9.3.12

आज बसंत की रात गमन की बात न करना :गोपालदास नीरज़

वसंत का श्रृंगारी स्वरूप कवि मन को प्रभावित न करे ..!-असंभव है.. हर कवि-मन  कई कई भावों बगीचे से गुज़रता प्रकृति से रस बटोरता आ कर अपने लिखने वाले टेबल पे रखी डायरी के खाली पन्ने पर अपनी तरंग में डूब कर लिख लेता है गीत..नज़्म...ग़ज़ल.. यानी.कविता  उकेरता है शब्द-चित्र . जो दिखाई भी देतें हैं सुना भी जाता है उनको .. अरे हां.. गाया भी तो जाता है.. गीत सुरों पे सवार हो कर व्योम के विस्तार पर विचरण करता है .. बरसों बरस.. दूर तक़ देर तलक... इसी क्रम में नीरज जी की एक रचना अपने सुर में पेश कर रही हूं..
 


आज बसंत की रात
गमन की बात न करना
धूल बिछाए फूल-बिछौना
बगिया पहने चांदी-सोना
बलिया फेंके जादू-टोना
महक उठे सब पात
हवन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
बौराई अमवा की डाली
गदराई गेंहू की बाली
सरसों खड़ी बजाये ताली
झूम रहे जलजात
शमन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
खिड़की खोल चंद्रमा झांके
चुनरी खींच सितारे टाँके
मना करूँ शोर मचा के
कोयलिया अनखात
गहन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
निंदिया बैरन सुधि बिसराई
सेज निगोड़ी करे ढिठाई
ताना मारे सौत जुन्हाई
रह-रह प्राण पिरत
चुभन की बात न करना
आज बसंत की रात……
ये पीली चूंदर ये चादर
ये सुन्दर छवि, ये रस-गागर
जन्म-मरण की ये राज-कँवर
सब भू की सौगात
गगन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
__________________
गीतकार : गोपालदास नीरज़,स्वर : अर्चना चावजी,
__________________

5.3.12

बूंद से नदी बन जाने की उत्कंठा


बेशक बूंदें ही रहीं होंगी
जिनने एकसाथ
 सोचा होगा-"चलो मैली चट्टानों को
रेतीली मटमैली ढलानों को
धो आते हैं..!!
ऊसर बंजर को हरियाते हैं !!
मर न जाएं प्यासे बेज़ुबान
चलो उनकी प्यास बुझा आतें हैं...!!"
कुछेक बोली होंगी- "हम सब मिलकर धार बनेंगी..
सारी नदियों से विलग हम उल्टी बहेंगी
उल्टे बहाव का कष्ट सहेंगी..?
न हम तो...!
तभी उनको कुछ ने डपटा होगा
एक जुट बूंदों ने बहना
शुरु किया होगा तब

हां तब
जब न हम थे न हमारी आदम जात
तब शायद कुछ भी न था
पर एक सोच थी
बूंदों में
एक जुट हो जाने की
बूंद से नदी बन जाने की उमंग और उत्कंठा ..!
लो ये वही नदियां हैं
जिनको कहते हैं हम नर्मदा या गंगा !!
नदियां जो धुआंधार हैं-
काले मटमैले पहाड़ों को धोती
तुमसे भी कुछ कह रहीं हैं
एकजुट रहो तभी तो चट्टानों के घमंड
तोड़ पाओगे ....
वरना ऐसे ही बूंद-बूंद ही मर    जाओगे..!!


