31.12.20

कोशिशें सदा बड़ी ही होतीं हैं..!

    जन्मपर्व पर हार्दिक बधाई
            बेटी शिवानी
एफिल टॉवर, हिमालय, एवरेस्ट, या और अनंत ऊँचाईयाँ
कभी भी बड़ी नहीं ...!
बड़ी होती हैं...
उम्मीदें... 
अरे नहीं यह भी नहीं !
बड़े होते हैं संकल्प..!
ओह.. 
ये भी आधा अधूरा सच है..!
बड़ी होती हैं.. सफलताएं ..
उफ़ ये क्या ?
यह तो आधे से भी कम सच है
बड़ी होतीं हैं..
कोशिशें..! 
जो हज़ारों रिजेक्शन के 
बाद  
सतत संलग्नता  
सफल बनातीं हैं
हाँ... सकारात्मक दिशा 
की कोशिशें
सदा बड़ी ही होतीं हैं
जन्मपर्व पर हार्दिक बधाई शिवानी बेटा..!

30.12.20

मेरी फुदक चिरैया का हत्यारा माओ


  18 मार्च 1958 से 18 मार्च 1960 तक एक मूर्ख नेता ने मेरी फुदक चिरैया का सामूहिक हत्या का अभियान छेड़ दिया इस मूर्ख नेता का नाम था माओ ।
    यह एहसान फरामोश अति स्वाभिमानी और अपने कैलकुलेशंस को श्रेष्ठ मानने वाला नेता था। पता नहीं क्यों इस भटके हुए संहारक मस्तिष्क में एक गणित उभरा और वह गणित था देश की अर्थव्यवस्था को यूरोपियन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था से बेहतर बनाना।
यह जिस आईडियोलॉजी से आता है उस आईडियोलॉजी में मौलिक रूप से यह विचार समाहित होता है कि अगर कुछ हुआ है... तो उसका उत्तरदाई बिना कोई अवश्य है ।  बस एक दिन बैठे बैठे गुणा भाग करते हुए इसने अंदाज लगाया-" यह जो गौरैया है ना साल भर में  4•5 किलोग्राम अनाज चट कर जाती है । और चूहे भी अनाज चट कर जाते हैं अगर हम इन चिड़ियों को मार दें तो  बहुत सा अनाज बचेगा और वह अनाज बाजार में बेचकर अर्थव्यवस्था को पुख्ता किया जा सकता है । कैलकुलेशन सही था लेकिन परिणाम के बारे में सोचा ही नहीं गया। मेरी फुदक चिरैया उन कीट पतंगों को भी चट कर जाती है जो माओ के देश के खेत में फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। और वह इस बात का भी अंदाज नहीं लगा पाया कि यह जो टिड्डी दल है ना उस पर भी नियंत्रण करती है मेरी फुदक चिरैया...!!
एक मूर्खतापूर्ण निर्णय जिसने क्या जनता क्या सेना क्या इंटेलेक्चुअल्स और क्या पुलिस और प्रशासन सब के सब ऐसे इंवॉल्व हो जैसे कोई उत्सव मनाया जा रहा है।
     हो सकता है कि उनको भारत में भी कुछ लोग मेरी फुदक चिरैया से नाराज रहने लगे हो..😢😢 असंभव कुछ भी नहीं वैसे भी यह मूर्खों के शब्दकोश का शब्द है। भारत एसे कुछ लोगों को अपने देश में रहने की इजाजत देता है जो मेरी फुदक चिरैया से नाराज हैं ।
      ग्रेट स्पैरो मूवमेंट  में  जनता की जिम्मेदारी थी  कि वह  मक्खी  मच्छर चूहे और  गौरैया को समूल नष्ट कर दें । मैंने इस मूवमेंट का नाम बदल रखा था मैं इसे *मेरी गौरिया के खिलाफ आतंकवाद* नाम देता हूं ।
                जानते हैं उसके बाद क्या होगा 1960 के आते-आते इकोसिस्टम अर्राकर गिर गया । खेतों में उगने वाले अनाज को कीड़े और टिड्डी दल बिना किसी दबाव के निपटाने लगे। करोड़ों चीनी वासियों को भूखमरी और शिकार होना पड़ा था...!
कोविड-19 वायरस के जन्मदाता देश में जो ना हो वह थोड़ा है ।
   

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सार्वकालिक समरसता के तत्व..!

     छायाकार : मुकुल यादव
"भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सार्वकालिक समरसता के तत्व..!"
    सुप्रभात श्री राम कृष्ण हरि
भारतीय सामाजिक व्यवस्था को इस बात से घबराने की जरूरत नहीं है कि भविष्य में कोई भी संस्कृति उस पर हावी हो जावेगी। इस कथन पढ़ने जा सुनने के बाद आप चकित हो जाएंगे आपको विश्वास नहीं होगा आप कहेंगे
इससे बड़ा मिथ्या कथन और कुछ नहीं की हमने अपनी जीवनशैली को बदल दिया है इसके बावजूद यह दावा किया जा रहा है कि -" कोई अन्य संस्कृति हमारे जीवन पर प्रभाव कारी नहीं होगी ..?"
   अगर आप यह समझते हैं कि कपड़े पहनने बोलचाल अथवा जीवन शैली में परिवर्तन किसी अन्य संस्कृति का प्रभाव है तो आप गलत समझते हैं क्योंकि यह सांस्कृतिक बदलाव का आधार नहीं है ना ही यह मानक हैं और न ही संस्कृति के प्रतीक है ।
   अब अंदाज कीजिए कि अगर शिकागो में वहां के जाने से बचने के लिए विवेकानंद कोट नहीं पहनते और वही ठंडे सूती वस्त्र पहनते तो क्या विवेकानंद सनातन संस्कृति के विभिन्न बिंदुओं को सबके सामने रख सकने में समर्थ थे ?
  कदापि नहीं ,  वे बीमार हो जाया करते थे जाड़े के प्रभाव से । वे भारतीय गर्म मसालों का प्रयोग अपने आहार में किया करते थे। यह उदाहरण पर्याप्त है कि आपके शरीर पर वस्त्र कैसे होंगे आप कैसे घरों में रहेंगे, आपका जीवन क्रम क्या होगा, कुल मिलाकर देश काल परिस्थिति के आधार पर हमारे वाह आचरण बदल जाते हैं बदलने भी पढ़ते हैं अगर हम किसी शरीर में रहते हैं तो ।
परिस्थिति गत बदलाव से ना तो अवधारणाएं बदलती है ना ही मानसिकता।
हमारे चिंतन में सामाजिक संरचना समरसता की संरचना है । हम उत्तेजित नहीं हैं ना ही हमें अपनी धार्मिक आस्थाओं के अंत होने का कोई भय है क्योंकि हमारी अध्यात्मिक चिंतन शैली ही एक खासतौर के ढांचे पर  जन्म से ही निर्मित की जाती है।
    एक मित्र पूछा करते थे तुम अंडे क्यों नहीं खाते अंडा तो साथ में आता है और तुम्हें सर्दियों से परहेज रखना चाहिए शरीर में आंतरिक उष्मा के लिए अंडे खाने से आंतरिक ऊष्मा और ऊर्जा में अनायास वृद्धि होती है ।
  मेरा उत्तर था-" हमारी पारिवारिक संस्कारों के अनुसार हमें किसी के जीवन को रोकने का कोई अधिकार नहीं है..! "
   अंडे का पृथ्वी पर आना एक मुर्गी या मुर्गी का आना सुनिश्चित करता है। और मुझे किसी के जीवन को रोकने का कोई अधिकार नहीं है ।
   यानी अंडा खाने की कल्पना के साथ भविष्य में आने वाले चूजे के जीवन को देख रहा हूं ..!
    अपनी सुविधा के लिए मैं तुझे को प्राण हीन क्यों मानूं..?
   फिर  हमारे पास शाकाहार तो है  विकल्प के तौर पर..!
    मित्र ने पूछा - और अगर यह विकल्प ना होता तो..?
    मेरा उत्तर था और यदि यह विकल्प है तो क्या मुझे किसी जीवन को आने से रोकना चाहिए या जीवित को जीने से रोकना चाहिए... ?
   संस्कार आहार पर जाकर स्पष्ट हो जाते हैं। मानसिक क्रूरता से हटकर प्राणी मात्र के अस्तित्व के बारे में चिंतन बचपन से ही सिखाया गया। और वही मज़बूत होता चला गया । मेरी एक पीढ़ी की पीढ़ी मांसाहार नहीं करती। यही है सनातन चिंतन इसे आप पागलपन कहना चाहें तो कह लें..!
    छोटी सी बात है जो यह साबित करती है कि जो रास्ते हमें हमारे माता-पिता या परिस्थितियां सिखाती है वह कम से कम भारत में तो सनातनी हैं ।
  जीवन क्रम वैसा ही रहेगा जैसा कि हमारे आध्यात्मिक और धार्मिक संस्कारों के हवाले से हमारे परिवार पिता या माता ने दिया है ।
   कुछ मित्र यह समझेंगे कि- आहार मात्र अपरिवर्तनीय होने से संस्कृति की रक्षा हो सकती है..?
    प्रश्न स्वाभाविक है कई प्रकार के आहार कई प्रकार के वर्णो द्वारा ग्रहण के जाते हैं । सनातन कहता है कि देश काल परिस्थिति के अनुसार आज्ञाओं के बाहरी स्वरूप में परिवर्तन संभव है। किंतु जीवन के मूल स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता ।
   मैं मूर्तिपूजक हूं मैं मूर्ति पूजा इस लिए है क्योंकि मेरे डीएनए में मेरी पूर्वजों की वह यादें स्थाई रूप से बस चुकी है जो हजारों हजार साल पहले से मूर्ति पूजा में विश्वास रखते ।
  तुम मूर्तिपूजक नहीं हो यह तुम्हारी धार्मिक मान्यताएं हैं ।  मैं तुम्हें मुझसे ना मुझे तुमसे कोई द्वेष इस आधार पर होना चाहिए।
   हमारी वैमनस्यता के आधार अगर हमारे जीवन के बाहर आचरण हैं तो भी मैत्री का एक आधार है जिसे सनातन में विश्व बंधुत्व कहा गया है।
    अब आपके मस्तिष्क में यह सवाल कौंध रहा होगा कि फिर हम.. अलग अलग क्यों है ?
हम अलग-अलग बिल्कुल नहीं हैं हमें जो करना है वह मानवता के लिए करना है यही सनातन संस्कृति का मूल आधार है।

