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गुरुवार, दिसंबर 24, 2020
आओ खुद से मिलवाता हूँ..! भाग 07
उस दिन रेल मिनिस्टर माधवराव सिंधिया जी जबलपुर आए थे हां तिथि याद नहीं है और सुबह 10:00 बजे का वक्त था हमने भी अपना एक आवेदन सर्किट हाउस में नौकरी के वास्ते उनको टिपा दिया । उस आवेदन का क्या हुआ किसे पता ऐसे सैकड़ों आवेदन आते रहते हैं डीआरएम ऑफिस के किसी एपीओ के चेंबर तक में भी पहुंचा कि नहीं ऊपरवाला जाने । सुना था नौकरी क्लर्कशिप आसान थी मिलना जुगाड़ हो तो। बाबूजी के पास कितने जुगाड़ थे या नहीं ये भी ईश्वर जाने पर बाबूजी खुद के बूते अर्जन को श्रेष्ठ समझते हैं । वे कहते थे -"स्टेशन मास्टर्स के बच्चे कुली कबाड़ी बनते हैं । तुम लोग मत बनना रे..।
हमने भी चाहे अनचाहे उनकी बात को रखा । क्लास फोर्थ में जॉब तो चाहिए ही न था । फिर एक दबाव टायपिंग सीखने का आया वो मेरी रुचि का न था । सतीश भैया ने क्लास जॉइन की पर जब वे टायपिंग क्लास जाते तब मेरा नर्म गर्म बिस्तर पर सोने का वक़्त होता था 7 बजे सुबह बिस्तर से उठना तब तक भाई टायपिंग का बहुत सारा हिस्सा सीख लेते होंगे । खैर जो भी हो बिना एक्सट्रा हुनर के अपने राम की ज़िंदगी कविता साहित्य छात्र राजनीति में उलझी रही । स्व बाई इसे पन्द्रह की साई सत्रह की उगाही कहतीं थीं यानी इधर-उधर की बातों में इंवॉल्वमेंट ।
किशोरावस्था से युवा अवस्था का दौर जीवन का सबसे ज़ल्द संक्रमित हो जाने वाला काल होता है ।
तब शरीर सबसे अधिक रूमानी और तेज़ और रूमानियत से भरा होता था । शरीर को तेज भागना अच्छा लगता था । सौंदर्य आकर्षित करता है। पर संस्कारों पर घर की नसीहतें आज के GST जैसी लगने लगीं थीं, लड़कियों से बात करने पर शरीर में एक असहजता सी महसूस होती थी
इन सब बातों का ज़िक्र ग़ैर जरूरी है पर ज़िक्र इसलिए किया है कि आज के दौर में ब्रेकअप मैशअप मैशअप एक्स प्रेजेंट जैसे शब्दों को सुनकर सुनकर लगता है कहां गई वह परवरिश कहां गए वह लोग। बदलाव का दौर है गायत्री परिवार के लोग दावा करते हैं हम बदलेंगे युग बदलेगा युग बदला और ऐसा बदला जैसा किसी ने न सोचा था। अब मुझे कंजरवेटिव समझ लीजिए अथवा पाखंडी पौंगा ग्वारीघाट पहुंचने तक बदल ना पाऊंगा खुद को।
*सत्य को स्वीकारो...!*
मन क्रम वचन से जो भी गलतियां करते हो उसे स्वीकारने का सबक गुरुदेव के सूत्र में लिखा हुआ है.. पश्चाताप की गंगा में नहा लेना आत्मा को पवित्र कर देता है यह सत्य है .. यह बात सीख ली थी जब भी समझ आया अपनी गलतियों को स्वीकार करने में कोई अपराधबोध नहीं होता था । उस समय 11वीं कक्षा मेरी जाने वाली परीक्षा मध्य प्रदेश बोर्ड की परीक्षा कहलाती थी। जबलपुर आते ही शहर की हवा लगनी थी डीएन जैन कॉलेज जाते समय रास्ते में श्याम टॉकीज मुफ्त में फिल्म देखने का कॉलेज स्टूडेंट्स को लाइसेंस जैसा था। खूब फिल्में देखता था, तब जबकि पढ़ाई करनी होती थी पुरानी फिल्में जरूर देखता था उस टॉकीज में पुरानी पिक्चरें लगती थी और यही शौक या कहें एडिक्शन इस कदर हावी था कि नई फिल्म में भी देखना शुरू कर दिया। 48 परसेंट 6 अंक के ग्रेस के साथ यह रिजल्ट था ! मैट्रिक का यानी घसीट घसीट के मैट्रिक पास। विषय भी मन का न था। अपना मन भी विषय के लायक ना था। जी चाहता है था कि अर्थशास्त्र पढ़ें राजनीति शास्त्र पढ़े सोशियोलॉजी पढ़ें परंतु घर के सम्मान लिए गणित पढ़ो का आदेश था सो पढ़ लिया आप भी हंसोगे सुनकर कि कुछ गणित के तो सवाल रट लिए थे ।