3.3.12

जबलपुर सम्भाग अटल बाल मिशन का सम्भाग स्तरीय प्रशिक्षण



                         जबलपुर। बच्चों को कुपोषण से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से जिले स्तर पर अटल बिहारी बाजपेयी बाल आरोग्य एवं पोषण मिशन के तहत् जिला स्तरीय कार्य योजनाऐं तैयार कराई गयी । मिशन मोड में‘‘ कुपोषण से मुक्ति के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रम को प्रभावपूर्ण एवं परिणाम मूलक बनाने के उद्देष्य से संभाग स्तर पर 5-5 दिवसीय प्रशिक्षण सत्र संचालित किये जा रहे है । श्री एस.सी. चौबे संयुक्त संचालक महिला बाल विकास जबलपुर संभाग के मार्गदर्शन में आयोजित प्रथम सत्र में जबलपुर,मंडला,बालाघाट,सिवनी छिंदवाड़ा,नरसिंहपुर,कटनी जिलों के 47 प्रतिभागी प्रशिक्षण में शामिल है । विभाग के मैदानी अमले को प्रशिक्षण प्रदान करेंगे ।जबलपुर सम्भाग स्तरीय  ट्रेनिंग आफ़ ट्रेनर्स के पहले चरण में दिये गए प्रशिक्षण में क्लास रूम प्रशिक्षण के अलावा क्षेत्रीय भ्रमण, रोल-प्ले,समूह-चर्चा का भी प्रावधान किया गया था. 
        जबलपुर संभाग में आयोजित इन प्रशिक्षण सत्रों की उपादेयता को रेखांकित करते हुए संयुक्त संचालक श्री एस. सी चौबे ने बताया कि ‘‘ मिशन मोड में कुपोषण नियंत्रण एवं पोषण स्तर में सकारात्मक सुधार के उद्देश्य से नियमित रूप से पदस्थ अधिकारियों को मिशन मुख्यालय से प्राप्त अनुदे्शों के अनुरूप 5 दिवसीय प्रशिक्षण दिया जा रहा है। प्रशिक्षण सत्र के प्रभावी एवं सुचारू संचालन हेतु मेडिकल कालेज चिकित्सालय के डा. रवीन्द्र विश्नोई एवं डा.ए.आर.त्यागी भोपाल से राज्य प्रशिक्षक श्रीमति पुष्पा सिंह प्रशिक्षक के रूप में उपस्थित है। सुश्री डिंपल पोषण अधिकारी यूनिसेफ भोपाल भी प्रशिक्षक में उपस्थित रहीं । प्रशिक्षण कार्यक्रम  के प्रबंधन में श्री अभिनव गर्ग श्री निषांत दीवान सुश्री तरंग  मिश्रा, श्रीमति रीता हरदहा का सहयोग उल्लेखनीय है।

प्रवासी कथा साहित्य और स्त्री – डॉ. अनिता कपूर (अमरीका)