29.12.20

The Importance of the Ramayana in Human Civilization : Anant Buddh Chaitanya

【 spiritual speech delivered by Swami Anand Bodh Chaitanya Indonesia Jakarta please this is introductory post this blog you can also visit Swami Anant both Chaitanya' blog for his latest public communication】
I feel proud and glorified to talk about Ramayana, the oldest epic in the world history of literature. According to the Indian system of counting, time is divided into four ages - the Satyuga, Tretayauga, Dwapara Yuga and Kali Yuga. Kali Yuga consists of 432 000 years, 
Dwapara 864 000 years, Treta Yuga 1.296 million years and Satyuga has 1.728 million. The calculation time of the Ramayana is minimum 870 000 years (5250 to the present Kali Yuga Dwapara bygone era year 864 000 years) is proven. Some scholars interpret Ramayana was written 8000 BC, which means it, is baseless. Other scholars believe even older.
The great kind-hearted saint vividly described all aspects of human civilizations. This knowledge is bound to be enriched by its philosophical, intellectual values.  Adi Kavi (the first poet laureate) Valmiki wrote Ramayana not only to sing the melodious glory and story of Sri Rama, the Prince of Ayodhya but to present to the posterity a practical philosophy of life, a vision of Truth, by telling how to lead a pious life, within the prevailing conditions of one’s existential conditions.  It has a pragmatic message for a busy man how to go about his daily life so that he would not only acquire his needs here but also get what he deserves hereafter.
The essence of an individual is manifested through his action. The character exhibits itself in action – mental, verbal and physical. Therefore, the Dharma of an individual operates through every action of an individual. It is that basis from which springs every deed of a person. Hence, the word Dharma is a very comprehensive one. It cannot be delineated in one word or in a few sentences. It is neither religion nor philosophy, though they stem from it. It is the very foundation for both of them and for many more things of life. It encompasses the duties, responsibilities, rights, religious observances, social obligations, secular laws, conventions, nay, the very fabric of one’s own life in such a way that one cannot live without it. Everyone acts one’s own Dharma through and through.
A society or a community is called decent or civilized on its outer aspect such as its outer behaviour. Our civilized manner is displayed by lifestyle, eating habits, physical development, family behaviour etc. . . Whereas culture determines our internal thinking, knowledge, science etc.   Simply speaking, our culture dictates our behaviour. Ramayana was a deciding factor to develop a human civilization and will continue to be the deciding factor of human morality and ethical life.
It has been said about Ramayana that यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले। तावत् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति ।। means’ till there is hill /mountain on earth Ramayana will be there’.
Social view during Ramayana era:
 Now let us discuss a few aspects from Ramayana to understand its implications:
सर्वे वेदविदः शूराःसर्वे लोकहिते रताः सर्वे ज्ञानोपसम्पन्नाःसमुदिता गुणैः( बालकाण्ड,बाल्मिकीय रामायण 18/25)
Every citizen of the Ayodhya, in society, lead a harmonious life without any sort of discrimination, hatred or ill will among themselves.
Ramayana visualizes us of such a society where under a pious judicious king everyone is happy on all aspects and had no grievance whatsoever.
The so-called development we are hearing about nowadays is nothing but approaching destruction.  So much pollution is being created in the name of development that question started arises about the future of our mother earth. During Ramayana era cow was being referred to as Gou-Mata and was the basis of all sorts of well-being.
In Vedas also said “धेनुः सदनं रयीणाम्” i.e. Gou-Mata is the source of all sorts of wealth.
By preserving and taking proper care to the Goumata we can have a healthy and wealthy life. We should discourage pollution creating fuels and rather would search for non-polluting fuel as we heard about Pushpak –Yanam in Ramayana.
We find a description in Ramayana about a very progressive happy and wealthy kingdom where everyone is happy, no treason, robbery, theft took place.  All these were due to their high culture and values they used to follow. On the contrary, due to the degradation of our values, we are suffering from all possible vices.
Culture:
For a developed man vis-à-vis a developed society as well as a developed world we have to follow the sixteen important Sanskaras right from birth to death. Sanskar (culture) is nothing but some to do’s and some not to do’s which can transform us to acquire a noble life of high values and ethics.
The following is from the Valmiki Ramayana, Aranya Kanda, 9-30, 31.
"Wealth comes out of Dharma. Happiness comes out of Dharma. Everything is obtainable from Dharma. Dharma is the essence of this universe. The adept attain Dharma by disciplining themselves by the conditions of Dharma, with great effort; one cannot get happiness from happiness."
The Ramayana follows the tradition of civilization had five Yagna(sacrifice), Bramha Yagna in Vedic Civilization, Deva Yajna (altar), Pitri Yagya and the oblation, Atithi or guest Yagya (sacrifice) and Bali vaisya Yagya is known by the name of five Mahayagya. These yajnas are the uniting factor to tie the whole universe together and cause of all-out progress and prosperity.
Guest sacrifice: -
In the Ramayana, Atithi (guest) has been given the highest regards.  Guest is like deity equal to God. When Ram, Laxmana and Sita arrived in the forest monks also gave him due respect.
In addition to humanity, Atithi Yagya practised only in the self-help philosophy is to provide our identification with the all-pervasive power installs.
Father's sacrifice -
Ramayana teaches respect parents as a god. Rama obeyed Dashratha the Father and mother Kaikeyi’s will and left the state and went to exile. On the contrary nowadays for financial gain children do not hesitate to kill parents. 
Ideal Family –
Today’s society of indulgence has caused families to disintegrate.  We are able to observe the effect in the Western world.  Ramayana demonstrates the highest level of family values, with which we are familiar.  Lord Ram went into exile as he obeyed his father.  Sita gave up the luxury of a palace to follow her husband.  And Lakshmana abandoned the comfort of his family to serve his big brother and sister-in-law.  When Ravan abducted Sita, Ram and Lakshmana found some ornaments in the forest that belonged to Sita.  Lakshmana stated that he only recognized Sita’s toe ring as he had never seen anything but her feet.  Nobody can destroy a family that has a brother like Lakshmana.  On the other hand, brother Bharat always considered himself incomplete without his brothers even when he was crowned.  Sumitra is an ideal mother.  She gave Bharat all the love as her own son despite Kaikeyi’s ill-treatment of her own son.  Hanumana is an ideal devotee, who is ever-present to serve the needs of Ram.
शक्तिबाण से मूर्छित  लक्ष्मण को उनकी सेवा के कारण ही प्राणदान प्राप्त होता है। इनके पावन चरित्र का स्मरण ही क्षुद्र स्वार्थो के कारण टूटते हमारे दाम्पत्य जीवन एवं परिवारों को बचा सकता है। Ramayana gives us the message on the right path to take. This brilliantly teaches us that the mother-father, husband-wife, brother - brothers and King - What are the duties of subjects.
Status of Women -
There is much to be learned from the characters of Kausalya, Sita, and Anusuya described in the Ramayana. Women of today are able to dress well and present themselves as civilized.  However, the lack of integrity, honour and sacrifice results in happiness and peace of families.  Even an old bird Jatayu could not tolerate the sight of a woman being mistreated and fought with his life to protect her. This indicates that we should respect and protect women.
Environmental ----
Today's blind development of our modern tradition is engaged in destroying our environment. In the Ramayana, people worshipped river, lake, forest, trees, air and holistic nature.  Relationship with animals is like a relationship with friends.  On the demise of a deer, Maharishi Valmiki produced the entire Ramayana at the bank of river Ganges.  We should respect and preserve nature.
Vastu and Science ---
Ramayan depicts a culture of sacrifice as well as different aspects of human civilization.  The city of Ayodhya shows excellent city planning and construction, roads, unique palaces, gem towers, safe and beautiful homes, arms, and engine-free flower aircraft.  Vishwakarma built Lanka, Alka Puri, and Ram Setu.  All of these architectures serve as examples for today’s society.
Ramayana literary importance -----
Ramayana is considered to be the original source of Indian culture. This is a subject on which people have been writing books for hundreds of years.  It is written in several Indian as well as other languages of the world.   By merely pursuing Ramayana, love, devotion, and reverence arises.  Conscience is purified. So this is a unique and long-lived treatise. In literary terms, it is a precious creation of world literature.  Several serials and films have also been constructed based on the legendary story of Ramayana.  Ramayana rituals in contemporary society and governance method is described. Eternal values of Ramayana in development is as important today as it was in ancient times. Ramayana creation of human life and overall development of eternal life values - the purpose is to inspire.
Ramayana The World - prevalence -----
Ramayana has been universal since the 19th Century.  Numerous poor Indians came from Fiji, Mauritius, Trinidad, Suriname, Jamaica travelled to India in search of jobs.  They took Tulsidas Ramayana with them that helped them through a crisis.
In the second phase during the 20th Century, especially before the partition of India in 1947, Ramayana had spread to many countries in the East and West, in any of the forms – Ramcharitmanasa, Valmiki Ramayana, or Kamban Ramayana.
The third and most powerful phase brought Ramayan to East and Southeastern parts of the world where Ramayan is incorporated as part of the culture. The poets of these countries wrote about Rayamana and filled in gaps.  Local names of cities and people were used to depict characters, to the point that it seems that Ramayana took place in their country.  However, the essence of Ramayan is still based on Valmiki Ramayana. 
In Thailand, Lord Ram is intertwined in their culture as well as religious practices.  Ram and Buddha co-exist and are integrated.  The biggest example is the Royal Palace in Thailand, in which the Emerald Buddha resides.  The is the most famous landmark and is visited by people from all over the world.  The story of Ramayana is painted along the walls of this temple.  They have their own version of Ramayana, called “Ramakien” which was written by King Rama the First.  The current King is King Rama Nine.
You can also view the grand presence of Lord Ram in the national museum.  On entrance, you can see a statue of  Ram with his bow and arrow. The most surprising thing is the cities name Ayodhya and Lopburi in Thailand.  Thais believe that Ramayan took place in their country.
Angkor Wat of Cambodia is the biggest symbol of Indian Culture the presence of Lord Ram in SouthEast Asia.  You will find statues of Shiva, Vishnu, Ram and other Indian Gods.  This was constructed in the 11th Century by Suryavarman Dwitiya..  The different parts are Angkor Wat, Angkor Tham, Bayon.  The walls of Angkor Wat depict different episodes of Ramayan, like Hanuman’s arrival in Ashok Vatika, the war between Ram and Ravan in Lanka, the war between Bali and Sugreev.   Ramayan is called Ramker, which is similar to Thai Ramayan.  Similarly, in other Buddhist countries like Laos and Burma, the story of Ram is prevalent and is seen in their stage plays and dances. 
And here, in Indonesia – regardless one is a Hindu from Bali or Muslim from Java Sumatra, everybody thinks of Ram as a national hero and considers Ram as an important historical and cultural heritage.  The temple called Prambanan is 15 miles from Yogyakarta is the proof of this, whereby the entire story of Ram is engraved on stone walls.
In Bali, the popularity of Ram Lila or dance is increasing every day.  The famous Ramayana epic is called Kakvin.  In Malaysia,  leather puppets by night are shown in the context of Ramayana. Their version of Ramayan is called Hikayat Seri Rama, in which they believe Ram to be an incarnation of Lord Vishnu.  Islamic influence is apparent.  In the sixth Century, Sinhalese poet named Naresh Kumar composed poetry based on the kidnapping of Janki.  Later, it was translated by John D Silva made adaptations to the Ramayan.
Because Sanskrit achieved its place in Western universities, Valmiki Ramayan has been introduced to the world centuries ago.  However, Ramcharitmanas (by Tulsi Das Ji) only got introduced to the Western world in the last century.  It has been translated into many of the world’s important languages and is still continuing to be so.  In 1839, French scholar “Gasan Tdasi” translated Sunder Kand of Ramcharitmanas. Mr Wadi Vilan of Paris University took it forward and translated the rest.
The Ramayana of Tulsidas was translated in English by Rev. A.G. Atkins, which is very popular.  Devdas Gandhi of Times of India got it published.  Similar translations have been made in Germany and  The Soviet Union.  Alexei Warinikov established a powerful cultural bond between Russia and India by translating the Manas.  The Manas is placed on his memorial in his hometown village Kaporov, which is in the north of St. Peters berg.  In China, both Valmiki and Ramcharit Manas have been translated.  Also in Dutch, Spanish, Japanese and other languages.
The flow moved forward in the Western world through research dissertations.  Dr Tisotori of Italy, who studied Hindi literature, was awarded a doctorate from Florence University in 1910, based on his thesis titled “Valmiki and Ramcharitmanas – a comparative study”.  Another thesis was written in London University in 1918 by J.N. Carpenter.  The title was “Theology of Tulsidas.”
It is a matter of satisfaction that Ramayana has received global recognition.  It has an important place in cultural, spiritual as well as part of the International Ramayana Conference.  There have been more than 17 conventions in 12 countries, which started in India and have spread worldwide.
Ramayana democracy, the ideal format ----
In the past few centuries, the imbalance in democracy has been of rising concern.  In the age of Ramayana, life was more about being a good social person, now the power is more important.  Despite being a King, Lord Ram followed rules of democracy, public expression, being cognizant, as well as fusing with other people.  If we were to follow the same rules today, we could have a more prosperous and complete thriving democracy.
Epilogue -----
There is no doubt that at least two-thirds of the world is influenced by Ramayana in different forms.   From Egypt and Rome to Vietnam Cambodia and here in Indonesia, you can see the pervasive influence of the Ramayana.  This indicates that Ramayana is a pillar for the way of life in our civilization.  Just the way all the characters in the Ramayana follow the principles of their roles, we should learn our role and follow it sincerely.  This is the only way to have a good life and be free from all the problems.

