 लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी  कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर
लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी  कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर |  | 
| वेब-दुनियां से साभार | 
   सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध  सोच और शरीर का खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद  नगरों से ग्राम्य जीवन तक असर डाल सकता है.  
     आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक ज़रूरत है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है ऐसा नहीं है कि इसके उदाहरण अभी मौज़ूद नहीं हैं.बस लोग इस से मुंह फ़ेर लेते हैं.
*ओशो का इस संबंध में एक अजीबोगरीब तर्क था कि - विवाह के
पूर्व ही मानसिक शारिरिक सामंजस्य बने रहने की पुष्टि कर लेनी चाहिए तब विवाह बंधन
में बंधना चाहिए । ओशो से इस मुद्दे पर मेरी पूर्णतया असहमति है । समाज ओशो का
कम्यून नहीं है । उनसे न समाज शासित है न मैं ।*
                                      पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां अवश्य किंतु तब जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो तब ही यह सम्भव है . ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान केवल कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श देता है. 
                 सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा एक भय का दर्शन कराती है तथा संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे..........         
आभास को सुनिये नाटी एट 40 में
http://player.raag.fm/player/flash/albumtrack.php?artist=3&album=33965
http://player.raag.fm/player/flash/albumtrack.php?artist=3&album=33965
 
 
 