खैर छोड़िए अपनी गलती स्वीकारने से मुझे तो लाभ हुआ पर लोग मुझे गलतियों का अक्षय कोष समझने लगे । जो गलत था और गलत है । किसी ने ये न जाना कि गलती छिपाने वाले से बड़ा गलती उजागर करने वाला होता है । पर ठीक है हम अपनी किये गलत कामों को फलक पर रख दें कम से कम आत्मा की धिक्कार से तो बचेंगे ।
मैट्रिक पास करने के बाद रोजगार कार्यालय से एक खत आया । रोजगार कार्यालय जाने पर पता चला कि लखनऊ से डिफेंस अकाउंट में नौकरी मिलने वाली है। स्वर्गीय बाई ने साफ मना कर दिया ठीक ही हुआ । अपना खर्च चलाने के लिए ट्यूशन थी। बस हमने भी कागज उन बेकार कविताओं के साथ कहीं दबा दिया ना तो वे कविताएं अब हमारे पास है नाही एंप्लॉयमेंट इनविटेशन ।
मध्यमवर्ग घरों में वो रिश्तेदार बच्चों के लिए तनाव की वजह होते हैं जो मेजबान घर के लड़के को देखकर पूछते हैं-" हां तो भाई क्या कर रहे हो आजकल" और उस घर की कुंवारी लड़की को देखकर मां और बाप को अपराधी बना देते हैं यह सिलसिला आज भी चल रहा है।
एक बार किसी ने मुझसे यही सवाल किया तब तक मैं डिबेटिंग के 5 या 6 मेडल जीत चुका था , मैंने तपाक से कहा- अगले महीने आपके शहर आऊंगा वहां एक परीक्षा है । आपका शहर बड़ा है वहीं रह जाऊंगा आपके साथ और कुछ छोटा मोटा काम कर लूंगा । मेरी मंशा भयानक सी लगी उनको और अगला सवाल पूछना मुनासिब न समझा वरना वे नामाकूल बिंदु (मेरी छोटी बहन) की शादी के बारे में जरूर पूछते । मेज़बान का पूरा परिवार मुझ से कतरा रहा था और मैं था कि उनके इर्द गिर्द आता और बात करने की असफल कोशिश करता रहा पर वे किनारा करते रहे ।
अब तक हरीश भैया एएसएम हो चुके थे, और बाबू जी सतीश भैया को रेलवे की नौकरी के खिलाफ बड़ी-बड़ी हिदायतें दे रहे थे।
हम थे कि आवारागर्दी में अपना नाम स्थापित कर रहे थे। हमको भी अफसर बनने की हिदायत गाहे-बगाहे मिला क़रतीं थीं । हम थे कि जबलपुरिया लौंडे । यह बात हमारे दिमाग में मौजूदा वक्त की खबरों ने छाप दी गई थी कि-"बिना घूस दिए बिना नौकरी नहीं लगती..!" एक दिन भाई हमारे पास चले आए स्थान था सुपर मार्केट के सामने विजेता पान भंडार का। आवारागर्दी के कुछ अड्डे तयशुदा थे । भूरी राजू कंटर राजू राजू साहू फ्रेमिंग वाला या फिर अरविंद सेन के साथ बेवजह खड़ा रहना बहुत अच्छा लगता था। वह व्यक्ति मुझसे खासतौर पर मिलने आया था। उसने बताया कि मेरा सिलेक्शन सब एडिटर लोकल फंड्स के लिए हो सकता है यदि मैं ₹12000 उसे कल तक दे दूं । दाता से सोम भलो तुरतई देय जवाब..! की कहावत को याद करते हुए हमने विजेता पान भंडार के संचालक से पूछा- काय हम ₹10000 दे तो तुम का दुकान छोड़ दे हो ?
जवाब मिला जा वाली ना छोड़ हैं पप्पू भैया पर एक बात है 10 में बेहतरीन दुकान दिलवा दें हैं ?
कित्ते निकल आहैं हमने पूछा..?
पान वाले ने बताया- 8 हज़ार महीना के..!