वीरांगना दुर्गावती : आनंद राणा



【प्रोफेसर आनंद राणा  
    इतिहासकार जबलपुर 】
"चंदेलों की बेटी थी,गोंडवाने की रानी थी..चण्डी थी रणचण्डी थी, वह दुर्गावती भवानी थी"- "शौर्य +स्वाभिमान +स्वतंत्रता और प्रबंधन की देवी - गोंडवाना साम्राज्य की साम्राज्ञी वीरांगना रानी दुर्गावती के अवतरण दिवस पर शत् शत् नमन है" 🙏 🙏वीरांगना रानी दुर्गावती का शासन महान् गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग था 🙏अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय संगठन सचिव डॉ. बालमुकुंद पाण्डेय जी के निर्देशन में +अनुसंधान दल के अध्यक्ष रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के यशस्वी कुलपति प्रो कपिल देव मिश्र जी +क्षेत्रीय संगठन मंत्री मध्य क्षेत्र डॉ. हर्षवर्धन सिंह तोमर जी +प्रो. अलकेश चतुर्वेदी जी शा. महाकोशल महाविद्यालय  एवं कार्यकारी अध्यक्ष श्री नीरज कालिया के मार्गदर्शन में इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत के झरोखे से वीरांगना रानी दुर्गावती के गौरवमयी इतिहास की संक्षिप्त गाथा (चित्र क्र. 3  वीरांगना के सेनापति अधार सिंह (सिंहा) के वंशज महान् चित्रकार राममनोहर सिंहा जी का है जो वीरांगना रानी दुर्गावती के शस्त्र पूजन का है जब वो अकबर विरुद्ध समर में जा रही थीं.. ये चित्र उनके वंशज डॉ अनुपम सिंहा ने मुझे प्रेषित किया था 🙏 एतदर्थ अनंत कोटि आभार) - वीरांगना दुर्गावती का 5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर दुर्ग में राजा कीरतसिंह के यहाँ अवतरण हुआ था ..युवावस्था में ही राजनीति, कूटनीति और युद्ध नीति का ज्ञान प्राप्त हुआ..कालिंजर के प्रबंधन में सहयोग साथ पिता के साथ मिलकर दुर्ग के रक्षार्थ 4 युद्ध लड़े, और विजयश्री प्राप्त हुई..मुगल शासक हुमायूँ को सन् 1539 शेरशाह ने भारत से खदेड़ा.. शेरशाह ने साम्राज्यवादी नीति के अंतर्गत भारत में विस्तार आरंभ किया वहीं अन्य मुस्लिम शासकों और पड़ोसी राज्यों के दवाब के चलते राजा कीरतसिंह ने गोंडवाना साम्राज्य के महान् राजा संग्रामशाह से मित्रता का हाथ बढ़ाया... राजा संग्रामशाह का विशाल गोंडवाना (गढ़ा-कटंगा) साम्राज्य जिसमें 52 गढ़ थे पूर्व से पश्चिम 300 मील और उत्तर से दक्षिण 160 मील तक सुविस्तीर्ण था।जिसमें 70हजार गांव थे, आगे चलकर वीरांगना रानी दुर्गावती ने 80 हजार गांव कर लिए थे, यह साम्राज्य लगभग इंग्लैंड के साम्राज्य के बराबर हो गया था ...राजा संग्रामशाह ने राजा कीरतसिंह की गुणवती सुपुत्री वीरांगना दुर्गावती से अपने पुत्र दलपति शाह के विवाह का प्रस्ताव रखकर मित्रता को रिश्तेदारी में बदल दिया.. यद्यपि राजा संग्रामशाह का सन् 1541 में निधन हो गया तथापि राजा कीरतसिंह ने अपना वचन निभाया और सन् 1542 में वीरांगना दुर्गावती का विवाह गोंडवाना के राजा दलपति शाह ने साथ कर दिया.. यह विवाह भारत में सामाजिक समरसता का अद्वितीय उदाहरण है.. सन् 1545 में कालिंजर दुर्ग पर हमले में शेरशाह मारा गया और राजा कीरतसिंह भी शहीद हो गए.. इधर गोंडवाना साम्राज्य में भी एक अनहोनी घटना घटी,राजा दलपति शाह का निधन सन् 1548 में हो गया.. वीरांगना इस वज्रपात से विचलित हुईं, परंतु साहस के साथ अपने अल्पवयस्क पुत्र वीर नारायण सिंह की ओर ले गोंडवाना साम्राज्य की सत्ता संभाल ली... इस तरह गोंडवाना साम्राज्य की वीरांगना रानी दुर्गावती का महान् साम्राज्ञी के रुप में उदय हुआ। रानी दुर्गावती ने 16 वर्ष शासन किया और यही काल गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग था।गोंडवाना साम्राज्य राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक,कला एवं साहित्य के क्षेत्र में सुव्यवस्थित रुप से पल्लवित और पुष्पित होता हुआ अपने चरमोत्कर्ष तक पहुँचा।वर्तमान में प्रचलित जी.एस. टी. जैंसी कर प्रणाली रानी दुर्गावती के शासनकाल में लागू की गई थी, फलस्वरुप तत्कालीन भारत वर्ष गोंडवाना ही एकमात्र राज्य था जहाँ की जनता अपना लगान स्वर्ण मुद्राओं और हाथियों में चुकाते थे। अद्भुत एवं अद्वितीय जल प्रबंधन था 52 तालाब और 40 बावलियों का रखरखाव था। गढ़ा उन दिनों उत्तर - मध्य भारत का हिन्दुओं का धार्मिक केंद्र बिंदु था, जहाँ कोई भी हिन्दू अपनी इच्छानुसार धार्मिक अनुष्ठान कर सकता था, इसलिए इस स्थान को लघुकाशी वृंदावन कहा जाता था।उपरोक्तानुसार स्वर्ण युग के लिए आवश्यक सभी प्रतिमानों के आलोक में सिंहावलोकन करने पर यही प्रमाणित होता है कि यह काल गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग था। 
*वीरांगना रानी दुर्गावती की युद्ध नीति *-- रानी दुर्गावती की युद्ध नीति और कूटनीति विलक्षण थी, जिसकी तुलना  काकतीय वंश की वीरांगना रुद्रमा देवी और फ्रांस की जान आफ आर्क को छोड़कर विश्व की अन्य किसी वीरांगना, मसलन आस्ट्रिया की मारिया थेरेसा, इंग्लैंड की एलिजाबेथ प्रथम एवं रुस की केथरीन द्वितीय आदि से नहीं की जा सकती है।युद्ध के 9 पारंपरिक युद्ध व्यूहों क्रमशः वज्र व्यूह, क्रौंच व्यूह, अर्धचन्द्र व्यूह, मंडल व्यूह, चक्रशकट व्यूह, मगर व्यूह, औरमी व्यूह, गरुड़ व्यूह, और श्रीन्गातका व्यूह से परिचित थीं। इनमें क्रौंच व्यूह और अर्द्धचंद्र व्यूह में सिद्धहस्त थीं। क्रौंच व्यूह रचना का प्रयोग ,जब सेना ज्यादा होती थी, तब किया जाता था जिसमें क्रौंच पक्षी के आकार के व्यूह में पंखों में सेना और चोंच पर वीरांगना होती थीं और शेष अंगों पर प्रमुख सेनानायक होते थे। वहीं दूसरी ओर जब सेना छोटी हो और दुश्मन की सेना बड़ी हो तब इस व्यूह रचना का प्रयोग किया जाता था, जिससे सेना एक साथ ज्यादा से ज्यादा जगह से दुश्मन पर मार सके।वीरांगना की रणनीति अकस्मात् आक्रमण करने की होती थी। रानी दुर्गावती दोनों हाथों से तीर और तलवार चलाने में निपुण थीं। गोंडवाना साम्राज्य की सत्ता संभालने के कुछ दिन बाद ही गढ़ों की संख्या 52 से बढ़कर 59हो गई थी। वीरांगना ने एक बड़ी स्थायी और सुसज्जित सेना तैयार की, जिसमें 20 हजार अश्वारोही एक सहस्र हाथी और प्रचुर संख्या में पदाति थे। 
वीरांगना रानी दुर्गावती के शौर्य, साहस एवं पराक्रम के संबंध में प्रकाश डालते हुए तथाकथित छल समूह के वामपंथी एवं एक दल विशेष के समर्थक इतिहासकारों सहित अबुल फजल, बदायूंनी और फरिश्ता ने कुल 4 युद्धों का टूटा-फूटा वर्णन कर इति श्री कर ली है, जबकि वीरांगना ने 16 युद्ध (छुटपुट युद्धों को छोड़कर) लड़े। 16 युद्धों में से 15 युद्धों विजयी रहीं, जिसमें 12 युद्ध मुस्लिम शासकों से लड़े गये, उसमें से भी 6 मुगलों के विरुद्ध लड़े गये। पिता राजा कीरतसिंह के साथ मिलकर, हनुमान द्वार का युद्ध, गणेश द्वार का युद्ध, लाल दरवाजा का युद्ध.. बुद्ध भद्र दरवाजा का युद्ध (कालिंजर का किला अब कामता द्वार,पन्ना द्वार, रीवा द्वार हैं)लड़े गये जिसमें विजयश्री प्राप्त की। 
गोंडवाना की साम्राज्ञी के रुप में सत्ता संभालते ही मांडू के अय्याश शासक बाजबहादुर ने गोंडवाना साम्राज्य दो बार आक्रमण किए परंतु रानी दुर्गावती ने दोनों बार जम कर ठुकाई कर दुर्गति कर डाली और मांडू तक खदेड़ा। बाजबहादुर जीवन भर शरणागत रहा। आगे मालवा के सूबेदार शुजात की कभी हिम्मत नहीं हुई। शेरखान (शेरशाह) कालिंजर अभियान में मारा गया। कुछ दिनों बाद मुगलों ने पानीपत के द्वितीय युद्ध के उपरांत पुनः सत्ता हथिया ली और अकबर शासक बना। शीघ्र ही येन केन प्रकारेण साम्राज्य विस्तार करना आरंभ कर दिया।
 रानी दुर्गावती के गोंडवाना साम्राज्य की संपन्नता और समृद्धि की चर्चा कड़ा और मानिकपुर के सूबेदार आसफ खान द्वारा मुगल दरबार में की गई । धूर्त, लंपट और चालाक अकबर लूट और विधवा रानी को कमजोर समझते हुए जबरदस्ती गोंडवाना साम्राज्य हथियाने के उद्देश्य से रानी को आत्मसमर्पण के लिए धमकाया परंतु गोंडवाना की स्वाभिमानी और स्वतंत्रप्रिय वीरांगना रानी दुर्गावती नहीं मानी। अकबर का संदेश था कि स्त्रियों का काम रहंटा कातने का है, तो रानी ने संदेश के साथ एक सोने का पींजन भेजा और कहा कि आपका भी काम रुई धुनकने का है। अकबर तिलमिला गया और उसने आसफ खान को गोंडवाना साम्राज्य की लूट और उसके विनाश के लिए रवाना किया। इसके पूर्व अकबर ने दो गुप्तचरों क्रमशः गोप महापात्र और नरहरि महापात्र को भेजा परंतु वीरांगना ने दोनों को अपनी ओर मिला लिया। उन्होंने अकबर की योजना और आसफ खाँ के आक्रमण के बारे में रानी दुर्गावती को सब कुछ बता दिया। 
वीरांगना रानी दुर्गावती सतर्क हो गईं और सिंगौरगढ़ में मोर्चा बंदी कर ली। आसफ खान 6 हजार घुड़सवार सेना 12 हजार पैदल सेना एवं तोपखाने तथा स्थानीय मुगल सरदारों के साथ सिंगोरगढ़ आ धमका। इधर रानी दुर्गावती के साथ, उनके पुत्र वीर नारायण सिंह, अधार सिंह, हाथी सेना के सेनापति अर्जुन सिंह बैस, कुंवर कल्याण सिंह बघेला, चक्रमाण कलचुरि, महारुख ब्राह्मण, वीर शम्स मियानी, मुबारक बिलूच,खान जहान डकीत, महिला दस्ता की कमान रानी दुर्गावती की बहन कमलावती और पुरा गढ़ की राजकुमारी (वीर नारायण की होने वाली पत्नी) संभाली। अविलंब युद्ध आरंभ हो गया। सिंगोरगढ़ का प्रथम युद्ध - आसफ खान ने आत्मसमर्पण के लिए कहा, वीरांगना ने कहा कि किसी शासक के नौकर से इस संदर्भ में बात नहीं की जाती है। वीरांगना ने भयंकरआक्रमण किया, मुगलों के पैर उखड़ गये आसफ खान भाग निकला। सिंगौरगढ़ का द्वितीय युद्ध - पुन: मुगलों के वही हाल हुए लेकिन मुगलों का तोपखाना पहुंच गया और रानी को खबर लग गयी उन्होंने गढ़ा में मोर्चा जमाया और सिंगोरगढ़ छोड़ दिया। सिंगौरगढ़ का तृतीय युद्ध - मुगलों का तोपखाना भारी पड़ गया और सिंगोरगढ़ हाथ से निकल गया। अघोरी बब्बा का युद्ध - यह चौथा युद्ध था जिसका उद्देश्य मुगल सेना को पीछे हटाना था ताकि वीरांगना गढ़ा से बरेला के जंगलों की ओर निकल जाए। घमासान युद्ध हुआ और सेनानायक अर्जुन सिंह बैस ने आसफ खाँ को बहुत पीछे तक खदेड़ दिया। वीरांगना ने तोपखाने से निपटने के लिए एक शानदार रणनीति बनायी जिसके अनुसार बरेला (नर्रई) के सकरे और घने जंगलों के मध्य मोर्चा जमाया ताकि तोपों की सीधी मार से बचा जा सके। 
गौर नदी का युद्ध - वीरांगना रानी दुर्गावती के जीवन के 15वें और मुगलों से 5वें युद्ध में 22 जून 1564 को स्वतंत्रता,स्वाभिमान और शौर्य की देवी - विश्व की श्रेष्ठतम वीरांगना रानी दुर्गावती ने,प्रात:सेनानायक अर्जुन सिंह बैस के शहीद होने का समाचार मिलते ही "अर्द्धचंद्र व्यूह"बनाते हुए "गौर नदी के युद्ध" में आसफ खाँ सहित मुगलों की सेना पर भयंकर आक्रमण किया और पुल तोड़ दिया ताकि तोपखाना नर्रई (बरेला) न पहुँच सके। मुगल सेना तितर बितर हो गई जिसको जहां रास्ता मिला भाग निकला..वीरांगना ने पुन:रात्रि में हमले की योजना बनाई परंतु सरदारों की असहमति के कारण निर्णय बदलना पड़ा.. यहीं भारी चूक हो गई, यदि रात्रि में आक्रमण होता तो इतिहास कुछ और ही होता.. अंततः वीरांगना ने नर्रई की ओर कूच किया और युद्ध के लिए "क्रौंच व्यूह" रचना तैयार की.।23 जून 1564 को नर्रई में प्रथम मुठभेड़ हुई, रानी और उनके सहयोगियों ने मुगलों की जमकर ठुकाई की। मुगल भाग निकली और डरकर बरेला तक भागी।  23 जून की रात तक तोपखाना गौर नदी पार कर बरेला पहुंच गया। 23 जून की रात को घातक षड्यंत्र हुआ। .आसफ खान ने रानी के एक छोटे सामंत बदन सिंह को घूस देकर मिला लिया.. उसने रानी की रणनीति का खुलासा कर दिया कि कल युद्ध में रानी मुगलों को घने जंगलों की ओर खींचेगी जहाँ तोपखाना कारगर नहीं होगा और सब मारे जाएंगे। आसफ खान डर गया उसने उपचार पूंछा.. तब बदन सिंह ने बताया कि नर्रई नाला सूखा पड़ा है और उसके पास पहाड़ी सरोवर है जिसे यदि तोड़ दिया जाए तो पानी भर जाएगा और रानी नाला पार नहीं कर पाएगी और तोपों की मार सीधा पड़ेगी.।उधर रात में रानी को अनहोनी अंदेशा हुआ.. उन्होंने सरदारों से रात में ही हमले का प्रस्ताव रखा पर सरदार नहीं माने.. यदि मान जाते तो इतिहास कुछ और होता.।बहरहाल युद्ध अंतिम घड़ी आ ही गयी.. वीरांगना ने "क्रौंच व्यूह" रचा.. सारस पक्षी के समान सेना जमाई गई.. चोंच भाग पर रानी दुर्गावती स्वयं और दाहिने पंख पर युवराज वीरनारायण और बायें पंख पर अधारसिंह खड़े हुए.. 24 जून 1564 को प्रातः लगभग 10 बजे मोर्चा खुल गया.. घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ.. पहले हल्ले में मुगलों के पांव उखड़ गए.. मुगलों ने 3 बार आक्रमण किये और तीनों बार गोंडों ने जमकर खदेड़ा... इसलिए मुगलों ने तोपखाना से मोर्चा खोल दिया.. रानी ने योजना अनुसार जंगलों की ओर बढ़ना शुरू किया परंतु बदन सिंह की योजना अनुसार पहाड़ी सरोवर तोड़ दिया गया.. नर्रई में बाढ़ जैसी स्थिति बन गयी.. अब रानी घिर गयी.. इसी बीच अपरान्ह लगभग 3 बजे वीरनारायण के घायल होने की खबर आई.. वीरांगना जरा भी विचलित नहीं हुई.. आंख में तीर लगने के बाद भी जंग जारी रखी.. मुगल सेना के बुरे हाल थे परंतु रानी को एक तीर गर्दन पर लगा रानी ने तीर तोड़ दिया.. हाथी सरमन के महावत को अधार सिंह पीछे हटने का आदेश दिया परंतु रानी समझ गयी थी कि अब वो नहीं बचेंगी.. इसलिए अब वो गोल में समा गयीं और भीषण युद्ध किया जब उनको मूर्छा आने लगी तो उन्होंने अपनी कटार से प्राणोत्सर्ग किया.
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विश्व में ऐंसा दूसरा उदाहरण नहीं है..वीरांगना ने आत्मोत्सर्ग के पूर्व अपने सेनापति अधार सिंह से कहा था कि "मृत्यु तो सभी को आती है अधार सिंह, परंतु इतिहास उन्हें ही याद रखता है जो स्वाभिमान के साथ जिये और मरे" 
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- डॉ. आनंद सिंह राणा - इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत 💐 💐 💐