ऐसा माना जाता है की साहित्य समाज का दर्पण होता है फिर चाहे वो भारतीय समाज हो या अपनाये हुए देश का समाज हो. प्रवासी भारतीयो की सोच भारत में हो रही गतिविधियों से भी संचालित होती है, और यह संचालित सोच प्रवासी लेखन में बखूबी दिखाई भी देती हैं, फिर चाहे वो कोई भी विधा हो. प्रवासी कथा साहित्य जिसका रंग-रूप भारत के पाठकों के लिए एक नयेपन का बोध देता है, कारण है,  प्रवासी कथा साहित्य में अपने अपनाए हुए देश के परिवेश, संघर्ष, विशिष्टताओं, रिश्तों और उपलब्धियों पर जानी -माने प्रवासी कथाकारों ने अपने लेखन के द्वारा एक भिन्न समाज से परिचय करवाया है। विषय समाज की ठोस समस्याओं से जुड़े होते हैं और नारी चरित्रों एवं परिवेश के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों और अन्याय का अनावरण भी किया जाता है। प्रवासी के लिए यह आसान नहीं होता कि वह अपने अपनाए हुए देश की संस्कृति, सभ्यता और रीति-रिवाज से पूरी तरह जुड़ पाए। उनकी जड़ें अपनी मातृभूमि, संस्कारों एवं भाषा से जुड़ी होती हैं। और जहां तक स्त्री की बात आती है तो सभी धर्मों और देशों में नारी का रुतबा हमेशा से दोयम दर्जे का रहा है। जो प्रवासी  रचनाकारों  की कथाओं में भी झलकता है.
प्रवासी कथा-साहित्यकारों में ऐसे बहुत से नाम है, जिनकी रचनाओं को पढ़कर आप बखूबी अनुमान लगा लेंगे कि आज भी विदेशों में रहते हुए भी वे दुनिया को भारतीय चश्में से देखते हैं, इसीलिए उनका लेखन नयेपन के बावजूद भी पाठक के दिल के करीब होता है और मन को छू जाता है.  अमरीका में विगत 25 वर्षों से रह रही जानी मानी कथाकार सुधा ओम ढींगरा जी के कहानी संग्रह, ‘कौन सी ज़मीन अपनी’, में यह कहानी
‘क्षितिज से परे’, पाठक को वाकई सोचने पर मजबूर कर देती है कि, औरत ही हमेशा त्याग की मूरत बनी रहे ,पुरुष चाहे भारत की जमीं पर रहता हो या विदेशी जमीं पर. कहानी की नायिका, सारंगी जो सिर्फ सत्रह साल की उम्र में अपने पति सुलभ के साथ कैनेडी एयरपोर्ट पर डरी -सहमी -सी उतरी थी और अमेरिका में पहले ही दिन उसके पीऍच.डी उम्मीदवार पति ने उसे ‘बेवकूफ़’ कह कर पुकारा था और चार पढ़े -लिखे और अच्छे कैरियर वाले बच्चों की माँ होने के बावजूद चालीस साल तक उसका पति उसे बेवकूफ़ कह कर पुकारता रहा, सारंगी त्याग और सहिष्णुता की देवी बनी सारे कर्तव्य चुपचाप निभाती रही। अंत में वह फैसला करती है कि उसे अपने पति को तलाक देना होगा, उसका पति अभी भी चालीस साल पहले की मानसिकता में जी रहा है.  दसवीं पास सारंगी , जिसने हर रोज़ पराये देश में संघर्ष किया, सोच और समझ दोनों में बहुत आगे निकल गई है. वह अब  और अपने पति से जुड़ी  नहीं रह सकती. उसकी प्राथमिकताएँ बदल गई है. सारी ज़िम्मेदारी  का निर्वाह करने के बाद आज वो आखिरकार हिम्मत जुटा पायी है…कि अपने आसमान की तलाश उसे करनी ही होगी, जहाँ वो उम्र के पड़ाव को भी पछाड़  सकती है. चूंकि कोई भी कहानी रिश्तों और समस्याओं की तर्कसम्मत प्रस्तुति होती है इसी कारण कहानी में समस्याओं का हल प्रस्तुत करने के लिए  लेखिका ने विदेशों में रह रहे भारतीयों ख़ास कर महिलाओं के बारे में एक गलतफहमी को दूर करने का सफल प्रयास किया है । अमरीका कि प्रसिद्ध लेखिका रचना श्रीवास्तव जी को विदेश जाकर जो माहौल दिखा, उसमे वो कहती है कि,  हम स्त्रियों की दशा थोड़ी कष्टप्रद होती है. भारतीय संस्कार और यहाँ के वातावरण में तालमेल बैठाना कठिन होता है. बहुत समय लगता है अपने आपको इस माहौल में ढालने के लिए. कभी किसी महिला का दर्द शब्दों में ढल कर कविता या कहानी का रूप ले लेता हैं. भारतीय समाज और विदेशी समाज की धारणाएँ अलग होते हुए भी …..यहाँ भी पुरुष सिर्फ अपने लिए ही जीता है…..इसकी मिसाल उनकी एक कहानी ‘पार्किंग’ है …जिसमे नारी पात्रों के जरिये रचना जी ने विदेशी समाज और भारतीय समाज की नारी के रिश्तों के प्रति सोच और त्याग को एक जैसा ही दर्शाया है, और पुरुष की स्वार्थी मानसिकता को भी. नायिका जूलिया का रूखा व्यवहार स्नेह को तब समझ आता है जब जूलिया उसे अपनी आपबीती सुनाती है कि, किस तरह वो पति के हाथों छली गयी है और बेटे का एक्सिडेंट ने उसे और भी तोड़ दिया है पर वो फिर भी जीती है बेटे की खातिर…..परिवेश कोई भी हो आज भी नारी ही चुपचाप सहती है परिवार और बच्चों की खातिर.
अमरीका में 30 वर्षों से प्रवासी होते हुए भी सुषम बेदी जी  भारतीय समाज की संस्कृति और रीति रिवाजों को भुला नहीं पायी, जहाँ आज भी स्त्री हर रस्मों-रिवाज़ को निभाने में पूरा सहयोग करती है. चूंकि इस कहानी में स्त्री विदेशी मूल की है, तो उसका एक अलग ही रूप दर्शाया गया है जो भारतीय स्त्री से कहीं भी मेल नहीं खाता, और उसकी पीड़ा नायक सहता है. सुषम बेदी जी की कहानी ‘अवसान’ में नायक शंकर अपने दोस्त दिवाकर का अंतिम संस्कार हिंदू रीति से करना चाहता है; परंतु उसकी अमेरिकी पत्नी हेलन चर्च में ही सारी औपचारिकताएं पूरी करना चाहती है. यहाँ नारी का दूसरा रूप दर्शाया है जो ‘पार्किंग’ कहानी की नायिका के बिलकुल विपरीत है, जबकि दोनों नायिकाएँ अमरीकी मूल की हैं. हेलन शंकर का साथ न देकर जिद पर अड़ी हैं ,जिसके चलते शंकर , पादरी की क्रिया खत्म होते ही गीता के श्लोकोच्चारण से अपने मित्र के अंतिम संस्कार की क्रिया को पूर्ण करता है और फिर वो कैसे बहुत संयत तथा हल्का महसूस करता है।
