारा बनाई जाती हैं. कुछ वर्ष पहले तक, शरद और वसंत इंगले यह भाई घमापुर, चोर बावली (आज का ब्लूम चौक) और सुभाष टाॅकीज की प्रतिमाएं भी बनाते थे. मूलचंद, सुधीर, शरद इंगले यह सभी कलाकार, नागपुर के चितार ओल से आते थे. 
किंतु जबलपुर के दुर्गोत्सव मे जलवा होता था तो कलकत्ता से आनेवाले जगदीश विश्वास का. बंगाली शैली मे बनी अनेक प्रतिमाएं उनके तथा उनके भाई के व्दारा बनाई जाती थी. मूलतः, लगभग पचपन - साठ वर्ष पूर्व उन्हे टेलिग्राफ वर्क शॉप की दुर्गा उत्सव समिती ने बुलाया था. दुर्गोत्सव के लगभग एक महिने पहले आकर जगदीश विश्वास और उनकी टीम, टेलिग्राफ काॅलोनी के डिस्पेंसरी मे मूर्ती बनाना प्रारंभ करती थी. उन दिनों उनकी दो मूर्तियां भव्यता की श्रेणी मे आती थी. एक - टेलिग्राफ काॅलोनी की और दुसरी शारदा टाॅकीज, गोरखपुर की. लगभग सारी मूर्तियां दुर्गा जी की होती थी. बंगाली पंडालों के लिये गणेश, सरस्वती, कार्तिकेय इत्यादी भी रहती थी. अपवाद एक था. कछियाना की समिती के लिये, लेटे हुए शंकर पर खडी महाकाली की मूर्ती वे बनाते थे. 
धीरे - धीरे जबलपुर के मूर्तिकार अपनी कला मे निखार लाते गए. बचई जैसे कलाकार, महाराष्ट्र स्कूल के सामने रखी गई प्रतिमा मे अपनी कला का अविष्कार दिखाते रहे. किंतू अनेक मूर्तिकार परंपरागत शैली मे सुंदर प्रतिमाएं बनाते रहे. शीतलामाई के पास आज भी बडी संख्या मे शानदार प्रतिमाएं बनती हैं. 
कुछ उत्सव समितियों का जनमानस मे श्रध्दाभाव के साथ, अटूट स्थान बन गया हैं. गढाफाटक की तथा पडाव की महाकाली यह आस्था की अद्भुत प्रतीक बन गई हैं. सुनरहाई तथा नुनहाई की पारंपारिक बुंदेली शैली की प्रतिमाएं, यह जबलपुर की शान हैं. जबलपुर का गौरव हैं. सुनरहाई की देवी, 'नगर सेठानी' कहलाती हैं. सुनरहाई के ही आगे एक भव्य देवी प्रतिमा स्थापित की जाती हैं, जिसमे किसी पौराणिक कथा की शानदार प्रस्तुती होती हैं. मोहन शशि जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार की लेखनी से उतरी यह कथा, भक्तों का मन मोह लेती हैं. 
उपनगरों की देवी प्रतिमाएं भी आकर्षण का केंद्र बन रही हैं. मंडला रोड पर बिलहरी मे स्थापित दुर्गा प्रतिमा यह अनेक वर्षों से भव्यता और झांकियों के लिये प्रसिद्ध हैं. रांझी, गढा और सदर की भी अनेक प्रतिमाएं आकर्षण का केंद्र रहती हैं. 
*सप्तमी से लेकर तो विजया दशमी (दशहरे) तक, सारा जबलपुर मानो सडकों पर होता हैं. शहर का कोना - कोना रोशनी से जगमगाता रहता हैं. आजुबाजू के गांव वाले भी इस दुर्गोत्सव और दशहरे का आनंद लेने शहर आते हैं.* दशहरे के एक दिन पहले, अर्थात नवमी के दिन, पंजाबी दशहरा संपन्न होता हैं. पहले राईट टाऊन स्टेडियम मे जब यह होता था, तो इसकी भव्यता का आंकलन करना भी कठीन होता था. बच्चों के लिये तो यह विशेष आकर्षण रहता था. 

*जबलपुर यह भारत की सारी संस्कृतियों को समेटता हुआ शहर हैं. ये सारे लोग बडे उत्साह से, उमंग से, उर्जा से और गर्व से दुर्गोत्सव और दशहरा मनाते हैं.* यह सभी का उत्सव हैं. इसलिये एक ओर जहां गरबा चलता रहता हैं, तो दुसरी ओर सिटी बंगाली क्लब और डी बी बंगाली क्लब मे बंगाली नाटकों का मंचन चलता हैं. छोटा फुआरा, गढा, घमापुर, सदर, गोकलपुर, रांझी आदी स्थानों पर रामलीला का मंचन होता रहता हैं, तो दत्त मंदिर मे मराठी समाज अष्टमी का खेल खेलता हैं. सैंकडो देवी पंडालों मे देवी पूजा, सप्तशती का पाठ, होम-हवन होता रहता हैं, तो जगह - जगह सडकों पर भंडारा चलता रहता हैं. 
*ये जबलपुर हैं. एम पी अजब हैं, तो हमारा जबलपुर गजब हैं. इस उत्सव के रंग मे रंगने के लिये अगले वर्ष, इन दिनों जबलपुर अवश्य आइये..!*
आपका स्वागत हैं. 🙏
- प्रशांत पोळ
#जबलपुर; #Jabalpur; #दुर्गोत्सव
यहां देवी गीत गाने वाली हस्तियों में प्रेम कुशवाहा राकेश तिवारी आदि ने राष्ट्रीय स्तर पर सफलता प्राप्त की और लोकप्रिय हुए जबकि मूर्तिकार कुंदन के पास सबसे ज्यादा मूर्तियां 80 और 90 के दशक में बनाई जाने लगी थी

अगर हमारे सींग होते..!