24.12.20

आओ खुद से मिलवाता हूँ..! भाग 07


           उस दिन रेल मिनिस्टर माधवराव सिंधिया जी जबलपुर आए थे हां तिथि  याद नहीं है और सुबह 10:00 बजे का वक्त था हमने भी अपना एक आवेदन सर्किट हाउस में नौकरी के वास्ते उनको टिपा दिया । उस आवेदन का क्या हुआ किसे पता ऐसे सैकड़ों आवेदन आते रहते हैं डीआरएम ऑफिस के किसी एपीओ के चेंबर तक में भी पहुंचा कि नहीं ऊपरवाला जाने । सुना था नौकरी क्लर्कशिप आसान थी मिलना जुगाड़ हो तो। बाबूजी के पास कितने जुगाड़ थे या नहीं ये भी ईश्वर जाने पर बाबूजी खुद के बूते अर्जन को श्रेष्ठ समझते हैं । वे कहते थे -"स्टेशन मास्टर्स के बच्चे कुली कबाड़ी बनते हैं । तुम लोग मत बनना रे..।
     हमने भी चाहे अनचाहे उनकी बात को रखा । क्लास फोर्थ में जॉब तो चाहिए ही न था । फिर एक दबाव टायपिंग सीखने का आया वो मेरी रुचि का न था । सतीश भैया ने क्लास जॉइन की पर जब वे टायपिंग क्लास जाते तब मेरा नर्म गर्म बिस्तर पर सोने का वक़्त होता था 7 बजे सुबह बिस्तर से उठना तब तक भाई टायपिंग का बहुत सारा हिस्सा सीख लेते होंगे । खैर जो भी हो बिना एक्सट्रा हुनर के अपने राम की ज़िंदगी कविता साहित्य छात्र राजनीति में उलझी रही । स्व बाई इसे पन्द्रह की साई सत्रह की उगाही कहतीं थीं यानी इधर-उधर की बातों में इंवॉल्वमेंट ।
    किशोरावस्था से युवा अवस्था का दौर जीवन का सबसे ज़ल्द संक्रमित हो जाने वाला काल होता है ।
    तब शरीर सबसे अधिक रूमानी और तेज़ और रूमानियत से भरा होता था । शरीर को तेज भागना अच्छा लगता था । सौंदर्य आकर्षित करता है। पर संस्कारों पर घर की नसीहतें आज के GST जैसी लगने लगीं थीं, लड़कियों  से बात करने पर शरीर में एक असहजता सी महसूस होती थी
इन सब बातों का ज़िक्र ग़ैर जरूरी है पर ज़िक्र इसलिए किया है कि आज के दौर में ब्रेकअप मैशअप मैशअप एक्स प्रेजेंट जैसे शब्दों को सुनकर सुनकर लगता है कहां गई वह परवरिश कहां गए वह लोग। बदलाव का दौर है गायत्री परिवार के लोग दावा करते हैं हम बदलेंगे युग बदलेगा युग बदला और ऐसा बदला जैसा किसी ने न सोचा था। अब मुझे कंजरवेटिव समझ लीजिए अथवा पाखंडी पौंगा ग्वारीघाट पहुंचने तक बदल ना पाऊंगा खुद को।
  *सत्य को स्वीकारो...!*
मन क्रम वचन से जो भी गलतियां करते हो उसे स्वीकारने का सबक गुरुदेव के सूत्र में लिखा हुआ है.. पश्चाताप की गंगा में नहा लेना आत्मा को पवित्र कर देता है यह सत्य है .. यह बात सीख ली थी जब भी समझ आया अपनी गलतियों को स्वीकार करने में कोई अपराधबोध नहीं होता था ।  उस समय 11वीं कक्षा मेरी जाने वाली परीक्षा मध्य प्रदेश बोर्ड की परीक्षा कहलाती थी। जबलपुर आते ही शहर की हवा लगनी थी डीएन जैन कॉलेज जाते समय रास्ते में श्याम टॉकीज मुफ्त में फिल्म देखने का कॉलेज स्टूडेंट्स को लाइसेंस जैसा था। खूब फिल्में देखता था,  तब जबकि पढ़ाई करनी होती थी पुरानी फिल्में जरूर देखता था उस टॉकीज में पुरानी पिक्चरें लगती थी और यही शौक या कहें एडिक्शन इस कदर हावी था कि नई फिल्म में भी देखना शुरू कर दिया। 48 परसेंट 6 अंक के ग्रेस के साथ यह रिजल्ट था ! मैट्रिक का यानी घसीट घसीट के मैट्रिक पास। विषय भी मन का न था। अपना मन भी विषय के लायक ना था। जी चाहता है था कि अर्थशास्त्र पढ़ें राजनीति शास्त्र पढ़े सोशियोलॉजी पढ़ें परंतु घर के सम्मान  लिए गणित पढ़ो का आदेश था सो पढ़ लिया आप भी हंसोगे सुनकर कि कुछ गणित के तो सवाल रट लिए थे ।
खैर छोड़िए अपनी गलती स्वीकारने से मुझे तो लाभ हुआ पर लोग मुझे गलतियों का अक्षय कोष समझने लगे । जो गलत था और गलत है । किसी ने ये न जाना कि गलती छिपाने वाले से बड़ा गलती उजागर करने वाला होता है । पर ठीक है हम अपनी किये गलत कामों को फलक पर रख दें कम से कम आत्मा की धिक्कार से तो बचेंगे ।
   मैट्रिक पास करने के बाद रोजगार कार्यालय से एक खत आया ।  रोजगार कार्यालय जाने पर पता चला कि लखनऊ से डिफेंस अकाउंट में नौकरी मिलने वाली है। स्वर्गीय बाई ने साफ मना कर दिया ठीक ही हुआ । अपना खर्च चलाने के लिए ट्यूशन  थी। बस हमने भी कागज उन बेकार कविताओं के साथ कहीं दबा दिया ना तो वे कविताएं अब हमारे पास है नाही एंप्लॉयमेंट इनविटेशन ।
     मध्यमवर्ग घरों में वो रिश्तेदार बच्चों के लिए तनाव की वजह होते हैं जो मेजबान घर के लड़के को देखकर पूछते हैं-" हां तो भाई क्या कर रहे हो आजकल" और उस घर की कुंवारी लड़की को देखकर मां और बाप को अपराधी बना देते हैं यह सिलसिला आज भी चल रहा है।
  एक बार किसी ने मुझसे यही सवाल किया  तब तक मैं डिबेटिंग के 5 या 6 मेडल जीत चुका था , मैंने तपाक से कहा- अगले महीने आपके शहर आऊंगा वहां एक परीक्षा है ।  आपका शहर बड़ा है वहीं रह जाऊंगा आपके साथ और कुछ छोटा मोटा काम कर लूंगा । मेरी मंशा भयानक सी लगी उनको और अगला सवाल  पूछना मुनासिब न समझा वरना वे नामाकूल बिंदु (मेरी छोटी बहन) की शादी के बारे में जरूर पूछते । मेज़बान का पूरा परिवार मुझ से कतरा रहा था और मैं था कि उनके इर्द गिर्द आता और बात करने की असफल कोशिश करता रहा पर वे किनारा करते रहे ।
    अब तक हरीश भैया एएसएम हो चुके थे, और बाबू जी सतीश भैया को रेलवे की नौकरी के खिलाफ बड़ी-बड़ी हिदायतें दे रहे थे।
    हम थे कि आवारागर्दी में अपना नाम स्थापित कर रहे थे। हमको भी अफसर बनने की हिदायत गाहे-बगाहे मिला क़रतीं थीं । हम थे कि जबलपुरिया लौंडे ।  यह बात हमारे दिमाग में मौजूदा वक्त की खबरों ने छाप दी गई थी कि-"बिना घूस दिए बिना नौकरी नहीं लगती..!" एक दिन भाई हमारे पास चले आए स्थान था सुपर मार्केट के सामने विजेता पान भंडार का। आवारागर्दी के कुछ  अड्डे तयशुदा थे । भूरी राजू कंटर राजू राजू साहू फ्रेमिंग वाला या फिर अरविंद सेन के साथ बेवजह खड़ा रहना बहुत अच्छा लगता था। वह व्यक्ति मुझसे खासतौर पर मिलने आया था। उसने बताया कि मेरा सिलेक्शन सब एडिटर लोकल फंड्स के लिए हो सकता है यदि मैं ₹12000 उसे कल तक दे दूं । दाता से सोम भलो तुरतई देय जवाब..! की कहावत को याद करते हुए हमने विजेता पान भंडार के संचालक से पूछा- काय हम ₹10000 दे तो तुम का दुकान छोड़ दे हो ?
जवाब मिला जा वाली ना छोड़ हैं पप्पू भैया पर एक बात है 10 में बेहतरीन दुकान दिलवा दें हैं ?
कित्ते निकल आहैं  हमने पूछा..?
पान वाले ने बताया- 8 हज़ार महीना के..!
   हमने अपने मित्र से कहा कि 12000 तुम को नहीं दूंगा और ना ही मुझे नौकरी चाहिए मैं तो बस पान का कपड़ा खोलने के इरादे में हूं सीरियसली ।
1984 में पान टपरों से 8 से  10 हज़ार रुपए कमाना कठिन ना था । उस नौकरी को करने में 800 रुपये मिलते ।  मामला 12000 का था जो मेरे पास ना थे घूस देना नहीं था ।
    तब कभी ऐसा भी लगने लगता था कि- हमारा जीवन पोटली में बंधा हुआ कोई पुराना सामान हो जिसे मां बाप संभाल के रखे हैं। समाज का युवकों को देखने का नज़रिया भी गजब होता है। जिस लड़के की नौकरी ना लगे और जिस लड़की की शादी ना हो.. समाज की नजर में एक बेहूदा और अयोग्य माने जाते थे।
    इन सबके बावजूद हम तीनों भाई अपने-अपने छोटे-मोटे कामों से पैसा कमा लेते थे । सतीश भैया सुबह 5:00 बजे उठ कर 9:00 बजे तक घर से बाहर हो जाते थे बीच में घर आते भी और कई कोऑपरेटिव सोसाइटीज के अकाउंट लिखा करते थे। हरीश भैया हाईकोर्ट में हमारे स्व नानाजी श्रीयुत नाना जी के आशीर्वाद से फोटोकॉपी है मशीन चलाया करते थे कोर्ट की नौकरी थी सब खुश थे लेकिन वे नहीं ! जॉब उनकी योग्यता के अनुकूल न थी । अक्सर परेशान रहा करते थे। रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर की भर्ती परीक्षा में सलेक्ट हो जाने के बाद बाबूजी का पारा इतना हाई था मानो दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी हरीश बिल्लोरे ही हो हां रंगा बिल्ला के रंगा की तरह। बाबूजी अक्सर मैरिट और डिमैरिट के बारे में उस सोचने का दबाव डालते थे । टोटलिटी में डिमैरिट्स की संख्या उनके हिसाब से ज्यादा निकलती थी। उनका अपना कैलकुलेशन हुआ करता था।
   नौकरियां तब भी आसानी से नहीं मिलती थीं ।  मेरे दिमाग में भी यह भ्रम था कि शायद ता उम्र नौकरी नहीं कर पाऊंगा, जबकि नौकरी लग जाना एक बड़ा महत्वपूर्ण फैक्टर होता था मध्यवर्ग के परिवारों में। नौकरी अच्छी हो या बुरी हो लग जानी चाहिए। नौकरी लग जाएगी तो घर की आमदनी बढ़ जाएगी। तीन बेटों तीन बेटियों वाला परिवार कुटुंब में होने वाली घटनाओं में आर्थिक और शारीरिक भागीदारी करना रेलवे स्टेशन मास्टर के लिए बहुत कठिन था उन दिनों।  भेड़ाघाट से जबलपुर साइकिल से आया जाया करते थे बाबूजी ।
      अब नुक्कड़ वाली दुकान तक जाने के लिए हमें स्कूटी या बाइक चाहिए।
     उन दिनों भारत आर्थिक रूप से बहुत मजबूत ना था । ऐसी स्थिति में मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला सिग्मेंट हुआ करता था। बाबूजी हिसाब किताब में कच्चे मेरी तरह। वे यह भी साबित नहीं करते थे कि उन्होंने कुटुंब के लिए क्या किया। जबकी लोग कागज़ पे लिखे हिसाब किताब दिखाकर एहसानों को दर्शाया करते थे । आज वही गुण मुझमें सरोपा भरा है । लोग बड़े बड़े हिसाब किताब सार्वजनिक करते हैं अपनी छोटी छोटी पर्चियां हम न तो जोड़ते न ही उसे प्रदर्शित करते । अब तो बेटी भी ज़िंदगी का हिसाब किताब पूछती है तो हम चुप्पी ओढ़ कर बैठे रहते हैं ।
आज आप बच्चे की आमदनी से परिचित नहीं करते न ही आप कहना चाहते हैं परंतु आजादी के बाद के भारत के सभी बच्चे यह हमारे से पहले वाली पीढ़ी अपनी कमाई अपने माता या पिता की गोद में डाल दिया करती थी। हमारे हरदा टिमरनी सिवनी मालवा क्षेत्र में जमीनों से उपजने वाली फसल उतनी नहीं होती थी जितनी होना चाहिए। कुटुंब में कोई किसान ना था हां हम सब गर्मियों में जाते थे और अपने अपने हिस्से का गेहूँ ले आते थे जो अक्सर अधिकतम 200 या 300 किलोग्राम हुआ करता था। कुल मिलाकर बैकग्राउंड भी बहुत कमजोर था बाबू जी और उनके बड़े भाइयों का। सभी के दिल में इच्छा थी कि सारे बच्चे अच्छे पढ़ लिख कर नौकरी करने लगें ताकि कुटुंब का भली-भांति भरण पोषण हो सके। ईश्वर का आशीर्वाद जी बहुत ताकतवर होता है रवि भैया सुभाष भैया की संतोष भैया हरीश भैया सतीश भैया कुछ ना कुछ काम जरूर करते थे। उस वक़्त लगता था कि हम परिवार की लायबिलिटी है । जब नौकरी नहीं करता था तब मैं अपराध बोध से ग्रसित था।
   ₹5 रोज से नौकरी शुरू करने वाले सतीश भैया नौकरी नहीं दिल जीतने का धंधा शुरू कर दिया था। जिस से मिलते हैं उसके हो जाते। हम सभी भाइयों के लिए जमीन बना रहे थे शहर जबलपुर में। उस दौर में प्राइवेट अकाउंटेंट इतना सम्मान अर्जित कर ले कि  बाबूजी के आदेश पर घर के सामने एंबेसडर कार खड़ी हो जाए बहुत बड़ी बात थी आज  ऐसे दृश्यों की कल्पना नहीं की जा सकती। जब कभी भी कहीं जाना होता परम आदरणीय ज्ञान आहूजा भैया कार जरूर भेज देते थे। आरके बिस्किट कंपनी के बिस्किट की खुशबू किचन के पहले वाले कमरे से और कभी-कभी तो किचन से बाहर तक बिखरा करती थी । 111 प्रीति मीटिंग सेंटर घमापुर चौक सबके लिए स्वेटर अवश्य आ जाती थी। सतीश भैया के इन सभी कामों को समझने में मुझे 2 साल लग गए । समझ नहीं आता था कि ये इतना काम करते क्यों है ..?
    बड़ी बहन की शादी से लेकर सौभाग्यवती सीमा यानी छोटी बहन की शादी तक उनके काम अर्थ पूरे समाज और दुनिया ने जाना। इस बीच बीमा दफ्तर में सेठजी के प्रीमियम जमा करने जाने वाले सतीश भैया पर डेवलपमेंट ऑफिसर श्री एस.एन. मिश्रा जी की नजर पड़ी। उन्होंने भैया को एलआईसी की एजेंसी पकड़ा दी। अब लक्ष्य था बीमा करने का सबसे पहला बीमा फ्रांसिस भैया का हुआ जो विदेश चले गए और वहां से प्रीमियम डॉलर्स में भेजते थे फिर क्या था कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं यह परिभाषा हम सबने समझ ली ।  अपने बेहतर व्यवसाय और उपयोगिता के साध्य को सिद्ध करने के कारण सतीश भैया भारतीय जीवन बीमा निगम में डेवलपमेंट ऑफिसर बन गए थे। नौकरी तो उनकी पहले भी लग गई थी रेल विभाग में क्लास थ्री  नंबर ट्रैकर। परंतु बाबूजी के घोर विरोध के चलते अप्वाइंटमेंट लेटर उनकी किसी फाइल में अभी भी दबा होगा।
   भाई का बिना व्यवसाय इतना चमका की तीसरे या चौथे साल में ही कार्य के लिए पात्र हो गए । तब शहर में कुल 6000 कारें थी उनमें एक अपनी भी।
अरे हाँ ये कहां आ गए हम... आत्मकथा अपनी है तो अपनी बात लिखता हूं चलो वापस लौटते हैं
        मुझे अच्छी तरह याद है कि इस उसके सहारे कभी पास में इनके कंधे पर बैठ कर स्कूल जाता था। उस दौर में स्कूल भी कम लगते थे गर्मी की ढाई माह की छुट्टी जाड़े की 1 माह की छुट्टी और संडे सेटरडे महापुरुषों के स्मृति दिवस आकस्मिक निधन छुट्टी की तमाम वजह हुआ करती थी। परंतु जितने दिन भी स्कूल चलते थे उन दिनों के 30% से 35% दिनों तक ही स्कूल जाने का सौभाग्य मुझे मिल पाता था जैसे तैसे मैट्रिक पास कर पाया। साइंस सब्जेक्ट दुश्मन लगता था और उसे ही पढ़ना मजबूरी थी। यह अलग बात है कि कालांतर में बेटी शिवानी ने कह दिया था कि मुझे साइंस लेने का दबाव मत डालना । मैं उससे सहमत इसलिए था कि विषय वही पढ़ा जाए जो अच्छा लगे। परंतु हमारे दौर में बायोलॉजी पढ़ने वाला श्रेष्ठ होता था। दूसरे नंबर पर साइंस तीसरे नंबर पर कॉमर्स और बाक़ी  सारे गधे आर्ट विषय पढ़ा करते थे यह था कि मध्यवर्ग के मां-बाप का नैरेटिव था जो बच्चों को नौवीं क्लास से डॉक्टर इंजीनियर या बैंक अधिकारी समझने लगते थे। हमको भी बैंक परीक्षा देने के लिए तैयारी के लिए कहा जाता था । पर हम तो आवारागर्दी के एडिक्ट हो चुके थे।
      फर्स्ट ईयर से ही छात्र राजनीति का चस्का जो हमको लग गया था । पहले वामपंथी समूह में शामिल हुए जब उनके  कर्मों को देखा तो फिर समाजवादियों के साथ हो लिए वो भी रास ना आए तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को ज्वाइन किया। यहां ठहराव था यहां लोग संवाद के नाम पर कम्युनिस्ट छात्र संगठन कि लोगों की तरह  कुतर्क नहीं करते थे। पता नहीं कितने बड़े बड़े राष्ट्रीय नेता जो आज भारतीय जनता पार्टी या केंद्र सरकार में ऊंचे ऊंचे ओहदों पर हैं या भविष्य में होंगे ।  इसी संगत में स्वामी विवेकानंद को पहचाना था, जहां से जीवन वहीं से बदलना शुरू हो गया । इस दौर में आजादी की लड़ाई से लेकर संघर्षरंत युवाओं के दायित्व पर बहुत कुछ पढ़ा, सीखा और समझा।   
          छात्र संगठन कि चुनावों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को शामिल करने की ज़िद जितेंद्र सिंह जी से अक्सर किया करता था  और जितेंद्र जी अक्सर यही कहते थे तुम्हें नेता बनने की बड़ी जल्दबाजी है पहले मजबूत सिपाही तो बनो !
   वैसे मुझे पॉलिटिकल इंटरेस्ट नहीं था परंतु मैं देखता था आंदोलनकारी लोग बस जलाते तोड़फोड़ करते तो सोचता था कि शायद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कन्वेंस करा पाए आंदोलन का तरीका यह नहीं है। मैं यकीन मानिए केवल विमर्श चाहता था वह भी सकारात्मक  एक बात दिमाग में तेजी से घर कर गई थी कि ना तो युद्ध किसी भी समस्या का हल है और ना ही कुंठा  किसी सुसंस्कृत समाज का निर्माण कर सकती है। 1971 का युद्ध याद है एक दिन अखबार पढ़ने और बीबीसी सुनने के बाद स्वर्गीय बाई का गुस्सा और दुख पढ़ा था उनके चेहरे पर जब अमेरिका के राष्ट्रपति ने इंदिरा जी के प्रति असंसदीय शब्द कहे थे । इंदिरा जी सर्वप्रिय थीं  इसमें कोई शक नहीं उनके कठोर फैसले बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान के प्रति उनका सद्भाव के साथ समूचे पश्चिम पाकिस्तान यानी अब के बंगला देश की जनता जनार्दन के लिए करुणामय भाव था और यही बात उन्हें महान बनाती थी । 
          तीसरी हिंदी पास मेरी मां विश्व पॉलिटिक्स के चरित्र को भलीभांति समझती थी वह ईदी अमीन के बारे में भी जानती थी तो वह अक्सर यह भी कहती थी- भारत वह देश है जहां विश्व बंधुत्व शब्द सबसे अधिक प्रभावशाली है और इसे बरकरार रखना चाहिए ।
  