ब्रिटेन की शैल अग्रवाल जी  की कहानी ‘वापसी’ मे परंपरा तथा आधुनिकता के अन्तर्द्वन्द्व में फंसी नायिका पम्मी अपने घर-परिवार की मान-मर्यादा के लिए अपनी खुशियों तथा आकांक्षाओं का गला घोंट देती है। नारी को फिर त्याग की मूर्ति दिखाया है. उसके हिसाब से हित के लिए लिया गया निर्णय सौदा नहीं, त्याग होता है और वह कहती है कि मैं ही क्या हमारे यहाँ तो हजारों पम्मियाँ सदियों से ही करती आ रही हैं. नारी-हित की बातें करने वाले इस देश में बस यही होता आया है। पहले राधा-कृष्ण अलग किए जाते हैं ;फिर उनके मंदिर बना दिए जाते हैं…आदत डाल लो तो समुंदर में तैरती मछली भी खुशी-खुशी काँच के बॉल में तैरने लग जाती है।’ (पृ. 42) परंपरा तथा आधुनिकता के अन्तर्द्वन्द्व में फँसी पम्मी अंततः हेमंत के साथ जाने को तैयार हो जाती है और खास बात तो यह कि उसकी दादी भी उसकी वापसी के लिए अपनी सहर्ष सहमति देती है. कहानी के अंत को पढ़कर पुरानी पीढ़ी की नारी (दादी) को नये परिवेश में ढलते दिखाना कहीं न कहीं बदलते समाज का रूप है …चाहे धीरे धीरे ही सही.
नारी का एक विश्व प्रसिद्ध रूप कर्मठता का भी है, चाहे देशी धरती या विदेशी. महिला चाहे तो अपनी मेहनत और लगन से कुछ भी हासिल कर सकती है और यह लंदन की उषा राजे सक्सेना जी कहानी, ‘बीमा बीस्माट’ एक बिल्कुल नये कथानक से पाठकों को परिचित कराती है। कहानी एक शिक्षिका द्वारा एक अर्धविक्षिप्त बालक बीमा बीस्माट को एक जिम्मेवार ब्रिटिश नागरिक बनाने की कडी मेहनत, लगन और समर्पण को प्रस्तुत करती है।
गौतम सचदेव की कहानी ‘आकाश की बेटी’ साधना नाम की स्त्री के त्यागपूर्ण तथा संघर्षमय जीवन की कथा है। घर-परिवार के सारे रिश्तों को तोड़कर व तमाम सुख-सुविधाओं को छोड़कर जिस देविंदर के प्यार के लिए साधना झूठ बोलकर इंग्लैंड चली जाती है, वहाँ जाने पर देविंदर द्वारा छली जाती है। देविंदर का रुखा व्यवहार तथा एक अन्य ब्रिटिश मेम शाइला से प्यार उसे तलाक के लिए मजबूर कर देता है। दूसरी शादी में भी उसे इसी प्रकार की समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। वह अपनी बेटी बबली को भी गँवा देती है। अपने घर के दालान में कबूतरों को दाना चुगाती साधना के जीवन में आई एक नई कबूतरी, जिसकी शरारतें कुछ-कुछ बबली से मिलती-जुलती हैं। अब साधना उसी के इंतजार में रहती है और उसी को जीने का सहारा मानकर खुश रहती है.
प्रवासी कथाकारों ने अपने साहित्य के जरिये स्त्री के हर रूप को शब्दों में बाँध बारीकी से दर्शाने के बहुत ईमानदारी से कोशिश की है. अमरीका की  ही एक और कहानीकार पुष्पा सक्सेना जी की कहानी ‘विकल्प कोई नहीं’, में माँ को बेटे के चले जाने के बाद , दर्द को छिपाकर सिर्फ बहू की आने वाली लंबी जिंदगी के बारे में सोच कर, बहू का बेटी की तरह कन्यादान करना और बहू का अतीत से बाहर न आ सकना , बारीकी से दिखाया है. और औरत का यह रूप जहाँ, वो सास से माँ बन कर फिर एक मार्गदर्शक के नाते बहू सौम्या को समझाना कि, ‘दूसरा पति ,पहले का विकल्प नहीं हो सकता’, नारी की बुद्धिमत्ता का  द्योतक है. और दूसरी तरफ बिलकुल इसके विपरीत लंदन के सुप्रसिद्ध कथाकार तेजेन्द्र शर्मा जी कि कहानी ‘देह की कीमत’, में अपने पति हरदीप को, जिसके साथ पम्मी ने सिर्फ 4-5 माह ही व्यतीत किए थे , जिसे वह विदेशी धरती जापान में खो चुकी है, उसके दुखों और भविष्य की परवाह न करते हुए, बीजी (सास) ऐसे विषम क्षणों में भी तिजारत और व्यावहारिक फायदे नहीं भूलती. बेटे की मौत के बाद मित्रों द्वारा चंदे के भेजे पैसे बहू को न मिल पाये, बल्कि घर में ही रहे, यह सोचकर वो अपने दूसरे बेटे से विधवा बहू पर चादर ओढ़ाने की बात करती है. औरत के ऐसे स्वार्थी चेहरे को तेजेन्द्र जी ने बड़ी ही कुशलता से उकेरा है. एक और प्रवासी कथा लेखिका उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ में औरत का बिलकुल अलग रूप देखने को मिलता है जो घर-गृहस्थी और बच्चों के कारण वर्षों पति से अलग रहती है और जब सेवानिवृत्त हो कर पति साथ रहने आता है तो सब कुछ बदला हुआ पाता है. यहाँ तक कि पत्नी भी साथ नहीं रह पाती, अंतराल प्यार खतम कर चुका होता है.
कैनेडा की  जानी मानी कथा लेखिका सुदर्शन प्रियदर्शिनी जी  ने अपनी कहानी ‘धूप’ के माध्यम से नारी के मन के  अंतरद्वंद्व को उकेरा है. जिसमे नायिका रेखा अमरीका की धरती पर कदम रखते हुई खुश है. समय के साथ उसे महसूस होता है की उसका पति बिलकुल अमरीकन बन चुका है और स्वार्थी भी. जैसे दूसरों की स्कीमों पर बने घरों में उम्र कट रही है. अपनी मनपसंद की चौखट कभी मिल ही नहीं पाएगी, इसलिए दूसरों के बनाए हुए साँचों में ढल और अपना नापतौल भूलने से पहले वह किस तरह से समझदारी और हिम्मत से फैसला लेती है. काबिले तारीफ है.
कुल मिला कर प्रवासी-साहित्य में कथाकारों ने अपनी पारखी नज़रों और पैनी कलम से स्त्री के संघर्ष ,त्याग, साहस और बुद्धिमता का ऐसा ख़ाका खीचने का प्रयास किया है, जिसमे देशी और विदेशी धरातल पर पाठकों को लाकर एक सवालिया निशान बना, उन्हे समाज में बदलाव लाने का न्योता देने का काम कर रहे हैं. देशी मिट्टी में देशी संस्कारों की सौंधी महक से सराबोर इन कहानियों से गुजरते हुए अपने देश, अपनी मिट्टी और अपनी संस्कृति के प्रति आस्था और विश्वास में बढ़ोतरी होती है।
- डॉ. अनिता कपूर