हमने अपने मित्र से कहा कि 12000 तुम को नहीं दूंगा और ना ही मुझे नौकरी चाहिए मैं तो बस पान का कपड़ा खोलने के इरादे में हूं सीरियसली ।
1984 में पान टपरों से 8 से 10 हज़ार रुपए कमाना कठिन ना था । उस नौकरी को करने में 800 रुपये मिलते । मामला 12000 का था जो मेरे पास ना थे घूस देना नहीं था ।
तब कभी ऐसा भी लगने लगता था कि- हमारा जीवन पोटली में बंधा हुआ कोई पुराना सामान हो जिसे मां बाप संभाल के रखे हैं। समाज का युवकों को देखने का नज़रिया भी गजब होता है। जिस लड़के की नौकरी ना लगे और जिस लड़की की शादी ना हो.. समाज की नजर में एक बेहूदा और अयोग्य माने जाते थे।
इन सबके बावजूद हम तीनों भाई अपने-अपने छोटे-मोटे कामों से पैसा कमा लेते थे । सतीश भैया सुबह 5:00 बजे उठ कर 9:00 बजे तक घर से बाहर हो जाते थे बीच में घर आते भी और कई कोऑपरेटिव सोसाइटीज के अकाउंट लिखा करते थे। हरीश भैया हाईकोर्ट में हमारे स्व नानाजी श्रीयुत नाना जी के आशीर्वाद से फोटोकॉपी है मशीन चलाया करते थे कोर्ट की नौकरी थी सब खुश थे लेकिन वे नहीं ! जॉब उनकी योग्यता के अनुकूल न थी । अक्सर परेशान रहा करते थे। रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर की भर्ती परीक्षा में सलेक्ट हो जाने के बाद बाबूजी का पारा इतना हाई था मानो दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी हरीश बिल्लोरे ही हो हां रंगा बिल्ला के रंगा की तरह। बाबूजी अक्सर मैरिट और डिमैरिट के बारे में उस सोचने का दबाव डालते थे । टोटलिटी में डिमैरिट्स की संख्या उनके हिसाब से ज्यादा निकलती थी। उनका अपना कैलकुलेशन हुआ करता था।
नौकरियां तब भी आसानी से नहीं मिलती थीं । मेरे दिमाग में भी यह भ्रम था कि शायद ता उम्र नौकरी नहीं कर पाऊंगा, जबकि नौकरी लग जाना एक बड़ा महत्वपूर्ण फैक्टर होता था मध्यवर्ग के परिवारों में। नौकरी अच्छी हो या बुरी हो लग जानी चाहिए। नौकरी लग जाएगी तो घर की आमदनी बढ़ जाएगी। तीन बेटों तीन बेटियों वाला परिवार कुटुंब में होने वाली घटनाओं में आर्थिक और शारीरिक भागीदारी करना रेलवे स्टेशन मास्टर के लिए बहुत कठिन था उन दिनों। भेड़ाघाट से जबलपुर साइकिल से आया जाया करते थे बाबूजी ।
अब नुक्कड़ वाली दुकान तक जाने के लिए हमें स्कूटी या बाइक चाहिए।
उन दिनों भारत आर्थिक रूप से बहुत मजबूत ना था । ऐसी स्थिति में मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला सिग्मेंट हुआ करता था। बाबूजी हिसाब किताब में कच्चे मेरी तरह। वे यह भी साबित नहीं करते थे कि उन्होंने कुटुंब के लिए क्या किया। जबकी लोग कागज़ पे लिखे हिसाब किताब दिखाकर एहसानों को दर्शाया करते थे । आज वही गुण मुझमें सरोपा भरा है । लोग बड़े बड़े हिसाब किताब सार्वजनिक करते हैं अपनी छोटी छोटी पर्चियां हम न तो जोड़ते न ही उसे प्रदर्शित करते । अब तो बेटी भी ज़िंदगी का हिसाब किताब पूछती है तो हम चुप्पी ओढ़ कर बैठे रहते हैं ।
आज आप बच्चे की आमदनी से परिचित नहीं करते न ही आप कहना चाहते हैं परंतु आजादी के बाद के भारत के सभी बच्चे यह हमारे से पहले वाली पीढ़ी अपनी कमाई अपने माता या पिता की गोद में डाल दिया करती थी। हमारे हरदा टिमरनी सिवनी मालवा क्षेत्र में जमीनों से उपजने वाली फसल उतनी नहीं होती थी जितनी होना चाहिए। कुटुंब में कोई किसान ना था हां हम सब गर्मियों में जाते थे और अपने अपने हिस्से का गेहूँ ले आते थे जो अक्सर अधिकतम 200 या 300 किलोग्राम हुआ करता था। कुल मिलाकर बैकग्राउंड भी बहुत कमजोर था बाबू जी और उनके बड़े भाइयों का। सभी के दिल में इच्छा थी कि सारे बच्चे अच्छे पढ़ लिख कर नौकरी करने लगें ताकि कुटुंब का भली-भांति भरण पोषण हो सके। ईश्वर का आशीर्वाद जी बहुत ताकतवर होता है रवि भैया सुभाष भैया की संतोष भैया हरीश भैया सतीश भैया कुछ ना कुछ काम जरूर करते थे। उस वक़्त लगता था कि हम परिवार की लायबिलिटी है । जब नौकरी नहीं करता था तब मैं अपराध बोध से ग्रसित था।
₹5 रोज से नौकरी शुरू करने वाले सतीश भैया नौकरी नहीं दिल जीतने का धंधा शुरू कर दिया था। जिस से मिलते हैं उसके हो जाते। हम सभी भाइयों के लिए जमीन बना रहे थे शहर जबलपुर में। उस दौर में प्राइवेट अकाउंटेंट इतना सम्मान अर्जित कर ले कि बाबूजी के आदेश पर घर के सामने एंबेसडर कार खड़ी हो जाए बहुत बड़ी बात थी आज ऐसे दृश्यों की कल्पना नहीं की जा सकती। जब कभी भी कहीं जाना होता परम आदरणीय ज्ञान आहूजा भैया कार जरूर भेज देते थे। आरके बिस्किट कंपनी के बिस्किट की खुशबू किचन के पहले वाले कमरे से और कभी-कभी तो किचन से बाहर तक बिखरा करती थी । 111 प्रीति मीटिंग सेंटर घमापुर चौक सबके लिए स्वेटर अवश्य आ जाती थी। सतीश भैया के इन सभी कामों को समझने में मुझे 2 साल लग गए । समझ नहीं आता था कि ये इतना काम करते क्यों है ..?