मेरा सार्वजनिक जीवन
     अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत तो स्कूल से ही हो गई थी। गोसलपुर में नौवीं क्लास में छात्र संघ के अध्यक्ष के पद पर चुनाव लड़ लिया परंतु हार गए हारना भी स्वाभाविक था 11वीं में पढ़ने वाले भैया जो सामने थे नाम भूल गया उनका। परंतु हर आयोजन में अपनी भूमिकाओं के कारण प्राचार्य ने मुझे सांस्कृतिक सचिव बना दिया। ना तो ऐसा कोई पद था नाही कोई सरकारी व्यवस्था थी परंतु कोई की शिक्षक मुझे हारता नहीं देखना चाह रहा था एक बार तो मुझे लगा कि शायद उनकी मेरे दिव्यांग होने पर संवेदना है परंतु मेरे एक गुरु ने बताया- कोई नहीं चाहता कि तुम्हारी प्रतिभा उपेक्षा हो तुम्हें मालूम है आज तुम्हारे विषय पर 2 घंटे स्टाफ रूम में चर्चा चलती रही। यह वह दौर था जब छात्र राजनीति पर दलगत राजनीति का कोई प्रभाव नहीं था। तब हम अपने शिक्षकों के बताए मार्ग को ही परम सत्य मान लेते थे बुराई भी नहीं थी क्योंकि वह गलत बात सिखाते ही ना थे। और इसी साल हमें सप्लीमेंट्री आ गई गणित में एक नंबर  के डफर हम ऊपर से सार्वजनिक जीवन जीने की कोशिश ऐसे परिणाम आने स्वभाविक थे । उसी समय पूज्य दादी जी के निधन का समाचार मिला और हम जबलपुर आ गए
जहां बाबूजी के एक गुरु भाई ने हमारी दादी की मृत्यु के समय मातम पुर्सी के दौरान मेरे नवमी में सप्लीमेंट्री आने और हरीश भैया के बीएससी पार्ट वन में सप्लीमेंट्री आने की वजह से बाबूजी और भाई को यह सलाह दी थी कि-"इनको घर से निकाल दो तब आटे दाल का भाव समझेंगे और तमीज से पढेंगे ये बच्चे...!"
अपनी, अयोग्यता पर  उनके मुखारविंद से सुनकर सीने में सैकड़ों भट्टियां धधक उठी थीं । पर क्या करें संस्कारों का पानी तभी बरसने लगा आंखों से भी और हृदय में भी ।
चलो कहानी जारी रखते हैं दर्द अपनी जगह है कहानी अपनी जगह .....!
   मेरे विषय में अक्सर अयोग्यता का लेबल लगता रहता था लोगों की चर्चाओं में ।
     हरीश भैया की शादी के बाद हमने तय कर लिया कि इलेक्शन लड़ेंगे चाहे एबीवीपी सपोर्ट करें या ना करें !
और जब यह ऐलान किया कि मैं डीएन जैन कॉलेज से प्रेसिडेंट शिप का इलेक्शन लडूंगा फिर क्या था मेरे साथी मुकेश राठौर अपने पैनल के कैंडिडेट भाई दिनेश यादव के साथ घर पहुंच गए । स्वर्गीय माता जी और बाबू जी को इस बात के लिए समझा रहे थे कि पढ़ने लिखने वाले  लड़कों को राजनीति से दूर रखना रहना चाहिए। वास्तव में वे नहीं चाहते थे कि उनका कैंडिडेट मुझसे हार जाए। मेरे फॉलोवर्स की संख्या उन दिनों बहुत हुआ करती थी। और मेरे सहारे मुकेश राठौर के इलेक्शन जीतने की फुल गारंटी थी। और मैंने भी बाई बाबूजी की राय और दिनेश यादव के मृदुल आग्रह पर इलेक्शन ना लड़ने का फैसला कर लिया  ।
  हां एबीवीपी की गतिविधियों में सक्रिय रहा समाजवादियों से हमेशा अच्छा संबंध बनाकर रखा लेकिन  साम्यवादियों से पता नहीं क्यों तभी से एलर्जी होने लगी थी ।
मुझे अफवाहों और झूठी चुगलियों नफरत थी । 1985 में एमकॉम करने के बाद नौकरी की तलाश बहुत तेज हो गई ट्यूशन पढ़ाना और पढ़ना पैसों की तंगी सिटी लाइब्रेरी वाला रास्ता दिखा दिया था। कॉम्पिटेटिव एग्जाम के लिए इतिहास पढ़ते पढ़ते लाइब्रेरी में मुंशी प्रेमचंद लाइब्रेरी में मुंशी प्रेमचंद राही मासूम रजा टॉलेस्टॉय चेखब कॉल मार्क्स एशियन हिस्ट्री भारतीय संस्कृति की सबसे महान पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय महात्मा गांधी लुइस ब्रेल पता नहीं कितने लेखकों और उनके द्वारा लिखे चरित्रों से मुलाकात हुई।  पचासी में एमकॉम करने के बाद सोचा फुर्सत में क्या करें हितकारिणी लॉ कॉलेज से एलएलबी कर लेते हैं । सुबह वाली शिफ्ट में लड़कियां आती थी और हमारी शिफ्ट शाम को लगा करती थी । और उद्देश्य केवल छात्र संघ चुनाव था। एलएलबी बहुत सीरियसली नहीं कर रहा था एल एल बी सीरियसली करने वाले कई सारे मित्र आज भी हाईकोर्ट में है अरे वकील तो है ही भाई जस्टिस भी हो गए हैं। मैं नहीं चाहता कि प्रोटोकॉल के चलते उन सब के नामों का यहां जिक्र करूं ।
  महात्मा गांधी पर मेरा दृष्टिकोण
गांधी सर्वकालिक प्रिय होते हुए भी उनके एक प्रयोगवादी होने के कारण असहमति का कारण बना। मेरी नजर में पूज्य बापू  कई मुद्दों पर हमेशा प्रासंगिक ना थे ना रहेंगे । परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि गांधी को अस्वीकार करता हूं यह भ्रम निकाल देना अपने दिमाग से ।
     मुझे गांधी का बर्ताव आजादी के समय की घटनाओं से बहुत दु:खी कर गया। तब जबकि कोलकाता में तड़पती देहों के गांधी का उद्विग्न ना होना और दिल्ली में प्रवासी हिंदुओं को शेल्टर ना देने वाली बात का जिक्र गांधी जी से मुझे दूर ले जाता है ।  नानी गांधी बाबा की जय करती थी वह भाव कभी भी मन से अलग नहीं हुआ। यही भावना तो सनातन सांस्कृतिक सामाजिक व्यवस्था का अमृत है ।
इस से जुड़ी एक घटना याद है जब मुझे एक लाइब्रेरी सिद्धिबाला बोस लाइब्रेरी में सुभाष चंद्र बोस की विप्लवी विचारधारा के विरोध में बोलना था। सुभाष चंद्र बोस को इतना पढ़ा था की उनके विरोध में वक्तव्य देना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। परंतु घड़ी परीक्षा की थी..! भाषण की कला का जौहर जो दिखाना था। संयोगवश पक्ष की वक्ता मेरी टीम की सदस्य कुमारी उषा त्रिपाठी ( जो बाद में  डॉ उषा मिश्रा सहायक प्राध्यापक विभाग अध्यक्ष के रूप में  नियुक्त थी साथ ही दुर्भाग्यवश पिछले माह नवम्बर 20 में वे कैंसर के कारण इस दुनिया में नहीं है ) को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके वक्तव्य का हिस्सा प्रस्तुत करता हूं -" सुभाष चंद्र बोस को बहुत चिंता थी इस देश की और यहां के नागरिकों की अतः उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया और अंग्रेजों से लोहा लेने चल पड़े.. और वे भारत आए निर्वाचित सरकार की बनाई!"
  बात एकदम सही थी परंतु भाषण कला का जौहर  जो दिखाना था.. हमने अपने वक्तव्य में कहा- मेरी पूर्व वक्ता ने बताया कि सुभाष चंद्र बोस जी को भारत की चिंता थी इसलिए उन्होंने यह कदम उठाया । सच कहूं सुभाष चंद्र बोस ने चिंता ही की थी और अगर वे चिंतन करते तो बापू के साथ अहिंसक आंदोलन में शामिल होकर भी यह काम कर सकते थे क्या जरूरत थी उन्हें दर-दर भटकने की हिटलर से मिलने की।
अहिंसक आंदोलन को प्रभावी प्रतिपादित करने के लिए यह वाक्यांश बहुत महत्वपूर्ण था। चिंता और चिंतन की व्याख्या भी कर डाली थी उस भाषण में चिंता के परिणाम हिंसक विप्लवी और विध्वंसक साबित कर दिए थे और यह कन्वेंस करा लिया था ऑडियंस और निर्णायक को कि समाज के प्रति सकारात्मक चिंतन का परिणाम सौम्य वातावरण का निर्माण होता है आजादी तो मिल ही जाती दूसरा विश्व युद्ध और उसके परिणाम क्राउन के लिए भयंकर थे । अपने इस पूरे भाषण में अपनी बात क्लियर कर दी मैं किसी एक समूह व्यक्ति को आजादी का से देने के लिए असहमत रहा हूं।
    मुझे लगा कि वास्तव में यह वाद विवाद का विषय ही नहीं था सुभाष चंद्र बोस सर्वकालिक सुभाष बाबू कृष्ण हैं । मेरी नजर में गीता के साथ महाभारत पूरी पढ़ो सब कुछ साफ हो जाएगा। युद्ध हमेशा जरूरी नहीं है पर यदि कोई 5 गांव के बदले 1 इंच भी भूमि ना दे तो शंखनाद जरूरी है।
    कुल मिलाकर डिग्री क्लास में पढ़ने वाले के मुंह से ऐसे  शब्दों  उम्मीद किसी ने ना की थी ।
    हम दोनों प्रतिभागियों के लिए मजबूरन पहला स्थान उन आयोजकों निर्धारित करना ही पड़ा । आनन-फानन में बाज़ार से एक और कप मंगाया गया उसके साथ ही उपहार स्वरूप हमें गदर के फूल नामक पुस्तक भी मिली ।
   आज का दौर बच्चों को अध्ययन नहीं कराता बल्कि जानकारियां उनके दिमाग में ठूँसता है । मौलिक चिंतन की बहुत कमी है। वैचारिक अकाल की स्थिति हर ओर है। बच्चे यंत्र बन गए हैं हां हार्ड डिस्क जिसमें जानकारी सुरक्षित  हो सकतीं हैं  पर उनका विश्लेषण बच्चे नहीं कर पाते।
       तभी तो अधिकांश बच्चे साइबर लेबर बनके विदेशों में मजदूरी करते मुझे तो दिख रहे हैं आप भले ही उन्हें एनआरआई कहना चाहे तो कह सकते हैं।
   अधिकांश बच्चे आरक्षण के बहाने वाला कवच ओड़कर कहते हैं कि हम कंपटीशन एग्जाम नहीं दे सकते क्योंकि एससी एसटी के लिए बहुत सारी सीटें आरक्षित है हमारा नंबर कैसे आएगा ?
  समस्या गंभीर है परंतु मैं एक बात पूछना चाहता हूं अपने बच्चों से.." कि क्या आप 50% पदों के लिए खुद को काबिल साबित करने की कोशिश कर सकते हैं..?
   यदि नहीं तो कारण यह मत बताइए कि आरक्षण होने के कारण हम कॉन्पिटिटिव एग्जाम में शामिल नहीं हो सकते । यह अपने आप को बचाने का रक्षा कवच है जिससे आप को शांति मिलती है वैसे ही यह डायलॉग बोलकर भी आप अपने आप को बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहे होते हैं ।
   आपने देखा होगा कि आजकल वणिकों या कहें व्यापारी परिवारों  के बच्चे  दुकान रूपी कंफर्ट जोन से निकलकर कॉम्पिटेटिव एग्जामिनेशन दे रहे हैं और धड़ाधड़ आईएएस या स्टेज सर्विसेज में सफल भी हो रहे हैं। डिफेंस सर्विसेज में भी इनकी मौजूदगी तो बहुत कुछ कहती  है ध्यान से सुनो समझ जाएंगे । 
      मेरे एक मित्र है, मित्र क्या  पता नहीं क्यों मैं  छोटा भाई मानता हूं उनको  नाम है रोहित बड़कुल जॉब में बहुत जूनियर है, । एलआईसी में कैरियर एजेंट के रूप में अपने आप को स्थापित करने वाले रोहित जी ने स्कूल के बाद कॉलेज का मुंह नहीं देखा डिग्री क्लास प्राइवेट पढ़ी  पर परंतु उनने तय किया था कि पीएससी निकालना । पीएससी पास कर 2014 में उसने मुझे रिलीव किया जबलपुर के लिए। लक्ष्य तय हो तो सब कुछ कर तय है । वरना दुनिया और परिस्थितियों को दोष देते रहना पड़ता है आप ही बताओ  ऐसा जीना भी कोई जीना है लल्लू..?