29.2.12

जयपुर और दिल्ली के बाद जबलपुर में लगाऊंगा कविता पोस्टर प्रदर्शनी : विनय अम्बर

जी हां मेरी ही कविताएं हैं विनय अम्बर के
बनाए पोस्टर्स में........
जयपुर और दिल्ली में एक्ज़ीबीशन लग चुके हैं..



 विनय अम्बर ने अल्टीमेटम दे दिया था गिरीश भैया कल कविताएं मिल ही जानी चाहिये..
दस कविताएं.. न उससे भी ज़्यादा कविताएं दीं विनय को.......
   खूबसूरती के साथ उकेरे गए चित्रों के संग साथ मेरी कविताएं लिख दीं विनय भाई ने.........

कविता पोस्टर दिसम्बर २०११ को जयपुर में लगे थे
फ़रवरी में विनय ने दिल्ली में लगाए...........
कल विनय ने बताया
"भैया. जबलपुर में लगाऊंगा कविता पोस्टर प्रदर्शनी."





ये हैं विनय-अम्बर  जबलपुर को जिस पर पूरा भरोसा है...मैं  भी इनके उजले कल को देख पा रहा हूं.........
जो बहुत नज़दीक है............
जब आप पूछेंगे -जी विनय को आप जानते हैं..?
 

28.2.12

तो फ़िर द हिंदु को ही माफ़ी मांगना चाहिये लक्ष्मी शरद के विवादित आलेख पर

Return to frontpage
"The-Hindu" में प्रकाशित एक आलेख का सिंहावलोकन ब्लाग पर ज़िक्र करते हुए जब श्री राहुल सिंह जनता का ध्यान आकृष्ट कराया किंतु न तो अनुशासन हीन लेखिका ने किसी भी प्रकार से अनुशासन हीनता के लिये क्षमा चाही और न ही अखबार ने कुछ कहा. अपितु महिला आयोग द्वारा मामले को दुर्भाग्य-पूर्ण बताया वहीं ब्लागर एक जुट नज़र आ रहे हैं. रश्मि  रविजा ,संतोष त्रिवेदी, भारतीय नागरिक - Indian Citizen,विष्णु बैरागी,संजय @ मो सम कौन , डॉ॰ मोनिका शर्मा,सुनीता  शर्मा ,अभिषेक मिश्र ,खुशदीप  सहगल ,प्रवीण पाण्डेय,डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ,अली ,लोकेन्द्र  सिंह  राजपूत,यशवन्त माथुर  ,वीरुभई ,संगीता स्वरुप ( गीत ) ,अनूप शुक्ल,संजय  मिश्र  'हबीब ' ,राजेश उत्‍साही,आशा जोगळेकर,उड़न  तश्तरी,ज्ञान्दुत्त  पाण्डेयईश्वर  खान्देलियामहेंद्र  वर्मा ,केवल राम संजीत  त्रिपाठी,जी.के. अवधिया ,वरुण कुमार सखाजी,रमाकांत  सिंह,देवेन्द्र पाण्डेय ,अरविन्द  मिश्र,सतीश सक्सेना,अविनाश  चन्द्र ,कौशलेन्द्र,शिखा  वार्ष्णेय,प्रतिभा सक्सेना,अतुल  श्रीवास्तव,ललित शर्मा,हेमन्‍त वैष्‍णव,सतीश पंचम,विवेकराज सिंह,ललित  कुमार,अभिषेक मिश्र,सुज्ञ,पी .एन . सुब्रमनियन,काजल कुमार Kajal Kumar ,देवेन्द्र  दत्त  मिश्रसंतोष त्रिवेदी,किशोर   दिवसे , सरिता  ठाकोरे ,अरुणेश सी  दवे,श्रद्धा,विवेक  रस्तोगी ,राकेश  तिवारी,pkmgkp अभिषेक  ओझा,शाहनवाज़,नीरज रोहिल्ला, सहित सारा ब्लॉग-जगत, एक जुट नज़र आ रहा है,  
      सभी ब्लागर इस बात को लेकर छुब्ध हैं कि -"सस्ती लोकप्रियता की लोलुप लेखिका" के मानस में कोई हलचल क्यों नहीं हो रही..? उफ़्फ़ ये बेगैरत अंदाज़. मेरा मानना है कि  आप केवल इस मसले को अगर यहीं एकाध पोस्ट तक सीमित रखेगें तो तय है ऐसी घटनाओं की पुनर्रावृत्ति अवश्यम्भावी है. हम ब्लॉगर अपमे दायित्व को बेखौफ निबाहें..खूब भर्तस्ना करें  ऐसे कुत्सिस प्रयासों की जो सामूहिक रूप से  लैंगिक आधार पर किसी का भी अपमान करते नज़र आयें.
      बहारहाल अभी आप इस देवी को इ मेल भेज कर अपना सन्देश दे सकतें हैं. lakshmi.sharath@gmail.com              

