बौद्ध मत : विस्तार सीमाएं तथा नव-बुद्धिज्म से आगे .......
बुद्धिज्म को स्वीकारना प्राचीन काल में स्वभाविक था. खासकर उन स्थानों पर जहाँ लोग एक झुण्ड के रूप में रहते थे, उनमें सभ्यता के विकास का तत्व मौजूद न था. भिक्खुओं ने उनकी जीवन शैली में आमूल-चूल परिवर्तन किया.
बुद्धिज्म के बाहरी विस्तार को अवेस्ता और यवनों का दबाव के कारण रुक सा गया तथा भारत में आतंरिक परिस्थिति को देखा जावे तो "सनातन व्यवस्था" का शुद्धि करण एवं पुनरीक्षण प्रारम्भ हो गया. यही वो दौर था जब आदिगुरु शंकराचार्य का अभ्युदय हो चुका था. आदि गुरु ने बुद्धिज्म के अन-ईश्वर वाद की परिकल्पना को समाप्त करते हुए अद्वैत-मत का प्रभावी प्रवर्तन किया. आदि-गुरु ने ही सनातन को सुदृढ़ किया उसे सांगठनिक स्वरुप-दिया. साथ ही पूजा प्रणालियों का एकीकरण तथा सरलीकरण किया.
अन-ईश्वर वाद की परिकल्पना पर आम असहमति :- अन-ईश्वर वाद की परिकल्पना कोई भी जन सामान्य अस्वीकृत करता है. ऐसा होना स्वाभाविक है. क्योंकि हर किसी को आप नास्तिक नहीं बना सकते . एक ओर विज्ञान ईश्वरीय तत्व की तलाश रहा है वहीं दूसरे छोर पर आप ईश्वर विहीन विश्व की परिकल्पना करें यह असंभव है कि कोई इस विचारधारा को सहज स्वीकार करे.
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