     जिन बच्चों को इस बात का दर्द हुआ हो कि मैंने उन्हें साइबर लेबर कहा है तो उन्हें हतोत्साहित नहीं कर रहा हूं बल्कि कह रहा हूं कि आप इससे ज्यादा योग्यता रखते हैं आपको नीति निर्माण और निर्णय करने वाली पदों पर होना चाहिए था परंतु मल्टी नेशन कंपनियों के माया जाल में फंस कर आप ना तो इस देश के लिए कुछ कर पा रहे हैं और ना ही अपने मां-बाप के साथ रह पा रहे हैं। दिन भर बच्चों के विदेश में रहने की बात सोच सोच कर दुनिया को इंप्रेस करने वाले मां बाप भी रात को तकिए भिगोते हैं यह सच है और सच को व्यक्त करने में मुझे कोई असुविधा नहीं हो रही चाहे वह अंकुर हो सोनू हो या भविष्य में शिवानी या श्रद्धा हो ।
   बच्चों तुम्हें अपने स्टेटस को बढ़ाना होगा तुम साइबर लेबर नहीं हो तुम निर्माता और नियंता हो।
         मैं अपने मामा परिवार के  बच्चों को देखता हूं... प्रतिस्पर्धा ना बढ़े इसलिए नाम नहीं ले रहा हूं पर कुछ बच्चों में लीक से हटकर काम करने की क्षमताएं उनके बचपन से ही नजर आती थीं  उनमें से इंजीनियर स्वर्गीय अजय बाबू का नाम लेना नहीं भूलूंगा उनके जीवन में कर्म प्रधान ता का तत्व कूट-कूट कर भरा था , मेरे शेष सभी ममेरे भाई आज भी उसी तेवर के साथ काम कर रहे हैं जैसा उनको विजुलाइज करता था। ऐसे ही मेरे पिता पक्ष के भी  बच्चे हैं। कुल मिलाकर अब यह तय करना होगा कि हम कंफर्ट जोन से कब निकलेंगे कैसे निकलेंगे और कैसे क्रिएटर और अच्छे एग्जीक्यूटर बनेंगे!
       आज भी मानता हूं कि बहुत पिछड़ा हूं बहुत सारी चीजें मुझे नहीं मालूम कई जगह तो एकदम डफर खुद को पाता हूं। मिसफिट हूं.. !
    कई लोग कहते हैं कि तुम रात रात क्यों जागते हो क्यों लिखते हो इससे क्या फायदा होगा क्यों किताबें पढ़ते रहते हो बीमार पड़ जाओगे ? उनसे कहना चाहता हूं कि अगर मैं रात भर नहीं जागूंगा तो तुम दिन में भी जागरण महसूस ना करोगे। पर ऐसा कभी कहा नहीं किसी से यह सोच कर
कि यह उनके मापदंड है जो यह सब सवाल करते हैं या ऐसे सुझाव देते हैं । माता पिता पृथ्वी पर हमें ईश्वर के आदेश से मनुष्य बनाकर प्रस्तुत कर देते हैं। हम हैं कि समाज के बनाए गए नियमों से चलने लगते हैं। सामाजिक नियम है पढ़ो लिखो नौकरी करो शादी करो और समाज का विस्तार करो यही समाज का कंफर्ट जोन है और इससे बाहर निकलना भी असंभव है।
होता भी यही है।
  मेरे परिवार की ममेंरे भाई संजय चौरे की तरह मैं भी विवाह संस्था को अपने लिए उपयुक्त नहीं मानता था ।
  परंतु बाई के आध्यात्मिक उपदेश ने चिंतन बदल दिया।
    मैं यहां एक खास बात को उद्घाटित करना चाहूंगा जो अब तक किसी को भी नहीं मालूम और जानकर किसी को नाराजगी या दुख नहीं होना चाहिए ।
चलिए ठीक है इस बात को अगले किसी अंक में उजागर करूंगा आत्मकथा है ना पूरी ईमानदारी से लिखी जाएगी। जैसे कि स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा में कोई भी ऐसा विषय नहीं छुपाया है जो उन्हें बेईमान साबित कर सके उजागर किया है साफ-साफ लिखा है जिनमें बच्चन जी की आत्मकथा पढ़ी है अवश्य समझ गए होंगे आज के लिए इतना ही काफी है ।
क्रमशः जारी....

23.12.20

सांस्कृतिक आंदोलन : बनाम अभिशप्त गन्धर्व..!

        
              सूरदास की आवाज इकतारे की टुनटूनाहट  के साथ भेड़ाघाट के धुआंधार के रास्ते पर जब भी गूंज उठती है तो लगता है कि कोई गंधर्व उतर आया हो इस जमीन पर।
बहुत से सांस्कृतिक पुरुष ने करते हैं इसी रास्ते से जलप्रपात के अनित्य सौंदर्य का रसास्वादन करें। निकलते हम भी हैं तुम भी हो ये भी हैं वह भी हैं... यानी हम सब सूरदास यहीं से निकलते हैं। उसके बिछाए बोरी पर कुछ सिक्के डाल देते हैं।
    उस सूरदास को हम सूरदास बहुत देते हैं केवल उसे कलाकार होने का दर्जा कभी नहीं देख पाए हम जो सूरदास ठहरे ।
  सुना है सांस्कृतिक विकास जोरों पर है। लोक कला लोक संस्कृति की कृतियाँ शहर के  विद्यार्थी उनसे सीख लेते हैं और हो जाता है कोई सांस्कृतिक सम्मेलन सुनते हैं आमंत्रित करती है सरकार  आवेदन राशि भी आवंटित करती है फाइलों के पीछे के चेहरे देखे बिना । 
    बहुत कम होता है कि सूरदास को सरकारी तौर पर कलाकार माना जाए जैसा पंडवानी की गायिका तीजन पहचान पा सकी । 
     सर्वहारा के लिए सांस्कृतिक आंदोलन बहुत जरूरी है  . मुझे लगता है जरूरी यह है कि उन तक पहुंच जाए पर मुश्किल है ना सूरदास के पास लैपटॉप नहीं है कंप्यूटर नहीं है अकेला है ऑनलाइन आवेदन नहीं कर सकता कभी ध्यान दिया अपने इधर यह अभिशप्त गंधर्व स्वर्ग से सीधे आपके लिए जमीन पर सैकड़ों हजारों की तादाद में चित्र बनाते हैं इकतारे पर कबीर को गाते हैं । इन की खबरें नहीं सकती है अखबारों में हम जैसे मूर्ख कभी इनकी आवाज उठाते हैं और वह आवाज इस एलान के साथ दब जाती है यह तो मिसफिट है।
    जब कभी नदी के तट पर देखता हूं मेले ठेले बुलाए जाते हैं हजारों हजार रुपए देकर नामचीन गंधर्व इन गंधर्वों  पर बहुत खर्च होता है । जितने में 5 साल तक सूरदास अपना जीवन गुजार दें। सूरदास जिंदा है कि नहीं मुझे नहीं मालूम पता करना होगा। डब्ल्यू से पूछ लूंगा वह बताएगा कि सूरा कहां है पर एक बात है कि जब भी नर्मदा को नमन करने जाओ अमरकंटक से लेकर खंभात तक बहुत सारे सूरदास मिलेंगे। किसी एक पर नजर जरूर डालना यह अभिशप्त गंधर्व तुम्हें आशीर्वाद देंगे यही आशीर्वाद तुम्हारी जीवन को सुख देगा। ऐसे ही तो तलाशा था अकबर ने तानसेन को मांग लिया था गुरु से। ऐसे ही चुनी गई होगी तीजन बाई झाबुआ का फोक डांस 
हम कहते हैं कि हम संस्कारधानी में सांस्कृतिक विकास कर रहे हैं। महसूस किजिए क्या यह सच है ?