26.2.12

जो गीत तुम खुद का कह रहे हो मुकुल ने उसको जिया है पगले




कि जिसने देखा न खुद का चेहरा उसी  के  हाथों  में  आईना है,
था जिसकी तस्वीर से खौफ़ सबको,सुना है वो ही तो रहनुमां है.
हां जिनकी वज़ह से है शराफ़त,है उनकी सबको बहुत  ज़रूरत-
वो  चार लोगों से डर रहा हूं… बताईये क्या वो सब यहां हैं..?
अगरचे मैंने ग़ज़ल कहा तो गुनाह क्या है.बेचारे  दिल का...
वो बेख़बर है उसे खबर दो    कि उसके चर्चे कहां कहां हैं..?
वो लौटने का करार करके गया था, लेकिन कभी न लौटा-
करार करना सहज सरल है- निबाहने का ज़िगर कहां है .
जो गीत तुम खुद का कह रहे हो मुकुल ने उसको जिया है पगले
किसी को तुम अब ये न सुनाना सभी कहेंगे सुना- सुना है .

25.2.12

जितनी ज़ल्द हो सके मन से कुण्ठा को विदाई दिलाना ज़रूरी है.


                           उदास आंखों में सपनों ने जगह बना ही ली . अक्सर हम सोचा करतें हैं कि हम सबसे ज़्यादा दुखियारे अकिंचन हैं.हमारी आदत है ऊंचाईंयों तक निगाह करने की. और फ़िर खुद को देखने की. अब बताईये परबत देख कर आप खुद को देखेंते हैं तब  तो सामान्य सी बात है कि खुद को नन्हा महसूस करेंगे ही. बस यहीं कुंठाएं जन्म ले लेतीं हैं. हम खुद को असहज पाते हैं.    

दस बरस का था तब मुझे लगा कि मैं क्रिकेट खेल सकता हूं और फ़िर कोशिश की बैसाखियों के सहारे दो रन बनाए भी. दूसरी ही बाल पर क्लीन बोल्ड. बोल्ड होने से अधिक पीढा थी खेल न पाने की. बाल मन अवसाद से सराबोर हुआ . रोया भी ....खूब था तब
      रेल स्टेशन के क़रीब रेल्वे  क्वार्टर में  अक्सर दुख:द खबरें मिला करतीं थीं. उस दिन स्कूल से लौटते वक़्त देखता हूं कि एक इंसान जाने किस भ्रम के वशीभूत हुआ रेल पटरी पार करने के बाद वापस लौटा और यकायक रेलगाड़ी की चपेट में आ गया.. मेरी आंखों के सामने घटा ये सब ये क्या .. उफ़्फ़ दौनों टांगें .. खुद से खूब सवाल करता रहा -"बताओ, अब वो जी भी गया तो क्या सहजता से चल सकेगा..?     
  अर्र अब उस बेचारे के तो दौनों पांव..?" 
   मुझसे ज़्यादा बुरी दशा में है वो.. उसके तो दौनों पैर.. ही न होंगे.. अब 
   जी हां उसी दिन से मन का अकुलाहट से रिश्ता ही टूट गया. 
  कहानी का इशारा है कि जितनी ज़ल्द हो सके मन से कुण्ठा को विदाई दिलाना ज़रूरी है. 
       पर वयस्क होने पर कुण्ठाएं बेलगाम हो जातीं है. अक्सर बच्चों में बगावती तेवर आपने देखे होंगे.ये ही बच्चे बड़े होकर एक बेलगाम ज़िंदगी को जीते हैं. सही वक़्त है बचपन जब आप बच्चों को अभावों कमियों पराजयों से मुक़ाबला करना सिखा सकते हैं...