बड़ी बहन की शादी से लेकर सौभाग्यवती सीमा यानी छोटी बहन की शादी तक उनके काम अर्थ पूरे समाज और दुनिया ने जाना। इस बीच बीमा दफ्तर में सेठजी के प्रीमियम जमा करने जाने वाले सतीश भैया पर डेवलपमेंट ऑफिसर श्री एस.एन. मिश्रा जी की नजर पड़ी। उन्होंने भैया को एलआईसी की एजेंसी पकड़ा दी। अब लक्ष्य था बीमा करने का सबसे पहला बीमा फ्रांसिस भैया का हुआ जो विदेश चले गए और वहां से प्रीमियम डॉलर्स में भेजते थे फिर क्या था कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं यह परिभाषा हम सबने समझ ली । अपने बेहतर व्यवसाय और उपयोगिता के साध्य को सिद्ध करने के कारण सतीश भैया भारतीय जीवन बीमा निगम में डेवलपमेंट ऑफिसर बन गए थे। नौकरी तो उनकी पहले भी लग गई थी रेल विभाग में क्लास थ्री नंबर ट्रैकर। परंतु बाबूजी के घोर विरोध के चलते अप्वाइंटमेंट लेटर उनकी किसी फाइल में अभी भी दबा होगा।
भाई का बिना व्यवसाय इतना चमका की तीसरे या चौथे साल में ही कार्य के लिए पात्र हो गए । तब शहर में कुल 6000 कारें थी उनमें एक अपनी भी।
अरे हाँ ये कहां आ गए हम... आत्मकथा अपनी है तो अपनी बात लिखता हूं चलो वापस लौटते हैं
मुझे अच्छी तरह याद है कि इस उसके सहारे कभी पास में इनके कंधे पर बैठ कर स्कूल जाता था। उस दौर में स्कूल भी कम लगते थे गर्मी की ढाई माह की छुट्टी जाड़े की 1 माह की छुट्टी और संडे सेटरडे महापुरुषों के स्मृति दिवस आकस्मिक निधन छुट्टी की तमाम वजह हुआ करती थी। परंतु जितने दिन भी स्कूल चलते थे उन दिनों के 30% से 35% दिनों तक ही स्कूल जाने का सौभाग्य मुझे मिल पाता था जैसे तैसे मैट्रिक पास कर पाया। साइंस सब्जेक्ट दुश्मन लगता था और उसे ही पढ़ना मजबूरी थी। यह अलग बात है कि कालांतर में बेटी शिवानी ने कह दिया था कि मुझे साइंस लेने का दबाव मत डालना । मैं उससे सहमत इसलिए था कि विषय वही पढ़ा जाए जो अच्छा लगे। परंतु हमारे दौर में बायोलॉजी पढ़ने वाला श्रेष्ठ होता था। दूसरे नंबर पर साइंस तीसरे नंबर पर कॉमर्स और बाक़ी सारे गधे आर्ट विषय पढ़ा करते थे यह था कि मध्यवर्ग के मां-बाप का नैरेटिव था जो बच्चों को नौवीं क्लास से डॉक्टर इंजीनियर या बैंक अधिकारी समझने लगते थे। हमको भी बैंक परीक्षा देने के लिए तैयारी के लिए कहा जाता था । पर हम तो आवारागर्दी के एडिक्ट हो चुके थे।
फर्स्ट ईयर से ही छात्र राजनीति का चस्का जो हमको लग गया था । पहले वामपंथी समूह में शामिल हुए जब उनके कर्मों को देखा तो फिर समाजवादियों के साथ हो लिए वो भी रास ना आए तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को ज्वाइन किया। यहां ठहराव था यहां लोग संवाद के नाम पर कम्युनिस्ट छात्र संगठन कि लोगों की तरह कुतर्क नहीं करते थे। पता नहीं कितने बड़े बड़े राष्ट्रीय नेता जो आज भारतीय जनता पार्टी या केंद्र सरकार में ऊंचे ऊंचे ओहदों पर हैं या भविष्य में होंगे । इसी संगत में स्वामी विवेकानंद को पहचाना था, जहां से जीवन वहीं से बदलना शुरू हो गया । इस दौर में आजादी की लड़ाई से लेकर संघर्षरंत युवाओं के दायित्व पर बहुत कुछ पढ़ा, सीखा और समझा।
छात्र संगठन कि चुनावों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को शामिल करने की ज़िद जितेंद्र सिंह जी से अक्सर किया करता था और जितेंद्र जी अक्सर यही कहते थे तुम्हें नेता बनने की बड़ी जल्दबाजी है पहले मजबूत सिपाही तो बनो !
