वसंत का श्रृंगारी स्वरूप कवि मन को प्रभावित न करे ..!-असंभव है.. हर कवि-मन कई कई भावों बगीचे से गुज़रता प्रकृति से रस बटोरता आ कर अपने लिखने वाले टेबल पे रखी डायरी के खाली पन्ने पर अपनी तरंग में डूब कर लिख लेता है गीत..नज़्म...ग़ज़ल.. यानी.कविता उकेरता है शब्द-चित्र . जो दिखाई भी देतें हैं सुना भी जाता है उनको .. अरे हां.. गाया भी तो जाता है.. गीत सुरों पे सवार हो कर व्योम के विस्तार पर विचरण करता है .. बरसों बरस.. दूर तक़ देर तलक... इसी क्रम में नीरज जी की एक रचना अपने सुर में पेश कर रही हूं..
आज बसंत की रात
गमन की बात न करना
धूल बिछाए फूल-बिछौना
बगिया पहने चांदी-सोना
बलिया फेंके जादू-टोना
महक उठे सब पात
हवन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
बौराई अमवा की डाली
गदराई गेंहू की बाली
सरसों खड़ी बजाये ताली
झूम रहे जलजात
शमन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
खिड़की खोल चंद्रमा झांके
चुनरी खींच सितारे टाँके
मना करूँ शोर मचा के
कोयलिया अनखात
गहन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
निंदिया बैरन सुधि बिसराई
सेज निगोड़ी करे ढिठाई
ताना मारे सौत जुन्हाई
रह-रह प्राण पिरत
चुभन की बात न करना
आज बसंत की रात……
ये पीली चूंदर ये चादर
ये सुन्दर छवि, ये रस-गागर
जन्म-मरण की ये राज-कँवर
सब भू की सौगात
गगन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
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गीतकार : गोपालदास नीरज़,स्वर : अर्चना चावजी,
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