   ज्ञान मत बांटिये भाषण मत दीजिये दिखाइये उनको अभाव ग्रस्त जीवनों की परिस्थितियाँ . अक्सर हम ग़रीब, बेसहारा यतीमों को "अनाथ" कह कर दया भाव से देखते हैं. मेरे एक मित्र ने मित्रों का नज़रिया ही बदल दिया. जी हाँ वही दीपेंद्र बिसेन जी ने.  अनाथ नहीं मानते ऐसे बे सहारा बच्चों को .
तस्वीरें बता रहीं हैं बाल-गृह के बच्चे अब सुनहरे सपने देख रहें हैं. खेल रहें हैं पढ़ रहे हैं.. योग सीख रहे हैं.. 
 तभी तो मैंने भी तय किया है इन बच्चों  के साथ सपरिवार एक दिन अवश्य बिताउंगा ..  
मेरे बच्चे समझेंगे अभाव से साहस कैसे हासिल होता है. 
जानेंगें ये भी कि ये वो बच्चे हैं जिनको जिद्द शब्द के मायने नहीं मालूम.. 

इन बच्चों की आंखों  में सपने आने लगे हैं.. सपने पूरे भी होते जा रहे है, वे भी पार्क में जाते हैं..
  
                                                                                अबोले जंगल में सरसराते पत्तों  की आवाज  सुनते  ये बच्चे कितने उमंग से निकल पड़े हैं जीवन यात्रा पर ..............!! 
जाने कौन इनमें से किसी करिश्मे को आपके सामने ले आए 



जो भी हो एक दिन इनके साथ बिताने से महसूस होता है कि "जीवन के मायने क्या हैं..?"

अंत में दीपेंद्र भाई को एक बार फिर आभार तस्वीरें उपलब्ध कराने के लिए.
तो मित्रो आप आ रहें हैं मिलने..... इन बच्चों से 

24.2.12

बहुत प्रिय हैं पादुकाएं.. आपको मुझको सभी को अगर सर पर जा टिकें तो रुला देतीं हैं सभी को.

इन पे अब ताले लगा दो ताकि ये न चल सकें..
ज़ुबां की मानिंद इनको चलने की बीमारी लग गई.


वो कतरनी सी चले हैं..ये सरपट गाल पर
यक़बयक़ ये जा चिपकती चमकते से भाल पर 
रबर और चमड़े की किसी की भी बनी हो
असरकारक हो ही जातीं दोस्तों की चाल पर 
देवताओं से अधिक मन में पादुकाओं की लगन
इनके चोरी जाते ही,सुलगती मन में अगन..
बहुत प्रिय हैं पादुकाएं.. आपको मुझको सभी को 
अगर सर पर जा टिकें तो रुला देतीं हैं सभी को.
जागती जनता मशालें छोड़ जूते हाथ ले 
सरस चिंतन से अभागी बढ़ा लेती फ़ासले.




  

23.2.12

वर्जनाओं के विरुद्ध खड़े : सोच और शरीर

लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी  कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्था पर खास कर यौन संबंधों  पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब  पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं  दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती पर अब  मुझे जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो  " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन" को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण "सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी"
वेब-दुनियां से साभार
  यह कोई भविष्यवक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है. जिसे कोई बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
   सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध  सोच और शरीर का खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद  नगरों से ग्राम्य जीवन तक असर डाल सकता है.  
     आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक ज़रूरत है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है ऐसा नहीं है कि इसके उदाहरण अभी मौज़ूद नहीं हैं.बस लोग इस से मुंह फ़ेर लेते हैं.
*ओशो का इस संबंध में एक अजीबोगरीब तर्क था कि - विवाह के पूर्व ही मानसिक शारिरिक सामंजस्य बने रहने की पुष्टि कर लेनी चाहिए तब विवाह बंधन में बंधना चाहिए । ओशो से इस मुद्दे पर मेरी पूर्णतया असहमति है । समाज ओशो का कम्यून नहीं है । उनसे न समाज शासित है न मैं ।*
                                      पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां अवश्य किंतु तब जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो तब ही यह सम्भव है . ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान केवल कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श देता है. 
                 सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा एक भय का दर्शन कराती है तथा संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे..........         
      