वैसे मुझे पॉलिटिकल इंटरेस्ट नहीं था परंतु मैं देखता था आंदोलनकारी लोग बस जलाते तोड़फोड़ करते तो सोचता था कि शायद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कन्वेंस करा पाए आंदोलन का तरीका यह नहीं है। मैं यकीन मानिए केवल विमर्श चाहता था वह भी सकारात्मक एक बात दिमाग में तेजी से घर कर गई थी कि ना तो युद्ध किसी भी समस्या का हल है और ना ही कुंठा किसी सुसंस्कृत समाज का निर्माण कर सकती है। 1971 का युद्ध याद है एक दिन अखबार पढ़ने और बीबीसी सुनने के बाद स्वर्गीय बाई का गुस्सा और दुख पढ़ा था उनके चेहरे पर जब अमेरिका के राष्ट्रपति ने इंदिरा जी के प्रति असंसदीय शब्द कहे थे । इंदिरा जी सर्वप्रिय थीं इसमें कोई शक नहीं उनके कठोर फैसले बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान के प्रति उनका सद्भाव के साथ समूचे पश्चिम पाकिस्तान यानी अब के बंगला देश की जनता जनार्दन के लिए करुणामय भाव था और यही बात उन्हें महान बनाती थी ।
तीसरी हिंदी पास मेरी मां विश्व पॉलिटिक्स के चरित्र को भलीभांति समझती थी वह ईदी अमीन के बारे में भी जानती थी तो वह अक्सर यह भी कहती थी- भारत वह देश है जहां विश्व बंधुत्व शब्द सबसे अधिक प्रभावशाली है और इसे बरकरार रखना चाहिए ।
मेरा सार्वजनिक जीवन
अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत तो स्कूल से ही हो गई थी। गोसलपुर में नौवीं क्लास में छात्र संघ के अध्यक्ष के पद पर चुनाव लड़ लिया परंतु हार गए हारना भी स्वाभाविक था 11वीं में पढ़ने वाले भैया जो सामने थे नाम भूल गया उनका। परंतु हर आयोजन में अपनी भूमिकाओं के कारण प्राचार्य ने मुझे सांस्कृतिक सचिव बना दिया। ना तो ऐसा कोई पद था नाही कोई सरकारी व्यवस्था थी परंतु कोई की शिक्षक मुझे हारता नहीं देखना चाह रहा था एक बार तो मुझे लगा कि शायद उनकी मेरे दिव्यांग होने पर संवेदना है परंतु मेरे एक गुरु ने बताया- कोई नहीं चाहता कि तुम्हारी प्रतिभा उपेक्षा हो तुम्हें मालूम है आज तुम्हारे विषय पर 2 घंटे स्टाफ रूम में चर्चा चलती रही। यह वह दौर था जब छात्र राजनीति पर दलगत राजनीति का कोई प्रभाव नहीं था। तब हम अपने शिक्षकों के बताए मार्ग को ही परम सत्य मान लेते थे बुराई भी नहीं थी क्योंकि वह गलत बात सिखाते ही ना थे। और इसी साल हमें सप्लीमेंट्री आ गई गणित में एक नंबर के डफर हम ऊपर से सार्वजनिक जीवन जीने की कोशिश ऐसे परिणाम आने स्वभाविक थे । उसी समय पूज्य दादी जी के निधन का समाचार मिला और हम जबलपुर आ गए
जहां बाबूजी के एक गुरु भाई ने हमारी दादी की मृत्यु के समय मातम पुर्सी के दौरान मेरे नवमी में सप्लीमेंट्री आने और हरीश भैया के बीएससी पार्ट वन में सप्लीमेंट्री आने की वजह से बाबूजी और भाई को यह सलाह दी थी कि-"इनको घर से निकाल दो तब आटे दाल का भाव समझेंगे और तमीज से पढेंगे ये बच्चे...!"
अपनी, अयोग्यता पर उनके मुखारविंद से सुनकर सीने में सैकड़ों भट्टियां धधक उठी थीं । पर क्या करें संस्कारों का पानी तभी बरसने लगा आंखों से भी और हृदय में भी ।
चलो कहानी जारी रखते हैं दर्द अपनी जगह है कहानी अपनी जगह .....!
मेरे विषय में अक्सर अयोग्यता का लेबल लगता रहता था लोगों की चर्चाओं में ।
हरीश भैया की शादी के बाद हमने तय कर लिया कि इलेक्शन लड़ेंगे चाहे एबीवीपी सपोर्ट करें या ना करें !