21.12.20

भारतीय योगा की नाव : पतवार डॉलर और यूरो की...!



मेरे एक परम सम्मानीय मित्र स्वामी अनंत बोध चेतन इन दिनों लिथुआनिया मैं योगा स्टूडियो चला रहे हैं । दो विषय में स्नातकोत्तर डिग्री और योग तथा दर्शन में पीएचडी अंग्रेजी संस्कृत हिंदी के जानकार स्वामी अनंतबोध चैतन्य भारत से 6000 किलोमीटर दूर लिथुआनिया में सनातन की धारा को जीवंतता दे रहे हैं। लिथुआनिया के बारे में जान लीजिए ... कभी इतिहास में एक बड़ा देश हुआ करता था यूएसएसआर शामिल लिथुआनिया 1990 की सोवियत संघ की टूटने पर सबसे पहले आजाद हो गया ।

पूर्वी यूरोप का इस देश की आबादी लगभग 29 लाख है साथ हीी देश अब यूरोपीय यूनियन का तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था वाला देश है। इस देश को बाल्टिक टाइगर भी कहा जाता है। स्वामी अनंत बोध बताते हैं कि वे सनातन संस्कृति के विस्तार के लिए  लिथुआनिया में है जहां भारतीय हिंदुओं की संख्या  लगभग दशमलव 0•06% है। इस देश में इंटरनेट सिस्टम सबसे तेज है और यहां सभी नागरिक इंटरनेट की यूजर हैं। 
  
सांसद ( योनोवा ) Eugenijus Sabutis के साथ योगी अनन्त बोध
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से  पीएचडी की डिग्री लेकर गए इन युवा योगी को भारत की पीएचडी डिग्री होने के बावजूद योगा एलाइंस नामक एक संस्थान से हजारों यूरो देकर योगा स्टूडियो चलाने की अनुमति प्राप्त हुई। यूरोप में अधिकांश घर स्टूडियो के नाम से किराए पर मिलते हैं। और जहां योगा सिखाया जाता है वह योगा स्टूडियो के नाम से प्रसिद्ध हो जाता है। यूरोपियनस व्यवसाई बुद्धि देखें तो आप दांतो तले उंगली दबा लेंगे !
  भारत का पीएचडी होल्डर जिसने दर्शन और योग में पीएचडी की हो को भी उक्त सर्टिफिकेट हासिल करना पड़ा। विश्व के अधिकांश देशों में बाबा रामदेव के पतंजलि संस्थान से योग की शिक्षा हासिल करने वालों को योग सिखाने का लाइसेंस हासिल हो जाता है। ऐसे कुछ संस्थान और भी हो सकते हैं परंतु योगी अनंत बोध और मुझे इतना ही मालूम है ।

मित्रों विश्व के मानचित्र पर जहां भी योगा को स्वीकार किया गया है इनकी अपनी नियमावली है लेकिन यूरोप एक ऐसा महाद्वीप है जहां भारतीय योग के लिए यूरोपीय संस्थानों से संबद्धता और प्रशिक्षण लेना जरूरी है। चलते-चलते आपको बता दूं कि- लिथुआनिया राष्ट्र की बेरोजगारी अब मात्र 9% तथा वह बोली जाने वाली भाषा लिथुआनियाई है। और यह सबसे प्राचीन बोली जाने वाली भाषा संस्कृत की समकालीन या उसके आसपास की है। लिथुआनिया में बायोटेक्नोलॉजी वहां की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाती है।
 एक खास बात और विश्व की तरह पाकिस्तान जैसे देशों के नागरिकों को वहां वीजा और जॉब नहीं मिलता  है । कारण मत पूछिए । जबकि भारत के प्रति उनका आकर्षण अद्भुत है ।

19.12.20

कविता कब लौटेगी, बीते दिन की मेरी तेरी राम कहानी ।।

वो किवाड़ जो खुल जाते थे, 
पीछे वाले आंगन में
गिलकी लौकी रामतरोई , 
मुस्कातीं थीं छाजन में ।
हरी मिर्च, और धनिया आलू, अदरक भी तो  मिलते थे-
सौंधी साग पका करती थी , 
मिटटी वाले बासन में ।।

वहीं कहीं कुछ फुदक चिरैया, कागा, हुल्की आते थे-
अपने अपने गीत हमारे, 
आँगन को दे जाते थे ।।
सुबह सकारे दूर कहीं से 
सुनके लमटेरों की  धुन
जितना भी हम समझे 
दिन 
भर राग लगाके गाते थे ।। 

कुत्ते के बच्चे की कूँ कूँ, 
तोते ने रट डाली थी
चिरकुट बिल्ली घुस चौके में, 
दूध मलाई खाती थी ।
वो दिन दूर हुए हमसे अब, 
नैनों में छप गई कथा
चने हरे भुनते, खुश्बू से , 
भीड़ जमा हो जाती थी ।।

गांव पुराने याद पुरानी, 
दूर गांव की गज़ब कहानी ।
कब लौटेगी, बीते दिन की 
मेरी तेरी राम कहानी ।।
शाम ढले गुरसी जगती थी, 
सबके घर की परछी में-
दादी हमको कथा सुनाती, 
एक था राजा एक थी रानी ।।
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

15.12.20

मानसिक संवाद एक रहस्यमयी घटना भाग -दो

अचानक एक रात वही बेचैनी से जिसे उसकी पत्नी अनिद्रा रोग कहती थी से खुद को बिस्तर पर रोक न सका । थोड़ा बहुत कोशिश की कि नींद आ है पर संतोष को नींद न आई । स्लीपिंग पिल्स लेता न था कि वह सो जाता । पूरी रात करवटें बदलता इससे उम्दा तरीका यह था कि वह अब बस जागता रहे पर क्या करता शरीर अजीब से उत्पीड़न से निढाल सा होने लगा कि अचानक लैंडलाइन पर घण्टी बजने से उसकी वेचैनी और बढ़ गई । फोन पर बात न हो सकी । उन दिनों मोबाइल फोन न था । सो संतोष अल्ल सुबह गांव निकला उसे लगा शायद घर जाकर कुछ शांति मिले ?
  विचारों में घुलनशील हो रहीं कुशंकाएं उसको भयंकर परेशानी में डाल रहीं थीं । शहर से गांव की दूरी कम न थी । 150 किलोमीटर दूर आवागमन के संसाधनों में अनिश्चतता की संभावना के चलते उसने मित्र से उन दिनों चलने वाली लूना उधार ली । फुल टैंक फ्यूल और अलग से दो लीटर कुप्पी में पेट्रोल डलवाकर गांव पहुंचा । 
घर के आंगन में पिता की अर्थी देख सब कुछ साफ होने लगा था कि उसे कौन तेज़ी से याद कर रहा था। चाचा ने बताया बीती रात जब पिता मृत्यु शैया पर थे तो तुमको बहुत याद कर रहे थे। 
संतोष के कज़िन ने उसे पोस्टमास्टर की मिन्नतें कर रात तीन बजे तक फोन लगाने की कोशिशें नाक़ाम रहीं । पर सभी उसे ही याद कर रहे थे । 
   इसे टेलीपैथी कहा जा सकता है । शहर में रहने वाला युवा एक पल भी घर में न रुक सका था सुबह होते ही वह गांव के लिए निकला । ऐसी घटनाएं अक्सर देखने सुनने में आतीं हैं । पर यहां भी फ्रीक्वेंसी वाला फैक्टर काम कर रहा था । सन्देश का सटीक रिसीवर तक डिलीवर होना वर्ना बेचैन और कई रिश्तेदार हो सकते थे । 
    इस घटना में संतोष और गांव तथा मुख्यरूप से पिता के अंतिम समय के संवाद की फ्रीक्वेंसी मैच कर रही थी । यह अलग बात थी कि संदेश स्पष्ट नहीं था । पर उसे भाँप लिया था रिसीवर ने । 
   मित्रो, यहां हम सामान्य व्यक्तियों के संवाद सम्प्रेषण की बात कर रहे हैं । हम किसी भी प्रकार से योगाभ्यास करने वालों की बात नहीं कर रहे हैं । एक तथ्य यह भी कि -"जब कोई आपको दुःख या विछोह की स्थिति में याद करता है तो आप संतोष की तरह व्याकुल हो जाते हैं । 
क्रमशः जारी...
   

14.12.20

मानसिक संवाद एक रहस्यमयी घटना भाग -एक

रहस्य रोमांच और आध्यात्म
आप संवाद कर सकतें हैं बिना किसी उपकरण के हज़ारों मील दूर आश्चर्य हो रहा है ना कि आप से यह कहा जा रहा है कि हजारों किलोमीटर दूर बिना किसी यंत्र के संवाद कर सकते हैं। जी हां यह यथार्थ है और संभव भी कि आप अपने से हजारों किलोमीटर दूर ऐसे लोगों से संवाद कर सकते हैं जिनको नाम जानते हो ना ही आपका उनसे कोई परिचय हो।
   यह प्रक्रिया इस घटना से समझी जा सकती है
घटना साई बाबा के जीवन से जुड़ी है
एक समय की बात है कि साईं बाबा मस्जिद में बैठे हुए अपने भक्तों से वार्तालाप कर रहे थे| उसी समय एक छिपकली ने आवाज की, जो सबने सुनी और छिपकली की आवाज का अर्थ अच्छे या बुरे सकुन से होता है| उत्सुकतावश उस समय वहां बैठे एक भक्त ने बाबा से पूछा - "बाबा यह छिपकली क्यों आवाज कर रही है? इसका क्या मतलब है? इसका बोलना शुभ है या अशुभ?"
बाबा ने कहा - 'अरे, आज इसकी बहन औरंगाबाद से आ रही है, उसी खुशी में यह बोल रही है " उस भक्त से सोचा - 'यह तो छोटा-सा जीव है..!
उसी समय औरंगाबाद से एक व्यक्ति घोड़े पर सवार होकर बाबा के दर्शन करने आया ।  बाबा उस समय नहाने गये हुए थे । इसलिए उसने सोचा कि जब तक बाबा आते हैं तब तक मैं बाजार से घोड़े के लिए चने खरीद कर ले आता हूं| ऐसा सोचकर उसने चने लाने का जो थैला कंधे पर रखा हुआ था, धूल झाड़ने के उद्देश्य से झटका तो उसमें से एक छिपकली निकली - और फिर देखते-देखते वह तेजी से दीवार पर चढ़ते हुए पहली वाली छिपकली के पास पहुंच गयी ।  फिर दोनों खुशी-खुशी लिपटकर दीवार पर इधर-उधर घूमती हुई नाचने लगीं । यह देखकर सब लोग आश्चर्यचकित रह गये । यह कहना बाबा की सर्वव्यापकता का सूचक था ।  वरना कहां शिरडी और कहां औरंगाबाद..!
इस कथानक के तीन बिंदु अति महत्वपूर्ण हैं । दो छिपकलियाँ और उनके सन्देश को  इंटरसेप्ट करने वाले साईं बाबा ।  साईं ने उस फ्रीक्वेंसी को पकड़ लिया जिसे एक छिपकली ने दूसरी को  आगमन की सूचना के रूप में भेजा गया था या रिसीव किया था । यह अगर काल्पनिक लगती है...?
   1943 में दूसरे विश्वयुद्ध के समय एक गरीब दम्पति का बेटा ब्रिटिश भारत के सैनिक के रूप में बर्मा फ्रंट पर तैनात था ।  उसके माता-पिता फतेहगढ़  में रह रहे थे । एक शाम अचानक नीम करौली बाबा उन वृद्ध दंपत्ति के घर पहुँचते हैं ।  वृद्ध दंपत्ति उनको भोजन कराते हैं और  बाबा एक बिस्तर पर सो जाते हैं । रातभर दंपत्ति इस बैचैनी में सो न पाए कि बाबा को हम उचित सम्मान न दे सके । पर उनने देखा बाबा रात भर कराहते कसमसाते रहे । स-रो-पा कंबल में ढंके बाबा ने सुबह उठकर उनको वही कंबल सौंपा । और आदेश दिया कि -"इसे गंगा में विसर्जित कर आओ रास्ते में खोलना मत । और हाँ तुम्हारा पुत्र एक माह में लौट आएगा !"
    कंबल अपेक्षाकृत भारी था उसमें  कुछ धातुओं की आवाज़ आ रही थी । पर भक्त दम्पत्ति ने गुरुदेव के आदेश के अनुसार चाह कर भी न देख सके ।
     एक माह पश्चात जब पुत्र लौटा तो उसने युद्ध की दास्तां बयाँ की । और बताया कि वह किस प्रकार जापानी सेना की गोलियों की बौछार से घिरा था । पर एक भी कारतूस उसे छू न सका । उस तक आने वाली हर गोली कभी दाएं से तो कभी बाएं से निकल जाती ।
    निश्चित ही मृत्यु के निकट होने पर माता-पिता को अन्तस् से याद करने वाले युवा ने करुणा भाव से माता-पिता को याद किया होगा । शायद पुकारा भी हो ?
   सुधि पाठकों यह सत्य है कि उस संदेश को इंटरसेप्ट करने वाले नीम करौली के बाबा ही थे ।
   कैसे होता है यह कम्युनिकेशन
ऐसे संदेश मानसिक ऊर्जा से प्रसारित होते हैं । आप बिना किसी पावर के न तो फोन चला सकते न अन्य कोई यंत्र । फोन रिसीवर एवम ब्रॉडकास्टर दौनों कार्य ऊर्जा और निर्धारित फ्रीक्वेंसी पर सक्रिय होता है । आपका मन और मस्तिष्क विचारों को हाई फ्रीक्वेंसी पर विस्तार देते हैं । अक्सर हम अपने स्नेही जन को जब याद करते हैं तब वह भी आपको तुरन्त याद करता है । शायद आपका फोन उसी समय के आसपास बज उठे और स्नेहीजन कह दे कि -"मुझे तुम्हारी याद आ रही थी , सो कॉल कर लिया । आप ने अवश्य ही कहा होगा कि -"और मुझे भी..!"
     हम ऐसी घटनाओं को हल्के में लेते हैं । जबकि यह एक प्रणाली है। इसके आधार पर आप को हमको सबको सिखाया जाता है कि-"ईश्वर को अंतर-आत्मा से याद करो, वे अवश्य ही मदद करेंगे ।"
   होता भी यही है । हमारा परिवार गोसलपुर में पिता जी के साथ रहता था । और जब भी कोई कठिनाई होती तब ब्रह्मलीन मूलानंद जी ब्रह्मचारी आ जाते थे । ब्रह्मलीन स्वामी शिवदत्त महाराज तो हमारे सरकारी आवास के चक्कर लगाया करते थे । 
   मित्रो, यह सब संभव है योग क्रिया से । योगी तो लाखों किलो मीटर दूर तक संवाद कर लेते हैं । पक्षी भी इसी प्रकार से संवाद कर सकते हैं । रामायण महाभारत काल में तो यह सब सहज सम्भव था । दक्षिण का राजा रावण उत्तर के राम के साम्राज्य के हर पहलू से भिज्ञ था । राम के वंश के राजाओं को भी वैश्विक जानकारी थीं । तब जब कि न सड़के उम्दा रहीं थीं कि कोई हरकारा सन्देश शीघ्र ही लाए । फिर क्या था कम्यूनिकेशन प्लान ? मेरे हिसाब से केवल "मानसिक-सन्देश सम्प्रेषण"  और यह सब ध्यान योग से ही सम्भव है । 
   एक क्रिया मैं करता हूँ । जिससे मिलना है उसे ध्यानस्त होकर तीव्रतम उत्कंठा के साथ स्मरण किया करता हूँ । इसका परिणाम उसका या तो फोन आ जाता है या प्रत्यक्ष भेंट । तीन दिन पूर्व एक एस एल आर श्री ललित ग्वालवंशी का अचानक ही स्मरण हो आया । हम कई दिनों से कोविड की वजह से नहीं मिल सके । आज इस आलेख के लिखते समय शाम को उनका स्वयम फोन आ गया । 
    हममें और योगियों में यही अंतर है । हम स्मरण करते हैं । वे पूर्ण संवाद किया करते हैं । 
   यह आर्टिकल क्यों लिख रहा हूँ मुझे नहीं ज्ञात होता है । न ही समझ पा रहा हूँ । परन्तु एक ब्रह्म सत्य यह है कि मुझे बार बार यही महसूस हुआ कि कोई कहता है कि इस विषय पर लिखो। सुबह से लगा हूँ पर अब पूर्ण हुआ लेखन एक नींद के बाद किसी की आवाज़ ने उठा कर इसे पूर्ण कराया । प्रातः के 4 बजने को हैं । आर्टीकल सुप्रभात के साथ सादर प्रस्तुत है । 