आभास को सुनिये नाटी एट 40 में

http://player.raag.fm/player/flash/albumtrack.php?artist=3&album=33965

16.2.12

तस्वीर ही बदल दी : संवेदनशील अधिकारी दीपेंद्र सिंह के ज़ज़्बे को सलाम

संवेदनशील अधिकारी दीपेंद्र सिंह बिसेन
    बाल-गृह जबलपुर में कोई दस बरस पहले गया था मैं.... मुझे अच्छी तरह याद है इस संस्थान में प्रवेश द्वार से ही उपेक्षा एवम नैराश्य का वातावरण पहली ही नज़र में मुझे दिखाई दे गया था.बेसहारा बच्चों के लिये स्थापित आवासीय संस्था की स्थिति देख कर घोर निराशा लिये लौटा था. पिछले बरसों में मध्य-प्रदेश सरकार के निर्णय अनुसार महिला बाल विकास विभाग को बच्चों एवम किशोरों के लिये संचालित कार्यक्रमों/योजनाओं के क्रियांवयन का दायित्व गया.जबलपुर में संचालित शासकीय बाल-गृह भी इसी निर्णय के तहत महिला बाल विकास विभाग को हस्तांतरित किया गया. जिसकी बागडोर संवेदनशील अधिकारी दीपेंद्र सिंह बिसेन जो बाल विकास परियोजना अधिकारी के रूप में पदस्थ हैं को सौंपी गई. इंजिनियरिंग के विद्यार्थी होने के बावज़ूद संवेदनात्मक भाव से परिपूर्ण हैं  दीपेंद्र . तभी तो लीक से हटकर काम करने का जोखिम भी उठाकर तस्वीर बदलने के प्रयास में लग गए.बाल-गृह के बच्चों के पैर में चप्पल न देख मन में उदासी होना जायज थी.  जाड़े के पहले अपने बच्चों की तरह उन बच्चों के तन पर ऊलन कपड़ों की चिंता भी सता रही थी दीपेंद्र को जो बाल-गृह में रह रहे थे. मित्रों से परामर्श किया. कुछ क़दम खुद ने उठाए कभी साथियों से आग्रह किया. किसी को भी कोई आपत्ति क्यों होती जिसे जितना मन में आया सहयोग किया.बच्चों को शैक्षिक व्यवस्था का अभाव भी चिंता का विषय था... यानी संस्थान की समूची कमियां खत्म करते हुए बच्चों को भरपूर बचपन जीने देने की स्थिति में लाना. दीपेंद्र सफ़ल हुए यूनिसेफ़ के सौजन्य से बाल-गृह में अब एक स्कूल संचालित है. संस्थान की दीवारें अब गंदगी से नहीं खूबसूरत रंगों से रंगी हैं. बच्चे क्लास रूम में पढ़ते हैं...शुद्ध पानी पीते हैं. सुबह वेद-मंत्रों भजनों से जागते हैं बाल गृह के बच्चे. सबके पास क़िताबे कापियां हैं उनकी आंखें सपने भी देखतीं हैं... बच्चे पिकनिक भी तो जाते हैं. योगाभ्यास, संगीत, समूह चर्चा, यानी वो सब जो एक परिवार के बच्चे को हासिल होता है उनको भी हासिल हो रहा है..अब तो अखबार भी छापते हैं ऐसी खबरें...     
                                     //बालगृह में दस दिवसीय योग शिविर //
          महिला एवं बाल विकास विभाग तथा योग केन्द्र रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के तत्वावधान में बालगृह, गोकलपुर में 10 दिवसीय योग प्रशिक्षण शुभारंभ किया गया ।  14 फरवरी तक चलने वाले इस योगप्रशिक्षण शिविर में 8 से 16 वर्ष की उम्र के लगभग 52 बच्चों को योग के प्रारंभिक अभ्यासों, सूर्य नमस्कार एवं प्राणायाम से परिचित कराया जायेगा। उक्त जानकारी देते हुए बाल गृह के अधीक्षक एवं परियोजना अधिकारी दीपेन्द्र सिंह बिसेन ने बताया किबच्चों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से इस शिविर का आयोजन किया जा रहा है ।दिवसीय इस प्रशिक्षण शिविर का संचालन योग केन्द्र, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से सम्बद्धयोगाचार्य वर्षा अवस्थी एवं सलिल समाधिया द्वारा किया जा रहा है । योगाचार्या वर्षा अवस्थी ने बताया कि इस शिविर में बच्चों को एकाग्रता बढ़ाने एवं स्मृति प्रखर करने सेसंबंधित योगासनों का विशेष प्रशिक्षण दिया जा रहा है । इस कार्यक्रम के शुभारंभ अवसर पर परियोजना अधिकारी  मनीष शर्मा, योगाचार्य डॉ. आदित्य नारायण शुक्ल, डॉ. चिन्ताहरण बेताल, डॉ. रेखा काकोड़िया एवं किशोर गृह के शेख मुबारक, संतोष पटेल, प्रकाश परिहार एवं प्रवीण कढ़ार उपस्थित थे ।

Wow.....New

विश्व का सबसे खतरनाक बुजुर्ग : जॉर्ज सोरोस

                जॉर्ज सोरोस (जॉर्ज सोरस पर आरोप है कि वह भारत में धार्मिक वैमनस्यता फैलाने में सबसे आगे है इसके लिए उसने कुछ फंड...