  अगर हमारे सींग होते तब क्या होता ? कभी सोचा है आपने ?
सोचा तो हमने भी न था पर शहर की सजावट और दुर्गा उत्सव की हलचल देखते हुए अचानक फुटपाथ पर बोरा बिछा कर बैठे एक विक्रेता से हमारी श्रीमती जी ने सींग  खरीदने की इच्छा जाहिर की..?
हमने कहा - इसकी जरूरत कहां है आपको .. पिछले बरस तो हम आपकी जीभ की पूजा कर अपनी विजयादशमी को सिद्ध कर चुके थे परंतु इस बार मैं नहीं चाहता कि आप इस तरह का कोई शस्त्र खरीदें..!
  ऑटो रोककर हमने वही किया उन्होंने तय किया था। मनुष्य प्रस्तावित करता है और उसका निराकरण ईश्वर करता है यह कहावत बिल्कुल झूठी है पति-पत्नी के संदर्भ में। पति प्रस्तावित करता है पत्नी उसे डिस्पोज करती है। और पति की क्या मजाल की पत्नी द्वारा प्रस्तावित कोई भी प्रस्ताव निर्णायक मोड़ पर न ला सके..? मेरी अकेले की आत्मकथा नहीं है।
तुम पढ़ रहे हो ना अगर विवाहित पुरुष तो तुम्हारी यही समस्या है लिख कर दे दूं.. ? धोखे से कुंवारे लड़के अगर इस विवरण को पढ़ रहे होंगे अपने सोना बाबू वाले इवेंट मुक्त होकर तो भैया जान लो यह तुम्हारा भी भविष्यफल है। सोना बाबू वाला लफड़ा जब से युवाओं के बीच पनप रहा है जब से लड़के इस समस्या के अभ्यस्त हो गए हैं।
चलो मूल विषय पर आते हैं। अगर    
    हमारे सींग होते तो क्या होता और क्या न होता...?
   हमने इस बारे में श्रीमती जी से पूछ लिया कि अगर वास्तव में हमारे सींग होते तो क्या होता..?
" क्या ही होता एक तो  सूट सिर में घुसाने में बड़ी तकलीफ होती। और क्या ब्यूटी पार्लर का खर्चा दुगना हो जाता । केश सज्जा के साथ-साथ सींग सज्जा के लिए बजट तुम्हारा कि बिगड़ता मुझे क्या? यह कहकर वे अपने कामकाज में व्यस्त हो गई।
  बात तो सही है अगर सींग होते तो कितनी ही मजबूत माचो बनियान होती जल्दबाजी में फट जाती और नुकसान हमारा ही होता। सबसे ज्यादा परंपरागत बनने वालों का नुकसान होना तय था। जैसे कोई बुजुर्ग दादाजी सिर हिला हाथ हिला बस कुर्ते में छेद
हां यह बात सही है अब शब्दों का प्रयोग नहीं होता डायरेक्ट सींग से जवाब दिया जाता। सरकार को इंडियन पैनल कोर्ट की धाराओं में बदलाव लाना पड़ता ।
   जब किसी से नाराजगी के बाद बहुत दिनों बाद मिलो तो उसका यही वाक्य होता है-" आजकल तुम हमसे मिलते ही नहीं क्या हमारे सींग निकले हैं..?
  या फिर कोई यह भी पूछता है -"कहां नदारद थे, गधे के सिर पर सींग की तरह गायब..!"
   इस तरह के सवालों का कोई औचित्य न रह जाता।
   सींगों की मौजूदगी में सबसे ज्यादा तकलीफ हमारे शारदा  अथवा हमारे अन्य की सज्जाकारों  को होती ।
शारदा भैया पूछ ही लेते:-" तुमाए बांए बाजू वारो सींग तनक बैंड सो हो गओ , कौनों अच्छे डांक्टर को काय नईं दिखाते ?
   घर में आने जाने वाले आगंतुक पति-पत्नी के चेहरे के भाव से आजकल अंदाज लगा लेते हैं-" कि किस स्तर पर द्वंद हुआ है ?" और अगर मनुष्य प्रजाति के सींग होते तो लोग सींग की स्थिति देख कर अनुमान लगाते।
   मेरे एक योग मित्र से पूछा कि भाई अगर ऐसा होता तो क्या होता?
  होना क्या था शीर्षासन लगना बंद हो जाता।
   मास्टर साहब को टेंशन होती अब गुड्डी कैसे तनवाएं..!
    दीपावली पर हम अपने लोगों पर बेहतरीन कलर करवा सकते थे अगर सींग होते तो। दिवाली के दूसरे दिन फिर  बैल गाय बछड़े का क्या काम..!
पॉलीटिशियंस के संदर्भ में सोचा जाए जिसके जितनी मजबूत सींग उसके उतने विधायक पीएम तो वह पक्का अब मौका लगे तो प्राइम मिनिस्टर।
  ब्यूरोक्रेसी के बारे में कुछ नहीं कहूंगा उसी का हिस्सा हूं। जो मैंने कहा है उसे आप स्वयं कह लीजिए मुस्कुराइए हंसी है हंसते रहिए वैसे एक बात बता दूं   अपने कान जरा पास लाना.. हमारे तो परमानेंट निकले किसी को बताना नहीं।
*यह आर्टिकल केवल हास्य-विनोद के लिए लिखा गया है, कोई से क्रोधित होकर मेरी और अपने  सींग लेकर न दौड़ना भाई. लेखक हूं मेरी कलम ज्यादा घातक हो सकती है इन काल्पनिक सींगो की तुलना में*
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