और जब यह ऐलान किया कि मैं डीएन जैन कॉलेज से प्रेसिडेंट शिप का इलेक्शन लडूंगा फिर क्या था मेरे साथी मुकेश राठौर अपने पैनल के कैंडिडेट भाई दिनेश यादव के साथ घर पहुंच गए । स्वर्गीय माता जी और बाबू जी को इस बात के लिए समझा रहे थे कि पढ़ने लिखने वाले लड़कों को राजनीति से दूर रखना रहना चाहिए। वास्तव में वे नहीं चाहते थे कि उनका कैंडिडेट मुझसे हार जाए। मेरे फॉलोवर्स की संख्या उन दिनों बहुत हुआ करती थी। और मेरे सहारे मुकेश राठौर के इलेक्शन जीतने की फुल गारंटी थी। और मैंने भी बाई बाबूजी की राय और दिनेश यादव के मृदुल आग्रह पर इलेक्शन ना लड़ने का फैसला कर लिया ।
हां एबीवीपी की गतिविधियों में सक्रिय रहा समाजवादियों से हमेशा अच्छा संबंध बनाकर रखा लेकिन साम्यवादियों से पता नहीं क्यों तभी से एलर्जी होने लगी थी ।
मुझे अफवाहों और झूठी चुगलियों नफरत थी । 1985 में एमकॉम करने के बाद नौकरी की तलाश बहुत तेज हो गई ट्यूशन पढ़ाना और पढ़ना पैसों की तंगी सिटी लाइब्रेरी वाला रास्ता दिखा दिया था। कॉम्पिटेटिव एग्जाम के लिए इतिहास पढ़ते पढ़ते लाइब्रेरी में मुंशी प्रेमचंद लाइब्रेरी में मुंशी प्रेमचंद राही मासूम रजा टॉलेस्टॉय चेखब कॉल मार्क्स एशियन हिस्ट्री भारतीय संस्कृति की सबसे महान पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय महात्मा गांधी लुइस ब्रेल पता नहीं कितने लेखकों और उनके द्वारा लिखे चरित्रों से मुलाकात हुई। पचासी में एमकॉम करने के बाद सोचा फुर्सत में क्या करें हितकारिणी लॉ कॉलेज से एलएलबी कर लेते हैं । सुबह वाली शिफ्ट में लड़कियां आती थी और हमारी शिफ्ट शाम को लगा करती थी । और उद्देश्य केवल छात्र संघ चुनाव था। एलएलबी बहुत सीरियसली नहीं कर रहा था एल एल बी सीरियसली करने वाले कई सारे मित्र आज भी हाईकोर्ट में है अरे वकील तो है ही भाई जस्टिस भी हो गए हैं। मैं नहीं चाहता कि प्रोटोकॉल के चलते उन सब के नामों का यहां जिक्र करूं ।
महात्मा गांधी पर मेरा दृष्टिकोण
गांधी सर्वकालिक प्रिय होते हुए भी उनके एक प्रयोगवादी होने के कारण असहमति का कारण बना। मेरी नजर में पूज्य बापू कई मुद्दों पर हमेशा प्रासंगिक ना थे ना रहेंगे । परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि गांधी को अस्वीकार करता हूं यह भ्रम निकाल देना अपने दिमाग से ।
मुझे गांधी का बर्ताव आजादी के समय की घटनाओं से बहुत दु:खी कर गया। तब जबकि कोलकाता में तड़पती देहों के गांधी का उद्विग्न ना होना और दिल्ली में प्रवासी हिंदुओं को शेल्टर ना देने वाली बात का जिक्र गांधी जी से मुझे दूर ले जाता है । नानी गांधी बाबा की जय करती थी वह भाव कभी भी मन से अलग नहीं हुआ। यही भावना तो सनातन सांस्कृतिक सामाजिक व्यवस्था का अमृत है ।
इस से जुड़ी एक घटना याद है जब मुझे एक लाइब्रेरी सिद्धिबाला बोस लाइब्रेरी में सुभाष चंद्र बोस की विप्लवी विचारधारा के विरोध में बोलना था। सुभाष चंद्र बोस को इतना पढ़ा था की उनके विरोध में वक्तव्य देना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। परंतु घड़ी परीक्षा की थी..! भाषण की कला का जौहर जो दिखाना था। संयोगवश पक्ष की वक्ता मेरी टीम की सदस्य कुमारी उषा त्रिपाठी ( जो बाद में डॉ उषा मिश्रा सहायक प्राध्यापक विभाग अध्यक्ष के रूप में नियुक्त थी साथ ही दुर्भाग्यवश पिछले माह नवम्बर 20 में वे कैंसर के कारण इस दुनिया में नहीं है ) को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके वक्तव्य का हिस्सा प्रस्तुत करता हूं -" सुभाष चंद्र बोस को बहुत चिंता थी इस देश की और यहां के नागरिकों की अतः उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया और अंग्रेजों से लोहा लेने चल पड़े.. और वे भारत आए निर्वाचित सरकार की बनाई!"
