24.10.22

नारी स्वातंत्र्य नहीं नारी सशक्तिकरण

 




    ईरान के घटनाक्रम को हम देखते हैं तो हमें एक नवीन क्रांति का प्रादुर्भाव होता दिखाई देता है। परंपराएं क्या है? परंपराएं किस हद तक अपनाई जानी चाहिए? परंपराओं में परिवर्तन और परिवर्द्धन के तरीके क्या है? इन सभी सवालों का उत्तर मैं अपने चिंतन के आधार पर यहां प्रस्तुत करना चाहता हूं
*परंपराएं क्या है*:- 

  परंपराएं समकालीन व्यवस्था के लिए प्रावधान हैं जो समय अनुकूल परिस्थिति मैं सम्यक रूप से लागू होती हैं। परंतु अगर परिस्थिति बदलती है और बदली हुई परिस्थिति में कोई परंपरा  लंबे समय तक अगर जारी रहती है अथवा इसे जारी रखा जाता है तो परंपरा -"रूढ़ी" के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
  इस क्रम में यह सुझाव अनुकूल है कि परंपराओं का विश्लेषण समय-समय पर होते रहना चाहिए और अगर परिवर्तनशील परिस्थितियों में परंपरा में
परंपराएं किस हद तक अपनाई जानी चाहिए यह सुनिश्चित किया जा सके, साथ ही साथ  परंपराएं कठिन परिस्थितियों का निर्माण ना कर पाऐं..!
  महिलाओं के संदर्भ में देखा जाए तो उनके लिए बनाए गए सारे नियम सनातन में अन्य संप्रदाय के सापेक्ष बेहद बहुविकल्पीय एवं परिवर्तनशील होते हैं। घूंघट प्रथा के बारे में विचार करें तो क्या आपको स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि भारत में यह प्रथा आदिकाल से नहीं थी। पूर्व मध्यकालीन भारत से मध्य कालीन भारत तथा कुछ हद तक अफगानी एवं पूर्णतया चंगेज खान के काल में भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पर्दा प्रथा प्रारंभ हुई। अरब में चंगेज खान का आक्रमण बुर्का प्रणाली का जनक रहा है। चंगेज खान पूरे विश्व में अपने कबीले के डीएनए को विस्तारित करना चाहता था। वह असभ्य एवं बर्बर प्रजाति का लुटेरा था..न की चंगेज खान कोई मुसलमान था। चंगेज खान और उसकी सेना नहीं अरब में सर्वाधिक हिंसक एवं यौन शोषण संबंधी अपराधों को कारित किया था। उसके फलस्वरूप  ऐसी संताने जन्मी जो कुछ लोग कहते हैं कि मुगलों के रूप में बाद में प्रतिष्ठित हुई? यदि यह सही भी है अथवा नहीं भी तब भी महिलाओं की बाध्यता थी कि- "तत्सम कालीन परिस्थितियों में महिलाओं को परदे में रखा जाए।" यह एक मनोवैज्ञानिक और तात्कालिक आवश्यकताओं की परिणिति थी।

परंपराएं किस हद तक अपनाई जानी चाहिए

   भारतीय जीवन दर्शन के अनुसार परंपराएं ठीक उसी तरह से और ऊंची सीमा के भीतर स्वीकार करनी चाहिए जितना उसे सहने की क्षमता हो। उदाहरण के तौर पर अगर एक थैली में आप 5 किलो भार उठा सकते हैं तो आप उससे ही कम  या उसके बराबर हो जो थैली कि भार-क्षमता के अनुकूल हो। एक और विश्व में जहां महिला सशक्तिकरण और विकास में महिलाओं की सक्रिय एवं समानांतर भागीदारी सिद्ध हो रही है वही आप महिलाओं को विभिन्न प्रतिबंधों से अगर जोड़ेंगे तो उत्तर है कि विद्रोह और विवाद स्वभाविक है। हम जिस विषय पर चर्चा कर रहे हैं किसी धर्म संप्रदाय  डॉक्ट्रिन अथवा पंथ के निर्देश से संबंधित ना होकर वर्तमान सामाजिक आवश्यकताओं पर केंद्रित है। बदलते परिवेश में अगर आप और दबाव की स्थिति उत्पन्न करेंगे तो दबाव विस्फोटक होगा। और यह विस्फोट आपको भरेगी बुरा लगे परंतु यह विस्फोट परिवर्तन का आधार होता है। भारतीय सनातनी पौराणिक कथाओं में आपने देखा होगा कि अत्यधिक शारीरिक मानसिक हिंसा एवं दबाव की प्रतिक्रिया होती हैं। प्रतिक्रिया का परिणाम कभी-कभी भीषण और विप्लवी हो जाती है। फिर होता है विध्वंस और यही  विध्वंस एक नए निर्माण का प्रवेश द्वार है