    

10.12.20

पहाड़ पर लालटेन थे मंगलेश डबराल


आजादी के  1 साल बाद 16 मई  1948 को जन्मे मंगलेश डबराल का जन्म टिहरी गढ़वाल प्ले हुआ और आज 9 दिसंबर 2020 को मंगलेश जी  परम यात्रा पर निकल गए। मंगलेश डबराल को भाषित करने के लिए यह वक्त नहीं है लेकिन उनके मोटे तौर पर किए गए कार्य की चर्चा करना जरूरी है। उनके 1981 में कविता संग्रह पहाड़ पर लालटेन घर का रास्ता 1988 तथा हम जो दिखते हैं 1995 आवाज भी एक जगह है नए युग में शत्रु यह । मंगलेश डबराल जी को ओमप्रकाश स्मृति सम्मान 1982 श्रीकांत वर्मा सम्मान 1989 साहित्य अकादमी का पुरस्कार 2000 प्राप्त हुआ है खास यह बात थी कि ऐसी कोई खबर इनके जीवन वृत्त में  दर्ज नहीं है कि उन्होंने असहिष्णुता पूर्व सम्मान को लौटाया हो। मंगलेश डबराल  के एक कविता संग्रह है आवाज भी एक जगह है का इटली भाषा में अनुवाद अनखीला वह चाहिए उन लोगों को तथा अंग्रेजी में 20 नंबर डज नॉट एक्जिस्ट प्रकाशित हुई डबराल जी  के दो कविता संग्रह 2 भाषाओं में अनुवाद किए गए किंतु खुद डबराल जी ने पाब्लो नेरुदा के अलावा आधे दर्जन से अधिक लोगों की कविताएं अनुवादित की
आइए आज हम उनकी कृति पहाड़ पर लालटेन की कविता लेते हैं अत्याचारी की थकान शीर्षक से लिखी गई इस कविता में उन्होंने जो लिखा है बेशक बेहद जीवन रेखा चित्र है। अत्याचारी जब थक कर चूर हो जाते हैं चलिए आप खुद ही पढ़ लीजिए इस कविता को जिसका रचनाकाल 1980 था-

अत्याचार करने के बाद

अत्याचारी निगाह डालते हैं बच्चों पर

उठा लेते हैं उन्हें गोद में

अपने जीतने की कथा सुनाते हैं

कहते हैं

बच्चे कितने अच्छे हैं

हमारी तरह नहीं हैं वे अत्याचारी

बच्चॊं के पास आकर

थकान मिट जाती है उनकी

जो पैदा हुई थी करके अत्याचार ।

 उनके निधन को व्यक्तिगत क्षति इसलिए मानता हूं कि उनकी कविता बहुत जटिल और पेचीदा नहीं होती थी जो स्पष्ट कर देती हैं कि व्यक्ति जिससे मैं कविता में मिल रहा हूं कितना सुकुमार और सच-सच बयां करने वाला होता है। मित्रों मेरा पथ अलग है उनका पंथ अलग है फिर भी मैं उनके काव्य शिल्प का प्रशंसक है और उनका विद्यार्थी मान लीजिए। मैं अपनी परंपराओं के अनुसार डबराल जी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं शत शत नमन
प्रगतिशील कविता कभी-कभी इतनी जटिल हो जाती है कि वह कविता जैसी तो कदापि नहीं लगती परंतु पूज्य मंगलेश जी की फुटकर में भी पढ़ी है ।

7.12.20

WhatsApp DP | Short Film | Indie Routes Films | Reaction YouTube film

##WhatApp_DP By Indie Routes Films 
Staring *ing Abha Joshi #Ravindr_Joshi

मर्मस्पर्शी यूट्यूब वीडियो है . 
यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि रोजगार के लिए यात्रा करनी पड़ती है । भारत से पिछले 25 वर्ष में बहुत सारे बच्चे विदेशों में गए। इन बच्चों की वापसी अब असंभव है। आपके पूर्वज एक ही पहले पिता माता जब गांव से शहर आए तो वापस फिर कभी नहीं गए उन गांवों में जहां उनके जन्म के नाम के लड्डू बांटे गए थे। उसके बाद आपके बच्चे मेट्रो दिल्ली मुंबई गुड़गांव चेन्नई पुणे हैदराबाद यानी भाग्यनगर में साइबर मजदूरी करने लगे तो वे भी वापस आने में आनाकानी कर रहे हैं।मेट्रो से निकलकर अमेरिका, कैनेडा  आस्ट्रेलिया  इंग्लैंड इटली जर्मनी फ्रांस नीदरलैंड, आदि  देशों में गए हैं वे क्या खाक आपका कस्बा नुमा शहर जबलपुर जैसे शहरों को पसंद करेंगे जहां आज भी गाने गा गा कर कचरा इकट्ठा किया जा रहा हो। इस फिल्म में एक डायलॉग है वहां इंडियन डायसपोरा केवल अपने ही हुजूम के साथ रहता है। उसे उस देश की आबादी में स्वीकार्य नहीं किया है। 10 से  15 साल पहले वैश्वीकरण के उपरांत पड़ने वाले प्रभाव को टेक केयर नाटक में बखूबी प्रदर्शित किया गया था शहीद स्मारक में आयोजित विवेचना #अविभाजित नाट्य समारोह में यह नाटक हृदय पर गंभीर रूप से चोट कर रहा था।
उसके कुछ सालों बाद हमने एक सत्य कथा सुनी की एक मां अपने फ्लैट में मरने के बाद सूखी हुई ढांचे के रूप में बेटे के इंतजार में पड़ी रही।
मायानगरी के पॉश इलाके 
लोखंडवाला के वेल्सकॉड टावर की दसवीं मंजिल पर स्थित एक बंद फ्लैट में रविवार को 63 वर्षीय महिला का कंकाल मिलने से सनसनी फैल गई। पुलिस ने बताया कि महिला का बेटा डेढ़ साल बाद रविवार को दोपहर जब भारत आया तो मां के फ्लैट का दरवाजा अंदर से बंद था, जिसे तोड़ने के बाद अंदर जाने पर उसने मां का कंकाल बेड पर देखा। महिला की पहचान आशा केदार साहनी के रूप में हुई, जिसका बेटा रितुराज साहनी यूएसए में आईटी इंजिनियर हैं। 
भारतीय मध्यम वर्ग भी डालर्स के मोहपाश में बंध गया..?
जी हां भारत का मध्यवर्ग डॉलर के जाल में फंसा नजर आ रहा है ।  मध्य वर्ग एक ऐसी खतरनाक भूल करने जा रहा है जिससे उसकी पारिवारिक और कौटुंबिक आकृति में बदलाव बहुत करीब दिखाई देने वाला है। क्योंकि भारत का मध्य वर्ग भारत के आर्थिक विकास रीढ़ की हड्डी है । और इस वर्ग से निकले हुए बच्चे भारत के लिए विदेशी मुद्रा कमाने  की योग्यता  में अब  सबसे आगे नजर आते हैं ।  फिल्म निर्माता एवं अभिनेता श्री रवि जोशी जी  से आज चर्चा हुई  उनका  मानना है कि -"भारत का मध्य वर्ग अपने बच्चों को विदेश भेज अवश्य देता है किंतु बच्चों के सिर पर हाथ फेरने के लिए तरसता भी है"
फिल्म में एक दृश्य है जिसमें नायिका यूएस में बसे हुए बेटे और उसकी संतान तथा बहू के विषय में चर्चा करते समय नायक के मित्र का फोन आता है तो वह अपने पुत्र की जबरदस्त तारीफ करता है। जबकि संवाद  बोलते समय नायक के चेहरे पर वह कसक स्पष्ट नजर आती है जो संतान से मिलने के लिए एक पिता के चेहरे से झलकती है । दिल्ली मुंबई और नए-नए महानगरों में ऐसे बुजुर्ग बहुत मिल जाएंगे जो मॉर्निंग वॉक के समय विदेश में बस रहे अपने बच्चों के बारे में बड़े गर्व से बताते हैं। सुधि पाठकों भारत का सारा टैलेंट मल्टी नेशंस के शिकंजे में है क्योंकि ना तो भारत और ना ही भारत की परिस्थितियां उस योग्यता को समझ पा रही हैं । 
  अक्सर मैं यूएस और फिर कनाडा में बसे अपने भतीजे की पुत्री से बात करता हूं...ताकि उसे अपने से बांध कर रख सकूं। शायद वह जब भारत आए तो हमारी मुलाकात अजनबीयों की तरह ना हो ..!
    
फाह्यान और वास्को डी गामा जो पूरब के भारत को तलाशते हुए भारत आई थी वोल्गा से गंगा तक संस्कृति के चार अध्याय को समझना चाहते थे अपुष्ट जानकारी के मुताबिक एक पंथ के प्रवर्तक का भारत आना हुआ था। उन तीनों भारत का दर्शन अध्यात्म सामाजिक सांस्कृतिक वैभव विज्ञान कला राजनैतिक ज्ञान का अक्षय भंडार माना जाता था। उसी भारत के लोग डॉलर की तलाश में साइबर लेबर बनके विश्व के चक्कर लगा रहे हैं और आत्मिक अंतर्संबंध प्रॉपर्ली सिंक्रोनाइज नहीं हो पा रहे है। मित्रों कृषि प्रधान भारत में आत्मनिर्भरता जैसी योजना का लाना यही सिद्ध करता है कि हमारे विश्व की ओर प्रवाहित बौद्धिक संपदा को वापस लाया जा सके परंतु क्या करें..?  यह बच्चे भारत में लौट कर नहीं आने वाले। लेकिन हां हर मध्यवर्गीय पिता माता और विदेश जाने वाला युवा दक्षिण भारत के गांवों के बारे में गूगल करें तो उसे स्पष्ट हो जाएगा कि भारत और विश्व के किसी भी कोने से रिटायर्ड चपरासी से लेकर आईएएस आईएएस आईपीएस की अंतिम इच्छा गांव में वापस लौटना ही होती है बहुत सारे लोगों को आप दक्षिण भारत में मस्त रिटायर्ड लाइफ जीते देख सकते हैं। पर सच तो यह भी है कि अब भारत की डस्ट और गंदगी प्रवासी परिंदों को पसंद नहीं आती । 
आगे आने वाले दौर की पीढ़ीयाँ भी यही सब करेगी हां सच है कि वह लौटेंगे नहीं। 
इस फिल्म को मैं पांच सितारे भी दूं तो कम है।
         यूट्यूब के  इंडी रूट्स फिल्म  चैनल पर प्रस्तुत इस वीडियो में एक कमेंट भी है जिसमें एक व्यक्ति ने लिखा है कि यह मेरी कहानी है । 
इस आप पढ़ना ना भूलें । 
    मित्रों मेरे एक मित्र अनुराग त्रिवेदी ने बताया की जब फुदक चिरैया गीत को  स्थानीय नईदुनिया ने गौरैया बचाओ अभियान के तहत छापा तो उनके परिचित रिश्तेदार उसे पढ़ कर रोने लगे थे - उनके भावुक होने का कारण गीत की ये पंक्तियां थी
जंगला साफ़ करो न साजन
चिड़िया का घर बना वहां ..!
जो तोड़ोगे घर इनका तुम
भटकेंगी ये कहाँ कहाँ ?
अंडे सेने दो इनको तुम – अपनी प्यारी गौरैया ...!!
हर जंगले में जाली लग गई
आँगन से चुग्गा भी गुम...!
बच्चे सब परदेश निकस गए-
घर में शेष रहे हम तुम ....!!
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https://m.youtube.com/channel/UCCOt2wDuIe7Szx4PPQ7Jc5Q
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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...