बात एकदम सही थी परंतु भाषण कला का जौहर जो दिखाना था.. हमने अपने वक्तव्य में कहा- मेरी पूर्व वक्ता ने बताया कि सुभाष चंद्र बोस जी को भारत की चिंता थी इसलिए उन्होंने यह कदम उठाया । सच कहूं सुभाष चंद्र बोस ने चिंता ही की थी और अगर वे चिंतन करते तो बापू के साथ अहिंसक आंदोलन में शामिल होकर भी यह काम कर सकते थे क्या जरूरत थी उन्हें दर-दर भटकने की हिटलर से मिलने की।
अहिंसक आंदोलन को प्रभावी प्रतिपादित करने के लिए यह वाक्यांश बहुत महत्वपूर्ण था। चिंता और चिंतन की व्याख्या भी कर डाली थी उस भाषण में चिंता के परिणाम हिंसक विप्लवी और विध्वंसक साबित कर दिए थे और यह कन्वेंस करा लिया था ऑडियंस और निर्णायक को कि समाज के प्रति सकारात्मक चिंतन का परिणाम सौम्य वातावरण का निर्माण होता है आजादी तो मिल ही जाती दूसरा विश्व युद्ध और उसके परिणाम क्राउन के लिए भयंकर थे । अपने इस पूरे भाषण में अपनी बात क्लियर कर दी मैं किसी एक समूह व्यक्ति को आजादी का से देने के लिए असहमत रहा हूं।
मुझे लगा कि वास्तव में यह वाद विवाद का विषय ही नहीं था सुभाष चंद्र बोस सर्वकालिक सुभाष बाबू कृष्ण हैं । मेरी नजर में गीता के साथ महाभारत पूरी पढ़ो सब कुछ साफ हो जाएगा। युद्ध हमेशा जरूरी नहीं है पर यदि कोई 5 गांव के बदले 1 इंच भी भूमि ना दे तो शंखनाद जरूरी है।
कुल मिलाकर डिग्री क्लास में पढ़ने वाले के मुंह से ऐसे शब्दों उम्मीद किसी ने ना की थी ।
हम दोनों प्रतिभागियों के लिए मजबूरन पहला स्थान उन आयोजकों निर्धारित करना ही पड़ा । आनन-फानन में बाज़ार से एक और कप मंगाया गया उसके साथ ही उपहार स्वरूप हमें गदर के फूल नामक पुस्तक भी मिली ।
आज का दौर बच्चों को अध्ययन नहीं कराता बल्कि जानकारियां उनके दिमाग में ठूँसता है । मौलिक चिंतन की बहुत कमी है। वैचारिक अकाल की स्थिति हर ओर है। बच्चे यंत्र बन गए हैं हां हार्ड डिस्क जिसमें जानकारी सुरक्षित हो सकतीं हैं पर उनका विश्लेषण बच्चे नहीं कर पाते।
तभी तो अधिकांश बच्चे साइबर लेबर बनके विदेशों में मजदूरी करते मुझे तो दिख रहे हैं आप भले ही उन्हें एनआरआई कहना चाहे तो कह सकते हैं।
अधिकांश बच्चे आरक्षण के बहाने वाला कवच ओड़कर कहते हैं कि हम कंपटीशन एग्जाम नहीं दे सकते क्योंकि एससी एसटी के लिए बहुत सारी सीटें आरक्षित है हमारा नंबर कैसे आएगा ?
समस्या गंभीर है परंतु मैं एक बात पूछना चाहता हूं अपने बच्चों से.." कि क्या आप 50% पदों के लिए खुद को काबिल साबित करने की कोशिश कर सकते हैं..?
यदि नहीं तो कारण यह मत बताइए कि आरक्षण होने के कारण हम कॉन्पिटिटिव एग्जाम में शामिल नहीं हो सकते । यह अपने आप को बचाने का रक्षा कवच है जिससे आप को शांति मिलती है वैसे ही यह डायलॉग बोलकर भी आप अपने आप को बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहे होते हैं ।
आपने देखा होगा कि आजकल वणिकों या कहें व्यापारी परिवारों के बच्चे दुकान रूपी कंफर्ट जोन से निकलकर कॉम्पिटेटिव एग्जामिनेशन दे रहे हैं और धड़ाधड़ आईएएस या स्टेज सर्विसेज में सफल भी हो रहे हैं। डिफेंस सर्विसेज में भी इनकी मौजूदगी तो बहुत कुछ कहती है ध्यान से सुनो समझ जाएंगे ।
मेरे एक मित्र है, मित्र क्या पता नहीं क्यों मैं छोटा भाई मानता हूं उनको नाम है रोहित बड़कुल जॉब में बहुत जूनियर है, । एलआईसी में कैरियर एजेंट के रूप में अपने आप को स्थापित करने वाले रोहित जी ने स्कूल के बाद कॉलेज का मुंह नहीं देखा डिग्री क्लास प्राइवेट पढ़ी पर परंतु उनने तय किया था कि पीएससी निकालना । पीएससी पास कर 2014 में उसने मुझे रिलीव किया जबलपुर के लिए। लक्ष्य तय हो तो सब कुछ कर तय है । वरना दुनिया और परिस्थितियों को दोष देते रहना पड़ता है आप ही बताओ ऐसा जीना भी कोई जीना है लल्लू..?
