हर जन्मदिन यह बता जाता है कि उम्र का गिनती (क्रोनोलॉजी) से कुछ लेना-देना नहीं !
इधर मेरे हमउम्र.. दादा, नाना हो चुके हैं, उधर मैं तरुणाई से एक वर्ष आगे न बढ़ा हूं. शायद यह क्वांटम फील्ड को मिली 'गुड कमांड' का असर है कि शरीर भी एकदम तरुण है, आवाज और हंसी भी, मन और भाव भी .
मैं अक्सर अपनी पोस्ट में जिस प्रेम और उल्लास की बात करता हूं उसका सैंपल मॉडल मैं स्वयं हूं. मुझे मिलने वाली उलाहनाओं में सबसे बड़ी उलाहना यही होती है कि "अब बड़े हो जाओ."
मगर जीवन में सब कुछ अपने किए धरे से नहीं होता. बहुत कुछ पहले ही लिख दिया जाता है.
मेरा पूरा जीवन इस अनुसंधान में गुजरा कि 'हर हाल में मानसिक सुकून और खुशी को कैसे बरकरार रखा जा सकता है?' तब, जबकि आप की पट्टिका में कुछ दुख भी लिखे जा चुके हों !
इस अनुसंधान में मैं दो प्रक्रियाओं से गुजरा.
एक - कोशिश करके जीना.
दूसरा - बिना कोशिश के जीना.
कोशिश करके जीना हमें सब ओर से सिखाया जाता है. बिना कोशिश के जीना, स्वयं सीखना होता है.
कोशिश का जीवन..उद्यम है.
बिना कोशिश का जीवन..साधना है.
जीने के यही दो तरीके हैं - या तो तैरकर जियो या बहकर जियो.
मैंने दोनों तरह से जीकर देखा. मेरा अनुभव यह रहा कि तैरकर जीना लड़कर जीना है. यह हमारी ऊर्जा को खा जाता है, यह हमें दूसरों के साथ निरंतर युद्धरत रखता है. इसमें दूसरे से भय है, उसके प्रति अविश्वास है, अलगाव है.
हम अलग-अलग द्वीपों में रहते हैं और अपने-अपने द्वीप को महफूज करने में लगे रहते हैं.
यह शंका का जीवन है.
शंका, निरंतर चेतना को कंपायमान रखती है और सिकोड़ देती है.
फिर ऐसा जीवन कितने ही पराक्रम का जीवन क्यों न हो, वह उदात्त नहीं है. वह प्रेम का जीवन नहीं है, वह चिंता और भय का जीवन है.
बेफिक्री का तो एक ही मंत्र है- समर्पण.
तो क्या समर्पण का अर्थ यह है कि अब पराक्रम न होगा, बेहतरी के लिए कोई उद्यम न होगा ??
नहीं,
समर्पण की यात्रा ऐसी आसान भी नहीं.
समर्पण का एक ही अर्थ है- कर्ता की गैरमौजूदगी.
करनेवाले के हटते ही कर्म में अद्भुत निखार आ जाता है.
सबसे अच्छा खिलाड़ी वही होता है जो एफर्टलेस खेलता है.
सबसे सुंदर गीत लिखा नहीं जाता, उतर आता है.
वह आर्कमिडीज का 'यूरेका' हो कि न्यूटन का सेब, बुद्ध का बुद्धत्व हो कि ऋग्वेद की ऋचा ..सारे अवतरण तब ही हुए हैं जब कर्ता ग़ैरमौजूद था.
योग में आसन की सिद्धि भी तभी बताई गई है जब साधक एफर्टलेस अवस्था में हो.
"प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्"
मेरा अनुभव है कि यह दूसरा फार्मूला कारगर है. जो काम कोशिश से नहीं होता वह प्रार्थना से हो जाता है.
इस प्रार्थना ने तो सौ दफे मुझे माया में लिप्त होने से बचाया है.
"भगवान मेरी नैया, उस पार लगा देना
अब तक तो निभाया है, आगे भी निभा देना
दल बल के साथ माया, घेरे जो मुझ को आकर
तो देखते ना रहना, झट आ के बचा लेना.
मैं अब वैसा ही जी रहा हूं जैसा जीवन का बहाव है. एक तृण-भर की इच्छा जो है तो बस यही कि बचा जीवन, कहीं नदी किनारे एक छोटी सी कुटिया बनाकर, संपूर्ण सजगता और ध्यान की गहनता उतर कर जिऊं.
यदि कोई प्रेमी मित्र मिलने आए तो अपने हाथों से भोजन पकाकर उसका सत्कार करूं.
तब नदी किनारे कहीं मौन बैठें या तत्व-दर्शन की गूढ चर्चा हो.
आह्ह ! आज फिर वही प्रार्थना याद आ गई जो जैसे मेरे हृदय की पुकार है.
इस प्रार्थना को स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी बहुत मीठा गाते थे -
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में।
है जीत तुम्हारे हाथों में, और हार तुम्हारे हाथों में॥
यदि मानव का मुझे जन्म मिले तो प्रभु चरणों का पुजारी बनूँ
और अंत समय में प्राण तजूँ, साकार तुम्हारे हाथों में, निराकार तुम्हारे हाथों में.
##सलिल##