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हिंसक क्रांति या होनी चाहिए रक्त पास होना चाहिए परंतु यह स्वभाविक घटनाएं हो सकती हैं अतः  सामाजिक व्यवस्था में धर्म एवं संप्रदायों के निर्देशों पर आधारित परंपराओं की आड़ में किसी भी तरह की अतिवादी परंपरा को प्रश्रय ना दिया जाए।

*परंपराओं में परिवर्तन और परिवर्द्धन के तरीके क्या है..*
   जैसा ऊपर बताया कि परंपराओं की निरंतर समीक्षा होनी चाहिए ऐसी स्थिति में परिवर्तन और परिवर्धन के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरण के तौर पर इसे ऐसा समझिए कि यदि आप रोज वस्त्र को धोते हैं तो उसे आप हमेशा सच ही रखते हैं वरना आपको वस्त्र परिवर्तन शीघ्रतम करने की आवश्यकता पड़ती है। फिर अगर परिस्थिति वश आप किसी भी परंपरा का पालन करने के लिए बाध्य हैं तो उसके स्वरूप में उपलब्ध संसाधन एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन कर लेना सनातन व्यवस्था में प्रतिबंधित कदापि नहीं है। आपने देखा होगा कि हमारी बहुत सारी पौराणिक कथाएं बहुत सारे संकेत देती हैं। राजा हरिश्चंद्र एवं तारामती की कहानी बेहद उल्लेखनीय है। राजा हरिश्चंद्र डोम राजा के कर्मचारी हुए उनका काम था चिता के अंतिम संस्कार में सहायता करना तथा शमशान व्यवस्था के लिए कर अथवा शुल्क वसूल करना। तारामती के पुत्र का आकस्मिक देहावसान करने पर तारामती को अंतिम संस्कार करना था। सामान्यतः अंतिम संस्कार की प्रक्रिया दिन में निष्पादित की जाती है। रात्रि में निष्पादन न करने के बहुत सारे कारण हैं। यह कोई तांत्रिक बाध्यता नहीं है। अंतिम संस्कार रात्रि काल में भी हो जाते हैं और किए जा सकते हैं। सामान्यतः दिन में इसलिए यह कार्य कर आना चाहिए क्योंकि प्राचीन भारत में विद्युत उपलब्ध न थी रात्रि काल जटिल होते थे। कहने का आशय है कि सनातन विकल्प युक्त सामाजिक दक्षिणी एवं अध्यात्मिक व्यवस्था है। यहां तारामती ने अपने पुत्र का अंतिम संस्कार किया, तथा शुल्क स्वरूप साड़ी का हिस्सा फाड़ कर दिया। कुल मिलाकर व्यवस्था बिल्कुल साफ है कि-" श्मशान में नारी का जाना वर्जित है परंतु यह पूरी तरह से नहीं। अगर हिंदू धर्म में पूर्ण रूप से इस बात की वर्जना होती तो तारामती को शमशान जाना अनुचित था । अंतिम संस्कार का अधिकार केवल पुरुषों को है ऐसा नहीं अंतिम संस्कार का अधिकार परिवार की महिलाओं को भी होता है और यही महिला सशक्तिकरण का ही संकेत एक उदाहरण है जो प्राचीन व्यवस्था में समाहित है।


 

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