जिन बच्चों को इस बात का दर्द हुआ हो कि मैंने उन्हें साइबर लेबर कहा है तो उन्हें हतोत्साहित नहीं कर रहा हूं बल्कि कह रहा हूं कि आप इससे ज्यादा योग्यता रखते हैं आपको नीति निर्माण और निर्णय करने वाली पदों पर होना चाहिए था परंतु मल्टी नेशन कंपनियों के माया जाल में फंस कर आप ना तो इस देश के लिए कुछ कर पा रहे हैं और ना ही अपने मां-बाप के साथ रह पा रहे हैं। दिन भर बच्चों के विदेश में रहने की बात सोच सोच कर दुनिया को इंप्रेस करने वाले मां बाप भी रात को तकिए भिगोते हैं यह सच है और सच को व्यक्त करने में मुझे कोई असुविधा नहीं हो रही चाहे वह अंकुर हो सोनू हो या भविष्य में शिवानी या श्रद्धा हो ।
बच्चों तुम्हें अपने स्टेटस को बढ़ाना होगा तुम साइबर लेबर नहीं हो तुम निर्माता और नियंता हो।
मैं अपने मामा परिवार के बच्चों को देखता हूं... प्रतिस्पर्धा ना बढ़े इसलिए नाम नहीं ले रहा हूं पर कुछ बच्चों में लीक से हटकर काम करने की क्षमताएं उनके बचपन से ही नजर आती थीं उनमें से इंजीनियर स्वर्गीय अजय बाबू का नाम लेना नहीं भूलूंगा उनके जीवन में कर्म प्रधान ता का तत्व कूट-कूट कर भरा था , मेरे शेष सभी ममेरे भाई आज भी उसी तेवर के साथ काम कर रहे हैं जैसा उनको विजुलाइज करता था। ऐसे ही मेरे पिता पक्ष के भी बच्चे हैं। कुल मिलाकर अब यह तय करना होगा कि हम कंफर्ट जोन से कब निकलेंगे कैसे निकलेंगे और कैसे क्रिएटर और अच्छे एग्जीक्यूटर बनेंगे!
आज भी मानता हूं कि बहुत पिछड़ा हूं बहुत सारी चीजें मुझे नहीं मालूम कई जगह तो एकदम डफर खुद को पाता हूं। मिसफिट हूं.. !
कई लोग कहते हैं कि तुम रात रात क्यों जागते हो क्यों लिखते हो इससे क्या फायदा होगा क्यों किताबें पढ़ते रहते हो बीमार पड़ जाओगे ? उनसे कहना चाहता हूं कि अगर मैं रात भर नहीं जागूंगा तो तुम दिन में भी जागरण महसूस ना करोगे। पर ऐसा कभी कहा नहीं किसी से यह सोच कर
कि यह उनके मापदंड है जो यह सब सवाल करते हैं या ऐसे सुझाव देते हैं । माता पिता पृथ्वी पर हमें ईश्वर के आदेश से मनुष्य बनाकर प्रस्तुत कर देते हैं। हम हैं कि समाज के बनाए गए नियमों से चलने लगते हैं। सामाजिक नियम है पढ़ो लिखो नौकरी करो शादी करो और समाज का विस्तार करो यही समाज का कंफर्ट जोन है और इससे बाहर निकलना भी असंभव है।
होता भी यही है।
मेरे परिवार की ममेंरे भाई संजय चौरे की तरह मैं भी विवाह संस्था को अपने लिए उपयुक्त नहीं मानता था ।
परंतु बाई के आध्यात्मिक उपदेश ने चिंतन बदल दिया।
मैं यहां एक खास बात को उद्घाटित करना चाहूंगा जो अब तक किसी को भी नहीं मालूम और जानकर किसी को नाराजगी या दुख नहीं होना चाहिए ।
चलिए ठीक है इस बात को अगले किसी अंक में उजागर करूंगा आत्मकथा है ना पूरी ईमानदारी से लिखी जाएगी। जैसे कि स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा में कोई भी ऐसा विषय नहीं छुपाया है जो उन्हें बेईमान साबित कर सके उजागर किया है साफ-साफ लिखा है जिनमें बच्चन जी की आत्मकथा पढ़ी है अवश्य समझ गए होंगे आज के लिए इतना ही काफी है ।
क्रमशः जारी....
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